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{खण्ड-1}
।। त्रेता युग का अंत।।
त्रेतायुग में सीता माता के धरती के गर्भ में चले जाने के कुछ महीनों के बाद जब श्रीराम चन्द्र ने अपने परीवार को बताया कि वे श्री हरि विष्णु के अवतार हैं और सीता और लक्ष्मण क्रमषः लक्ष्मी और शेषनाग के अवतार ह,ै तो उनके परीवार वाले स्तब्ध हो गये। खास कर कैकयी श्रीराम जी से क्षमा याचना करने लगी। तब श्रीराम चन्द्र ने कैकयी को समझाया और कहा कि आपके कारण हीं संसार से समस्त राक्षसों का अन्त हुआ है, न मेरा वनवास होता और न हीं उन दुष्ट राक्षसों का अन्त करता। इतना कहकर श्रीरामजी ने अपने लोक बैकुण्ठ धाम प्रस्थान करने की बात कहीं इस पर उनके मंझले भाई भरत ने हाथ जोड़कर विनती करते हुए कुछ दिन और ठहरने को कहा और श्री हरि विष्णु सहमत हो गये। कुछ महीनांे के बाद श्री हरि विष्णु ने अपने पुत्र लव-कुष को अयोध्या का राज-पाट सौंप कर शेषनाग के साथ अपने पुष्पक विमान (जो माता लक्ष्मी भेजी थी) पर बैठकर बैकुण्ठ धाम की ओर प्रस्थान कर गये जहाँ माता लक्ष्मी उनका इंतजार कर रही थी। समय बीतता गया, पितामह श्री ब्रहा्राजी ने श्री हरि विष्णु से कहा कि अब हमें त्रेता युगा का अंत करना चाहिए, इसपर षिवजी ने कहा कि श्री हरि विष्णु को थोड़ा समय दिजिए ताकि वे अपने परीवार को स्वर्गलोक में स्थान दे सके। तब श्री हरि विष्णु जी ने अयोध्या में अपना पुष्पक विमान भेजा जिस पर यमराज स्वयं विराजमान थे, यमराज उनके परिवार और मित्रगणों की आत्मा का हरण करके आदर सहित स्वर्गलोक में स्थान दिया। एक समय की बात है सृष्टि के सभी त्रिदेव और त्रिदेवियाँ अपने स्थान पर विराजीत थे, समय की आवष्यकता को देखते हुए पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कलयुग को प्रकट किया और उसे षिष्टित करते हुए कहा कि यहाँ सभी उसके भ्राता समान है, और उसे हिमालय पर्वत की दुसरी तरफ (चीन) भ्रमण करने के लिए कहा और वहीं उसको निवास स्थान दे दिया।
एक समय की बात है कलयुग अपने निवास स्थान से काफी दूर था और भ्रमण करते हुए उसे प्यास लगी, जलाषय का काफी खोज करने के बाद भी उसे जलाषय नहीं मिला। षिवलोक काफी नजदीक दिख रहा था, शायद इसलिए वह अपनी प्यास बुझाने के लिए षिवलोक की ओर प्रस्थान कर गया। जहाँ माता पार्वती विश्रामावस्था में थी और स्वयं भगवान षिव भ्रमण के लिए कही प्रस्थान कर गये थे। कलयुग षिवलोक पहूँच कर नादानी पूर्वक माता पार्वती के कक्ष में प्रवेष कर जाता है और हाथ जोड़ते हुए कहता है कि यहाँ वासना की पूर्ति हो सकती है? कलयुग ‘‘वासना’’ और ‘‘त्रासना’’ शब्द के मध्य भ्रम में पड़ जाता है। माता पार्वती गुस्से से भर उठती है और चिखते हुए कहती है कि मैं तेरी वासना की पूर्ति करती हूँ और अपना एक खड़ग से कलयुग पर प्रहार कर देती है, जिससे कलयुग चिखते हुए अपने निवास स्थान की ओर भागने लगता है लेकिन उसके भागने के क्रम में भगवान षिव का आगमन हो जाता है और वे कलयुग से पूछ बैठते हैं कि आपकी ये अवस्था के कारण क्या है? तब कलयुग कराहते हुए हाथ जोड़ता है और कहता है कि भगवन् हम भ्रमण करते हुए काफी दूर निकल गये थे, हमें बहुत प्यास लगी थी मार्ग में कोई जलाषय नहीं मिला, सोंचा नजदीक मे षिवलोक है वहीं जल ग्रहण कर लेते हैं लेकिन जब मैं माता से जल की माँग की तो हमसे ‘‘त्रासना’’ की जगह ‘‘वासना’’ उच्चारित हो गया इसके परिणाम स्वरूप माता ने हमे यह दण्ड दिया और वह अपना पीठ दिखा देता है जिससे रक्त प्रवाह हो रहा होता है। भगवान षिव द्रवित हो उठे उन्होंने माता पार्वती को काफी कुछ कहा इस पर माता पार्वती ने एक हीं जबाव दिया कि कलयुग, काल का स्वामी है और इसके काल में मैं सिर्फ वासना की हीं पूर्ति कर सकती हूँ; यही न! क्यों कि स्वयं पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उच्चारित किया है कि जहाँ कलयुग खड़ा होगा वहीं उसका कालक्षेत्र माना जाएगा। इस बात को संज्ञान में लेते हुए भगवान षिव वहा से अर्न्त्यध्यान हो जाते है और इधर माता पार्वती ने अपना दुर्गा स्वरूप प्रकट करते हुए पितामह श्री ब्रहा्रजी का अवह्ान किया और कहा कि आप हीं के उदण्डता के कारण काल आज यहाँ उपस्थित हुआ है। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने क्रोध भरे शब्दों में कलयुग के तरफ इषारा किया और माता पार्वती को सावधान करते हुए कहा कि आप ही एक उचित अवस्था का संज्ञान ले सकती हैं इसके अलावे अन्य देवगण को उचित अवस्था का ज्ञान नही है। तथैव का उच्चारण करते हुए श्री हरि विष्णु षिवलोक में प्रकट होते हैं और माता पार्वती को समझाते हुए (जो पितामह श्री ब्रहा्रजी से उलझ रही थीं) कहा कि आपने कलयुग के प्रति जो र्दूव्यवहार को अपने हृदय में स्थान दे रखा है उसे उद्भेदित करते हुए आज सभी के समक्ष अपने इच्छाओं को उच्चारित करें। इस बात को सून कर माता पार्वती ने अपने कमण्डल से एक अंजुली जल लिया और पितामह श्री ब्रहा्राजी को श्रापित करते हुए कहा कि ‘‘जिस काल के कारण आज स्वयं श्री हरि विष्णु हम पर दोष लगा रहे हैं उसी काल के कारण एक दिन यही श्री हरि विष्णु आपको दोषी कहेंगे’’, उसके बाद भगवान षिव का आगमन षिवलोक में होता है और वे षिवलोक के ऐसी वातावरण को देख कर अचंभित हो जाते हैं। समस्त देव और देवी वहाँ उपस्थित थें, हर तरफ माता पार्वती को दोषी ठहराया जा रहा था। सारी बातों को संज्ञान में लेते हुए भगवान षिव माता पार्वती को दोषी ठहराते हुए कहते हैं कि ‘‘देवी, कलयुग आपको माता समान आदर देता है, फिर भी आप उसकी बातों को इस प्रकार संज्ञान में क्यों लिया’’। इस बात के जबाव में माता पार्वती ने उच्चारित करते हुए कहा कि ‘‘हे देवों के देव भोलेनाथ, आप वही देव है जिसके समक्ष स्वयं कलयुग ने उच्चारित करते हुए कहा था कि ‘‘हम अपने काल में जीवों को माता का सम्मान माता के तरह नहीं होने देते हैं, पिता जिसका सम्मान आप के युग में देव से भी बढ़कर होता है, वहीं पिता हमारे काल में समय की अवस्था के कारण दर-दर मारा फिरता है’’। आपने स्वयं कलयुग के समक्ष उच्चारित किया था कि हम आपके इस काल को देखने को इच्छुक हैं तब कलयुग हँसते हुए कहा था कि हम इस तरह का काल इसी युग (देवयुग) में ही प्रकट कर देंगे और आज हमारे साथ ऐसा हीं हुआ। तब माता पार्वती प्रष्न करते हुए कहती हैं कि कलयुग के इस र्दूव्यवहार को आप किस प्रकार संज्ञान में लेते हैं? माता पार्वती के इस बात को सुन कर भगवान षिव ने माता पार्वती को समझाते हुए कहा कि आपको क्या लगता है कि कलयुग अपनी उक्त कथन को आपही के उपर सिद्ध कर रहा था? तब स्वयं श्री हरि विष्णु ने पितामह श्री ब्रहा्राजी को एक ओर लाते हुए (जो कि अवस्था को देख कर कुंठित थे) कहा कि पितामह आपको इस भ्रम से मुक्ति दिलाने हेतु मैं आपको बैकुंठ लोक चलने का आग्रह करता है और पितामह श्री ब्रहा्राजी संग श्री हरि विष्णु बैकुण्ठ लोक की ओर प्रस्थान कर जाते हैं और वहीं दोनों बैठ कर अवस्था पर संज्ञान लेने लगते हैं। पितामह श्री ब्रहा्राजी चेहरे को देखते हुए श्री हरि विष्णु ने गंभीरता पूर्वक कहा कि आप पितामह इस प्रकार द्रवित न हो, हो सकता है कि कलयुग ने स्वयं माता पार्वती को उपहास उड़ाने के लिए ऐसी उदण्डता किया हो जो माता पार्वती के लिए असहनिय सिद्ध हुआ। श्री हरि विष्णु के इस कथन को सून कर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने रूग्न अवस्था में आते हुए उच्चारित किया कि अगर कोई मानव उग्र अवस्था में प्यासा हो और नजदीक का स्थान षिवलोक हीं हो तथा उन्हंे माता पार्वती न कहकर पार्वती हीं उच्चारित करे तो देवों को कैसा प्रतीत होगा। इस बात को संज्ञान में लेते हुए स्वयं श्री हरि विष्णु ने विचार करते हुए कहा कि इस प्रकार तो कोई दैत्य ही उच्चारित करेगा या फिर स्वयं भगवान भोलेनाथ। तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा कि आप हीं कहें ‘‘भला उस कलयुग ने क्या गलत उच्चारित किया, माता कहकर ‘‘त्रासना’’ के स्थान पर ‘‘वासना’’ कह बैठा, आखिर माना तो माता हीं और क्या माता को अपने पुत्र के प्रति यही ध्येय होता है। पितामह श्री ब्रहा्रजी का बात सून कर श्री हरि विष्णु अपने विचार में विलीन हो जाते है और तत्पष्चात बोलते हैं कि माता स्वयं को माता ही समझे तो उचित होता है और अगर माता स्वयं को माता न समझे तो कुमाता ही मानी जाती है। इसके बाद पितामह श्री ब्रहा्राजी अपने लोक में वापस आ जाते हैं तथा कलयुग को अपने ही उदर में स्थान दे देते हैं। कुछ समय पश्चात् पितामह श्री ब्रहा्राजी, श्री हरि विष्णु और षिवजी एवं देवी सरस्वती, देवी पार्वती एवं देवी लक्ष्मी सभी आपस में विचार कर रहें थे कि अब कौन सा युग लाया जाय। श्री हरि विष्णु ने कहा कि अब देवयुग आना चाहिए क्योंकि देवयुग को देखें हुए बहुत काल हो गये (वैसा युग, जब सृष्टि में देवी-देवता साक्षात् रूप से विचरण करते हैं, भ्रमण करते है, और इसी युग में महिषासुर, रक्तबीज, रक्षासुर आदि दैत्य उत्पन्न होते है और उनका वध देवी-देवताओं के द्वारा किया जाता है)। ब्रहा्रा जी ने कहा की अब ऐसा काल आएगा जो अपने अनुसार चलेगा न कि किसी के नेतृत्व में (सत् युग, द्वापर युग और त्रेता युग श्री हरि विष्णु के आज्ञानुसार चलाा था) इस पर श्री हरि विष्णु ने उत्सुकतापूर्वक कहा कि ‘‘ऐसा कौन सा युग ह,ै जो बिना किसी के आज्ञानुसार चले और अगर ऐसा हुआ भी तो सृष्टि का क्या हश्र होगा ये तो आप कल्पना कर हीं सकते है’’। पितामह श्री ब्रहा्रजी ने कहा कि ऐसा कछ नही होगा और वह युग काल का युग कहलाएगा और इस काल को देवी सरस्वती ज्ञान देगी, परन्तु देवी सरस्वती ने काल को ज्ञान देने से साफ इन्कार कर दी और बोली की हम श्री हरि विष्णु के बात से सहमत है, ऐसा कोई युग नहीं आएगा और हम भला किसी को ज्ञान क्यों देने लगे। ब्रहा्रा जी श्री हरि विष्णु के तरफ देखें और मुस्कुराते हुए बोले कि ठीक है इस काल को हम ज्ञान देंगे और यह काल मेरे अनुसार चलेगा। लेकिन श्री हरि विष्णु ने पितामह श्री ब्रहा्रा जी से पुछा कि आप किस तरह का काल दिखाना चाहते हैं? तब पितामह श्री ब्रहा्रा जी ने कलयुग की याद दिलाते हुए कहा कि ये युग सत्युग के ठिक विपरीत होगा और सत्य पर असत्य का राज होगा, अच्छाई पर बुराई का विजय होगा, चारो तरफ अषांति ही अषांति होगी, इस युग में मानव जाति यंत्रों के सहयोग से अपने अधिकत्तर कार्य को सिद्ध करेंगे और यह युग यंत्रों का युग होगा। ऐसा कलयुग का नाम सुन कर श्री हरि विष्णु ने कहा ये हमारे भाग्य का विडम्बना है कि आप ऐसा युग देखने को उत्सुक हैं और इस युक की व्याख्या करते हुए पितामह श्री ब्रहा्राजी ने आगे कहा कि इस युग की आयु 78,000 (अठहत्तर हजार) वर्ष की होगी। श्री हरि विष्णु अचंभीत होते हुए पुछा कि ऐसा क्या है इस युग में जो आप उसे 780000 वर्ष कि आयु देना चाहते है जबकि अन्य स्वर्ण युगों की आयु 50000 वर्ष से ज्यादा होती हीं नहीं है (देवयुग, सत्युग, द्वापर युग और त्रेता युग को स्वर्ण युग कहा जाता है और इन युगों कि आयु क्रमषः 50000 वर्ष, 44000 वर्ष, 44000 वर्ष, 44000 वर्ष हीं होती है)। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने हँसते हुए कहा कि कलयुग मेरा कनिष्ठ और प्रिय पुत्र है और हमें उसे इतनी आयु देने में प्रसन्नता होती है। श्री हरि विष्णु हृदय से तो चिढ़ गए (क्यों कि स्वर्ण युगों में पितामह श्री ब्रहा्राजी, श्री हरि विष्णु को अपना प्रिय पुत्र मानते थे) और मुस्कुराते हुए कहा कि तनिक हमें अपने छोटे पुत्र का दर्षन करवाइए। ब्रहा्राजी ने यथास्तु कहते हुए कलयुग को अपने उदर से निकाला और कलयुग हँसी का ठहाका लगाते हुए बाहर आया और पितामह श्री ब्रहा्राजी को प्रथम प्रणाम किया उसके बाद षिवजी को प्रणाम किया और श्री हरि विष्णु जी के तरफ इषारा करते हुए पितामह श्री ब्रहा्राजी से पुछा कि ये विष्णुजी है न, इस पर षिवजी ने कलयुग समझाते हुए कहा कि विलम्ब न करों पुत्र इन्हें भी प्रणाम करो। श्री हरि विष्णु कुछ नहीं बोले और वहाँ से अर्तध्यान हो गए, षिवजी को अच्छा नहीं लगा और कलयुग से कहा कि श्री हरि विष्णु के साथ तुम ऐसा व्यवहार क्यों किया? एक कथन जो कलयुग अपने हाथ पर लिखे हुए था षिवजी को दिखाते हुए कहा कि विष्णु भी ब्रहा्रा का छोटा पुत्र और मैं भी ब्रहा्रा का छोटा पुत्र तो प्रणाम का तो कोई सवाल हीं नहीं है और अगर है तो विष्णु हमें नमस्कार करे तो हम भी नमस्कार करेंगें, विष्णु का क्रोध व्यर्थ है। षिवजी, श्री हरि विष्णु से संपर्क किए और कहा कि श्री हरि विष्णु क्रोध त्याग दिजिए और एक तुला लेते आइए। श्री हरि विष्णु कलयुग की कथन को सुन रहे थे और हँसते हुए षिवलोक में प्रकट हुए और कहा कि हम समझे थे कि कलयुग मंे जान नहीं होगा लेकिन इसमें अभी भी वहीं जान है जो पहले के कलयुग में था। तब पितामह श्री ब्रहा्रा जी अपने बात को आगे रखते हुए कहा कि इस युग का अंत श्री हरि विष्णु आप निष्चित समय पर अवतार लेकर हीं कर पायेंगे और 78,000 वर्ष पूर्ण होने के 35 वर्ष पूर्व आपको अवतार लेना होगा।
Third Edition of Kaal Sagar "Ek Mahakavya"
{खण्ड-2}
।। कलयुग का आरंभ।।
पितामह श्री ब्रहा्राजी कलयुग को आज्ञा दिए कि ‘‘वत्स सृष्टि के वायुमंडल में प्रवेष करके अपने काल का आरंभ करो तभी श्री हरि विष्णु जी ने अपना मत रखते हुए कहा कि ‘‘कलयुग सृष्टि में विचरण कर के हीं अपना काल चलायेगा’’ तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा कि श्री हरि विष्णु आप कलयुग के साथ छल कर रहें हैं, अगर आपने ऐसा कर हीं दिया तो वरदान स्वरूप कलयुग को कुछ दिजीए। श्री हरि विष्णु ने मुस्कुराते हुए कहा कि वरदान देने का अधिकार आपको और षिवजी को है फिर भी हम कलयुग को वचन देते हैं कि उसके कालावधि में हम किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे। पितमाह श्री ब्रहा्रा जी ने हँसते हुए कहा कि ये अधिकार हमने कलयुग को पहले ही दे चुके हैं और कुछ दिजिए। इस पर श्री हरि विष्णु ने कहा कि ठीक है अगर मेरे अवतार के दौरान कलयुग अपने कालावधि मुझे चतुर्भूज रूप में दर्षन कर लेता है तो हम उसे उतना हीं काल और देंगें जितना कलयुग व्यतीत कर चुका होगा। पितामह श्री ब्रहा्रा जी खुष होते हुए कलयुग से पूछे कि, वत्स तुम क्या कहते हो? कलयुग श्री हरि विष्णु की बातों से सहमत हो गया और बोला हमें मंजुर है और श्री हरि विष्णु ने धरती पर एक तीर से एक दिव्य लकीर खींच दिया (जो भारतवर्ष में है और यह लकीर राजस्थान से लेकर दिल्ली होते हुए नेपाल तक है), ऐसा दिव्य लकीर जो हमेषा आगे या पिछे हुआ करता था और कलयुग को हमेषा उस निषान पर ध्यान देकर खड़े रहने के लिए कहा ताकि कलयुग अपने सम्पूर्ण काल में श्री हरि विष्णु के चक्रव्युह में फँसा रहे और सत्य पर असत्य की जीत का खेल न खेल सके, बुराई का अच्छाई पर जीत का खेल न खेल सके और सृष्टि में अषांति न फैला सके। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कलयुग को प्रस्थान करने के लिए कहा ‘‘इस पर कलयुग ने हाहाकार करते हुए कहा कि हम तो प्रस्थान कर हीं जायेंगे लेकिन वापस कभी नहीं आयेंगे और तुम्हे विष्णु, हम तुम्हे अवतार के दौरान देख ही लेंगे इसपर श्री हरि विष्णु मंद-मंद मुस्कुराते हुए कहा हम दिखेंगें जरूर लेकिन तुम्हारे काल के रूप में और कलयुग सृष्टि की धरती पर उतर गया (जहाँ श्री हरि विष्णु ने लकीर खींचा था)। धरती पर उतरते ही कलयुग ने सृष्टि में ऐसा तबाही मचाया कि उसके आँधी तुफान से देवयुगीन मंदिर (वैष्णो देवी मंदीर, जो जम्मू, भारतवर्ष में स्थित है) के गुफाओं के दिवारों में दरार आने लगा। ऐसा देख कर श्री हरि विष्णु ने अपने सुदर्षन चक्र से उस मंदिर की सुरक्षा प्रदान की, श्री हरि विष्णु कि इस लीला को देख कर माता पार्वती ने खुष होकर कहा कि हे श्री हरि विष्णु आपने हमारे शक्तियों के निवास स्थान (जहाँ माता दुर्गा के आठो स्वरूप जैसे सिद्धिदात्री, कालरात्रि, कुष्माण्डा, ब्रहा्रचारिणी, कत्यायणि, चन्द्रघण्टा, स्कंध माता और शैलपुत्री निवास करती थीं) को अपने सुदर्षन से सुरक्षित कर दिया इसलिए कलयुग मंे इस मंदिर को वैष्णो देवी मंदीर के नाम से जाना जायेगा और इधर कलयुग त्रेता युग के लोगो का अंत करने लगा। धरती हिल रही थी, मुसलाधार बारीस हो रही थी, बिजली चमक रही थी, चारो तरफ हाहाकार मचा हुआ था। त्रेता युग के सारे राजमहल टूट गये अथवा जलमग्न हो गये। सारे लोग जलमग्न होकर मृत्यु को प्राप्त कर चुके थे और जो लोग बचे हुए थे वे भगवान विष्णु को याद कर रहे थे। ऐसा दृष्य को देखकर भगवान विष्णु को दया आ गयी और उन्होंने कलयुग को रोकते हुए कहा कि जो लोग मृत्यु को प्राप्त कर चुके है उनके आत्माओं को तो हम मोक्ष दे हीं देंगें (जब युग परिवर्तन होता है तो उस समय मानव जाति के मृत्यु का कारण देवता खुद अपने उपर लेते हैं और उन्हे फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है), लेकिन जो लोग त्रस्त है उन्हें मत मारो। इस पर कलयुग ने कहा कि ‘‘तो हम इन लोगों का क्या करें’’ भगवान विष्णु ने बचे हुए लोगों के चेहरे की खुबसुरती को बिगाड़ दिया और यादाष्त को खत्म कर दिया एवं आकार छोटा कर दिया और कहा कि ‘‘इन लोगों को सृष्टि से बाहर ब्रहा्राण्ड की दूसरी छोर में किसी दूसरे पिंड पर जाकर रख आओ’’। कलयुग ने ऐसा हीं किया, पष्चिम दिषा में ब्रहा्राण्ड के सबसे अंतिम पिंड पर छोड़ आया (जहाँ न पीने को पानी था न हीं उस धरती मंे उर्वरा थी ताकि वे लोग अन्न की उपज कर सके फिर भी उनलोगों ने विज्ञान के विकास के सहारे अपना जीवनयापन करने लगे, जो वर्तमान समय में एलियन कहलाते हैं) और सारे लोगों को वहीं छोड़ कर वापस आया और वापस आकर कलयुग ने सम्पूर्ण सृष्टि को समतल कर डाला और त्रेता युग का जो भी निषान था उन सबको मलवा बना कर समुन्द्र में बहा दिया। सारे देवता अपने-अपने लोक में बैठकर कलयुग के काल को देखने लगें, लेकिन श्री हरि विष्णु खुष थे क्यों कि कलयुग उनके चक्रव्युह में ही फँसा हुआ था।
4th Edition of Kaal Sagar "Ek Mahakavya"
{खण्ड-3}
।। माता काली का जन्म।।
पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कलयुग से कहा कि ज्यादा लकीर पर ध्यान मत दो, सृष्टी की तरफ ध्यान देकर सृष्टि चलाओ। पितामह श्री बहा्राजी के आदेष पर कलयुग ने नरमुंड नामक एक ऋृषि प्रकट किया और उसे एक मुट्ठी चावल का देते हुए कहा कि इस चावल को जिस प्राणी को खिलाकर उसे जलाओगे और उस राख को छिड़कोगे तो तुम्हारी शक्ति बढे़गी। ऋृषि चावल को लेकर षिवलोक की तरफ प्रस्थान कर गया ओर वहाँ देखा कि एक महिला अपनी तीन वर्ष के बालक को खाना खिला रहीं है। ऋषि उस महिला से भिक्षा की मांग किया तो महिला ने अपने बच्चें को वहीं छोड़ कर अंदर कुटिया में भिक्षा लाने गयी, इधर ऋषि ने बच्चों को अपने झोले में बांध कर चला गया और एकान्त जंगल में बच्चें को चावल का दाना खिला कर जला दिया और उससे बने राख को एकत्रित कर झोले में रख लिया और षिवलोक से बाहर आकर उस राख को छिड़कने लगा। जहाँ-जहाँ भी राख धरती को स्पर्ष करती वहाँ एक दैत्य उत्पन्न हो रहा था, इसी प्रकार सारी धरती दैत्यों से भर गई। षिवलोक में षिवजी अपनी तपस्या में लीन थे, माता पार्वती भी वहीं बैठे-बैठे नरमुंड ऋषि की सारी कार्यषैली को देखकर दंग रह गयीं। माता पार्वती ने सोंचा कि ये दैत्य मानव जाति के लिए बहुत बड़ा खतरा है और ये सोंच कर उन्होंने अपनी इच्छाषक्ति से एक अति सुन्दर चर्तुभूज (जिसके घुटने तक घने और खुले बाल थे, शरीर पर वस्त्र के नाम पर केवल मानव की खोपड़ी हार के रूप में पहने हुई थी और कमर में मानव के हाथ के बना हुआ कमरकष पहने हुई थी) देवी प्रकट की और उसके हाथ में चन्द्रह्ास देते हुए आदेष दिया कि जितने भी दैत्य घुम रहे हैं सभी का वध करके मेरे समक्ष उपस्थित हो। माता पार्वती का आज्ञा पाकर वह देवी असुरो पर बिजली बन कर टूट पड़ी। नरमुंड अपने दैत्यों का वघ होता देख भागने लगा और जहाँ-तहाँ प्रकट होकर राख का छिड़काव करने लगा (कभी पहाड़ की चोटी पर तो कभी पहाड़ की तराई में तो कभी समतल मैदान में) और अंततः पहले देवी ने नरमुंड ऋषि के बाल को पकड़ कर खींचा और सर को धड़ से अलग किया। अपना सर कटते हीं नरमंुड ऋषि चिल्लाया और कहा कि अगर मेरे कटे हुए सर को धरती से स्पर्ष भी करवाओगी तो धरती फट जायेगी। इस बात को संज्ञान में लेते हुए देवी ने उसके सिर को एक हाथ मंे पकड़े रखा और तांडव नृत्य करते हुए और दैत्यों के साथ खेलते हुए सभी दैत्यों का सर काटने लगी। दैत्यों के बीच अफरा-तफरी मच गयी, जब षिवजी का तपस्या समाप्त हुआ तो उन्होंने अपनी दृष्टी खोली और जब उन्होनें दैत्यों की अवस्था को देखा तो माता पार्वती से पूछा कि ‘‘पार्वती ये सब क्या हो रहा है’’? तुम भला उन निर्दोष दैत्यों को क्यों उस देवी के हाथों वध करवा रही हो, इस पर माता पार्वती ने कहा कि ‘‘हे नाथ, ये दैत्य मानव जाति के लिए खतरा पैदा करेंगे इसलिए मैं इनका विकास होने से पहले विनाष कर रहीं हूँ’’। षिवजी द्रवीत हो उठे और बोले कि इन दैत्यों ने अभी तक तो मानव जाति को किसी प्रकार का क्षति नहीं पहूँचाया, ये लोग तो आपस मंे खेल-कुद कर रहें है फिर क्यों तुम इन निर्दोष दैत्यों को दंडित कर रही हो और इतना कहकर षिवजी उस देवी को रूकने के लिए कहा लेकिन वो अपना काम करती जा रही थी, अंत में षिवजी उस देवी के समक्ष कदमों के नीचे लेट गये जिससे देवी का पैर षिवजी के शरीर पर पड़तें ही षिवजी के शरीर से चिपक गया और वह ठिठक कर रूक गई। माता पार्वती ने उन्हें षिवलोक मंे वापस बुला लिया। षिवजी षिवलोक पहूँचे और उस देवी कि ओर से अपना मुख फेरते हुए माता पार्वती से पुछा कि ‘‘कौन हैं ये देवी? इसे कभी षिवलोक में नहीं देखा’’। माता पार्वती ने उस स्त्री का परिचय देते हुए कहा कि ये मेरी छोटी बहन है। इसे मैंने अपने शरीर से प्रकट किया है। षिवजी क्रोधित हो उठे और बोले कि बिना मेरी आज्ञा के तुम इस प्रकार का निर्णय क्यों ली? तुमदोनांे ने निर्दोष दैत्यों को मार कर पाप की भागी बनी हो इसलिए तुम दोनों को दण्डित किया जायेगा और षिवजी ने अपना त्रिनेत्र खोल कर उस शक्ति स्वरूपा को जलाने लगे लेकिन तभी माता पार्वती अपना त्रिनेत्र उस देवी को दे दिया जिससे वह देवी षिवजी के त्रिनेत्र से जलने से तो बच गयी लेकिन उसका षरीर पूर्ण रूप से काला हो गया। षिवजी के क्रोध का हुँकार सुनकर पितामह श्री ब्रहा्रा-माता सरस्वती और श्री हरि विष्णु-माता लक्ष्मी के साथ षिवलोक में प्रकट हुए और षिवजी को शांत करने लगे लेकिन षिवजी क्रोधपूर्ण अवस्था में बोले कि पार्वती को दैत्यों की हत्या का आप सभी दंड दिजीए इसने निर्दोष दैत्यों की हत्या की है। श्री हरि विष्णु बोले कि ‘‘भोलेनाथ हम माता पार्वती को दण्डित अवष्य करंेगे, पहले आप शांत हो जाइए’’ लेकिन षिवजी नहीं माने औरे माता पार्वती को आदेष दिया कि ‘‘तुम इस देवी के साथ अगले आदेष तक इस धरती से बाहर रहोगी’’, माता पार्वती ने षिवजी की आज्ञा मान ली और उस देवी के साथ प्रस्थान करने लगी तभी माता सरस्वती और माता लक्ष्मी बोली की हम भी आपके साथ चलेंगे। माता पार्वती के मना करने के बावजूद माता सरस्वती और माता लक्ष्मी उनके साथ जाने लगी, तीनों देवीयों को जाता देख षिवजी का क्रोध शांत हुआ और उन्होंने माता पार्वती को चेतावन भरे शब्दों में कहा की जहाँ भी निवास करना, दुर्गा बन कर करना और सिद्धीदात्री को सदैव आगे रखना, इस पर माता पार्वती ने षिवजी से कहा कि मेरी छोटी बहन के बारे में आपने तो कुछ नहीं कहा? षिवजी मुँह फेरते हुए बोले कि वो काली ही रहेगी (और दुनिया में वो काली माता के नाम से विख्यात हो गयीं)। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने भी दोनों देवीयांे को आज्ञा दिया कि, आप दोनों भी चर्तुभूजी रूप में ही रहना। तीनों देवीयाँ आकाष मार्ग से निवास स्थान ढुँढने लगी और अंत में दक्षिण दिषा की तरफ समुद्र के मध्य एवं गहराई में एक विषालकाय पर्वत प्रकट किया और उसी में निवास करने लगी। इधर त्रिदेव भी धरती छोड़ चुके थे और सारे देवताओं सहित पष्चिम दिषा की ओर ब्रहा्राण्ड के अंतिम छोर पर जाने लगे तभी माता धरती रूग्न अवस्था में आकर श्री हरि विष्णु से बोली कि हम कहाँ जाएँ, श्री हरि विष्णु ने धरती माता को समझाते हुए बोले कि तुम तो धरती माता हो, तुम्हारे ही दिये हुए अन्न धरती के संपूर्ण प्राणी खाते हैं अगर तुम ही चली जाओगी तो इस धरती के लोग तो यूँ हीं मृत्यु को प्राप्त कर लेंगे और तुम्हारे बिना धरती भी फट जायेगी। धरती माता रोते हुए बोली कि हमें अकेला इस धरती पर छोड़ कर मत जाइए प्रभू, हम बेसहारा हो जायेंगे, इस पर श्री हरि विष्णु ने हाथ में थोड़ा जल प्रकट किया और माता धरती को देते हुए कहा कि हम इससे ज्यादा तुम्हारी सहायता नहीं कर सकते हैं, इसे हीं अपना किस्मत समझो। माता धरती रोते हुए उस जल को ली और अपने ललाट पर लगा लिया और रोते हुए धरती में समा गई।
त्रिदेव, देवगण के साथ गंर्धव-अप्सरा सभी स्वर्गलोक के साथ ब्रहा्राण्ड के उत्तरी छोर पर पहूँच गये, इस प्रकार संपूर्ण सृष्टि देवविहीन हो गया। सृष्टि में सिर्फ कलयुग और उसके बनाये हुए कुछ दैत्य थे (जो आपस में ही खेल-कुद रहे थे) माजूद थे।
Final Edition of Kaal Sagar "Ek Mahakavya"
{खण्ड-4}
।। भैरव नाथ का जन्म ।।
समय बीतता गया पितामह श्री ब्रहा्रजी ने श्री हरि विष्णु से कहा कि अब तुम्हे इस सृष्टि में जीवन डालना चाहिए। श्री हरि विष्णु ने कहा कि इन दैत्यों के बीच मानव जाति का जीवन दूलर्भ है, जब तक इन सम्पूर्ण दैत्यों का अंत नहीं होगा तब तक हम सृष्टि में जीवन नही देंगे। ब्रहा्राजी ने कहा कि ‘‘ठीक है हम आपकी समस्या का समाधान कर देते हैं और श्री हरि विष्णु को भारतवर्ष के दक्षिणी-पष्चिम भाग (मुंबई) की तरफ इषारा करते हुए बताया कि हमने राक्षसों का इंतजाम कर दिया है, जरा उधर देखिये। एक घनघोर जंगल में एक भैरवनाथ नामक ऋषि, परम्पिता ब्रहा्रा की इच्छाषक्ति से प्रकट हुए और वहीं पर एक आश्रम बनाया और ‘‘ऊँ श्रीं श्रीं श्रीं’’ मंत्र का जाप करके यज्ञ करने लगे। उनका लक्ष्य था कि वो कुछ शक्ति प्राप्त कर धरती पर राज करेंगे और इसीलिए शायद उन्होने अपने ही नाखून को तोड़कर सिद्ध किया जो कि एक कुँवरदेवी (कुवाँरी लड़की का आत्मा जो जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त होती हैं, किसी भी व्यक्ति के समक्ष प्रकट हो सकती हैं, और कुँवर देवियाँ, बैमत के लिए काल होेेेेेेेेेेेेेेेेेती हैं) का नाखून बना और दूसरा बैमत (एक प्रकार का प्रेत, जिसका प्राण उसी के गले में एक छोटा सा पुड़िया होता है जिसको खोल देने से वह मर जाती है) का नाखून। इन नाखूनों का गुण था कि अगर कुँवरदेवी का नाखून को किसी स्त्री को चुभाया जाय और उसके बाद जो रक्त निकलेगा उसे जमीन पर छिड़कने से एक कुँवरदेवी प्रकट होगी। बैमत की नाखून के साथ भी यही कहानी था लेकिन इस नाखून से बैमत (एक प्रकार का प्रेत) प्रकट होती। भैरवनाथ ने अपने सिद्ध किए हुए नाखून मंे से अपने ही जाँघ में बैमत का नाखून चुभाया जिससे प्राप्त रक्त को जमीन पर छिड़का तो एक दैत्य प्रकट हुआ। प्रकट होते ही दैत्य ने भैरवनाथ से कहा कि हमें भूख लगी है, भैरव नाथ अचंभित थे और उस दैत्य को समझने में देर लगा दी जिससे कि दैत्य भैरवनाथ को ही खा गया, उनके कमण्डल का पानी पी गया और उनके भेष में आकर उनकी कुटिया मंे चला गया एवं उनकी पत्नी और षिष्यों को भी खा गया लेकिन दैत्य की भूख नहीं मिटीं और वह भटकता हुआ भोजन की तलाष में त्रिदेवीयों के दरबार में पहूँचा, जहाँ माता सरस्वती, माता पार्वती, माता लक्ष्मी और माता काली निवास कर रहीं थी और आपस में एकत्रित होकर किसी विषय पर वार्ता कर रहीं थी, तभी माता दुर्गा की नजर उस दैत्य की तरफ पड़ी जो उन्हीं लोगो के तरफ बढ़ता चला आ रहा था। दुर्गा माता आपस में वार्ता करते हुए बोली कि ‘‘ये कौन हमारी तरफ बढ़ता चला आ रहा है’’? इस पर माता काली ने प्रतिउत्तर दिया कि ‘‘ये तो कोई दैत्य लग रहा है’’। तब तक दैत्य त्रिदेवीयों के नजदीक आ जाता है और कहता है कि हमें भुख लगी है, हमंे भोजन दो। इसपर माता काली ने कहा, ‘‘अगर हम तुम्हे भोजन नहीं दे तो? हँसते हुए दैत्य ने कहा कि तुम हमें भोजन नहीं दोगी तो हम तुम सबकों खा जाऐंगे। सभी देवीयाँ हँसने लगी और सृष्टि में खेल-कुद कर रहे दैत्यों के तरफ इषारा करके बोलीं की तुम्हारा भोजन वहाँ है जाओं और अपना भोजन करके वापस मेरे पास आओं। दैत्य सृष्टि में गया और अपने इच्छानुसार दैत्यों को आहार बनाया। पेट भरने के बाद पुनः देवीयों के पास वापस आ गया, लेकिन सृष्टी में अभी भी कुछ दैत्य बचे हुए थें। दैत्य के वापस आने के पश्चात् माता काली दैत्य से पुछती हैं कि तुम्हारा नाम क्या है और तुम कहाँ से आये हो लेकिन दैत्य कुछ जबाव नहीं दे सका और सिर्फ भूख-भूख कर रहा था।सभी देवीयाँ हैरान थीं। माता सरस्वती अपने दिव्य दृष्टि से दैत्य के अन्दर देखा तो दैत्य की सारी लीला समझ गईं। दैत्य के पेट में उन्होनंे भैरव नाथ को बैठा पाया। माता सरस्वती इस बात की जानकारी माता दुर्गा को दी, तो उन्होने ने माता काली से कहा कि तुम इस दैत्य की तलाषी लो। माता काली ने दैत्य को अपना हाथ दिखाने के लिए बोली तोउसके हाथ में कुँवर देवी का नाखून और बैमत का नाखून मिला। माता काली नाखून को माता दुर्गा के हाथ में देते हुए बोली की ये क्या है? माता दुर्गा ने नाखून को गौर से देखते हुए बोलीं की ये बहुत ही खतरनाक वस्तु है, बैमत का नाखून माता काली को देते हुए बोली कि इसका तुम निरीक्षण करो और निरीक्षण के दौरान नाखून के तेज धार से माता काली का उँगली कट गया और रक्त के फव्वारे बहने लगे जिससे सैकड़ों बैमत खड़ी हो गयी, लेकिन सारी की सारी भुखी थीं और भोजन की माँग करने लगी। माता काली ने दैत्य और सारी बैमतों को ‘‘सृष्टि में खेल-कुद कर रहे दैत्यों’’ की तरफ इषारा करते हुए कहा कि वहाँ जाओ और उन सबको खाकर अपना भुख मिटाओं और वापस मेरे पास आना। सभी बैमत सृष्टि में गयी और सृष्टि में विचरण कर रहे दैत्यों को ढुँढ-ढँुढ कर अपना आहार बनाया और माता काली के पास वापस आ गयी। इधर सृष्टि पर से सारे दैत्यों का अन्त हो चुका था, सारी बैमतों का माता काली के निवास स्थान पर वापस आने के बाद बैमतों और दैत्य को दूबारा भूख सताने लगी। सभी ने माता काली से कहा कि हमें भुख लगी है। माता काली बोली की सभी आपस में युद्ध करो जो जीतेगा उसी को भोजन मिलेगा और दैत्य को अलग रहने के लिए कहा। सारी बैमत आपस में लड़ने लगी और एक दूसरे को खा गयी। अंत में मात्र एक बैमत बची जिसे माता काली अपना पुत्री कहते हुए उसका सारा भुख मिटा दीं और अपने निवास स्थान में रहने दिया। माता दूर्गा दैत्य के बारे मे विचार कर रही थीं। माता दुर्गा हँसते हुए दैत्य की तरफ इषारा करके बोलीं कि अगर उसे अपना पुत्री मानती हो तो इसे भी अपना पुत्र मानों इसपर माता काली ने चिढ़ते हुए माता दुर्गा से बोलीं कि हम उसे अपना पुत्री बना लिये हैं, अब तुम इस दैत्य को अपना पुत्र बनाओ और हँसने लगी। माता दुर्गा, माता लक्ष्मी और सरस्वती को उक्साते हुए बोली कि आप दोनों तो कुछ बोल हीं नहीं रहीं हैं। हम दोनों तो आप दोनों का लीला देख रहें हैं माता लक्ष्मी बोली। माता दुर्गा बोलीं कि हम इस दैत्य का भूख मिटा देते है और माता सरस्वती इस दैत्य को ज्ञान देगी। माता सरस्वती बोली कि इस दैत्य को अपने साथ रख कर करना क्या है? माता काली बोली कि हम इन दोनांे को अपने साथ रखकर मनोरंजन करेंगे। माता दुर्गा पहले तो दैत्य का भूख मिटा दी उसके बाद उसके सर पर हाथ रख कर उसे मणुष्यदेवा (ऐसा आत्मा जो जीवन-मृत्यु के चक्रव्युह से मुक्त है, और इसे कुँवरदेवी का पुरूष भी कह सकते हैं) बना दीं और वह साधारण 25 वषीर्य लड़का के तरह दिखने लगा, माता सरस्वती ने उसे सोंचने समझने की विद्या दी और उसे भैरवनाथ नाम से संबोेेेेेेेेेेेेेेेेेधित करते हुए बोली कि आज से ये मेरा छोटा भाई है, इस प्रकार साभी देवीयाँ भैरव को अपना भाई मानने लगी और अपने भाई को उपहार स्वरूप माता दुर्गा एक आर्षिवाद दी और बोली कि समस्त संसार में तुम जैसा दूसरा मणुष्यदेवा नहीं होगा और अपने सर से किसी प्राणी पर प्रहार करोगो तो वो वहीं बेहोष हो जायेगा परन्तु अगर किसी कुँवरदेवी के साथ संभोग करोगे तो ये सारी शक्तियाँ वापस मेरे पास चली आएगी और तुम एक साधारण मणुष्यदेवा बनकर रह जाओंगे एवं एक बात और जिस समय श्री हरि विष्णु अवतार लेकर मेरे निवास स्थान पर आये उस दिन उन्हीं के सुदर्षन से तुम्हारा अंत हो जायेगा। भैरवनाथ अपने इन्हीं शक्तियांे को चौसठ जोगीन के नाम से पुकारते थे। बैमत माता काली से बोली कि उसको इतना सुंदर बना दी और हमको कुछ नहीं, काली हँसी और आर्षिवाद देते हुए बोली कि तुम्हारा दो स्वरूप होगा एक जो अभी दैत्य का है वो और दूसरा साधारण स्त्री का लेकिन माता काली ने बैमत को समझाते हुए कहा कि तुम हमेषा साधारण स्त्री का ही रूप रखना और विकट परिस्थिति में अपना दैत्य का स्वरूप किसी के समक्ष प्रस्तुत करना और तुम्हारा यह रूप जिस प्राणी को दिखेगा वह मृत्यु को प्राप्त होगा। इधर श्री हरि विष्णु और षिवजी ब्रहा्रण्ड में बैठे-बैठे पितामह श्री ब्रहा्रजी की सारी लीलाओं को देख रहे थे, श्री हरि विष्णु खुष हुए और कहा कि अब ये सृष्टि जीवन डालने योग्य हो गयी है। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने, षिवजी को ब्रहा्राण्ड के आकाष गंगा की ओर भेज दिया और कहा कि किसी पिंड को स्वर्गलोक में बदल दो और षिवजी के वापस आने पर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा कि सृष्टि के मृत मानव जाति को अगर स्वर्ग में जाने की इच्छा होगी तो उनकी आत्मा को उनका परमेष्वर (जो कि सभी प्राणियों के आत्मा में नाभी के पास यमराज द्वारा चिपका दिया जाता है, जिसका आकार स्त्री के माथे के बिंदिया के सामान गोल होता है और ये परमेष्वर श्री हरि विष्णु के शक्तियों से बने होते हैं) उड़ा कर स्वर्ग में ले जायेगा। वहाँ उन्हें वहीं सुख मिलेगा जो वे अपने जीवन काल में पाएँ हैं। इधर कलयुग ब्रहाण्ड के दूसरे छोर पर निवास कर रहे ‘‘त्रेता युग’’ के लोगों पर अपना काल का विस्तार कर रहा था (जिन्हे आधुनिक युग में ‘‘एलियन’’ के नाम से जाना जाता है)। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कलयुग को बताया कि उड़ती हुई आत्माओं को अगर तुम पकड़ लिये तो उन्हें तुम निगल जाना और अपने गुहिका के रास्ते निकाल देना जिससे आत्माएँ भूत-प्रेत में बदल जाएगा जो तुम्हारे काल का विस्तार करेगी। श्री हरि विष्णु ने, पितामह ब्रहा्राजी से पुछा कि कलयुग को आप ऐसा आदेष क्यों दिए पितामह? पितामह श्री ब्रहा्राजी हँसते हुए जबाव दिया की कलयुग का पाचन तंत्र आत्माओं के लिए नर्क लोक का काम करेगा (श्री हरि विष्णु मंद मंद मुस्कुराएँ और विचार किए की पितामह श्री ब्रहा्राजी हमारे खेल का सत्यानाष कर दिए) इसके बाद ब्रहा्राजी ने कहा कि दिन का आखिरी पहर के दो घंटा पहले से आखिरी पहर (रात्रि 10 बजे से 12 बजे) तक के बीच जो भी षिषु अथवा कन्या जन्म लेगा उस षिषु अथवा कन्या को अगर कलयुग चाहे तो मृत्यु को प्राप्त करवा सकता है, ऐसी मृत्यु कलयुग इस अवधि में जन्में षिषु को उनके जन्म से 9 वर्ष की आयु तक हीं कर सकता है, ये मेरा कलयुग को वरदान है और ऐसी आत्माएँ ‘‘कुँवरदेवी और मनुष्यदेवा’’ बनेगंे, कलयुग खुष हो रहा था इसपर श्री हरि विष्णु अपना सर ‘‘हाँ’’ में हिलाते हुए कहा कि अति उत्तम, उसके बाद पितामह श्री ब्रहा्राजी ने माता दुर्गा का अव्ह्ान किया तो माता दुर्गा प्रकट हुई और बोली कि मेरे लिए क्या आज्ञा है पितामह?
पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा कि आप कलयुग में सृष्टि में विचरण कर रहे बैमतों को शक्ति प्रदान करेंगी लेकिन माता दुर्गा ने पितामह श्री ब्रहा्राजी से क्षमा माँगते हुए बोलीं कि हमसे ऐसा कार्य सिद्ध नहीं होगा, इसपर ब्रहा्राजी ने उन्हें याद दिलाते हुए कहा कि देवयुग में आपने महिषासुर जैसे दैत्यों का वध किया है इस युग में ठीक उसके विपरीत आपको करना है। काफी विचार करने के बाद माता दुर्गा ने अपनी में सहमती दी और बोली कि हम सिर्फ दैविक धर्म का पालन करने वाले बैमतों को हीं से भी बातें कर लिया करता था, वह हवाओं को एक नाम दे दिया, जिसे ‘‘युग’’ कहते हैं। जब कलयुग को हवाओं से किसी तरह का काम लेना होता था तो वह हवाओं को कहता, ‘‘युगियाऽऽ’’ ‘‘उसे अक्ल दो’’ या ‘‘उसे जान से मार दो’’ आदि-आदि। उसने अपने फूँक से धरती पर उपस्थित सभी आत्मओं को कलयुगी बना दिया था और उसके चारों तरफ के हवाआंे को कालयुगीन बना दिया। उसके बाद कलयुग अपने इच्छानुसार भारतवर्ष और भारतवर्ष के बाहर सभी महादेषों में एक-एक नगर (जिनके भिन्न-भिन्न नाम एवं भिन्न-भिन्न भाषाएँ थी) बसाया उसके शक्ति प्रदान करेंगे या उनके लिए विधान बनाएगें लेकिन इनका अंत किस प्रकार होगा? इसपर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा कि जब कलयुग में श्री हरि विष्णु का अवतार होगा तब वे अपने अनुसार इनका अंत करेंगे। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने आगे कहा कि शक्ति प्राप्त करने के लिए बैमतों को किस विधान से तपस्या करना होगा ये आपको सरस्वती बतायेंगी और तपस्या के फलस्वरूप आप उन्हें क्या देंगी इसका निर्णय आप स्वयं करेंगी। इस पर माता दुर्गा को खुषी नहीं हुई और फिर वे षिवजी के तरफ देखकर बोली ‘‘जो आज्ञा पितामह’’ और माता दुर्गा अर्न्तध्यान हो गयी। अब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने श्री हरि विष्णु कोे सृष्टि में जीवन डालने के लिए कहा तो श्री हरि विष्णु ने करोडो़ आत्माएँ सृष्टि में किसी फल के बीज की भाँति छिड़क दिया। सृष्टि में अपने काल को प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम कलयुग धरती के वायुमंडल को अपने वष में किया, वह हवाआंे बाद धरती पर जीवन का विस्तार होने लगा। इधर माता काली भैरव नाथ और बैमत का उपयोग कर कुछ लीलाएँ करना चाहती थी इसलिए वह माता दुर्गा से बोली कि हमलोग इन दोनों को किसलिए तैयार किए हैं, हम चाहते है कि इनसे कुछ लीलाएँ करवाया जाय। इसपर माता सरस्वती बोली कि, ‘‘तुम इनसे क्या लीला करवाओंगी’’? माता दुर्गा, माता सरस्वती को समझातें हुए बोली कि काली इन लोगों को कुछ काम सौंपना चाहती है और माता काली को चिढ़ाते हुए बोलीं कि तुम्हारे हृदय में जो भी लीलाएँ उमंगीत हो रही है उसे कह दो। माता काली बोलीं कि हम चाहतें हैं कि हमारा निवास स्थान कुँवरदेवियों से भर जाए इसपर माता दुर्गा ने दैत्य से प्राप्त कुवँरदेवी का नाखून सौंपते हुए कहा कि ‘‘ये लो नाखून और जितनी कुवँरदेवीयाँ चाहिए अपने रक्त से निकाल लो। माता काली बोली की नाखून का उपयोग करके नहीं, हम इनदोनों (भैरवनाथ और बैमत) का उपयोग करके कुँवर देवियों से अपना निवास स्थान भरना चाहते हैं। दुर्गा माता, सरस्वती माता से बोली कि आप क्या कहतीं है? माता सरस्वती बोली कि, ‘‘पहेली मत बुझाओं’’, हमसे जो चाहती हो बोलो। इस पर माता दुर्गा, माता लक्ष्मी से बोली कि ‘‘तुम क्या कहती हो लक्ष्मी’’, लक्ष्मी माता बोली कि हम तो आप दोनों (माता काली और माता दूर्गा) कि पहेली को समझने कि कोषिष कर रहे हैं। माता दुर्गा अपनी बात सभी देवियों के सामने प्रस्तुत की और बोली कि बैमत धरती पर जाकर किसी व्यक्ति से पूजा लेगी और जब वह अपने घर का एक बालक को बलि देगा तो हम उसे शक्ति प्रदान करेंगे। माता सरस्वती ने कहा है कि धरती पर ऐसा कोई मानव नहीं होगा जो शक्ति के लिए अपने पुत्र-पुत्री का बलि देगा, और ऐसे हीं बैमत किसी भी घर से उसके पुत्र अथवा पुत्री को कैसे उठा कर यहाँ ले आएगी, इसमें उसके माँ-पिता की इच्छा होनी चाहिए। यहाँ जो भी मणुष्यदेवा अथवा कुँवरदेवी आएगी वो ‘‘खानदानी’’ होना चाहिए चाहे वो किसी भी जाति का हो। माता काली दोनों की बातें सुन रही थी, बैमत और भैरवनाथ भी वहीं उपस्थित थे,माता दुर्गा कि प्रेरणा से माता काली ने बैमत को इषारा करते हुए बोली कि वो जो घर दिखाई दे रहा है न, वहाँ किसी स्त्री कि मृत्यु हुई है, तुम उस स्त्री के नाम पर खेल जाओं और कहना कि हम देवी हो गए है तुम मेरी पूजा करो इसके बदले हम तुम्हारे घर को धन-धान्य से भर देेंगे। बैमत ने ऐसा हीं किया और जिस पुरूष के स्त्री की मृत्यु हो गयी थी वह उसे पूजने लगा। बदले में वह बैमत माता लक्ष्मी से प्राप्त लक्ष्मी के अंष को देता थी और उसे वह अपने हीं घर में छिड़क देता था। देखते हीं देखते उसकी व्यवसाय दिन दोगुना और रात चौगुना बढ़ने लगा और वह धनसेठ हो गया। वह आदमी अपने हीं गाँव में जमींदार बन गया। उसके पड़ोस के लोग, जो करीबी थे, उससे समक्ष बैमत को बैठा कर रात्रि 12.00 बजे से 4.00 बजे सुबह तक करेगें तो सिद्धीदात्री उन्हें सिद्धी प्रदान करेगी और सिद्धी प्राप्ति के बाद बैमत सिद्धी से जो कार्य करवाना चाहती है सिद्धी वहीं करेगी और बैमत पूजने का विधि काली से पूछ लो। काली माता खुषी से अपने स्थान से उतरी और अपने शरीर का कालिख को बैमत के आँख मंे काजल के रूप मे लगाते हुए बोली कि बैमत कि पूजा काजल से होगी और इसे अपनी पूजा के लिए जो विधान बनाना है, अपनी इच्छा से बना ले। माता दुर्गा ने भैरवनाथ को समझाते हुए बोलीं कि भारतवर्ष में जो भी बैमत होगी, उसे ही सिद्धि प्राप्ति के लिए उत्साहित करना और उसे ही हमारी अराधना हेतु कहना, भारतवर्ष के बाहरी क्षेत्र के बैमत अथवा प्रेतो को नही। इधर बैमत अपनी पुजा हेतु अराधक खोजने लगी और किसी गाँव में देखा कि एक बनीया की स्त्री की मृत्यु हो चुकी है और उसका पति दुःखी अवस्था में किसी को उसके शव के दाह संस्कार के लिए कुछ सामग्री लाने को कह रहा है। वह बैमत उसी आदमी का पीछा करने लगी, मृत स्त्री के सभी कर्म संस्कार के बाद वह बैमत उस स्त्री के रूप में उसके पति के शरीर पर खेलकर यह बताया कि वह उसकी पत्नी है और मृत्यु के बाद वह एक देवी बन गयी है अगर वह उसकी अराधना करेगा तो वह धन-धान्य से पूर्ण रहेगा। इस बात को जानकर वह उस बैमत को नियमित अराधना करने लगा। वह बैमत उसकी स्त्री के स्वरूप में ही उस बनीया के समक्ष प्रकट होती थी। एक समय की बात है भैरवनाथ से मिलकर वह बैमत शक्ति प्राप्ति का विधान पूछी तब भैरवनाथ ने कहा, अर्धरात्रि में (12.00 बजे से 4.00 बजे के मध्य) अपने अराधक के षरीर में विराजमान होकर नियमित रूप से लगातार नौ शनिवार को ‘‘ऊँ श्री सिद्धिदात्रि नम्यम्, ऊँ श्री कालिकाय नम्यम्, ऊँ श्री दुर्गाय नम्यम्’’ का जाप करते हुए अग्नी कुण्ड में आहुती डालोगे तब अन्ततः तुम्हें एक सिद्धि की प्राति होगी जो तुम्हें अग्नी कुण्ड में ही प्रकट होगा और उसे प्राप्त करने के बाद उसे अपने ही शरीर में रख लेना तत्पष्चात् तुम्हें एक अपने अराधक का स्वयं का पुत्र अथवा पुत्री या उसके परीवार के किसी बच्चे का बलि देना होगा, बलि का विधान यह है कि तुम्हें अराधना स्थल पर माता काली की प्रतिमा स्थापित कर माता दुर्गा के मंत्रोच्चारण से प्रतिमा के आगे स्वयं को उपस्थित कर अराधक के द्वारा शारदीय नवरात्र में अपनी अराधना करवाना होगा, चुँकि शारदीय नवरात्र नौ दिन का हीं होता है इसलिए उक्त नौ दिन के समान षिषु की आयु भी नौ वर्ष तक ही मान्य है तथा जितने वर्ष का षिषु की आयु होगी उतनी हीं अंकीय योग के समान तिथि को 24 घंटे तक समान रूप से माता काली के समक्ष दीप प्रज्जवलित करना होगा, इस प्रकार षिषु की आयु के अंकीय योग के अनुसार उतने ही नवरात्र करने होंगें और अंत में उक्त तिथि यानि नवरात्र के के नौ माह के भितर उस षिषु को मृत्यु देकर तुम्हें षिषु की आत्मा को माता काली के समक्ष लाना होगा और उसके विधि से शर्त में बाँधना होगा तत्पष्चात एक बलि देना होगा जो हमें मान्य हो। इस प्रकार अराधना सफल होने के बाद ही तुम्हें शक्ति की प्राप्ति होगी और तुम अपने अराधन सहित उसके षिष्यों को भी धन-धान्य अथवा यष से परिपूर्ण कर सकोगी। बैमत से इतना कहकर भैरवनाथ वापस काली आवास चले जाते है। बैमत इस अराधना के विधान से बनीया को परिचित करवाया और बनीया भी उक्त विधि से अराधना करने के लिए तैयार हो गया। विधि पूर्वक अराधना पूर्ण करने के बाद बनीया स्वयं के व्यवसाय को बढ़ाने लगा और इस प्रकार वह धनी भी हो गया। उसके इस प्रकार बढ़ते व्यवसाय को देखकर उसके गाँव के ही अधिकतर लोगो ने पुछा कि आपने आखिर किस प्रकार अपने व्यवसाय को बढ़ाया, उसने कहा समय आने पर कह देंगे। उस बनीये ने अपने करीब के संबंधी को अपने धन और यष प्राप्ति का रहस्य बताया उसके जो सबसे करीबी थे । बनीये के संबंधी ने इस बात की जानकारी अपने पड़ोस के एक व्यक्ति को दिया और उसके पड़ोस वाले सहमत हो गये और पूछा कि पूजा करने की विधि क्या है? तब वह व्यक्ति सारी विधि को पड़ोस वाले व्यक्ति को कह दिया। पड़ोस का व्यक्ति नियमानुसार 5 नवरात्रि माता काली के मुर्ति को स्थापित करके दुर्गामाता की अराधना किया और अपने हीं खानदान के एक 5 वषीर्य बालिका का बलि (उस बालिका को बैमत उसके शरीर के अन्दर अपने शरीर का अंष किसी विधि से जेैसे लार, अथवा नाखून बालिका के शरीर मंे डाल दिया और उसके आत्मा को निकाल लिया) दे दिया। बैमत उस बालिका को पकड़ कर माता काली निवास स्थान पर लायी जो रो रहीं थी। माता दुर्गा ने अपना रूप बालिका की माँ के तरह बना लिया और उसे चुप करायी, उसके बाद बैमत बोली कि तीन शर्त बोलीं ‘जब इस बालिका का भाई इसका मणुष्यदेवा बन कर आयेगा और तुम चारो में से किसी एक का मणुष्यदेवा बन जायेगा तथा जिसका मणुष्यदेवा बनेगा वो भी उसको अपना मणुष्यदेवा स्वीकार कर लेगी तब तुम उसे (माता दुर्गा को इषारा करते हुए बोली) अपने पास रख लेना,
उसके बाद आगे माता दुर्गा से बोली कि अगर इसका भाई तुमको मार देगा तब तुम कुँवरदेवी को अपने घर मंे जाने देना।
जब इसका भाई इसका जोड़ा लगा देगा तब तुम इसे अपनी परीवार के शरीर पर खेलने देना’’,
माता दुर्गा ने तथास्तु कहकर बैमत को आर्षिवाद दे दी और उन्होंने माता को उसी समय बैमत को ‘‘जीव का ढ़ेर सारा शक्ति अंष (जो आटे के तरह होता है, भक्त/तांत्रिक उसे चावल में मिला कर किसी भी विवाहित स्त्री को एक विधि बना कर खाने के लिए कहता है उसके बाद स्त्री का गर्भ हरा-भरा हो जाता है)’’दे दिया। बैमत उस जीव के अंष को अपने भक्त (जमींदार के पड़ोस के करीबी व्यक्ति) के हवाले कर दिया और वो भक्त एक बहुत बड़ा तांत्रिक बन गया, और माता काली की ये लीला निरंतर चलने लगा इसमें भैरवनाथ भी खुष थें क्योंकि उन्हंे बलि के रूप में खस्सी/पट्ठा का आत्मा मिलता था। उपरोक्त विधि से माता काली एवं बैमत अपनी लीला नीरंतर करने लगे। बालिका के साथ देवियों के जान-पहचान बनने के बाद माता दुर्गा ने उस बालिका को कुँवरदेवी बना दिया और अपना सुदर्षन प्रकट किया तथा सुदर्षन को आदेष देतीं है कि बालिक के उपर अपनी शक्ति के तीन बुँद से नहला दो, प्रथम बुँद कुँवरदेवी की बुद्धि बढने के लिए, दुसरा बुँद कुँवरदेवी के शरीर को ताकतवर बनाने के लिए और तिसरा बुँद कुँवरदेवी के वक्ष के लिए। इस प्रकार माता काली के आवास पर दिनों दिन कुँवरवीयों की संख्या बढ़ने लगी। लेकिन माता दुर्गा से आर्षिवाद स्वरूप शक्ति प्राप्त करने के बाद माता काली उन कुँवरदेवीयों के सर को काट कर सर के खुन को पी जाती थी, दुर्गामाता के पुछे जाने पर कि तुम ऐसा क्यों करती हो, इस पर माता काली जबाव देती थी कि अगर इसको तुम्हारे प्रक्रिया से हमसे ज्याद बुद्धि हो गया तोकुँवरदेवीयाँ हमारे आवास से भाग जाएगी। माता काली के इस व्यवहार को देख कर कुँवरदेवीया दुःखी थी और एक दिन कह ही दिया कि आखिर तुम ऐसा क्यों करती हो, अगर हमलोग तुम्हारा खुन पिएँ तो तुम्हें कैसा लेगेगा। इस पर माता काली खुष हुई और कुवँरदेवीयों से पूछ बैठी की तुमलोग मेरा खुन पीना चाहती हो, कुँवरदेवीयाँ द्वारा हाँ सुन कर माता काली ने त्रिषला (एक शस्त्र) से अपना सर को काट दिया और सभी कुँवरदेवीयों को अपना खुना पिलाया और पुछा कि और किसको मेरा खुन पीना है, इस पर भैरवनाथ ने हँसते हुए कहा कि हमें भी तुम्हारा खुन पीना है। इस पर माता काली ने गुस्साते हुए उसी अवस्था मंे अपने पैर के समक्ष पड़े हुए भैरवनाथ के कमंडल पर एक लात मारी जिससे वो कमंडल भैरवनाथ के सीधे कनपट्टी पर लगा और उनका एक कान हमेषा के लिए खराब हो गया। लेकिन काली माता का खुन पीलाने का काम निरंतर चलता रहा, अगली बार माता के द्वारा पुछे जाने की कि भैरवनाथ तुम भी मेरा रक्तपीओगे, इस बार भैरवनाथ ने विनम्रता भरे स्वर कहा न माता हम तुम्हारा खुन नहीं पीएँगे, इस बार हम माता दुर्गा का खुन पिएँगे इस पर माता दुर्गा कुपित हो गई और अपना त्रिषुल भैरवनाथ के आँख में उतार दिया, जिससे उनका एक आँख भी जाता रहा, लेकिन माता काली भैरवनाथ के इस अवस्था को देख कर दुःखी थी। माता दुर्गा और माता काली के बीच कहा सूनी भी हुई, इस पर माता दुर्गा ने कहा भैरवनाथ का जिह्वा बहुत बढ़ गया है और माता काली, माता दुर्गा से नाराज हो गई।इधर बैमत द्वारा भैरवनाथ के बार में पुछे जाने पर कि उनकी आँखों को क्या हुआ, इसपर भैरवनाथ ने चतुराई से कहा कि जब मैं माता दुर्गा की अराधना कर रहा था तो उनकी त्रिषुल मेरे आँख पर गिर गई।एक माह होने को आए लेकिन माता काली, माता दुर्गा से बात नहीं करती थी, तब माता दुर्गा ने पुरानी बात को निकालते हुए कहा कि सरस्वती उस दिन जो काली सभी कुँवरदेवीयों को अपना खुन पिलाई उसके इस रूप को क्या कहती हो, माता सरस्वती हँसते हुए बोली, काली के इस रूप को रक्त पिलाने वाली माता कहेंगे, माता दुर्गा बोली एक शब्द में बताएँ, माता सरस्वती बोली ‘‘रक्तरप्पा माता’’। माता दुर्गा ने हँसते हुए कहा कि काली अब धरती पर ‘‘रक्तरप्पा माता’’ (जो वर्तमान में रजरप्पा माता के नाम से जानी जाती है) के नाम से भी जानी जाएगी, चुकि माता काली ने कुँवरदेवीयों को अपना सिर काट कर रक्त पिलाया था इसलिए भैरवनाथ ने उन्हें ‘‘छिन्नमष्तिके’’ के नाम से संबोधित किया। दुर्गा माता के इस बात को सुन कर माता काली खुष हुई और उन्होंने भैरवनाथ को अपने इस रूप के प्रचार-प्रसार के लिए धरती पर भेज दिया।
चुँकि धरती पर जीवन की शुरूआत हो चुकी थी और कलयुग, मृत्यु प्राप्त हुए मणुष्यों के आत्माओं को पकड़ कर निगल जाता था जो बैमत बन कर बाहर आती थी और इस प्रकार धरती पर बैमतों की संख्या बढ़ने लगी। कलयुग ने अपने काल में सुक्ष्म से सुक्ष्म जीव और बड़ा से बड़ा जीव उत्पन्न किया, जिसमें डायनासोरस जैसे अति भयानक जीव भी आते हैं लेकिन श्री हरि विष्णु ने इस जीव को मानव जाति के लिए खतरा बताया और पितामह श्री ब्रहा्राजी से बोले कि कलयुग को आदेष दें कि वह इस प्रकार का भयानक जीव उत्पन्न न करे जो मानव जाति के लिए खतरा हो। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने ऐसा हीं किया और कलयुग को मना कर दिया और कलयुग मान भी गया तथा समय के साथ ऐसे जीव को विलुप्त कर दिया।
KAAL SAGAR "Ek Mahakavya" (English)
{खण्ड-5}
।। तिलिस्मी कूरान का उत्पत्ति ।।
पितामह श्री ब्रहा्राजी और षिवजी दोनों ब्रहा्राण्ड में तपस्या में लीन थे, 786 (सात सौ छियासी) दिन के तपस्या पूर्ण होने के बाद ब्रहा्राजी ने एक दिव्य पुस्तक प्रकट किया और षिवजी को दिखायें और बोले कि ये तिलिस्मी कुरान है इसे तुम सृष्टि के किसी भाग में रख आओ लेकिन भारत वर्ष में मत रखना। षिवजी ने ऐसा हीं किया, सृष्टि के पष्चिमी भाग में (जो वर्तमान में बगदाद के नाम से जाना जाता है जो इराक में स्थित है) जाकर खड़ा हो गए और तिलिस्मी कुरान से कहा कि ‘‘हे तिलिस्मी कुरान, एक इमारत प्रकट करों’’ तिलिस्मी कुरान ‘‘जो हुक्म मेरे आका कहकर’’ एक भैव्य इमारत प्रकट की। षिवजी महल के अन्दर चले गये और उचित स्थान देखकर कुरान को रख दिया और आगे कहा कि ‘‘हे तिलिस्मी कुरान, इस इमारत के चारो तरफ से एक सल्तनत बना दो’’, कुरान ‘‘जो हुक्म मेरे आका कहकर इमारत के चारो तरफ ‘‘कुबुलिस्तान नामक एक सल्तनत’’ (वर्तमान में बगदाद ‘‘इराक’’ कहलाता है) बना दी’’। उसके बाद षिवजी अदृष्य हो गये और कुरान से बोले कि बोले कि ‘‘हे तिलिस्मी कुरान, अब तुम अपने इच्छाशक्ति से एक शाहजादा और एक शाहजादी पैदा करो और उनसे कहो कि वे अपनी संतान उत्पन्न करें और इस सल्तनत कि अच्छी तरह देखभाल करें’’ और इस कार्य में तुम भी उनका संपूर्ण साथ देना’’ यह कहकर षिवजी ब्रहा्राण्ड में ब्रहा्राजी के पास चले आये उसके बाद ब्रहा्राजी ने ‘‘दिव्य रामायण महाकाव्य’’, ‘‘षिव महापुराण’’, ‘‘विष्णु महापुराण’’, एवं ‘‘दिव्य महाभारत महाकाव्य’’ षिवजी को देते हुए कहा कि इसे भारतवर्ष के किसी योग्य तांत्रिक को दे दों जो द्वापर और त्रेता युग के कथाओं का उपदेष लोगों के बीच दे सके और भारतवर्ष के लोगों में दैविक धर्म ‘‘जो वर्तमान में हिन्दू धर्म कहलाता है’’ का नाष न हो। षिवजी ने ऐसा हीं किया और एक वृद्ध तांत्रिक का भेष बनाकर रात्रि को 02.00 बजे सिद्धि प्राप्ति हेतु यज्ञ कर रहे तांत्रिक के पास आए और उनसे आग्रह पूर्वक बोले कि माता दुर्गा ने हमे आदेषित किया था कि इस महाकाव्य के सहायता से तुम भारतवर्ष की धरती पर लोगों के बीच श्री हरि विष्णु का गुण-गान करो लेकिन मेरी उम्र तो काफी हो गयी है इसलिए अब ये कार्य हमषे नहीं होता, कृप्या करके इस महाकाव्यों को आप ग्रहण करें और मेरे कार्य को आप सिद्ध करें। तांत्रिक तैयार हो गया और सारे महाकाव्य को अपने पास रख लिया तथा यज्ञ और बैमत को भूलकर श्री हरि विष्णु का गुण-गान लोगों के बीच करने लगा। इधर तिलिस्मी कुरान अपने इच्छा शक्ति से एक शाहजादा और एक शाहजादी प्रकट की और उनसे कहा कि मैं तुम्हारी अम्मी हूँ और तुम तुम दोनों मेरे संतान हो। उनदोनों को कुरान सुल्तान अली और सुल्ताना बेगम कहकर संबोधित की। तिलिस्मी कुरान, सुल्ताना को इस बात का इल्म कारायी कि वे दोनों सुबह शाम कुरान को पढ़े तो तिलिस्मी कुरान खुष होकर उन्हें तरह-तरह कि तिलिस्मी ताकतें प्रदान करेंगी और सुल्तान को समझाते हुए कहा कि तुम दोनो आपस मे मिलकर अपनी संतान पैदा करो। सुल्ताना और सुल्तान कुरान के हुक्म के अनुसार रोजाना सुबह नहा-धोकर और षाम को नहा-धोकर उस कुरान को पढ़ती थी और दुआ माँगतें थी, इससे तिलिस्मी कुरान खुष होकर सुल्ताना को दुआ देते हुए कहा कि तुम ‘‘जिसे भी अपनी जुबान से कुछ भी कहोगी वो सच साबित होगा’’ और सुल्तान को एक ‘‘तिलिस्मी आइना’’ देते हुए कहा कि इसकी मदद से तुम अपने सल्तनत कि सैर घर बैठे कर सकोगे। सुल्ताना और सुल्तान दोनों बहुत खुष हुए। सुल्तान उस तिलिस्मी आइना कि मदद से अपने सल्तनत पर नजर रखने लगा और अपने सल्तनत के लोगांे के दुःख दर्द को समझने लगा और अपने वजीर के हाथों आवष्यक सामग्रियाँ भेजवाकर उनका दुःख को दूर कर देता था। एक बार कि बात है, सुल्ताना तिलिस्मी आईना के सहायता से समुद्र की सैर कर रहीं थी। तभी उसकी नजर, समुद्र में निवास कर रहे माता दुर्गा, और अन्य देवियों पर पड़ी, वह इस तरह के स्वरूप वाले स्त्री को पहली बार देख रही थी, उसने सुल्तान को बुलाया और उनलोगों की तस्वीर को दिखाते हुए बोली कि ये लोग कौन है? सुल्तान भी ऐसे स्त्रियों को देख कर हैरत में पड़ गया। दोनों ने कुरान को जाकर दिखया और पुछा कि अम्मी ये लोग कौन है और कहाँ निवास कर रहे हैं। कुरान ने दोनों को समझाते हुए कहा कि ये लोग ‘‘हिन्द’’ कि देवी हैं, तुम लोग उधर कभी मत जाना। लेकिन सुल्तान उस जगह के बारे मे जानने के लिए उतावला हो रहा था और मन में ठान लिया था कि किसी दिन उस जगह पर जरूर जाऐंगे। कुछ ही दिन हुए थे कि कुरान ने उनदोनों को दूआ के रूप मंे एक तिलिस्मी कालीन दिया (जो आकाष में उड़ता था) और कहा कि तुमदोनांे इस पर बैठ कर अपने सल्तनत कि सैर करना। सुल्ताना बहुत खुष हुई और सुल्तान के साथ सल्तनत कि सैर करने निकल पड़ी, लेकिन सुल्तान का मन कहीं और सैर को था, इसलिए मौका निकाल कर अपने कनीजों और साथियों के साथ तिलिस्मी कालीन पर सवार होकर एक हाथ में तलवार और दुसरे हाथ में तिलिस्मी आईना लेकर पूर्व दिषा कि ओर उड़ चला जहाँ माता दुर्गा और सभी देवीयों का निवास स्थान था। वहाँ पहूँचते हीं सुल्तान का सामना भैरवनाथ से हुआ, भैरवनाथ अपनी बहन बैमत के साथ खेल-कुद कर रहे थें। भैरवनाथ के द्वारा पूछे जाने पर कि आप कौन है? सुल्तान ने जबाव दिया कि हम अपने सल्तनत ‘‘कुबुलिस्तान के शहंषाह’’ सुल्तान है और अपने कनीज और साथियों का परिचय दिया। भैरवनाथ उनलोगों को साथ लेकर माता दुर्गा और अन्य देवीयों के समक्ष प्रस्तुत हुए। माता दुर्गा और सभी देवीयाँ आष्चर्य से भैरवनाथ से पुछा कि ‘‘ये तुम किसे ले आये’’, इससे पहले कि भैरवनाथ कुछ कहते सुल्तान अपना परिचय खुद हीं दे दिया। इसपर माता दुर्गा खुष तो हुई लेकिन सुल्तान से बोली कि हम इस्लाम से ‘‘छुआ-छुत’’ मानते हैं, सुल्तान कुछ न कह सका और वापस चला गया लेकिन माता दुर्गा ने सुल्तान को ‘‘विदाई के उपहार’’ स्वरूप उसे पिता बनने का आर्षिवाद दे दिया था। वापस महल पहूँचने पर अपनी आपबीती उसने कुरान को सुनाया, कुरान सुल्तान को समझाते हुए बोली कि मैंने पहले हीं तुम्हे मना किया था कि तुम ‘‘हिन्द’’ की तरफ कभी मत जाना, लेकिन तुम नहीं माने। कुछ सालों के पश्चात् माता दुर्गा के आर्षिवाद से सुल्ताना बेगम माँ बनी और एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम ‘‘सरिकार अली’’ पड़ा। इसी प्रकार समय बितता गया और सुल्तान अली के कुल 8 पुत्र और 1 पुत्री उत्पन्न हुए जो जिनके नाम इस प्रकार है:- सरिकार अली, परिहार हुसैन, जिन्न, जिन्नाथ, सहजा (पुत्री), परमार, सरोकार, खिलजी, और शेख, जिसमें शेख सबसे छोटा था। एक समय कि बात है उस समय शेख कि उम्र करीब 5 वर्ष होगी, सुल्तान अली के दरबार में एक सौदागर आया जो अपने साथ एक दवा लाया था जिसका नाम ‘‘जहर-ए-तिलिस्मानियाँ’’ था, वह सौदागर सुल्तान अली को उस दवा की खुबी बताते हुए बोला कि अगर ये ‘‘जहर-ए-तिलिस्मानियाँ’’ किसी को पिला दिया जाय तो पिने वाला करीब 2 घंटा तक अपना सुध-बुध खो देगा और मरा हुआ प्रतीत होगा, उसकी साँस भी नहीं चलेगी और ये दवा दुष्मन के कैद से आजाद होने में कारगर साबित होगा। सुल्तान अली खुष हुआ और वह उस सौदागर को इस दवा के बदले ढे़रों अषर्फीयाँ दिया और दवा को अपने पास रख लिया। तभी सुल्ताना, सुल्तान अली के को बतायी कि शहंषाह बिस्मिल्लाह करने का समय हो गया है, चलिए बिस्मिल्लाह कर लें। सुल्तान अली, सुल्ताना के साथ बिस्मिल्लाह करने चले गय,े सुल्ताना सुल्तान को भोजन परोसकर अपने लिये भोजन लाने गई, सुल्तान अली जहर-ए-तिलिस्मानियाँ को देखकर खुष हो रहे थे और उसे वहीं रख कर अपना हाथ धोने चले गये, पास में हीं शेख खेलकुद कर रहा था और जहर-ए-तिलिस्मानियाँ के शीषी को खोलकर वही खेलने लगा, चुँकि शहंषाह का भोजन वहीं रखा हुआ था इसलिए वह जहर भोजन से मिल गया और उस शीषी के साथ खेलने लगा। सुल्तान अली हाथ धोकर आए और बिसमिल्ला करने लगे, खाने का एक निवाला लेते ही सुल्तान बेहोष हो गये, तभी सुल्ताना अपना भोजन लेकर आयी और सुल्तान को बेहोष देख कर चिखने-चिल्लाने लगी, शेख भी रोता हुआ वहाँ आया जिसके हाथ में जहर-ए-तिलिस्मानियाँ का शीषी था, उसे देखकर सुल्ताना समझ गयी कि शेख ने खेल-कुद में सुल्तान के भोजन में जहर-ए-तिलिस्मानियाँ डाल दिया है जिससे शहंषाह कि मृत्यु हो गयी। सुल्ताना बेगम ने कहा ‘‘या अल्लाह, यह लड़का एकदम शैतान हो गया है’’ कहते हीं शेख 5 वर्ष की उम्र में हीं शैतान (दैत्य) बन गया (चुकि कूरान सुल्ताना बेगम को दुआ दी थी कि वह अपने जुबान से किसी को जिस शब्द से संबोधित करेगी वह सच साबित होगा) और शेख हँसते हुए अपना कद बढ़ाने लगा। ये सब देखकर सुल्ताना अचंभित हुई और कुरान के पास जाकर अपनी आपबीति सुनाई। कुरान बोली कि ये अच्छा नहीं हुआ, अब हमें शेख का अंत करना होगा लेकिन सुल्ताना बेगम अपने बेटे के मोह में फँस गई और कहा कि वह मेरा छोटा बेटा है उसका अंत मत किजिए, हम उसे संभाल लेंगे। तब तक सुल्तान को होष आया और अपने महल का नजारा देख कर दंग रह गए, शेख, शैतान बनकर अपने ही महल में तबाही मचाये हुए था, वह अपने हीं बहन सहजा के साथ जबरदस्ती संभोग कर लिया, जिससे वह भी शैतान हो गई। उसके बाद शेख और सहजा ने मिलकर सुल्तान और सुल्ताना का हत्या कर दिया उसके बाद कुरान ने सुल्तान और सुल्ताना के आत्मा को अपने अन्दर समेट लिया, लेकिन कुरान के आगे बहुत बड़ी समस्या खड़ी थी कि इधर सहजा ने अपने सारे भाईयों से संभोग करवा लिया जिससे शेख के सारे भाई और बहन सहजा, सभी के सभी शैतान हो गए। तब कूरान ने अपनी इच्छा शक्ति दिखाई और उन लोगों को आपस में ही लड़वा दिया जिससे सभी लोग एक दूसरे का हत्या कर दिए और अंत में शेख भी मारा गया, इस तरह कुरान अपने सल्तनत ‘‘कुबुलिस्तान’’ को ‘‘कब्रिस्तान’’ बनने से बचा लिया। सभी के शरीर में से शैतानी आत्मा निकला जिसको कुरान अपने तिलिस्मि शक्ति से मारना चाहती थी और पूर्ण कोषिष के बाद कुरान असफल रही क्यों कि शेख तो कुरान के दुआ से हीं शैतान बना था इस लिए कुरान उसका अंत नहीं कर सकी, शेख ने हँसते हुए कहा कि ‘‘हमें कोई नहीं मार सकता है’’। ब्रहा्रण्ड में बैठे षिवजी यह सारी घटना देख रहे थे और शेख को अपने मन में ही बोले कि ‘‘तुम सिर्फ आग से मरोगे’’ इस पर ब्रहा्राजी षिवजी से बोले कि ऐसे ही किसी को श्रापित नहीं करना चाहिए और अगर कर हीं दिया है तो शेख को वरदान स्वरूप कुछ दिजिए, इसपर षिवजी ने शेख को एक दूसरा स्वरूप दिया जो एक भयानक गोरिल्ला के तरह था (पाठकगण एक डरावनी फिल्म देखंे होंगें जिसका नाम था ‘‘किंग-कांग’’ उसमें जो गोरिल्ला का स्वरूप था, शेख का दूसरा स्वरूप भी वैसा हीं था जिसका मुख दैत्य के समान था) और इस प्रकार शेख के दो स्वरूप हो गए। इधर कलयुग भी कुबुलिस्तान में चल रही घटनाओं को देख रहा था और मौका मिलते हीं अपने हाथ को लंबा किया और दिव्य कुरान को उठाकर अपने उदर में डाल लिया, कुरान ने अपने आप को छुडाने के लिए कलयुग के उदर के अंदर तिलिस्मी ताकतों का प्रहार किया, तिलिस्मी तलवार फंेकी, तिलिस्मिी जिन्न निकाले लेकिन कलयुग पर इन सब चीजों का कोई असर नहीं हुआ और कलयुग अपने कार्य को आगे बढ़ाते हुए दिव्य महाकाव्य रामायन और महाभारत और सारे पुराणांे को भी अपने उदर में डाल लिया। कलयुग के इस लीला से ब्रहा्रदेव अप्रस्न्न हुए और खेद प्रकट करते हुए कहा कि कलयुग ये तुमने अच्छा नहीं किया। कलयुग ने प्रतिउत्तर देते हुए कहा कि हम अपने काल में विष्णु, षिवजी और किसी प्रकार के देवी देवताओं के महिमा का ब्याख्यान नहीं होने देंगें इसपर ब्रहा्रदेव ने कहा कि सभी देवताओं का प्रचार-प्रसार होने के बाद अगर तुम अपने ही काल में इनके नामों को मिंटा देते तो हम समझतें कि तुमने अपने काल में हमें कुछ नया दिखाया है। कलयुग अफसोस करते हुए कहा कि अब तो सब के सब मेरे उदर में हैं, इनको तो मैं वापस नहीं निकाल सकता लेकिन आप हीं कुछ चमत्कार किजिए। तब इस्लाम धर्म के एक अनुयायी के हाथों ब्रहा्रदेव ने अपनी प्रेरणा से कुरान ग्रन्थ की रचना करवाई जो वर्तमान मंे इस्लाम धर्म के संस्थापक ‘‘मुहम्मद साहब’’ कहे जाते हैं और महर्षि वेद व्यास को प्रेरणा देकर महाभारत ग्रन्थ की रचना करवायी और तुलसी दास को प्रेरणा देकर रामायण की रचना करवायी, षिव भक्त को प्रेरणा देकर षिव महापुराण और विष्णु महापुराण की रचना करवायी। इधर शेख अपने भाई सहित धुमते हुए भारतवर्ष पहूँचा जहाँ तांत्रिकों के द्वारा बैमत की पूजा को देख कर हैरान हो गया, तांत्रिक के समक्ष शेख प्रकट होकर कहने लगा कि तुम हमारी भी पूजा करो इस पर तांत्रिक बोला कि बैमत को पूजने से माता काली, माता दूर्गा हमें शक्ति प्रदान करती हैं आप क्या हमें दिजिएगा,फिर शेख बोला कि कहाँ है तुम्हारी बैमत और शेख उस तांत्रिक के बैमत से मिला और पूछा कि कहाँ से तुम शक्ति और धन का अंष लाती हों, बैमत शेख और उसके भाईयों सहित माता काली के दरबार में उपस्थित हो गये और बैमत बोली कि यही लोग हमें शक्ति देती हैं। शेख माता दुर्गा के समक्ष खड़ा होकर सुझाव भरे लहजे में कहा कि तुम हमारी मदद करों और हमारे मुल्क में निवास कर रहे शेख-बैमत के द्वारा हम वहाँ के लोगों से अपनी पुजा करवायेंगे और तुम उन्हें शक्ति प्रदान करना और बदले में हम तुम्हारे मुल्क से इस्लाम को खत्म कर देंगे। माता दुर्गा शेख के इस बात से सहमत नहीं हुई और चेतावनी भरे शब्दों मंे बोली कि जाओं अपने मुल्क में वापस चले जाओं और कभी इस मुल्क की तरफ आँख उठाकर मत देखना। माता दुर्गा के क्रोध को देखकर शेख अपना दूसरा रूप दिखया जिसको देखकर सभी देवीयाँ शांत रही लेकिन भैरवनाथ डर गया और माता काली से बोला कि ये तो दैत्य है माई। शेख के साथ जो उसके भाई थे वे माता दुर्गा को समझाने लगे और बोले कि शेख को गुस्सा मत दिलाओं, अगर उसे गुस्सा आ गया तो वह तुम लोगों में से किसी को नहीं छोड़ेगा। इधर शेख भैरवनाथ को पकड़ लिया और कहने लगा कि अगर तुम मेरा कहा नहीं मानोगी तो इसे अपने मुल्क ले जायेंगे और वहीं दफन कर देंगे। इस पर माता दुर्गा अपना झुठा दुःख प्रकट करते हुए बोली कि तुम्हारे पूर्वजों ने मेरे षिवजी को तो ले ही गये, ये मेरा एकमात्र भाई है, जो मेरा सहारा है इसे मत ले जाओ। इधर माता सरस्वती शेख की बुद्धि चला दीं और वह सोचने लगा कि जब इसके षिवजी हमारे मुल्क में ही है तो उसे ढुंढ़कर षिवजी से हीं कहलवायेंगे कि दुर्गा को कहो कि वे मेरी बातें मान ले और शेख अपने भाईयों सहित षिवजी की खोज में अपने मुल्क की ओर निकल पड़ा। शेख अपने मुल्क और आस-पास के मुल्कों के हर दरगाह, हर कब्रिस्तान और हर मस्जिद मंे षिवजी को खोजा लेकिन षिवजी नहीं मिलें। सारी धरती की खाक छान लेने के बाद शेख और उसके भाई षिवजी की खोज करने समुद्र की ओर निकल पड़ा और समुद्र में एक काफी गहरा कुआँ था जो कि उस समय नील कुआँ के नाम से विख्यात था। शेख और उसके सारे भाई नील कुआँ मंे कुद गए (जो सउदी अरब के समुद्र तट से लगभग 20-25 कि॰मी॰ दूर समुद्र के तरफ है) और कुआँ के अन्दर जाने के बाद उनलोगों को खंडहर मिला। माता दुर्गा शेख की इस लीला को देख रहीं थी और अपनी इच्छा शक्ति से उसी खंडहर में एक ‘‘षिवलिंग’’ प्रकट कर दीं जिससे आवाज आ रहीं थी कि ‘‘कोई मुझे गंगाजल दे दो’’ और जब भी शेख उस षिवलिंग को देखने जाता था तभी ये आवाज आती थी। शेख को लगा कि षिवजी को इसी पत्थर में हमारे पूर्वजों ने कैद किया है लेकिन वह षिवजी को पत्थर से बाहर नहीं निकाल सका और शेख की बुद्धि धरी की धरी रह गई और शेख अपने भाईयों सहित दुबारा माता दुर्गा के दरबार में उपस्थित हुआ और उनसे पूछा कि किस तरह से हमारे पूर्वजों ने तुम्हारे षिवजी को अपने साथ ले गये। माता दुर्गा ने झुठी कहानी सुना दी और बोली कि सैकड़ो वर्ष पहले हमदोनों षिवलोक में रहते थे, एक दिन जब षिवजी हमसे भांग पिसने के लिए बोले तो हम भांग पिसने चले गए तब तक तुम्हारे मुल्क से सुल्ताना बेगम नाम का एक शाहजादी आकाष से षिवलोक मंे उतरी, जिसे देख कर षिवजी उसपर मोहित हो गये और उसके साथ चले गए, जब मैं भांग पीस कर आयी तो वे अपने स्थान पर नहीं थे ये कह कर माता दुर्गा ने अपने नेत्र से दो बुँद आँसु भी गिरा दी और आगे बोली कि इस बात को किसी के समक्ष मत कहना नहीं तो दुनिया उन पर हँसेगी। जिसे देखकर माता सरस्वती (मन ही मन हँसते हुए) बोली कि मत रो दुर्गा एक दिन तुम्हारे षिवजी जरूर वापस आऐंगे इधर ब्रहा्राण्ड में षिवजी ने हँसते हुए श्री हरि विष्णु से बोले कि ये देवीयाँ तो लीला करने में आपको भी पिछे छोड़ दिया। शेख और उसके भाई वापस अपने मुल्क में नील कुँआ के आस-पास खड़े होकर आपस मंे विचार करने लगा और सभी अपना मत देने लगे कि हो न हो दुर्गा का षिव इसी नील कुआँ में दफनाया गया है, क्यों कि इस कुआँ से गंगाजल मांगने की आवाज भी आती है। शेख और उसके भाईयों ने अतीत की जानाकरी वहाँ पहले से निवास कर रहे बैमतों से ली लेकिन उन लोगों ने षिवजी के बारे में कुछ नहीं बताया। लेकिन शेख वहाँ निवास कर रहे सारे शैतानी ताकतों को कह दिया कि इस नील कुआँ मंे हिन्दू धर्म के अल्लाह जो दुर्गा का शौहर भी है, हमारे पूर्वजों द्वारा दफना दिया गया है, अब हमें इस नील कुआँ को पहरा में रखना है ताकि षिव यहाँ से कभी न निकले और न हीं कोई हिन्दु धर्म के लोग अथवा कोई हिन्दु धर्म के शैतानी ताकत यहाँ पर आ सके और उसे गंगा जल दे सके। उसके बाद जो भी उस स्थान के आस पास के मौलवी/मौलाना, जो कि बैमत अथवा शेख को पूजते थे सभी ने मिल कर उस निलकुआँ पर एक मकबरा बनाया (जो आज इस्लामों का तिर्थ स्थल मक्का-मदिना कहलाता है)। उसे शेख के आदेषानुसार अच्छी तरह से सुरक्षा के घेरे मंे ले लिया इस प्रकार वहाँ इस्लाम के लिए एक तिर्थ स्थल तैयार किया गया। उसके बाद शेख हिन्दुस्तान आया और वहाँ पर निवास कर रहे हिन्दु बैमतों को सूचना दी कि तुम्हारे षिवजी को हमारे पूर्वजों ने अपने मुल्क में ले जाकर समुद्र में दफन कर दिया है और वे तुम लोगों के हाथ से गंगाजल की मांग कर रहे हैं, ये सारी बातें बैमत अपने भक्त/तांत्रिक को बतायी जिससे तांत्रिक को विष्वास नहीं हुआ और वह बैमत के द्वारा भैरवनाथ को बुलवाया और उनसे सारी बात की जानकारी ली तब भैरवनाथ ने अपना सहमती देते हुए कहा कि हमें ये बात सूनने मंे आया है। फिर क्या था जितने भी षिवभक्त जिसमें बैमत, हिन्दु धर्म के मानव जाति सब मिलकर षिवजी को लाने मंे जुट गए लेकिन वहाँ पहूँचते हीं या तो उनकी हत्या कर दी गयी या इस्लाम बना दिया गया। थक हार कर हिन्दू धर्म के सभी लोग षिवजी को वापस लाने का विचार हीं त्याग दिया। इधर शेख हिन्दुस्तान में देवीयों द्वारा प्राप्त लक्ष्मी के अंष को बैमतों से छिन लिया करता था और तो और उनको मारता-पिटता भी था। इस तरह शेख कि हरकत को देख कर माता दुर्गा ने काल रात्रि माता को प्रकट किया और उनके हाथ में चन्द्रह्ाष देते हुए उन्हें आज्ञा दी कि भारतवर्ष में शेख अगर किसी सिद्धि वाली बैमत के हाथ से शक्ति का अंष अथवा उसे यज्ञ/हवन करने में हस्तक्षेप/परेषान करता है तो उसे वहीं पर खत्म कर दो। काल रात्रि माता, माता दूर्गा का आदेष पाकर आकाष के मार्ग से शेख पर नजर रखने लगी। शेख जब भी ऐसी हरकत करती तो काल रात्रि माता उसे सावधान कर देती थी। एक बार की बात है काल रात्रि माता भ्रमण करते हुए शेख के मुल्क में पहूँच गई जिसको देख कर शेख को अच्छा मौका हाथ लगा और शेख अपने खड़ग से कालरात्रि माता पर पीछे से प्रहार किया, जिससे कालरात्रि माता को काफी चोट आयी लेकिन वे अपने आप को संभालतें हुए शेख पर चन्द्रह्ाष से प्रहार किया लेकिन शेख का बाल भी बांका नहीं हो सका और कालरात्रि माता को वहाँ से भागना पड़ा और माता दूर्गा के समक्ष प्रस्तुत होकर अपनी आपबीती सुनाई इस पर माता दुर्गा कुछ सांेच कर बोली कि शेख को तुम अग्नी प्रकट करके डराओं वो तुम्हारा सामना नहीं कर पायेगा। इस पर कालरात्रि माता ने कहा कि जब आप उसके अंत का राज जानती हैं तो उसका अंत करने का आदेष क्यो नहीं देती हो, इस पर माता दुर्गा ने हँसते हुए कहा कि जब श्री हरि विष्णु धरती पर अवतार लेकर आएँगे तभी उन्हीं के अनुसार उसका अंत होगा। अगली बार जब माता कालरात्रि का सामना शेख से होता है तब वो माता दूर्गा के कहे अनुसार अग्नी प्रकट की जिसकों देख कर शेख अपने ‘‘अल्लाह’’ याद आ जाता है और वो वहाँ से भाग गया। इस प्रकार शेख कालरात्रि माता से सावधान रहने लगा और शेख अपना क्रोध माता दुर्गा के निवास स्थान पर दिखाया जिस पर माता सरस्वती बोली कि इस तरह से क्रोध कर गाली-गलौज करने से क्या फायदा है शेख, तुम्हारा कुछ नुकसान हुआ है तो बोलो, शेख ने प्रतिउत्तर देते हुए कहा कि एक ऐसी कुँवरदेवी तुमलोगों ने हमारे पीछे लगा रखी जो हमंे हमेषा सावधान रहने का धमकी देते रहती है और शेख ये बर्दास्त नहीं कर सकता है, अगर तुम लोगों ने उसे नहीं रोका तो हम तुम्हारे मुल्क में निवास कर रहे सारे हिन्दुभाक्तों के भोज्य पदार्थ में गौ का रक्त मिला देंगे जिससे सारे हिन्दू-तुम्हारे नजर मंे इस्लाम बन जाऐंगे और तुम्हारी देवी होने का ढांेग धरी की धरी रह जाएगी। इसपर माता काली ने गुस्ताते हुए कहा कि अगर तुम इस देष के एक भी मानव के साथ ऐसी-वैसी हरकत की तो हम धरती के इतने टुकड़े करेंगे की तुम गीन नहीं पाओगे। शेख ने हँसी का ठहाका लगाते हुए कहा कि ‘‘तुम्हारी इतनी हैसियत है ही नहीं’’ इस पर माता काली ने अपना एक पैर से पर्वत को दबा दिया (जहाँ वे लोग निवास कर रही थी) जिससे पर्वत हिलने लगा और शेख समझा कि धरती हिल रही है, इस प्रकार शेख को यकिन हो गया कि माता काली सच कह रही है। कलयुग अपने युग में देवियों की इस स्थिति को देखकर खुष होता था और शेख के दिमाग में तरह तरह से लड़ने के लिए बुद्धि देता था। एक बार कलयुग अपने तीनों भाईयों सत्युग, द्वापर और त्रेता के बारे में विचार कर रहा था और सोंच रहा था कि आखिर क्यों वे लोग विष्णु के आदेष मंे चलते हैं और वह मन हीं मन गुर्राते हुए बोला वे लोग स्त्री हैं स्त्री, और माता दुर्गा के निवास स्थान पर जाकर उनसे कहा कि तुम मेरे भाईयों की गिनती अपने बहन के रूप में करो। माता दुर्गा कलयुग को ‘‘तथास्तू’’ कहकर कलयुग के समक्ष हीं भैरवनाथ से बोली कि भरतवर्ष में जितने भी तांत्रिक एवं भक्त है उनको खबर दे दों कि हम लोग सात बहने हैं और माता सरस्वती से इच्छा कि हमारी तीनों बहनों का नाम रखें और उनके लीलाओं की कहानी बनाएँ। माता सरस्वती ने तीन बहनांे के रूप में ‘‘माता संतोषी, माता विन्ध्यवासिनी और तिसरा कामाख्या’’, माता सरस्वती के इस बात से कलयुग खुष हुआ और अपने स्थान पर चला गया और भैरवनाथ ने भारत वर्ष के समस्त सिद्धि वाली बैमत को बुलाया और सातों बहन के महिमा के बारे में बताया और बोला कि अब से पूजा स्थल पर सातों बहन के नाम से दीपक जलना चाहिए और इस प्रकार भारतवर्ष मंे माता दुर्गा सात बहनें हैं, प्रचलित हो गया।
भैरवनाथ अक्सर अपने शक्ति के बारे मंे बैमतों के समक्ष बढ़ाई किया करते थे, एक समय कि बात है, काली आवास में ही किसी बात पर भैरवनाथ अन्य बैमत पर बिगड़े हुए थे, वे बार-बार बैमत को धमकी दिये जा रहे थे कि ज्यादा झूठ बोलेगी तो तुम्हें अपने कमंडल के जल से यही जला कर भभूत बना देंगे, जिससे बैमत डरती नहीं है और भैरवनाथ को उनके कमंडल के जल का परीक्षण करवाने के लिए बोलती है। तब भैरवनाथ अपने कमंडल के जल को धरती पर छिड़क देते हैं और उस पर बैमत को बैठने के लिए कहते हैं, जैसे ही बैमत छिड़के हुए जल पर बैठती है, भैरवनाथ माता काली को फूँक मारने के लिए कहते है। बैमत को धरती थोड़ा गर्म लगती है और वह समझ जाती है कि भैरवनाथ के कमंडल का जल गर्म होता है।
भारतवर्ष के जिस खानदानी परिवार से कुँवरदेवी और मणुष्यदेवा नहीं हुए थे, वहाँ पर कुलदेवी और कुलदेवता के रूप मंे भैरवनाथ और काली की बैमत (काली की बेटी) पूजा लेते थे लेकिन वास्तव में कुलदेवी और कुलदेवता का नाम भिन्न रहता था। और जब भी किसी कुल में कुलदेवता को बलि मिलता था तो वहाँ भैरवनाथ और काली की बेटी पहूँच जाते थे और इस क्रम में काली की बैमत भैरवनाथ को पसंद करने लगी थी लेकिन भैरवनाथ का गुस्सा को जानकर वो भैरवनाथ से कुछ नहीं बोलती थी। एक दिन की बात है भैरवनाथ माता काली के निवास स्थान पर वहाँ पर निवास कर रहीं कुँवरदेवियाँ (जो सिद्धी वाली बैमत के द्वारा बनायी गयी थी) को भूत, प्रेत से लड़ने का दाव-पेंच सिखा रहे थे, तभी काली की बेटी (बैमत) माता काली से बोली कि माता हमें एक मणुष्यदेवा चाहिए जिसके साथ हम घुम-फिर सकें। माता काली बैमत की मन की बात जान गयी और बोली कि ठीक है जब तुम दस खानदानी कुवँरदेवी (चाहे वो किसी भी जाति का हो) बना लोगी तब हम तुम्हें एक सुन्दर मणुष्यदेवा देंगे। बैमत राजी हो गयी और अपने लिए भक्त/तांत्रिक ढंुढने लगी।
इधर माता काली और भैरवनाथ अपने लिए माता दूर्गा से तीर्थस्थल अथवा मंदिर की माँग की जहाँ लोग उनकी दर्षन के लिए जरूर जाएँ, तब माता दुर्गा ने माता काली से कहा कि वैष्णोंदेवी जहाँ हम तीनों बहने (माता सरस्वती, माता दुर्गा और माता लक्ष्मी) साक्षात् रूप से विद्यमान है, वहाँ मेरे स्थान पर तुम्हारी (माता काली) पूजा होगी और उससे हटकर कटरा मंे भैरव मंदिर होगा, और जब तक भैरव मंदिर में भैरवनाथ की पूजा नहीं होगी तब तक किया गया मनोकामना पूर्ण नहीं होगा, और भक्तजनों को किसी प्रकार का कोई फल नहीं दिया जाएगा। माता दुर्गा के इस वाणी से माता काली और भैरव नाथ बहुत खुष हुए।
एक समय की बात है काली आवास पर भैरवनाथ सुबह हीं स्नान करके त्रिदेवियों की पूजा-पाठ कर रहे थे, तभी शेख का आगमन होता है, शेख लगातार यह कहे जा रहा था कि आज या तो दुर्गा अपनी शक्तियों में उसे हिस्सा देगी या फिर हमलोग उसे जीवित छोड़ेंगे, भैरवनाथ द्वारा त्रिदेवियों की पुजा-पाठ को देखकर शेख, भैरवनाथ के पुजा की थाली पर लात मरते हुए कहता है कि अल्लाह यह नहींहम हैं, हमारी पूजा करों, चुँकि इसपर माता काली उत्तेजीत हो जाती हैं लेकिन माता दुर्गा के इषारा पाकर शांत रहीं, माता सरस्वती शेख को समझाते हुए बोली कि अगर शक्ति की इतना हीं फिक्र है तो षिवजी को वापस यहाँ लेकर आओं, अगर यह तुम्हे शक्ति नहीं देगी तो हम तुम्हें शक्ति देंगें, इस पर शेख बात को अनसूनी करते हुए दुर्गा माता से उनकी शक्ति में हिस्सा माँगता है। परन्तु दुर्गा माता एक ही बात कहती थी कि शेख तुम अभी बच्चे हो भला इन शक्तियों का क्या करोगे, तुम पहले हीं अपने मुल्क में ‘‘अल्लाह’’ माने जाते हो, अगर हम अपनी शक्ति तुम्हें दे देते हैंतो हमें,हमारें ही जमीन पर भगवान कौन मानेगा? लेकिन शेख माता दुर्गा कि बात को नहीं समझता है और माता काली का हाथ पकड़ लेता है इस पर माता काली अपनी लंबी जिह्वा से शेख की गर्दन को पकड़ अपने से दूर फेंक देती है, अपनी हार को देख शेख झिड़कता हुआ वापस लौट जाता है।
शेख वापस अपने मुल्क चला जाता है जहाँ प्रेतों की बस्ती में एक मकबरा था जिसमंे प्रेत का बादषाह रहता था जो कि खुद एक प्रेत था। शेख के साथ उसकी दोस्ती बहुत जमती थी, चुँकि प्रेत का बादषाह अपने अधिकृत क्षेत्र में प्रेतों द्वारा मानवों के शरीर से रक्त ग्रहण करने के लिए आदेष जारी करता था, शेख को आता देख प्रेतों का बादषाह हमेषा की तरह शेख को स्त्री प्रेत प्रस्तुत करता है और शेख उसके शरीर से रक्त का अधिकतर हिस्सा ग्रहण कर लेता है और बदले में शेख उसे भारतवर्ष के बैमतों द्वारा छीनी गयी लक्ष्मी की अंष की शक्ति अथवा जीव के अंष कि शक्ति देता था। जिसे प्रेतों के बादषाह रक्त के बदले प्रेतों को वही शक्ति देता था और इनलोगों के बीच इसी प्रकार का व्यापार चलता था। और तो और प्रेत का बादषाह अक्सर शेख से कहता था कि किसी प्रकार उस शक्ति के पुतले को यहाँ लेकर आओं तब हमलोगों को इतना मेहनत नहीं करना पड़ेगा लेकिन इस बात पर शेख को माता काली का जबाव याद आता है और वह गुस्सा होते हुए वापस अपने मकबरा में चला जाता है। वहाँ पर शेख की मकबरे की पहरेदारी में भारतवर्ष की बैमत होती है, जो शेख के द्वारा शेख की बेगम बनने के लोभ में उसके मुल्क चली जाती हैं और उनके साथ जो शक्ति होती है, उनसे शेख उनकी शक्ति भी छीन लेता है। शेख अपने मकबरे मंे हर बार यही योजना बनाता है कि किस प्रकार दुर्गा शक्ति प्राप्त किया जाय, तब उसे एक उपाय सूझी। वह सोंचने लगा कि क्यों ने काली आवास में ही उसकी कुँवरदेवियों को हथियार बनाया जाय और वह फिर काली आवास की ओर निकल जाता है। शेख इस प्रकार काली आवास मंे प्रवेष करता है जैसे मानों किसी को पता न चले, लेकिन माता काली उसे देख लेती है लेकिन कुछ नहीं कहती है और उसके पीछे भैरवनाथ को छोड़ देती है। शेख काली आवास में कुँवरदेवियों के निवास स्थल पर जाने लगता हैं। चुँकि कुछ कुँवरदेवियाँ उसे रास्ते में ही मिल जाती है और शेख उसे ही अपने तलवार के धार पर खड़ा कर देता है। भैरवनाथ द्वारा बार-बार शेख को मना करने पर जब शेख नहीं मानता है तब अंत मंे भैरवनाथ अपने सिर मंे उपस्थित शक्ति का प्रयोग करते हैं और शेख को अपने सिर से मारते है जिससे शेख वहीं पर बेहोष हो जाता है। शेख के साथ जो कि पास में हीं कुँवरदेवियों को छेड़ रहे होते है वापस शेख के पास आते हैं और उसे उठा कर अपने मुल्क ले जाते हैं।
नवरात्र का समय था, माता काली और माता दुर्गा अपने भक्तजनों को आर्षिवाद देने के लिए अपने आवास से बाहर आई और आकाष मार्ग से पूर्वाेत्तर राज्यों का भ्रमण करने लगी तभी शेख और उसके कुछ कनीजों का सामना माता दुर्गा से हो जाता है, शेख अट्ठाहस करते हुए हँसा, इस पर माता दुर्गा समझाते हुए बोली कि मेरा रास्ता छोड़ों, क्यों कि ये हमारा क्षेत्र है और यहाँ हमारे भक्तजन रहते हैं, इस पर शेख इतराते हुए कहता है कि यहाँ हमारे भी भक्तजन रहते है। इसपर माता काली को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने उन्होनंे अपने जिह्वा से शेख का चेहरा चाट गई जिससे शेख का चेहरा खुन से लथपथ हो गया और वह बेहोष होकर जमीन पर गिर पड़ा और उसके कनीज उसे उठा कर उसके आवास पर ले गये। शेख को इस हालत मंे देख कर दूसरे दिन उसके भाई और मित्र शेख से पुछा कि कल रात तुम्हंे क्या हो गया था, इस पर शेख ने गुस्साते हुए कहा कि हिन्द की काली नागीन डस ली थी। इस पर उसका भाई गुस्सा दिखाते हुए कहा कि कहीं तुम काली की बात तो नहीं कर रहे हो, उसका हम अभी खबर लेते है, इस पर शेख ने झुंझलाते हुए कहा, उसको जब हम नहीं समझ सके तो तुम क्या समझोगे, और तभी से पष्चिमी इस्लामीक देषों के भूत-प्रेत अथवा बैमत माता काली को काली नागीन कहनेे लगे।
समय के साथ काली माता के निवास स्थान पर कुँवरदेवीयों की संख्या प्रर्याप्त हो गयी, इस स्थिति को देखते हुए माता दुर्गा ने भैरवनाथ को आदेष दिया कि अब से बैमतों द्वारा तांत्रिक को शक्ति पाने की जो विधान है उसे गुप्त रखा जाए ताकि अधिक से अधिक बैमत सिद्धी प्राप्त न कर सके। इसलिए अधिकतर बैमत इस विधान को किसी दुसरे बैमत के समक्ष प्रकट नहीं करती थी, और इस प्रकार एक पुर्नचक्रण में करीब 5 नई कुँवरदेवीयाँ काली निवास पर पहूँच हीं जाती थी।
एक समय की बात है कि हमेषा की तरह शेख, दुर्गा माता से शक्ति में हिस्से की माँग करता है लेकिन बीच में हीं माता काली कहती है कि तुम किस बात पर शक्ति में हिस्सेदारी का अधिकार रखते हो? शेख हँसते हुए कहता है कि तुम्हारे जो षिवजी है न उन्होनें आवाज दिया है कि ‘‘तुम मेरे उपर गौ का रक्त मत डालों’’ बदले में तुम्हें दुर्गा अपनी शक्तियों में अधिकार देगी’’ इस पर माता काली हँसते हुए कहती है कि तुम मेरे आवास पर आए हो और हम तुम पर प्रहार न करें तो क्या तुम अपने उपर मेरा अधिकार मानोगे? शेख आष्चर्यचकित हो जाता है, तब माता दुर्गा कहती है कि इस तरह से आपस में लड़ने से अच्छा है कि हमलोग समझौता कर लें। शेख तैयार हो जाता है तब माता दुर्गा कहती हैं कि वहाँ जो खपड़ी पड़ी हुई है उसे उठाकर लाओ, शेख उठाकर लाता है, तब माता दुर्गा कहती हैं कि इस खपड़ी को अपने हाथ में रखों, शेख खपड़ी को अपने हाथ मंे रखता है ंतब माता काली हँसते हुए कहती है कि अब शक्ति की भीख माँगों, हो सकता है तुम्हे शक्ति मिल जाए। शेख झुँझलाते हुए कहता है कि देख लेंगें तुम सबको और चला जाता है।
चुकि माता दुर्गा कलयुग के दौरान रूद्रकाल के रूप में अपने आठ स्वरूपों को निष्चित समय के लिए प्रदर्षित करती थी, ब्रहा्रमचारिणी स्वरूप को पहले ही माता दुर्गा प्रदर्षित कर चुकी थी, उसके बाद माता दुर्गा ने अपने ‘‘शैल स्वरूप’’ को प्रकट किया और इस दौरान कलयुग भी शैल की भाँति संसार के लोगों पर अत्याचार करता है और इसे समय का अत्याचार भी कह सकते हैं और इस दौरान समस्त धरती पर भयंकर आकाल अथवा सूखा पड़ता है, जीव जन्तु और मानव सहित धरती की आत्माएँ भी इस सुखे के चपेट में आ जाती है। चारो तरफ त्राहिमाम हो जाता है। धरती की इस अवस्था को देखकर ब्रहा्राण्ड में निवास कर रहे श्री हरि विष्णु माता दुर्गा के इस शैल स्वरूप को नमन करते हुए कहा कि ‘‘हे माते, कलयुग में आपका यह स्वरूप बहुत ही कष्टदायक है, अतः आप अपने इस स्वरूप को विराम दे और अपने अगले स्वरूप का दर्षन करवायें और इस प्रकार माता दुर्गा अपने अगले स्वरूप प्रदर्षन करती है जो ‘‘कात्यायनि स्वरूप’’ होता है और इस प्रकार धरती पर कात्यायनि काल का प्रारंभ हो जाता है। धीरे-धीरे धरती पर हरियाली बढ़ती है, धरती को धन - धान्य का खजाना बना दिया जाता है और कलयुग के द्वारा धरती पर राजाओं को प्रकट किया जाता है तथा ऐसा प्रतीत होता है जैसे त्रेता युग चल रहा हो। इस युग में राजा अपने प्रतिपक्ष राजाओं पर दिव्य प्रहार भी करते हैं। इस प्रकार यह काल काफी समय तक चलता है और अंततः माता दुर्गा द्वारा अपने इस कात्यायनि स्वरूप का अंत करती है और ब्रहाण्ड में उपस्थित श्री हरि विष्णु सहित अन्य देव माता दुर्गा के इस स्वरूप को नमन करते हैं। माता दुर्गा अपने अगले स्वरूप में ‘‘कालकृत स्वरूप’’ का प्रदर्षन करती हैं जो कि माता दुर्गा के दैत्यिक स्वरूप था और इस प्रकार माता दुर्गा के इस स्वरूप को देखकर कलयुग भी धरती पर दैत्य उत्पन्न करना आरंभ कर देता है। धरती पर माता दुर्गा के कात्यायनि स्वरूप के प्रदर्षन के दौरान जो भी राजा-महाराजा उत्पन्न हुए थे सभी इन दैत्यों से त्रस्त हो जाते है तथा दैत्यों द्वारा धरती पर अषांती छा जाता है। धरती पर शांति बनाये रखने के लिए समय - समय पर माता दुर्गा के द्वारा माता काली को भेजा जाता था और माता काली भी अपना प्रलयंकारी तांडव करके सभी दैत्यों का अंत कर दिया जाता था। इस दौरान श्री हरि विष्णु द्वारा माता काली और माता दुर्गा को कोटि कोटि नमन किया जाता था। समय के साथ माता दुर्गा अपना कालकृत स्वरूप का भी अंत कर देती हैं। श्री हरि विष्णु माता के इस स्वरूप को भी नमन करते हैं। आगे माता दुर्गा के द्वारा ‘‘स्कंद स्वरूप’’ का प्रदर्षन किया जाता है और माता दुर्गा का यह स्वरूप दया के पात्र होता है। इस प्रकार कलयुग भी दया का पात्र बन जाता है तथा धीरे धीरे समस्त धरती पर अंधकार छा जाता है और प्राणी विहीन हो जाता है, कलयुग भी एकांत जाकर रोना आरंभ कर देता है। श्री हरि विष्णु द्वारा माता दुर्गा के इस स्वरूप को नमन किया जाता है और माता अपने इस स्वरूप का प्रदर्षन करना भी अंत करती है। आगे माता दुर्गा द्वारा द्वारा ‘‘चन्द्रघंटा स्वरूप’’ का प्रदर्षन किया जाता है और इस प्रकार कलयुग भी अपने काल में चन्द्रमा को देखता है और आसूरी शक्तियों को उत्पन्न करता है, समस्त धरती चन्द्रमा के प्रकाष से नहायी होती है तथा धीरे धीरे धरती पर पुनः अषांति छा जाता है और धरती पर इस अषांति को श्री हरि विष्णु अपने सुदर्षन से शांत करते हैं तथा माता दुर्गा अपने चन्द्रघंटा स्वरूप का प्रदर्षन भी खत्म कर देती हैं। आगे माता दुर्गा अपने ‘‘कालरात्रि स्वरूप’’ का प्रदर्षन करती है जिसके अनुसार कलयुग धरती पर मानव जीवन के साथ भूत-प्रेत तथा चुडै़ल और अन्य दैत्यिक आत्माओं को उत्पन्न करता है। इस दौरान माता काली द्वारा आत्मीय स्वरूप में धरती पर विचरण किया जाता है तथा माता काली का समस्त दैत्यिक आत्माओं के साथ एक संबंध बन जाता है और समस्त दैत्यिक आत्माएँ उन्हें माता कहते हैं। इस प्रकार माता काली भूत-प्रेत और चुड़ैल का पालन करने वाली बन जाती हैं। इधर माता दुर्गा द्वारा तीन स्वरूप, कालरात्रि स्वरूप, कालकृत स्वरूप और सिद्धीदात्रि स्वरूप मिलाकर ‘‘चुरीना स्वरूप’’ का निर्माण किया जाता है तथा वे धरती पर विचरण करती हैं और वह भी माता काली को अपनी माता मानती है और उन्हंे नमन करती है तथा माता काली भी उन्हें पुत्री समझ कर दुलारती और अपने विद्या से परिचय करवाती हैं। समय के साथ माता दुर्गा के कालरात्रि स्वरूप का भी अंत हो जाता है तथा ब्रहा्राण्ड में बैठे श्री हरि विष्णु माता दुर्गा के कालरात्रि स्वरूप को भी नमन करते हैं। माता दुर्गा के विनती पर माता काली द्वारा इन दैत्यिक आत्माओं का अंत नहीं किया जाता है और माता काली बार-बार अपने और दैत्यिक आत्माओं के प्रति संबंध के बारे मे कहती हैं। तब माता दुर्गा अपने चार स्वरूप कालरात्रि, कालकृत, कात्यायनि और सिद्धीदात्रि को मिला कर एक स्वरूप बनाती है जो माता दुर्गा का ‘‘तुरीन स्वरूप’’ कहलाता है जिसको देखकर माता काली थर्राती हैं और अंततः रूग्न अवस्था में आकर माता काली द्वारा संसार से समस्त दैत्यिक आत्माओं का अंत किया जाता है। माता दुर्गा द्वारा अंतिम और निर्णायक स्वरूप ‘‘सिद्धिदात्रि स्वरूप’’ होता है और इस दौरान कलयुग धरती पर सिद्धकाल लाता है। इस युग में सभी मानव जाति दैत्य सिद्ध होते हैं तथा इस प्रकार इस काल के मानव जीव एवं प्रकृति का भी दोहन कर बैठते हैं। श्री हरि विष्णु के प्रयास से पुनः ये मानव सिद्ध होते हैं, इस काल के दौरान धरती पर आधुनिक युग का आगमन होता है संसार के हर क्षेत्र में मानव जाति स्वयं को सिद्ध करते हुए नजर आते हैं, इस युग को विज्ञान का युग भी कहा जाता है और कलयुग द्वारा सिद्धकाल लम्बे समय तक चलाया जाता है। सिद्धकाल श्री हरि विष्णु को भी काफी पसंद आता है और वे माता दुर्गा से आर्षिवाद स्वरूप इसी काल में अपने अवतार की सिद्धी माँगते हैं। माता दुर्गा भी श्री हरि विष्णु को वरदान स्वरूप आर्षिवाद देती है। अंततः माता दुर्गा द्वारा सिद्धिदात्रि स्वरूप का प्रदर्षन का भी अंत हो जाता है। श्री हरि विष्णु द्वारा माता का सिद्धिदात्रि स्वरूप को भी नमन किया जाता है। इस प्रकार कलयुग द्वारा कूल 8 पूर्नचक्रण किया जाता है। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कलयुग से इच्छा की कि ऐसा समय दिखाओं कि जो हम कभी भी नहीं देंखे हों, कलयुग ने हँसते हुए कहा कि हम आपको ऐसा समय दिखाएँगे कि उस काल मंे हवा भी बिकेगी। इधर श्री हरि विष्णु की इच्छा पर माता दुर्गा पुनः सिद्धीदात्रि स्वरूप का प्रदर्षन करती है और कलयुग भी सिद्धकाल दिखाना प्रारंभ करता है। इस पर षिवजी ने कहा कि, सावधान कलयुग!!! इस काल में हीं श्री हरि विष्णु का अवतार होने वाला है, कुछ ऐसा कार्य सिद्ध मत करना कि तुम्हें श्री हरि विष्णु के सुदर्षन का स्वाद चखना पड़े, इस पर कलयुग ने पितामह श्री ब्रहा्रा जी की ओर मुख करते हुए कहा कि विष्णु के द्वारा कही गई बाते श्री हरि विष्णु को याद हैं अथवा नहीं। इस पर श्री हरि विष्णु जो कि वहीं शेषासन पर विश्राम अवस्था में थे, कलयुग कि उत्सुकता को देखते हुए बोले कि ‘‘इतना उत्सुक न हो कलयुग’’ मेरा अवतार कहाँ होगा इसकी जानकारी तुम्हे हम दे देते हैं और श्री हरि विष्णु ने भारत वर्ष के पूर्वी क्षेत्र में एक स्वर्ण नगरी प्रकट किया (जो वर्तमान में बिहार और झारखण्ड के नाम से जाना जाता है) और कहा कि इसी नगरी में मेरा अवतार होने वाला है और तुम अपना ध्यान यहीं केन्द्रीत रखों। इस स्वर्ण नगरी को देख कर षिवजी भी आष्चर्यचकित हो गए और उस नगरी को विहार नगरी कह कर संबोधित किया और कहा कि इस नगरी का भ्रमण करना तो देवता भी चाहेंगे।
Third Edition of Kaal Sagar "Ek Mahakavya"
{खण्ड-6}
।। श्री हरि विष्णु का अवतार।।
(प्रथम चरण)
समय गुजरता गया और धरती पर भगवान श्री हरि विष्णु के अवतार का समय नजदीक आ रहा था। समय की निकटता को देखते हुए पितामह श्री ब्रहा्राजी ने श्री हरि विष्णु को समझाते हुए कहा कि ‘‘हे हरि इस युग में आपकों किसी जीव के आत्मा में प्रकट होकर अवतार लेना है उसके बाद उस आत्मा को मानव जीवन देना है चाहे वो आत्मा किसी भी योनि का क्युँ न हो और तो और उसमें आपको साधारण तिनके की भाँति अपने आप को प्रस्तुत करना है और मानव आत्मा के बढ़ते उम्र के अनुसार आपको खड़््ग की भाँति अपनी शक्ति प्रदर्षन भी करना हैै’’, इस बार आपको किसी गरीब परिवार में अवतार लेना है। इतना कहकर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने अपने नेत्र को बंद कर तपस्या में लीन हो गये।
इधर षिवजी भगवान श्री हरि विष्णु के अवतार के लिए स्थान चयनित करने लगे। सम्पूर्ण भारत वर्ष भूत-प्रेत और बैमतों से भरा हुआ था, कोई ऐसा कुल-खानदान नहीं था जहाँ भूत-प्रेत की पूजा नहीं होती थी। काफी विचार करने के बाद उन्होंने श्री हरि विष्णु द्वारा बसायी नगरी ‘‘स्वर्ण विहार’’ की ओर नेत्र घुमाया और देखा कि स्वर्ण विहार के एक गाँव नौडीहा, जो गया जिला में अवस्थित है, में दो भाई आपस में विवाद कर रहे थे, बड़ा भाई जिसका नाम कुलदीप सहाय था जो अपने छोटे भाई बासुदेव लाल को कहे जा रहा था कि अगर तुम बैमत की पूजा नहीं करोगे तो तुम्हे हम अपने धन-दौलत मंे से किसी प्रकार का कोई हिस्सा नहीं देंगे। इधर बासूदेव लाल बोल रहे थे कि हमे धन मिले अथवा न मिले लेकिन मैं और मेरा परीवार बैमत नहीं पूजेगा। कुलदीप सहाय पेषे से जमींदार थे और बैमत का उपयोग वे लोगों को बेवकुफ बनाने के लिए किया करते थे, उन्होनें इस तरह का दाव-पेंच अपने छोटे भाई बासुदेव लाल को भी बताया लेकिन वे नहीं माने और उनके कामों में हाथ बटाते रहे। कुलदीप सहाय ने बासुदेव को उनके हिस्से की नौडीहा में स्थित घर में हिस्सा दे दिया जो उन दोनों की पैतृक सम्पति थी। कुलदीप सहाय गया मंे स्थित नई गोदाम नामक मोहल्ला में अपना डेरा जमाया और वहीं बासुदेव लाल अपने पैतृक घर गया जिला के ग्राम नौडीहा में निवास करने लगेे। बासुदेव लाल के कुल सात पुत्र और एक सुपुत्री थी। सातों के नाम क्रमषः रामावतार नारायण लाल, प्रताप नारायण लाल, नरसिंह नारायण लाल, सीता शरण नारायण लाल, कालीचरण नारायण लाल, नवलकिषोर नारायण लाल और शंभुषरण नारायण लाल और पुत्री जिनका नाम चंदा था, जिन्हें प्रेम से परिवार के लोग चाँदमुनी कहते थे।
समय बीतता गया बासुदेव लाल के सभी बच्चे युवावस्था में पहूँच गये और सभी विवाह करने के योग्य हो गये। बासुदेव लाल अपने मात्र एक पुत्र एवं एक पुत्री का हीं विवाह कर सके, विवाह में जो कुल देवता की पूजा होती है वो विधि गौरी लाल के द्वारा हीं अपनी पत्नी को बताया गया था और उन्होंने गुस्से भरे लहजें में कहा कि हमारे खानदान मंे कुलदेवता का पूजा खस्सी और किसी जीव की बलि देकर नहीं होगा बल्कि उसके जगह दूध, पेड़ा और मिश्री से होगा ताकि खानदान में कुलदेवता के नाम पर कोई भी भूत-प्रेत अथवा बैमत की पूजा न कर सके। इस विधान को बनाने के कुछ वर्षाें के बाद एक-एक करके दोनो पति-पत्नी स्वर्गवासी हो गये।
उधर नौडीहा ग्राम के हीं एक बनिया के घर शेख का आगमन हुआ और लेकिन बनिया कि पत्नी शेख की पूजा नहीं करता थी। इससे क्रोधित होकर शेख ने उसकी पुत्री की हत्या कर दी और उसके साथ संभोग कर लिया, जिससे बनिया की पुत्री बैमत हो गयी और शेख के साथ ही रहने लगी। वह अपने घर पर भी रहती थी लेकिन उसकी माँ को उस बैमत से कुछ फायदा नहीं था इसलिए वह अपनी पुत्री को किसी दुसरे के घर में पूजा लेने के लिए कहती थ्ीा। इधर शेख ने उस बैमत को दुर्गा के सामने प्रस्तुत किया और इच्छा किया कि वे उसे कुँवरदेवी बना दें इस पर माता दुर्गा ने कहा कि ‘‘तुम्हारे हाथों मारी गयी कोई भी स्त्री अथवा पुरूष कभी भी कुँवरदेवी अथवा मणुष्यदेवा नहीं बन पाएँगे’’, शेख दुर्गा माता पर क्रोधित होते हुए वापस बैमत के साथ चला गया।
एक दिन रामावतार लाल के घर पर गोद भराई का उत्सव मनाया जा रहा था और वहाँ परिवार के सभी सदस्यगण पहूँचे हुए थे। उत्सव के लिए सभी खाद्य सामग्री उसी बनिया के दुकान से लाया जा रहा था जिस बनिया पुत्री को शेख ने मार कर बैमत बनाया था। बनीया की पत्नी ने अपनी बेटी (बैमत) को उसी सामग्री के साथ रामावतार लाल के घर भेज दिया। घर पर आकर बैमत ने रामावतार लाल की पत्नी से कहा कि वह उनके कुल की देवी है और वह, उसे कुल की देवी समझ कर पूजने लगी। बाद में उन्हें पता चला कि वह कुल देवी नहीं एक बैमत है क्यों कि वह हमेषा परिवार के ही किसी न किसी बच्चे को मार कर कुँवरदेवी और मणुष्य देवा बनाने के लिए कहती थी और आगे कहती थी कि इससे दैवीक शक्ति मिलेगी, घर मंे धन बढ़ेगा। अब तो रामावतार लाल की पत्नी फँस चुकी थी और बैमत को बोलीं की तुमको जहाँ से कुवँर देवी और मणुष्यदेवा लाना है लाओं लेकिन मेरा घर छोड़ दो। इधर बैमत रामावतार लाल की पत्नी से छुपा कर घर में कुँवरदेवी तैयार करने की कोषिष में थी। बैमत ने इस घटना की जानकारी शेख को भी दी और शेख भी रामावतार लाल की पत्नी को शरीर पकड़ कर परिवार के सदस्यों को अपना पहचान बातया और घर मैं धन-सम्पदा औरी वैभव देने की बात कहा। इस बात को जान कर परिवार के सभी सदस्य खुष थे और शेख को ‘‘मियाँ साहब’’ कह कर संबोधित करने लगे। इस प्रकार बासुदेव लाल के सातों पुत्रों के घर शेख की पुजा होने लगी।
स्व0 बासुदेव लाल के मंझले सुपुत्र जो कि प्रताप नारायण लाल के नाम से जाने जाते थे जो बेरोजगार थे तभी उनका विवाह गया जिला के नरियारी गाँव निवास करने वाले राम प्रसाद के प्रथम सुपुत्री कलेष्वरी देवी के साथ सम्पन्न हुआ। विवाहोपरान्त वे पटना मे रोजगार के लिए भटकने लगे। अंत में उन्होंने पटना में ही मुंषी का काम करना आरंभ कर दिया और किराए के मकान मंे रहने लगे। उनके दाम्पत्य जीवन से दो पुत्र एवं दो पुत्री उत्पन्न हुआ। कुँवर देवी बनाने के लालच मंे बैमत ने दोनों पुत्री को एक-एक करके हत्या कर दी लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ और वे दोनों भी बैमत हीं बनी। इस प्रकार प्रताप नारायण लाल की दोनों पुत्रियों की बचपन में ही मृत्यु हो गयी। शेष दो पुत्र बड़ा सुरेष और छोटा श्रवण हुएँ। सुरेष और श्रवण दोनों भाई किषोरावस्था मंे पहूँच गये। प्रताप नारायण ने अपने बड़े सुपुत्र का विवाह फरीदा मंे निवास करने वाली यषोदा देवी के साथ किया, लेकिन मणुष्यदेवा बनाने के लालच में बैमत ने उन्हें भी मार दिया और मरने के बाद वो भी भूत-प्रेत बन कर रह गये, बैमत को कुछ फायदा नहीं हुआ। बैमत ने उन्हंे कच्ची दरगाह, पटना में ही जमीन मंे गाड़ दिया। इस प्रकार विवाह के छः माह बाद उनकी भी मृत्यु हो गयी और यषोदा देवी वापस अपने मायके चली गई। अब प्रताप नारायण काफी दुःखी अवस्था में थे, उनका मुंषी का काम भी इस अवस्था में ठीक तरह से नहीं चल पा रहा था, और इस अफसोस में वो शराब का सेवन भी करने लगे।
इधर रामावतार लाल की पत्नी जोकि उस बैमत से पीछा छुड़ाना चाहती थी, उस बैमत को प्रताप नारायण लाल की पत्नी के हाथों पूजा करवा दिया यह कह कर कि उनका बड़ा बेटा जिनकी मृत्यु हुई है वह मणुष्यदेवा हैं और इसे पूजने से घर मंे धन-सम्पत्ति बढ़ेगा और धन की लालच मंे प्रताप नारायण की पत्नी ने उस बैमत को अपना पुत्र समझ कर पूजा करने लगी, लेकिन जैसे ही वह बैमत उनके समक्ष प्रकट हुई, वो डर गई और उसी समय से वह उस बैमत को पूजना छोड़ दीं।
श्रवण, जिन्हे उनकी माता प्यार से ‘‘लाल’’ कहती थी, जो आगे चल कर ‘‘लालजी’’ के नाम से पहचाने जाने लगे, कि उम्र 16 वर्ष का था। वे बचपन से हीं पढ़ने मंे काफी पिछे थे और पैसा कमाने पर ज्यादा ध्यान देते थे। बड़े भाई के मृत्यु हो जाने के बाद उन्हें काफी आजादी मिल गयी थी। उन्होने अपने ही चाचा सीताषरण नारायण के कारखाना (लोहे का गेट/ग्रिल का था) में काम का ट्रेंनिंग लेना आरंभ कर दिया और जल्द ही कुषल कारीगर बन गए। समय के साथ उनकी भी शादी छोटे नारायण लाल के छोटी सुपुत्री देवमनी के साथ सम्पन्न हुआ जो जहानाबाद जिला के (जो अब अरवल जिला में पड़ता है) बेलखरा गाँव में रहते थे, 1973 ई॰ में हुई। लालजी प्रसाद के विवाहोपरान्त वह बैमत उनकी पत्नी को खुद की पूजा करने के लिए परेषान करने लगी। बैमत खुद को उसके सामने कुलदेवी कहती थी, और तरह तरह से उसे दुःख भी देती थी लेकिन वो बैमत को नहीं पुजती थी और तो और दो चार गालियाँ भी देती थी और बैमत को झाड़ू से मारने की बात भी कहती थी, इसी अवस्था में लालजी प्रसाद की पत्नी जिनका नाम देवमणि था, दो बार माँ बनी और हर बार एक स्वस्थ्य बच्चे का जम्न दिया, जिनका नाम क्रमषः संजय और मनोज पड़ा।
इधर षिवजी इन सारी लीलाओं से श्री हरि विष्णु को अवगत कराया और कहा कि इसी घर में तृतीय पुत्र की आत्मा में आपका अवतार लेना उचित होगा। अवतार का उचित समय देख कर श्री हरि विष्णु अपने शेषनाग से पूछे कि आत्मा कहाँ और किस जीव से प्राप्त किया जाए? इस पर शेषनाग ने इच्छा भरे स्वर मंे हाथ जोड़कर बोले कि ‘‘प्रभू, अगर आप अवतार के लिए आत्मा हमारे नाग लोक से लें तो हम पर कृपा होगी’’, शेषनाग के कहने पर श्री हरि विष्णु, शेषनाग के साथ ब्रहा्रण्ड से षिवलोक (कैलाष पर्वत) प्रकट हुए और पहाड़ी रास्ते से होते हुए नागलोक कि ओर प्रस्थान कर गये। नागलोक पहूँच कर श्री हरि विष्णु ने देखा कि ‘‘एक नाग जो अपनी नागीन के साथ प्रेम-प्रलाप कर रहा था, कुछ क्षण ठहरकर श्री हरि विष्णु नाग-नागीन के प्रेम-प्रलाप को देखा और खुष हुए और शेषनाग से कहा कि इनदोनों नाग-नागीन के आत्माओं में अवतार लेना उचित होगा, इसके बाद उन्होनंे दोनों के आत्माओं को हरण किया और नागलोक में ही शेषनाग के महल में उन दोनों नाग-नागीनों के पार्थिव शरीर का चंदन की लकड़ी मंे दाह संस्कार किया। उसके बाद उन दोनों नाग-नागीन के आत्माओं को लेकर पटना स्थित पत्थर की मस्जिद में पहला पहर (सुबह करीब 4.00 बजे) को प्रताप नारायण लाल के घर पर साधारण मानवीय आत्मा के रूप में प्रकट हुए और नाग के परमेष्वर और जीवन दीप को समझाते हुए कहा कि हमारे अवतार के दौरान अगर तुम्हारा शरीर पूर्ण रूप से मृत भी हो जाये तो आपलोग शरीर से बाहर नहीं निकलेंगे। इस पर आत्मा के परमेष्वर ने विनती करते हुए कहा कि ‘‘प्रभू, जीवन दीप की इच्छा है कि अगर आप अवतार खत्म होने के बाद भी 100 वर्ष तक इस शरीर में विराजमान रहेेेेे तो हम आपका आदेष मानने को तैयार है’’, इस पर श्री हरि विष्णु ने आत्मा के परमेष्वर और जीवदीप को वचन दिया कि ‘‘अपने अवतार को खत्म होने के बाद भी 100 वर्ष की आयु तक हम आत्मा मंे विराजमान रहेंगे और जीवन दीप के कहने पर ही आत्मा से बाहर आऐंगे। उसके बाद श्री हरि विष्णु ने नाग के आत्मा को जैसे हीं मानव षिषु का शक्ल दिया वैसे ही उस घर में निवास कर रही बैमत उस आत्मा को लेकर भाग गई, उन्होेंने उसके पीछे शेषनाग को दौड़ाया। शेषनाग ने बैमत को दो थप्पड़ जड़ते हुए आत्मा को छिन लिया और श्री हरि विष्णु के हवाले कर दिया। उसके बाद श्री हरि विष्णु ने उस आत्मा को अपने शुर्दषन से शुद्ध किया और और उसमें विराजमान हो गए और गर्भ मंे बैठ गये और 27 मई 1981 को श्री हरि विष्णु का अवतार हुआ और लालजी प्रसाद के तृतीय पुत्र का जन्म। जो वर्तमान में ‘‘अषीष’’ के नाम से जाना जाता है और ये नाम उनको उसकी माँ के द्वारा दिया गया था। अवतार धारण करने के बाद श्री हरि विष्णु ने नागीन कि आत्मा को शेषनाग को सौंपते हुए बोले कि इस आत्मा को संभाल कर रखना। श्री हरि विष्णु ने घर की बैमत को अपनी ओर आकर्षित भी किया ताकि वे बच्चे की माँ को तंग करना छोड़ दें, उस बैमत को मन ही मन विष्वास दिलाया कि यह बच्चा इसका तिसरा पुत्र है (बैमत के लिए तीन अंक शुभ माना जाता है) जो उसको बड़ा होकर पूजा करेगा। इसी बात से प्रेरित होकर बच्चा जब अकेले सो रहा होता है तब प्रकट होकर उस बच्चे को खेलाती-पुचकारती थी और कहती थी कि यह जरूर हमारी पूजा करेगा, लेकिन बैमत को तो उसकी माता का खून पीने का लत लग चुका था, इसलिए वह उन्हे तंग करना नहीं छोड़ी और तरह-तरह से परेषान करती रही और आए दिन उसकी माँ खुन की उल्टियाँ करती थी।
जब आषीष की उम्र 6 (छः) माह का था तभी उसके दादा, प्रताप नारायण लाल का हृदय घात की वजह से दिनांक 17 नवम्बर 1981 को स्वर्गवास हो गया, हर्ट अटैक का वजह था कि उनकी मृत्यु के दो माह पहले उनके घर चोरी हुई थी जिसमें चोर ने उनके पास मौजुद सारे लोगों के जमीन का कागजात लेकर भाग चुका था।
समय बीतता गया अषीष का एक छोटा भाई और एक छोटी बहन भी क्रमषः 3 दिसम्बर 1983 और 12 जुलाई 1985 को इस संसार मंे आ चुके थे, इधर श्री हरि विष्णु ने शेषनाग को उस नागीन की आत्मा को जीवन में डाल आने को कहा और नागीन का जन्म राजकुमार पासवान की तिसरी सुपुत्री के रूप 31 अक्टुबर 1986 को एस॰के॰पुरी, बोरिंग रोड, पटना में हुआ। जिसका नाम उसकी माँ ने ‘‘पुजा’’ रखा।
इधर लालजी प्रसाद ने अपने मित्र ‘‘जय कृपाल’’ के साथ साझा करके एक दुकान खोले और वहीं पास के मुहल्ला खजुरबन्ना में रहने लगे। समय के साथ, चुँकि लालजी प्रसाद जहाँ भी निवास किए एक किराएदार के रूप में हीं रहें। वे अपने लिए एक घर भी नहीं बना पाएँ और वे एक बंजारे कि भाँति एक मुहल्ला से दुसरे मुहल्ला में भटकते रहे। अंततः वे अपना निवास स्थान पूर्वी पटना, बिहार से पष्चिमी पटना, बिहार (नंद गाँव मंे, जोकि शास्त्रीनगर में पड़ता है) मंे ले गये और वहीं अपने परिवार और बुढ़ी माँ के साथ रहने लगे। उन्होंने आस-पास में ही अपना एक ग्रील का दुकान खोल दिए। शास्त्री नगर में ही देवमणी देवी के चचेरी बहन भी अपने परिवार के साथ एक सरकारी फ्लैट मंे रहती थी, लालजी प्रसाद और उनके परिवार का अक्सर देवमणी देवी के चचेरी बहन के घर पर आना-जाना लगा रहता था और इस प्रकार देवमणि देवी के पति लालजी प्रसाद और देवमणी देवी के चचेरी बहन के पति ‘‘पशुपति सिन्हा’’के बीच काफी गहरी दोस्ती हो गयी। लालजी प्रसाद का अक्सर पशुपति सिन्हा के घर पर जाते थे और दोनो खाते-पीते भी थे।
एक समय की बात है पशुपति सिन्हा के घर पर उनके बड़े श्वसुर मथुरा लाल (जो देवमणी देवी के बड़े चाचा हुए) के बड़ा नाती (जो कि एक तांत्रिक था, जिसका नाम राजेन्द्र था) का आना हुआ। उसके पहूँचने पर पशुपति सिन्हा के परिवार वालांे ने उसके चरण स्पर्ष किए और पशुपति लाल कि पत्नी ने देवमणि देवी को भी चरण र्स्पष करने को कहा, इस पर देवमणी देवी ने झँुझलाते हुए कहा कि ‘‘बेटा-बेटी का तो पैर ही छुआ जाता है?’’ हम नहीं छुएँगे। इस पर राजेन्द्र जो कि बैमत पूजता था, कुछ नहीं बोला और अपनी आँखे नीचे कर लिया लेकिन उसकी बैमत काफी गुस्सा हुई और राजेन्द्र से बोली कि इस बेईज्जती का बदला हम ले लेंगे। देवमणी देवी जब भी पशुपति लाल के घर जाती थी तो अपने साथ अपनी छोटी पुत्री को जरूर ले जाती थी क्योंकि वो काफी छोटी थी। बैमत की नजर देवमणी देवी की छोटी पुत्री पर पड़ गई और इधर राजेन्द्र को भी एक कुँवरदेवी की जरूरत थी जो कि उसी के खानदान का हो। राजेन्द्र की बैमत, राजेन्द्र से बोली कि अगर देवमणी देवी की पुत्री को कुँवरदेवी बना दे ंतो कैसा रहेगा? इस पर राजेन्द्र ने काफी विचार करते हुए ना कह दिया लेकिन बैमत को राजेन्द्र की बेईज्जती का बदला भी लेना था इसलिए वह जिद पर अड़ गयी और बोली कि हम उसी लड़की को कँवरदेवी बनाएँगे। राजेन्द्र बैमत को ही माँ काली मानता था और बैमत के जिद को देखकर हाँ कर दिया। उसके बाद बैमत देवमणि देवी का पीछा करते हुए देवमणि देवी के घर तक पहूँच गई। राजेन्द्र की बैमत ने घर में जाते हीं एक और बैमत को देखा और उससे उसका परिचय पुछा, तो देवमणि देवी के घर की बैमत ने झल्लाते हुए कहा कि पहले तुम अपना परिचय दो। राजेन्द्र की बैमत ने घर की बैमत को अपने बारे में सब कुछ बता दिया और यह भी कहा कि हम इसकी पुत्री को कुँवरदेवी बनाने आयें हैं। घर की बैमत ने झगड़ते हुए कहा कि यह मेरा घर है हम 12 साल से इसके खानदान में हैं। इसलिए तुम्हें इसकी बेटी को कुँवर देवी नहीं बनाने देंगे। इस पर राजेन्द्र की बैमत ने हँसते हए बोली कि 12 साल से हो लेकिन अभी तक तुम्हारी यहाँ पूजा नहीं हुई है इसलिए इस घर को हम तुम्हारा घर नहीं मानते हैं और घर के सभी सदस्यों का खबर ले कर वापस राजेन्द्र के पास चली गई। अषीष वहीं पर अपनी बहन के साथ खेल-कुद रहा था इधर शेषनाग भी इस तमाषा को देख रहे थे, उन्होंने इस बात की खबर श्री हरि विष्णु को दिया और श्री हरि विष्णु को सारी बात समझ में आ गयी।
एक दिन देवमणी देवी अपनी पुत्री की बाल सवाँर रहीं थी, बाल सँवारने के बाद उसकी पुत्री श्री हरि विष्णु की प्रेरणा से सिन्दुर लगाने की जिद करने लगी लेकिन देवमणि देवी डाँट दी लेकिन उसकी पुत्री फिर भी न मानी तो देवमणि देवी ने अपनी पुत्री को आइना दिखाकर आइने पर सिंदुर लगा दिया जिससे उसकी पुत्री बहुत खुष हुई लेकिन श्री हरि विष्णु अपने कार्य मंे सफल नहीं हो सके, उनका कहना था कि अगर वह सिंदुर देवमणि देवी की पुत्री माथे पर लगा दिया जाता तो इस सिंदुर का रंग बच्ची के आत्मा तक जाती, जिससे वह बाल-विवाहिता कहलाती और कुँवरदेवी बनने से बच जाती।
इधर राजेन्द्र वापस अपनी बैमत के साथ अपने पैतृक आवास पर चला गया और वहाँ जाकर माणिक्य और पत्थर से बनी अँगुठी बेचने का झुठा कारोबार आरंभ किया और तीन ऐसा अँगुठी बनाया जो सभी लोगों को फल प्रदान करे और तो और उसमें बैमत का नाखून भी जड़ दिया और फिर पटना, बिहार कि ओर अपनी बैमत और एक षिष्या ‘‘चिन्तामणि’’ (जो कि उसकी पत्नी भी मानी जाती थी) के साथ प्रस्थान कर गया। पशुपति सिन्हा के फ्लैट में पहूँचने के बाद राजेन्द्र देखता है कि देवमणि देवी और उसकी पुत्री दोनो पशुपति सिन्हा के घर से विदा ले रहे हैं।
इधर राजेन्द्र के कहने पर पशुपति सिन्हा ने लालजी प्रसाद को शराब पीने के लिए आमंत्रित किया और लालजी प्रसाद अपने परिवार को सूचित कर पशुपति सिन्हा के फ्लैट की ओर चल दिए। पशुपति सिन्हा के घर पहूँचने पर पशुपति सिन्हा ने अपने होने वाले गुरू, राजेन्द्र से परिचय करवाया और कहा कि हम इनके साथ ‘‘गुरू मुख’’ हो रहे है, इसी खुषी में हम तुम्हे शराब पीने के लिए आमंत्रित किए हैं। शाम को सात बज रहे थे, पशुपति लाल गुरूमुख होने का शपथ लेने के बाद, शराब की तीन बोतल लालजी प्रसाद के समक्ष रख दिया और कहा कि तुम इसका सेवन करो और हम गुरूजी ने जो अपना तस्वीर हमे दिए है उसकी पुजा करके आते हैं। लालजी प्रसाद और राजेन्द्र, दोनों ने पीना आरंभ किया, इतने में लालजी प्रसाद के सर पर चिन्तामणि अपना गर्दन रख दिया जिसमें बैमत बैठी हुई थी, और इसपर लालजी प्रसाद को खबर न हो सका कि वे अपनी शक्ति से अधिक पी रहे हैं और वे नषे मंे चूर हो गये। लालजी प्रसाद को नषे में चूर होने के बाद बैमत चिन्तामणि के शरीर से हट गई और चिन्तामणि लालजी प्रसाद के सर पर से अपना गर्दन हटा लिया। गर्दन हटाने के बाद पशुपति सिन्हा (जिनके शरीर पर भी बैमत सवार थी) अपने गुरू के तस्वीर की पुजा करके वापस कमरे में आए तो देखा कि कमरे में राजेन्द,्र लालजी प्रसाद को पानी पीला रहा है। उसके बाद राजेद्र, पशुपति सिन्हा को बोला कि लालजी प्रसाद को दुसरे कमरे में सुला दो। जब सुबह हुई तो पशुपति सिन्हा ने रात कि कहानी लालजी प्रसाद को सुनाया और कहा कि तुम गुरूजी के हाथ से पानी पीये हो इसलिए तुम गुरूमुख हुए हो, ये माना जाता है। इसपर राजेन्द्र खुष होते हुए कहा कि पशुपति तुम्हारे साथ हमें एक और षिष्य मिला। इस पर पशुपति सिन्हा ने राजेन्द्र से कहा कि इस कार्य के लिए आपको हमे पुरस्कृत करना चाहिए। तब राजेन्द्र ने अपने थैला से तीन अँगुठी पशुपति सिन्हा को दिया और कहा कि तुम मेरे बड़े षिष्य हो और ये मेरा छोटा षिष्य (लालजी प्रसाद के बारे में) है इसलिए हम अपने छोटे षिष्य को भी तीन अँगुठी देते है और राजेन्द्र बैमत का नाखून जड़ा अँगुठी लालजी प्रसाद को पहना देता है, उसके बाद लालजी प्रसाद पूर्णरूप से राजेन्द्र के कब्जे में हो गये और राजेन्द्र जो कहता था वही मानते थे।
समय बीतता गया और शारदीय नवरात्र का समय था, राजेन्द्र, पशुपति सिन्हा को नवरात्री करने का विधान समझा रहा था कि लालजी प्रसाद भी वहाँ पहूँच गए और बोले कि आपलोगों के नवरात्र में हम भी शामिल होंगे। तब श्री हरि विष्णु की प्रेरणा से पशुपति सिन्हा ने लालजी प्रसाद से बोले कि तुम भी गुरूमुख हुए हो तो तुम अपने हीं घर पर नवरात्र करो। तब राजेन्द्र ने बोला कि हम नहीं कहेगें ये इसकी इच्छा। इस पर पशुपति सिन्हा ने अपने गुरू से कहा कि हम इसे नवरात्र करने की विधि बता देते हैं और ये अपने घर पर हीं नवरात्र करेगा। इस पर राजेन्द्र याद दिलाते हुए कहा कि नवरात्र के तृतीया को तुम दोनों माता काली के समक्ष 24 धंटे घी का दीपक जलाये रखना।
इस प्रकार लालजी प्रसाद ने तीन नवरात्र किया जिसमें गंगा दषहरा का नवरात्र भी शामिल था और तीसरे नवरात्र खत्म होने के बाद हीं राजेन्द्र की बैमत लालजी प्रसाद की पुत्री को अपने घुंघरू की आवाज सुना दी, जिसके परिणामस्वरूप उसे जॉन्ड्रीस की बीमारी हो गयी।
एक दिन जॉन्ड्रीस की हालत में ही देवमणी देवी अपनी पुत्री सहित पशुपति सिन्हा के घर गई, वहाँ राजेन्द्र पहले से हीं मौजूद था और समोसा खा रहा था। राजेन्द्र देवमणी देवी के करीब गया और उसे अपना जूठा समोसा देवमणी देवी द्वारा मना करने पर भी उनकी पुत्री को खिला दिया जो वास्तव में राजेन्द्र के शरीर में बैठ कर बैमत समोसा खा रही थी। उसी रात करीब 1.00 बजे देवमणी देवी की पुत्री की मृत्यु हो गयी और बैमत उनकी पुत्री को लेकर राजेन्द्र के समक्ष पहूँची तो राजेन्द्र ने हँसते हुए कहा कि अब मेरा काम हो गया। और वह उसी रात की सुबह अपने निवास स्थान, गया की ओर प्रस्थान कर गया।
सुबह होते होते देवमणी देवी के घर पर मातम छा गया सारे लोग दुःखी थे, देवमणी देवी यह कह कर रोये जा रही थी कि हम अपनी पुत्री का इलाज भी नहीं करवा सके। परिवार के कुछ सदस्य कुँवरदेवी के शरीर अपने गोद मे उठा कर बाँस घाट, पटना की तरफ चल पड़े और उसे सफेद कपड़ा में लपेट कर फुलों के साथ जमीन में गाड़ दिये।
इधर बैमत देवमणी देवी की पुत्री को लेकर माता काली के निवास स्थान पर पहूँची जहाँ माता काली भैरवनाथ से कुछ वार्तालाप कर रही थी। बैमत की आवाज सुनकर माता काली हँसते हुए कहा कि देखों एक और कुँवरदेवी आ गयी इसपर भैरवनाथ ने कहा कि ये कुँवरदेवी ऐसे यहाँ नहीं रहेगी पहले देवी को बलि चढ़ाओ। राजेन्द्र की बैमत भैरवनाथ को घुरते हुए बोली कि हम जब कह चुके हैं तो बलि जरूर देंगे, तब बैमत ने माता काली के समक्ष देवमणी देवी की पुत्री को प्रस्तुत किया। वह रो रही थी, तब माता दुर्गा ने अपना स्वरूप बदल कर देवमणी देवी के रूप में आयी और बच्ची को पुचकारने लगी और बच्ची चुप हो गयी। तब भैरवनाथ अपना कारनामा दिखाने लगे और बैमत को गुस्साते हुए बोले कि अगर बलि दोगी तो कुँवरदेवी रखेंगे नहीं तो उसी के घर मंे इससे इसकी माता का शरीर पकड़ा देंगे। बैमत कुँवर देवी के साथ तुरंत राजेन्द्र के समक्ष पहूँची जो बस मंे सफर कर रहा था और सारी बातें बतायी। राजेन्द्र, भैरवनाथ का स्मरण किया और उनसे कहा कि हम बलि अगले दो या तीन दिन में दे देंगे। इसपर भैरवनाथ ने कहा कि जबतक बलि नहीं दोगे तबतक हम कुँवरदेवी को स्वीकार नहीं करेंगे और भैरवनाथ बच्ची की बाँह पकड़ कर देवमणी देवी के घर पर प्रस्तुत हुए और उसे वहीं छोड़ आए। घर की बैमत उस कुँवर देवी को घर के बगल की गली जो कि आगे जाकर बन्द हो जाता था, उसी में छुपा दिया। जब रात को करीब 9.00 बज रहे थे तब बच्ची अपनी माता की आहट पाकर चिल्लाई जो अपने छोटे पुत्र को कुल्ला करवाने ले गयी थी, आवाज को सुनकर शषि जो देवमणी देवी का छोटा पुत्र था कह दिया कि कौन रो रहा है, और देवमणि देवी अपने पुत्र के साथ डरकर घर के अन्दर चली आयी। इसी बात का अवसर पाकर घर की बैमत देवमणि देवी के पुत्र को अपने घुँघरू की आवाज सुनाना आरंभ किया और उनके पुत्र का भी तबियत खराब हो गया। उन्होंने अपने चचेरे बड़े भाई (रवीन्द्र सिन्हा) के घर पर ठहर कर अपने पुत्र का इलाज करवाया।
इधर बलि के लिए झगड़ा जोरो पर था भैरवनाथ का कहना था कि जहाँ नवरात्र का पुजन हुआ है वही बलि लेंगे और राजेन्द्र पशुपति सिन्हा के घर पर बलि देने के लिए कह रहा था। इसका वजह यह था कि लालजी प्रसाद कि माता ये कहकर बलि देने पर रोक लगा दी थी कि तुम्हारी पुत्री की मृत्यु हुई है और तुम देवी को बलि दोगे? और लालजी प्रसाद भी अपने माता की बात को मान गये थे। अंत में भैरवनाथ ने निर्णय लिया कि जो बलि देगा वहीं कुँवरदेवी का मालिक होगा और उन्होनंे घर की बैमत से पूछा कि तुम बलि दिलवा सकोगी। इस पर बैमत ने अपनी मजबूरी जाहिर करते हुए कहा कि हमकों तो कोई इस घर में पूजता नहीं है हम कैसे बलि दे सकते हैं। इसपर भैरवनाथ ने राजेन्द्र की बैमत से कहा कि तुम बलि देने में कामयाब नहीं हो सकी इसलिए बलि देने का मौका हम इस बैमत (घर की बैमत) को देते है। राजेन्द्र की बैमत ने झुँझलाते हुए कहा कि कुँवरदेवी हम बनायें हैं तो उसकी कैसे होगी। तब घर की बैमत ने कुछ विचार करके कहा कि अगर कुँवरदेवी को काली के निवास पर रख दें और हम दोनों में से जो बलि देने में सफल होगा उसी की कुँवरदेवी होगी। इसपर भैरव नाथ ने कहा कि ठीक है जिसके नेतृत्व मंे बलि पड़ेगा कुँवरदेवी उसी की होगी, इस पर राजेन्द्र की बैमत दावेपूर्वक बोली कि नवरात्रि का व्रत हमारे नेतृत्व हुआ है तो कुँवर देवी मेरी होगी। तब भैरवनाथ ने हँसते हुए कहा कि तुम नवरात्रि का व्रत पुर्ण की हो तो तुम कुँवरदेवी को काली माता के निवास स्थान पर रख आओं लेकिन शक्ति के नाम पर तुम्हें एक अंष भी नहीं मिलेगा और घर की बैमत अगर बलि दिलवाने मंे सफल होती है तो कुँवरदेवी भी उसी की होगी, और भैरवनाथ ने घर की बैमत से पुछा की तुम्हारे तरफ से कौन बलि देगा तो घर की बैमत ने अषीष के उपर अपनी अंगुली रख दी और बोली की यही बलि देगा लेकिन बड़ा होगा तब। तब भैरवनाथ ने घर की बैमत को कुँवरदेवी पर अधिकार देते हुए कहा कि उस बच्चा से मन्नत करवाओं। तब घर की बैमत अषीष जो कि घर में अकेला था और सो रहा था को, अर्धनिन्द्रा मंे लायी और उससे पुछी कि तुम बलि दोगे? तब श्री हरि विष्णु ने अषीष से कहवा दिया कि हम बलि के रूप में खस्सी देंगे। इस बात से राजेन्द्र की बैमत को गुस्सा आया और वह सीधे काली निवास में काली माता के समक्ष षिकायत की और बोली कि भैरवबाबा हमारी कुँवरदेवी उस बैमत को दे दिये सिर्फ एक बलि के कारण।
माता दुर्गा सारी बात को समझ ली थी। वो झगड़ा को शांत कराते हुए बोलीं कि इस कुँवरदेवी को मेरे पास रहने दो और तुम (राजेन्द्र की बैमत) नवरात्र का व्रत करवायी हो तो अपना तीन शर्त लगा दो और जब बच्चा शर्त पूर्ण करेगा तब यह कुँवरदेवी उसकी (घर की बैमत) हो जाएगी, और शर्त पूर्ण करने के दौरान ये बैमत (राजेन्द्र की बैमत) बच्चे से बलि दिलवाती है तो कँुवरदेवी इसी (राजेन्द्र की बैमत) की होगी। अब राजेन्द्र की बैमत शक्ति के अंष के बारे में षिकायत की और बोली की भैरव बाबा बोले है कि जब तक तुम पूर्णरूप से कुँवर देवी का अधिकारी नहीं हो जाती हो तब तक शक्ति का एक अंष भी तुम्हें नहीं मिलेगा। इस पर दुर्गा माता बोली कि चुँकि तुम कुँवरदेवी मेरे समक्ष प्रस्तुत की हो तो शुरू में हम तुम्हें शक्ति का कुछ अंष दे देते हैं। इसपर भैरव नाथ ने हँसते हुए कहा कि तब तो आपको शक्ति का कुछ अंष इसे (घर की बैमत) भी देना होगा। इस पर माता दुर्गा ने साफ तौर पर कह दिया कि जिसके हाथ में शर्त होगा उसी को शक्ति मिलेगा। इस पर भैरव नाथ ने हँसते हुए कहाँ वो नन्हा सा बालक शक्ति का क्या करेगा, तब माता दुर्गा ने कहा कि उस बालक की भविष्य में होने वाली कुछ इच्छाओं को पूर्ति होने का वरदान दे दों। तब राजेन्द्र की बैमत माता काली के समक्ष कुँवरदेवी छुड़ाने के लिए तीन शर्त रखी।
अगर इसका भाई इसका मणुष्यदेवा बनकर आयेगा और तुम चारों मंे से किसी एक का मणुष्यदेवा बनेगा तथा जिसका मणुष्यदेवा बनेगा वो भी उसे अपना मणुष्यदेवा स्वीकार करेगी तब तुम इसे यहाँ से छोड़ना।
दुर्गा माता की ओर इषारा करते हुए बोली कि अगर मणुष्यदेवा तुमको मार दे तब तुम इसे अपने घर में जाने देना।
जब इसका जोड़ा लगा देगा तब तुम इसे अपने किसी परिवार के शरीर को पकड़ने देना तथा मुख खोलने देना।
घर की बैमत के साथ अषीष के घर पहूँच कर भैरवनाथ ने अषीष को उसके छाती पर अपने अंगुठा का निषान देकर मणुष्यदेवा बनाते हुए अर्धनिन्द्रा में लाया और कहा कि तुम्हारी क्या इच्छा है। तब श्री हरि विष्णु की प्रेरणा से अषीष बोला कि हम सभी भाई पढ़े। तब भैरवनाथ ने आगे पूछा कि कहाँ तक पढ़ोगे? इसपर श्री हरि विष्णु ने अषीष जो कि अर्धनिन्द्रा में था, उसकी आवाज में खुद ही कह दिये कि, बड़ा भाई मैट्रीक तक, मंझला भाई बी॰ए॰ तक, छोटा भाई मैट्रिक तक। इस पर भैरव नाथ ने दुबारा पुछा कि अपने बारे में कहो तब अषीष ने कहा कि हम भी मैट्रिक तक। भैरव नाथ ने कहा कि तुम्हारी सब इच्छा पूर्ण होगी। इस पर घर कि बैमत ने भैरवनाथ से कहा कि इसे कुछ और दिजिए, तब भैरव नाथ ने कहा कि और क्या दे? ज्ञान है तो धन भी है, फिर भी हम इतना कह देते है कि यह बालक कक्षा-चतुर्थ, पंचम और षष्ठ प्रथम श्रेणी से उतीर्ण होगा।
इतना कार्य करने के बाद भैरव नाथ राजेन्द्र के पास पहूँचे जहाँ राजेन्द्र अपनी बैमत के साथ दुःखी अवस्था में कुछ सोंच रहा था, भैरवनाथ को देखते ही राजेन्द्र अपनी ब्यथा सुनाई और बोला कि और कोई रास्ता नहीं है? इस पर भैरवनाथ बोले कि कुँवरदेवी की चाबी अब उस बालक के हाथ में है, अगर कुँवरदेवी चाहिए तो उस बालक को मार कर उससे शर्त पुर्ण करवा दो और अपने नेतृत्व बलि दे दो। राजेन्द्र को यही एक उपाय सुझ रहा था और वह रात दिन सिद्धीदात्रि माता कि तपस्या करके एक सिद्धि हासिल किया और उसे अषीष के उपर यह कह कर छोड़ दिया कि वह बालक जहाँ कहीं भी हो, उसे मणुष्यदेवा बनाओ। भैरवनाथ भी वहीं थे, उन्होंने बैमत के सर पर हाथ रख दिया जो राजेन्द्र के शरीर में बैठी हुई थी, राजेन्द्र को ऐसा लग रहा था जैसे मानो दिव्यदृष्टि मिल गई हो, और वह अपने द्वारा छोड़ी गई सिद्धी को देख रहा था। रात्रि का समय होने के कारण अषीष अपने मंझले भाई के साथ बिस्तर पर सो रहा था। जैसे हीं सिद्धी अषीष के समीप प्रकट हुई और उसके शरीर मंे प्रवेष करने लगी तभी श्री हरि विष्णु ने अपने पैर को अषीष के शरीर से बाहर निकाला और उस सिद्धी को अपने अन्दर रख लिया। राजेन्द्र और भैरवनाथ की नजर के सामने सिद्धी अदृष्य हो गयी थी। राजेन्द्र बौखलाया हुआ था, भैरवनाथ अषीष के घर पर आये और सिद्धी को खोजने लगे, तभी घर की बैमत वहाँ आयी और भैरवनाथ को अचानक यहाँ आने का कारण पुछा तब भैरवनाथ ने सारी बाते उस बैमत से कह दिये। इसपर बैमत ने कहा कि आखिर क्यों इसके हाथ में शर्त दिया गया था? क्या इसे इसी आयु में मारने के लिए? आपने हमें भी धोखा दिया। अब हम मियाँ साहब को सारी बाते बता देंगे। इस पर भैरवनाथ सन्न हो गये और पुछे कि इसके घर में मियाँ है? तब बैमत बोली कि ‘‘हाँ, इसके खानदान में मियाँ साहब की पूजा होती हैं’’, और इतना कहकर घर की बैमत, शेख के निवास स्थल जो कि बगदाद के आस-पास के जंगलों में था, पहूँची और उन्हें सारी कहानी कह सुनाई। शेख इस बात कि जानकारी लेते हीं देवमणी देवी के घर चले आयें और घर को अच्छी तरह जाँच-पड़ताल किया, तब उनकी नजर लालजी प्रसाद के अंगुली में पड़े अंगुठी पर पड़ा और उसे गौर से देखते हुए बोले कि किसी तरह इसके अंगुली से इस अंगुठी को उतरवाओं, बाकि हम दुर्गा-काली से समझ लेंगे। इधर भैरवनाथ के सामने ‘‘आगे कुआँ और पीछे खाई’’ वाली बात हो गयी। वो भागे-भागे राजेन्द्र के घर पर पहूँचे और बोले कि ‘‘राजेन्द्र, ये तुमने क्या किया, मियाँ के घर मंे हाथ डाल दिया, अब लड़ाई रखा हुआ है। राजेन्द्र भैरवनाथ के समक्ष हाथ जोड़ते हुए बोला कि हम इस बात से अन्जान थे। भैरवनाथ के जाने के बाद राजेन्द्र ये सोंच कर घबराया हुआ था कि कहीं यह भेद समाज में खुल न जाए, बैमत बहुत विचार करके बोली कि अगर कुँवरदेवी के शरीर के खोपड़ी में सिद्दी डाल दिया जाए तो कुछ बात बन सकती है और यह सोंच कर बैमत को अपने शरीर में रख कर राजेन्द्र हर रोज रात्रि 12.00 बजे से 04.00 बजे तक सिद्धीदात्री माता का उपासना किया और सिद्धी प्राप्त होते हीं राजेन्द्र की बैमत अर्धरात्रि को उस जगह पर पहूँची जहाँ कुँवरदेवी का शरीर मृत्योपरान्त गाड़ा गया था और बैमत ने कुँवर देवी के शरीर के सर को धड़ से अलग करके सिर को लिये हुए राजेन्द्र के समक्ष पहूँची और तब राजेन्द्र कुँवरदेवी के सिर के बाल को हटा कर उसमें घी और सिन्दुर का लेप चढ़ाया। लेप चढ़ाने के बाद उसे अग्नी में सुखा दिया और तब सर में प्राप्त सिद्धी को यह कहते हुए प्रवेष कराया कि अगर इस सिर का कुँवरदेवी अपने किसी भी परिवार के सदस्यों के समक्ष अपना मुख मेरे विरूद्ध खोलती है तो जिस सदस्य के समक्ष अपना मुख खोलेगी उसको मृत कर देना।
इधर श्री हरि विष्णु के द्वारा सिद्धि को अपने अन्दर रखे जाने की घटना से पितामह श्री ब्रहा्राजी नाराज थे, उन्होने श्री हरि विष्णु को याद दिलाया कि ‘‘तिनका से खड़ग बनना है’’ लेकिन आप तो द्वापर युग की लीलाएँ कर रहे हैं, आपको इस बालक को दंडित करना होगा। श्री हरि विष्णु ने ब्रहा्रजी से क्षमा माँगा और सुबह होते हीं देखा कि एक बिल्ली अषीष के घर मंे ही दुध पी रही है, उन्होने अषीष के शरीर को अपने वष मंे किया और बिल्ली को भगा कर स्वयं दुध पी गये, परिणामस्वरूप अषीष को ‘‘डिफ्थेरिया’’ की बीमारी हो गयी। इस बीमारी की ईलाज में करवाने में अषीष की माँ के शरीर का आधा गहना बिक गया।
अषीष की बहन की मृत्योपरांत शोक जताने के लिए उसके नानी और नाना दोनों आएँ और अपने साथ अषीष को भी अपने घर ले गये। अषीष करीब 4 वर्ष तक अपने नानी के घर रहा और तीसरी कक्षा तक की पढ़ाई वहीं की। इधर अषीष की बहन (जो कुँवरदेवी थी) भी काली आवास पर हर प्रकार के भूत-प्रेत और बैमतों से लड़ने की विद्या से निपूण हो गयी। इस चार वर्षों के दौरान घर की बैमत और राजेन्द्र की बैमत दोनों उसकी नानी के घर पहूँच गयी और मणुष्यदेवा पर अपना-अपना अधिकार के लिए लड़ने लगी। इस पर भैरव नाथ ने राजेन्द्र की बैमत को अधिकार देते हुए कहा कि जब ये अपने दादी घर जाएगा तब तुम्हारा (घर की बैमत का) अधिकार होगा। अधिकार प्राप्त करने के बाद राजेन्द्र की बैमत हमेषा अषीष को मारने कि कोषीष में रहती थी। एक बार देवमणी देवी अपने मायके आयी हुई थी, साथ में उनका तीनो पुत्र भी आया हुआ था। रात्रि का समय था करीब 1.00 बज रहे थे, अषीष अपनी नानी के साथ हमेषा सोता था लेकिन उस रात अषीष बीच में सोया था, एक तरफ उसकी नानी और दुसरी तरफ उसका मंझला भाई सोया हुआ था। रात्रि में ही राजेन्द्र की बैमत ने अपना करतब दिखाया, राजेन्द्र की बैमत को प्रतीत हुआ कि आषीष किनारे पर सोया हुआ है, और अपने सिद्धी की शक्ति से किवाड़ के अंष (आत्मा) को हटा दिया जिससे मंझले भाई अर्धनिन्द्रा में हो गये और देखा कि एक काली औरत उन्हे आने को कह रही है, वे डर गए और दुबक कर सो गये।
आषीष बचपन से ही माँस नहीं खाता था और उसे जहाँ भी ले जाया जाता था, उसकी खातीरदारी दुध भात खिलाकर किया जाता था। लेकिन अषीष के मामा (विजय सिन्हा) पूर्ण रूप से माँसाहारी थे। वे गया में रहकर अपना व्यापार करते थे और जब वे घर आते थे तब आते समय ही माँस या मछली ले लिया करते थे। एक बार उन्होने ने ऐसे ही माँस लेकर घर आए और उसे अच्छी तरह से बनाया। रात को करीब 9.30 बजे चुका था और अषीष भी सो गया था। उसके मामा अषीष को माँस खाने के लिए जगाया और अपने पास बैठा लिया लेकिन श्री हरि विष्णु ने उसे अर्धनिन्द्रा मंे ही रखा, बैठने के बाद अषीष के मामा ने अषीष के मुँह में माँस का टुकड़ा डाल दिया जिससे श्री हरि विष्णु कुपित हो गये और कह दिये कि तुम इसी तरह सबको माँस खिलाते रहोगे और इस प्रकार तुम्हारे धन-सम्पत्ति का नाष होगा और इस प्रकार अषीष भी मांसाहारी हो गया।
कुछ समय बाद राजेन्द्र की बैमत ने अषीष को मारने के लिए दुसरा तरीका अपनाया। किसी बात से दुःखी होकर अषीष की नानी, अषीष को डाँट दी, इस पर अषीष को बहुत गुस्सा आया और इसी गुस्सा का फायदा उठाकर राजेन्द्र की बैमत अषीष के शरीर में बैठ गयी और दीया कि एक बोतल जो केरोसीन तेल से भरा हुआ था, आषीष को पिला दी, जिसके परिणामस्वरूप अषीष का दाहिना पैर पूरी तरह सूज गया और उसमें ‘‘पस’’ भर गया। इससे पीड़ित होकर अषीष चल-फीर भी नहीं पाता था, अंत में अषीष की माँ उसे वापस पटना लेेकर चली आई और पटना के पी॰एम॰सी॰एच॰ मंे हीं उसके पैर का ऑपरेषन हुआ, तब वह पूर्ण रूप से स्वस्थ्य हो सका, और इसके बाद वह पटना में हीं रहने लगा।
पटना में हीं आषीष के माता पिता ने उसकी नामांकन शास्त्रीनगर स्थित प्राथमिक विद्यालय में, कक्षा चार में करवाया। नामांकन के छः या सात माह के बाद अषीष की दादी का स्वर्गवास 15 अगस्त 1992 मंे हो गया।
दादी के स्वर्गवास होने के बाद मियाँ साहब (षेख) का घर में आगमन हुआ। उस समय अषीष उपले लाने के लिए बाहर गया हुआ था और उसकी माँ, जहाँ उसकी दादी सोती थी, वहीं सोई हुई थी, जब अषीष उपले लेकर आया तो उसने माँ को कहा कि उपले आ गये तब उसकी माँ के शरीर में समाया हुआ शेख बोलते है कि, उपले ले आये हो तो हमें जला दों। अषीष को अजीब लगा तब मियाँ साहब उसे अपना परिचय देते हुए कहा कि हम ‘‘शेख’’ हैं और घर का हाल-समाचार लेकर चले गये।
उधर शेख काली माता के आवास पर पहूँचे और काली के समक्ष कहा कि बच्चा अभी बहुत छोटा है, जब वह बड़ा हो जायेगा तब उसकी बहन (कुँवरदेवी) अपने माँ का शरीर पकड़ेगी और सब सच-सच बताएगी और ये भी बताएगी कि उसे कौन मारा है।
KAAL SAGAR "Ek Mahakavya" (English)
(द्वितीय-चरण)
समय बीतता गया, भैरवनाथ के कहे अनुसार अषीष चतुर्थ, पंचम और छठी कक्षा प्रथम श्रेणी से पास किया। अषीष के भाई लोग भी उसी के कहे अनुसार ही पढ़ाई कर रहे थे। सन् 1995 ई॰ में लालजी प्रसाद अपना घर बदल कर पष्चिम पटेल नगर के आदर्ष कॉलोनी मंे ले गये। वहीं उन्होंने किराए पर एक कमरा लिया और रहने लगे। उस समय अषीष कक्षा सप्तम का छात्र था। जिस कमरे को लालजी प्रसाद ने किराए पर लिया था उसी के ठीक पीछे रासबिहारी सिंह का मकान था, उनकी सिर्फ चार पुत्रियाँ थी, उनकी मंझली पुत्री का नाम नेहा था जो पढ़ाई में अषीष के समकक्ष थी लेकिन दोनों के विद्यालय अलग थे। इधर श्री हरि विष्णु ने अषीष के आत्मा के परमेष्वर को आदेष दिया कि ‘‘तुम अपने स्तर से कुँवरदेवी को छुड़ा सकते हो’’ और परमेष्वर अषीष के मन में नेहा के प्रति प्रेम भर दिया और नेहा और अषीष अक्सर एक दूसरे को मौखिक रूप से छेड़-छाड़ किया करते थे।
वर्ष 1997 के ज्येष्ठ माह को चतुर्थ पहर के शुरूआत में देवमणी देवी के शरीर पर शेख साहब का आगमन हुआ। उस समय परिवार के सभी सदस्य घर पर हीं मौजुद थे, शेख साहब लालजी प्रसाद से कहा कि आज तुम्हारा अपना खुन भी आयी है। जब अषीष की छोटी बहन अपने माँ के शरीर को पकड़ी तो उस समय अषीष भी वहीं था, कुँवरीदेवी रोते हुए राजेन्द्र की षिकायत करते हुए बोली की उसने हीं हमें मारा है। इतना सून कर अषीष वहाँ से हट गया। इधर शेषनाग, श्री हरि विष्ण (जो कि अषीष के शरीर में विराजमान थे), को जगाया, उन्होनें सबकुछ अपने नेत्र से देखा, कुँवरदेवी अषीष के करीब आकर उसका पैर छुती है और उसके मन से पूछती है कि हमको लेने आइएगा न। इस पर श्री हरि विष्णु ने अषीष के तरफ से जबाव दिया कि हम आऐंगे।ं शेख साहब भी अषीष के मन से बात किए और बोले बच्चे जरूर जाना, हम तुम्हारे साथ हैं और चले गये।
एक बार जब नेहा अपने नल पर कपड़ा धो रही थी, वो अक्सर मुड़कर अषीष के तरफ देखती थी जबकि अषीष अपने कमरे कि खिड़की के पास खड़ा था, अषीष सोंचा क्यूँ न कुछ किया जाए और अषीष ने नेहा को आँख मार दिया, इस पर नेहा कुछ नहीं बोली सिर्फ घूर कर रह गयी। आगे कुछ समय बाद अषीष, नेहा को हवाई चुंबन किया तब भी नेहा कुछ नहीं बोली। जब नेहा कपड़ा सुखाने के लिए अपने छत पर आई तो उस समय भी अषीष खिड़की से नेहा को देख रहा था। नेहा अपने हाथ में कपड़े के बाँह को उपर समेटते हुए बोली ‘‘तुम अपने आप को क्या समझते हो?’’ इस पर आषीष धबरा गया (कहीं कोई सुन न ले), क्योंकि अषीष के बड़े भाई बगल के बिस्तर पर सो रहे थे, और माँ उसी कमरे में सिलाई मषीन पर कपड़ा सिल रही थी। अषीष चुपचाप वहाँ से चला गया।
अगले दिन सुबह जब नेहा कोचिंग के लिए जा रही थी तो अषीष पहले से ही एक लड़के के साथ नेहा को रास्ते मंे इंतजार कर रहा था, रास्ते में अषीष को देखकर नेहा हँसी, इसपर अषीष गुस्सापुर्वक बोला, ‘‘तुम अपने आप को क्या समझती हो’’? नेहा रोने लगी, और बोली कि पापा को बोल दूँगी। इस पर अषीष बोल तुम्हारे पापा क्या कर लेंगे? और वापस अपने कोचिंग चला गया। उसके बाद नेहा सारी बाते अपनी माँ और पापा को बतायी इस पर नेहा के पापा ने अषीष पर पंचायती बैठा दी लेकिन पंचायत के पंचों ने श्री हरि विष्णु की प्रेरणा से शंकर सिंह (जो कि अषीष के मकान मालिक के दमाद थे), के कहने पर मात्र एक बच्चा समझ कर छोड दिया, उस समय अषीष कक्षा नवम् का छात्र था।
एक बार घर की बैमत देवमणी देवी को बहुत परेषान की, यहाँ तक की बैमत ने देवमणी देवी के मुख से खुन निकाल दिया, वह कराह रही थी, अषीष बगल में हीं खड़ा था, उसकी माँ ने कराहते हुए पशुपति सिन्हा (अषीष के चचेरे मौसा) को अपने घर पर बुलाने के लिए कहा, अषीष उनके घर चला गया और बुला लाया। देवमणी देवी की हालत देखकर उन्होने कुछ टोटका बताया। चुँकि अषीष की माँ का तबियत खराब था, इसीलिए उन्होनें पषुपपति सिन्हा को चाय के लिए भी नहीं पुछ पायी।
इधर घर की बैमत से परेषान लालजी प्रसाद ने अपने मित्र अरूण (जो रूकनपुरा, पटना में रहते थे) के सहयोग से एक इस्लामीक भगत से अपनी पत्नी का इलाज करवाया, जो कि अरूण के ही घर पर किराया पर रहते थे। भगत के समक्ष बैमत देवमणी देवी कि षिकायत की और बोली कि यही सबसे बड़ी है, इसपर भगत बोला कि जब ये तुम्हें पुजना नहीं चाहती है तो क्यो इसको परेषान कर रही हो, इसका शरीर और घर छोड़ दो। तब बैमत बोली कि जब तक ये हमें नहीं पुजेगी, तब तक हम इसको नहीं छोड़ेगे। तब भगत देवमणि देवी के द्वारा भगत के हीं घर के पुजा स्थल पर एक बार बैमत कि पूजा करवाया और बलि के रूप में मेमना ली तब जाकर वह बैमत सिर्फ देवमणि देवी का शरीर छोड़ी क्योंकि अषीष के हाथ में कुँवरदेवी का शर्त बाकी था।
धीरे-धीरे समय बितता गया, नेहा अब भी उसे देख कर हँसती थी, लेकिन अषीष इन सब बातों पर ध्यान न देते हुए दषवीं (मैट्रीक) की परीक्षा की तैयारी करने लगा। अषीष मैट्रीक कि परीक्षा की तैयारी में लगा हुआ था, वह रात को 10.00 बजे से सुबह 5.00 बजे तक पढ़ाई करता था। पढ़ाई करने के दौरान रात को 12.00 बजे से सुबह 4.00 बजे तक उसे घुँधरू की आवाज सुनाई देता था, ऐसा लगता था मानांे कि दिवार के पीछे कि तरफ कोई टहल रहा है। काफी विचार करने के बाद उसने सोंचा कहाँ से ऐसी आवाज आ रही है, उसने सोंचा घर की खिड़की खोलकर देखा जाए, फिर अचानक उसके मस्तिक में एक दृष्य उभरा, ‘‘चाँदनी रात में कोई सुंदर स्त्री दिवार के पिछे टहल रही है’’, और उसने खिड़की खोलने का इरादा बदल दिया। वास्तव में यह घुँघरू उसी के घर की बैमत अदृष्य रूप से सामने खड़ी होकर बजाती थी, इन सब बातों से अषीष के उपर कोई फर्क नही पड़ा, और तो और जब पढ़ाई के समय जब अषीष को नींद आती थी तो घुँघरू की आवाज को सुनकर उसकी नींद खुल जाती थी और वह पुनः पढ़ने लगता था। इस प्रकार अषीष 1999 ई॰ में मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ।
4th Edition of Kaal Sagar "Ek Mahakavya"
(तृतीय चरण)
अशीष के पिता जी अपने सभी पुत्रों को कक्षा मैट्रीक तक ही पढ़ाने का लक्ष्य रखा था अपने पुत्रों के समक्ष इस संदर्भ में असमर्थता प्रकट कर दिया था। उन्होंने अपने पुत्रों को समझाते हुए कहा कि तुमलोग ट्युषन अथवा किसी प्रकार का जॉब पकड़कर अपना आगे की पढ़ाई पुरी करो। मैट्रीक पास करने के बाद अषीष को भी कमाई करने की बारी आ ही गई थी। सन् 1999 ई0 के सितम्बर माह कि बात है, अषीष पास के मुहल्ले के ही एक श्रृंगार दुकान में काम करना शुरू कर दिया। पैसा कमाने के चक्कर और आवारागर्दी में वह अपने पढ़ाई का दो साल खो चुका था। अषीष का एक प्रिय मित्र था, भवेष। वह अक्सर अषीष से मिलने दुकान पर आया करता था और अषीष का वहाँ पर काम करते हुए खुषी नहीं होती थी। उसने अषीष को समझाते हुए कहा कि तुम ट्युषन क्यों नहीं पढ़ाते हो, इस पर अषीष दुःख प्रकट करते हुए बोला कि, यार, ट्युषन कहाँ मिलता है? भवेष, अषीष बोला कि मेरे पापा के दोस्त की बेटी को पढ़ाना है, तुम पापा से मिलकर बात कर लो। अषीष अगले सुबह हीं करीब 9.00 बजे भवेष के पापा से मिलने चला गया और उसके पापा ने अपने मित्र जो कि एक अधिवक्ता थे, का घर का पता देते हुए कहा कि इस पते पर जाकर बात कर लो और ईमानदारी और जिम्मेदारी से पढ़ाना, इतना कहकर वे बरामदे से अपने कमरे में चले गये, तब अषीष, भवेष को अपना कठिनाई को सुना देता है कि वह अंगेजी माध्यम में ट्युषन नहीं पढ़ा सकता है। भवेष समझाते हुए कहता है कि अंग्रेजी माध्यम कुछ नहीं है, इसमें अंग्रेजी समझने की जरूरत नहीं है, अंग्रेजी को अंग्रेजी में ही पढ़ाना, बस अंगेजी पढ़ना आना चाहिए। अषीष, भवेष की बात को समझते हुए अगले दिन भवेष के पिता जी के मित्र के घर पहूँचा। घर के अंदर पहूँचते हीं अषीष ने देखा की एक पिता अपने पुत्र को कुछ समझाते हुए जाने के लिए कहते हैं। अषीष को देखते हीं वकिल साहब पास वाली कुर्सी पर बैठने का इषार करते है और कहते है तुम्हें चौधरी जी (भवेष के पिताजी) ने भेजा है। अषीष हाँ में जबाव देता है। पहले वकिल साहब अषीष का नाम पुछते हैं। अषीष अपना नाम बताता है (अषीष कुमार सिन्हा)। इस पर वकिल साहब कहते है कि कायस्थ हो? अषीष हाँ में जबाब देता है, इस पर उन्होंने कहा कि ‘‘तब तो तुम पढ़ा ही लोगे’’। उनके द्वारा घर का पता पुछने पर अषीष ‘‘आदर्ष कॉलोनी’’ जबाव दे दिया। वकिल साहब कुछ सोंच कर बोले कि अभी तो बच्चे घर पर नहीं हैं, विद्यालय गये हुए हैं, शाम को 6.00 बजे से तुम पढ़ाने के लिए आ जाओ और अषीष वहाँ से चाय पीकर वहाँ से लौट गया।
उसी दिन शाम को करीब 5.00 बजे वकील साहब के घर पर ट्युषन पढाने के लिए जाने के क्रम में अषीष एक लड़की को देखता है। लड़की मिनी स्कर्ट और टी-षर्ट पहन रखी थी। अषीष को उस लड़की का फिगर अच्छा लगा और उसे दुबारे देखने के लिए दुसरी तरफ से उसी रास्ते पर पहूँच गया, इस बार लड़की उसे घूरने लगी। अषीष नजर नीचे करके चलता बना। तभी उसे लंच करने का ख्याल आया और लंच करने चला गया, लंच करने बाद अषीष सीधा वकिल साहब के घर ट्युषन पढ़ाने के लिए पहूँचा। वहाँ कुर्सी पर बैठते हीं उसके सामने वाली दो कुर्सी पर लड़की आकर बैठ गई। जिसमें से एक वही मिनी स्कर्ट और टी-षर्ट वाली लड़की थी, उसे देखकर अषीष के आवाज में लड़खराहट आने लगी, पसीना तेजी से चल रहा था। दूसरी तरफ मिनी स्कर्ट वाली लड़की जो कि उस समय सफेद फ्रॉक पहनी हुई थी, अपना और अपनी छोटी बहन का परिचय देते हुए बोली कि ‘‘सर मैं पूजा राज और ये पल्लवी राज है’’ और ये कहते हुए दोनो ने अपना-अपना बड़ा सा स्कूल बैग सेंटर टेबल पर रख दिया। उन दोनो को बैठने के बाद अषीष हकलाते हुए बोला कि देखिए हम सिर्फ आपको विज्ञान और गणित ही पढ़ा पाएँगे और इस बारे में मैं आपके पापा से बात कर चुका हूँ। बात को समझते हुए पूजा और पल्लवी गणित की पुस्तक निकाल ली और पढ़ना प्रारंभ कर दिया। कुछ देर बाद पूजा के पिता जी घर आये तो अषीष से पुछे कि आपस में परिचय हो गया? हम तीनों ने हाँ में जबाव दे दिया। अषीष ने वकिल साहब से फी की भी बात कर ली और दोनों की ट्युषन फी 700.00 रू0 तय हो गया।
दोनों को गणित पढ़ाते-पढ़ाते अषीष को लगा कि वो अच्छा अंग्रेजी जान चुका है और इसी दंभ में वह पूजा को बोला कि आज गणित नहीं रसायन पढ़ाएँगे। पूजा झट से रसायण की किताब अषीष की तरफ बढ़ा दी लेकिन किताब को देखते ही अषीष को तारे नजर आने लगे और पेज को पलटते हुए सोंच में डुब गया, इस पर पूजा बोली कि ‘‘क्या हुआ सर?’’!! अशीष कुछ सोंचते हुए बोला रसायण शास्त्र के रसायनिक सूत्र जानती हैं आप, पूजा ना में सर हिला दी। अषीष रसायण शास्त्र पुस्तक का पूर्ण रसायनिक सूत्र उसकी कॉपी में लिखवाया और याद करने के लिए दे दिया। पढ़ाई का समय पूर्ण हो चुका था, अषीष के जाते समय पूजा बोली कि कल से हम नहीं पढ़ेंगे सर, अषीष को झटका लगा, फिर भी अचंभित होते हुए पूछा क्यों? पूजा बोली कि हमारा नवोदय विद्यालय में नामांकन हो चुका है, हम वहीं जा रहे हैं लेकिन छोटी वाली पल्लवी पढ़ेगी, आप आइएगा। अषीष को महसूस हुआ कि कुछ छुट रहा है, फिर भी पल्लवी को पढ़ाते रहा।
सिर्फ पल्लवी को पढ़ाते हुए करीब 15 दिन ही हुए थे कि पल्लवी बोली की सर, पूजा आ रही है। पास में ही बैठी उसकी माँ बोली कि वहाँ पूजा को मन नहीं लग रहा है, वह वहाँ रोती है। इस पर अषीष बोला कि शायद पहली बार माता-पिता से अलग हुई है, अकेली तो महसुस करेगी हीं। अषीष को विष्वास नहीं हो रहा था लेकिन मन हीं मन खुष भी था। इस बात से अच्छी तरह अवगत होने के लिए अषीष पूजा के पिता जी से खुष होते हुए पूछा कि ‘‘अंकल पूजा आ रही है?’’ इस पर वकिल साहब बोले कि, ‘‘हाँ-हाँ पूजा आ रही है। अषीष पढ़ाते-पढ़ाते पल्लवी से पूछता है कि पूजा कब तक आ जायेगी, इस पर पल्लवी बोलती है कि कल शाम तक पूजा यहाँ होगी, भैया उसे लाने के लिए गये हुए हैं। उसके बाद अषीष उसे पढ़ा कर चला जाता है।
दूसरे दिन पल्लवी को पढ़ाने के दौरान अषीष के मन में एक ही सवाल आ रहा था कि पूजा आई अथवा नहीं, उसका एक मन करता था कि पल्लवी से पूछ ले, लेकिन यह सोंच कर चुप रहता था कि इसके घर के लोग क्या सोचंेगे। तभी पूजा, अषीष को देखती हुई उस कमरे के दरवाजे से गुजरी जिस कमरे में अषीष पल्लवी को पढ़ा रहा था, शायद वह बाजार गयी थी। इसी बीच पूजा की माँ अषीष को बोली की इन दोनों का नामांकन आर0पी0एस0 स्कूल में करवाना देना चाहती हूँ, जनवरी का महिना भी है, इसलिए इन दोनों को जाँच परीक्षा की तैयारी करवाना शुरू कर दो। इसके बाद पूजा हाथ में किताब लिये पल्लवी की बगल में कुर्सी लगाकर बैठ गयी। अषीष हँसते हुए पूजा से पुछा कि आप वहाँ रोती क्यों थी? पूजा, अषीष की आँखों में झाँकते हुए बोली ‘‘माँ-पापा की याद आती थी, अषीष हँसते हुए अपना नजर झुका लिया। इसके बाद पूजा की माँ पूछी कि तीन माह में परीक्षा की तैयारी हो जायेगी? क्यों कि फरवरी में फॉर्म आ जाएगा और करीब मार्च में परीक्षा होगा। इस पर अषीष हँसते हुए कहा कि ये बात आप अपने होनहारों से पूछें, जो दिन रात टेलीविजन में लगी रहती हैं, हम तो कोई कसर नहीं छोड़ेगे। इसके बाद अषीष, पूजा के पास जो भी कोर्स का किताब था उसकी प्रति खरीद लाया और उस किताब को पढ़कर दोनो को परीक्षा की तैयारी करवाने लगा। अषीष हर हर दिन ढ़ाई से तीन घंटा का समय देता था, घर से षिकायत आती थी कि ज्यादा गृहकार्य देते हैं।
एक समय की बात है अषीष नियमानुसार समय पर पूजा को पढ़ाने गया, पूजा अषीष को बैठने के लिए कुर्सी लगाने लगी, दूसरी तरफ से सर झुका कर अषीष कुर्सी पर बैठने के लिए गया लेकिन पूजा उसी तरफ से कुर्सी से बाहर आने लगी। जब अषीष सर उठाकर देखा तो पूजा और अषीष के बीच की दूरी मात्र एक अंगूली था, अषीष पिछे की तरफ जैसे हीं हटा, वह बगल की पलंग पर गिर पड़ा और पूजा अपने सर पर हाथ रखते हुए पिछे की ओर मुड़ जाती है। पूजा की पढ़ाई और हँसी-मजाक के साथ समय बीतता गया, दोनों की जाँच परीक्षा हुई और दोनों उत्तीर्ण भी हुए। पूजा खुष होते हुए अषीष से बोली की हम दोनों उत्तीर्ण हो गये सर, छोटी बहन हँसते हुए बोली हमलोग कभी भी जाँच परीक्षा उत्तीर्ण नहीं हुए थे सर, इस पर पूजा, पल्लववी को आँखे दिखाते हुए चुप रहने को कहती है और अषीष छोटी बहन के बात पर मुस्कुरा देता है। पूजा और पल्लवी का नामांकन क्रमषः आठवी और सातवीं कक्षा में कराने के बाद अषीष यह सोंच कर ट्युषन पढ़ाना छोड़ देता है कि वकिल साहब उसे अपने पुत्रियों को पढ़ाने के लिए बुलाएँगे और वह उन्हें अपना फी बढ़ाने को कहेगा। एक बात गौर किया जाए कि अषीष, पूजा के लिए इतना क्यों कर रहा है उसे खुद पता नहीं था, पूजा के हरएक क्रियाकलाप को देखता जरूर था लेकिन उस पर गौर नहीं करता था। इस क्रम में अषीष को बहुत सारे ट्युषन पढ़ाने को मिले, यूँ समझा जाय कि अषीष और अधिक बच्चों को पढ़ाने के लिए समय नहीं निकाल पाता था। इसी दौरान अषीष सन् 2001 ई0 में अपने विद्यालय से हीं इंटरमिडिएट में नामांकन भी लिया जिसे बिहार सरकार द्वारा 10$2 की मान्यता प्राप्त था।
लेकिन पूजा के प्रति अषीष की दिवानगी का आलम कुछ और था, वह हमेषा पूजा के बारे में सोंचने लगा था, वह कभी विचार भी नहीं किया था कि उसे प्रेम नाम की कोई कीड़ा भी काटेगा। अपनी इस हालत को देखकर अषीष हमउम्र की लड़कियों को ही पढ़ाना छोड़ दिया और छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाने लगा। चुँकि आषीष इंटरमिडिएट में नामांकन ले चुका था इसलिए उसके मंझले भाई ने एक प्रोफेषर का परिचय कराते हुए कोचिंग जाने को कहा और अषीष वहाँ जाने लगा। पढ़ाई के दौरान प्रोफेसर साहब ने अषीष से पूछा कि किसी प्रकार का जॉब भी करते हो? अषीष हाँ कहते हुए, ट्युषन पढ़ाते है बोला। प्रोफेसर साहब ने कहा कि हम तुमको बहुत सारा ट्युषन देंगे, अषीष यह सोंच कर खुष हुआ कि अगर प्रोफेसर साहब ट्युषन दिलाएँगे तो पूजा का ट्युषन छुटने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। समय बीतता गया, महीना पूरा होने पर प्रोफेसर साहब ने अषीष से अपनी फी की माँग की, इस पर अषीष बोला कि सर एक भी ट्युषन नहीं दिए हैं, फी कहाँ से दें। इस पर प्रोफेसर साहब ने चिल्लाते हुए बोले कि, हम तुमको ट्युषन देंगे तब तुम हमको फी दोगे। अषीष अपना सर खुजाने लगा। कोचिंग से छुटने के बाद अषीष अपने मित्र राकेष से मिलने उसके घर जाने लगा जो राजवंषीनगर, पटना में ही रहता था, वहाँ पहूँचने के क्रम में रास्ते में उसे आर0पी0एस0 स्कूल के बस पर नजर पड़ी, बस को जाकर देखा तो आगे की सीट पर खिड़की के तरफ पूजा बैठी थी जो अषीष को हीं देख रही थी। पूजा को देखकर अषीष के मन को कुछ चैन मिला और वह स्कूल बस का समय नोट कर लिया। अपने मित्र राकेष से मिलने के बाद वह सीधा घर चला गया। रोजाना कोंचिग से छुटने के बाद अषीष पूजा को देखने राजवंषी नगर जाता था और पूजा भी उसको देखती थी, अषीष का एक मन यह भी कहता था कि इस तरह से पूजा को देखना अच्छा नहीं है, पूजा क्या सोंचेगी, इसलिए कोचिंग जाना ही छोड़ दिया।
चुँकि अषीष अभी भी पढ़ाता था, और पढाने जाने के क्रम में करीब दोपहर 2.00 बजे रास्ते में ही पूजा से मुलाकात हो जाती है, जो स्कूल बस से उतर कर पैदल घर जा रही थी। पूजा को नजदीक आता देख अषीष ने पूजा को रोका, रूकते हीं पूजा सवाल कर बैठी कि आप क्यों नहीं आते हैं? अषीष अपना मुँह फेर लेता है और पूजा कहे जा रही थी कि आपको आना चाहिए था, पूजा आगे बोली की हमारे लिए तो ट्युटर आ गये हैं, पल्लवी को पढ़ाने के लिए आ जाइए। अषीष पूजा को बोल देता है कि वह आएगा। लेकिन वह एक षिक्षक की भाँती पूजा की माँ से फोन पर बात करता है और पूजा से की हुई बात को बता देता है, इस पर पूजा की माँ बोली की तुम देर कर दिए, हम ट्युटर रख चुके हैं। अपनी सारी बातों की जानकारी अषीष अपने मित्र भवेष को जरूर देता था।
एक बार की बात है अषीष अपने मित्र छोटु (जो विडियो लाईब्रेरी में स्टाफ था) के साथ करीब 1.45 बजे उसी के साईकिल के पिछे बैठ कर बाजार जा रहा था, रास्ते में काफी भीड़ होने के कारण आर0पी0एस0 स्कूल की बस रूकी हुई थी, छोटु अपनी साईकिल निकालते हुए ठीक पूजा के खिड़की के सामने रूक गया, अषीष खिड़की के तरफ देखा तो पूजा उसे ही देख रही थी, यह देखकर अषीष अपना चेहरा दुसरी तरफ कर लिया जिस तरफ कॉलेज की कुछ लड़किया जा रही थी, पूजा अपना गर्दन खिड़की से बाहर निकाल कर कभी कॉलेज की लड़कीयों को देख रही थी तो कभी अषीष को, यह दृष्य देखकर अषीष और छोटु जोर-जोर से वहीं पर हँसने लगे और पूजा उसे घुरते हुए अपनी सीट पर बैठ गयी। आगे जाकर छोटु पुछा कि भाई वह लड़की कौन थी? इस पर अषीष जबाव दिया, इतना हँस लिए लेकिन यह पता नहीं है कि लड़की कौन थी, वही पूजा थी और इस घटना से अषीष को पता चल जाता है कि पूजा भी अषीष से प्रेम करती है।
अशीष, पूजा से बात करने का वजह ढुँढता था, उसने एक तरकीब सोंची, क्यों नहीं कुछ टॉफी खरीद कर पूजा को दिया जाए, और अषीष वैसा ही किया लेकिन उसे पूजा को टॉफी देने की हिम्मत नहीं हो सका, वह हर बार टॉफी खुद खाता था या अपने छोटे-छोट छात्रों को खिला देता था। इधर काली आवास में अषीष की बहन, अषीष की हरकत को देखकर सभी देवियों से पूछती थी कि वह क्या कर रहा है, तब देवियाँ कहती थी कि तुमको ले जाने की तैयारी कर रहा है। एक दिन कुँवरदेवी, काली माता से चावल के कुछ दाना माँगती है और अपने मुँह में रखकर अपने मणुष्यदेवा (अषीष) को देखती है। टॉफी वाली हरकत को देखकर एक शाम कुँवरदेवी स्वयं अषीष के रास्ते में आ जाती है। होता यह है कि एक बार जब अषीष ट्यूषन पढ़ाकर लौट रहा होता है तो सुनसान जगह पर करीब 7.30 बजे उसे एक पेड़ पर सफेद आँचल दिखाई देता है, अषीष उसी तरफ देखने लगता है तब तक कुँवरदेवी उसके शरीर में समा जाती है और एक दुकान से कुछ टॉफी खरीद कर खाती है और कुछ उसके जेब मंे छोड़ देती है। अषीष को जब खुद का ध्यान आता है तब वह खुद को एक बाजार में पाता है लेकिन वह इस घटना की जानकारी किसी को नहीं देता है। कुछ दिन बाद शेख साहब खुद अषीष के बड़े चाचा के रूप मेे खड़े हो जाते है उस पेड़ (जहाँ आँचल दिखाई दिया था) को याद दिलाते हुए कहता है, वहाँ तुमको बुलाई है। इस बात की चर्चा अषीष अपने मित्रों से कहता है लेकिन उसके हँसते हुए कहते हैं कि कोई तुम्हारा अपहरण जरूर कर लेगा।
इधर अषीष पूजा के बारे मे पूरी जानकारी अषीष, भवेष को देता है और भवेष, अषीष को सलाह देता है कि प्रेम दिवस के दिन पूजा को मन कि बात बता दो। वर्ष 2001 के 14 फरवरी को अषीष, भवेष की बाईक से सीघे पूजा के बस स्टॉप के कुछ दूरी पर रूकता है और पूजा के बस का आने का इंतजार करता है। भवेष कहता है, बस के आने के पहले ग्रिटिंग्स कार्ड अथवा गुलाब का फूल खरीद लो। अषीष कहता है बेवकुफ हो, वकिल की बेटी है और हम ग्रिटिंग्स कार्ड देंगे? सीधे अंदर करवा देंगे वकिल साहब। सबुत वकिल का हाथ होता है और हम उसका हाथ काट कर रखना चाहते हैं, इसलिए मौखिक रूप से प्रपोज करेंगे। तभी पूजा का स्कूल बस आता है और पूजा एक लड़के के साथ स्कूल बस से बाहर निकलती है, वहीं पर उससे हाथ मिलाती है। अषीष का मन जल उठता है, वह बकते हुए कहता है उस लड़के को छोड़ेगे नहीं हम। भवेष, अषीष को समझाते हुए कहता है कि तुम कुछ नहीं करोगे, चलो मेरे साथ, और भवेष अपनी बाईक से सीधे अषीष को मिठाई के एक दुकान पर लेकर आता है और कहता है हमलोग पूजा को दिखाकर मिठाई खाएँगें, अषीष और भवेष दोनो दुकान से बाहर निकलकर मिठाई खाने लगे तभी अषीष, पूजा को आते हुए देखता है। अषीष, पूजा की आँखों को इस तरह देख रहा था मानों वह पूजा की आँखों अपने लिए कुछ ढुँढ रहा हो। पूजा को क्रॉस करते हीं अषीष मिठाई का प्लेट पटकते हुए कहता है कि चलो और पूजा का पिछा करने लगता है, भवेष गुस्सा करते हुए कहता है कि साले जीवन में पहली बार किसी लड़की पिछा कर रहें हैं, अषीष बड़बड़ाते हुए कहता साले मेरी भी पहली ही बार है और पूजा से आगे निकल जाता है और वहीं पर चापाकल के पास रूक जाता है। भवेष कहता है यार, थोड़ा पानी पिला दे, अषीष चापाकल चलाने लगता है तभी पूजा वहाँ से क्रॉस करती है। पूजा को देखते ही अषीष कहता है, यार मेरा होठ सुख रहा है और तुम पानी पी रहे हो। बात को सून कर पूजा अपना होठ टटोलने लगती है और यह देखकर भवेष हँसते हुए अषीष को कहता है तुम साले सुधरोगे नहीं। इस प्रकार अषीष उस दिन अपने हिस्से का प्रेम पूजा से प्राप्त कर लेता है। लेकिन अषीष के दिल को चैन नहीं आता है और हर रोज ट्युषन पढ़ाने जाने से पहले पूजा को देखता जरूर है, एक बार अषीष, पूजा को रास्ते में रोकना चाहा तो वह झट से एक लेडिज ब्युटी पार्लर में घुस गयी। उसी दिन शाम को सहारा कम्पनी का एक एजेंट अषीष को मिला और खाता खुलावाने के लिए कहता है, अषीष उससे पूछा कि इस तरह से कितना कमा लेते हैं, एजेंट ने हँसते हुए जबाव दिया कि अच्छी कमाई हो जाती है। अषीष की दिमाग की बत्ती जल उठता है, वह सोंचता है कि पूजा के घर पर सहारा का एजेंट बन कर जाया जाए तो महिने में एक बार तो पूजा के साथ बैठ कर बात हो हीं जाएगी, लेकिन आज कैसे जाया जाए, सोंचते-सोंचते अषीष को अखीर तरकीब सूझ ही जाती है और वह शाम को करीब 7.30 बजे पूजा के घर पर पहूँचता है और दरवाजा खटखटाता है, पूजा दरवाजा खोलती है, अषीष को देख कर उसकी आँखे चमक आ जाती है, लेकिन अषीष को पूजा की दोपहर वाली हरकत याद था इसलिए गूस्से से पूजा को सर से पाँव तक निहारता है और पूछता है अंकल हैं, पूजा हाँ में जबाव देकर अन्दर आने के लिए कहती है। अंदर जाने के बाद अषीष वकिल साहब को बकालत के कुछ कागजात तैयार करते देखता है। अषीष नमस्ते अंकल कहते हुए उनके पास वाली कुर्सी पर बैठ जाता है। वकिल साहब आने का कारण पूछते हुए कहते है कि कैसे आना हुआ अषीष। अषीष अपनी समस्या बताता है और कहता है कि अंकल हम सहारा कम्पनी का एजेंट बन रहे हैं, इसके लिए एक फार्म भरना पड़ता है, लेकिन उम्र कम है, हमें उम्र बढ़ा कर एक शपथ पत्र बनवाना है, वकिल साहब अपने काम को जारी रखते हुए कहते हैं कि काम हो जाएगा। आगे अषीष पूछता है कि कौन सा कागज लाना पड़ेगा अंकल, वकिल साहब अपने काम को रोकते हुए कहते है कि उम्र प्रमाण पत्र का कोई कागजात हो तो उसकी छायाप्रति दे देना। अषीष खुष होते हुए कहता है कि हम कल हीं अपने उम्र प्रमाण पत्र की छायाप्रति आपके घर पहूँचा देते हैं। अषीष, पूजा जो पास से गुजरती है उसको सुना कर कहता है कि अंकल जब हम एजेंट बन जाएंगे ना तो आप भी हमसे एक खाता खुलवा लिजिएगा, पूजा अषीष को पिछे मुड़कर देखती है और वकिल साहब हाँ में जबाव देते हुए कहते है कि पहले तुम बनो तो सही। अषीष आगे पूछता है कि अंकल आपकी फी क्या होगी? इस पर वकिल साहब कहते है कि तुम मेरे बच्चों को पढ़ाए-लिखाए, हम तुमसे फी क्या लेंगे। वकिल साहब के इस बात पर अषीष के मन मे बहुत गुदगुदी होती है। तभी पूजाा उस कमरे में आती है, अषीष पूजा से पानी माँगता है, पूजा हँसते हुए पानी का ग्लास देती है पर अषीष पूजा को तीखी हँसी दिखाता है और पानी पीते हुए वकिल साहब से कहता है कि अंकल व्यापार में सगे-संबंधी नहीं देखा जाता है, इस पर वकिल साहब कहते है कि ये हम जानते हैं। पानी खत्म करके अषीष वहाँ से चला जाता है। और एक हफ्ते में वकिल साहब उम्र का शपथ पत्र अषीष के लिए बना देते है और रविवार को करीब 5.00 बजे अषीष, पूजा के घर पहूँच जाता है। पूजा खुद दरवाजा खोलती है और कहती है कि पापा अन्दर कमरे में हैं। अषीष कमरे में जाता है जहाँ वकिल साहब अपने कपड़ों में स्वयं इस्त्री कर रहे होते है। अषीष कुर्सी पर बैठते हुए कहता है कि आप कहीं जा रहे हैं क्या अंकल? वकिल साहब बोलते है कि हाँ हम दिल्ली जा रहे हैं। फिर अषीष अपने काम के बारे में पूछता है, तो वकिल साहब पल्लवी से एक फाईल लाने को कहते है जिसमें अषीष का कागज रहता है। लेकिन उस शपथ पत्र पर अषीष का हस्ताक्षर चाहिए था जो वकिल साहब स्वयं ये कहते हुए कर देते है कि कोर्ट-कचहरी के कागजातों पर तुम क्या हस्ताक्षर करोगे।
करीब एक माह बाद अषीष पूजा को फोन करता है, फोन पूजा की बड़ी बहन उठाती है। अषीष उनसे पूजा को फोन देने के लिए कहता है, पूजा फोन पर आती है और अषीष को सर कहकर संबोधित करती है। अषीष पूजा से सर कहने के लिए मना करता है, इस पर बड़ी बहन अषीष से आपत्ति जताती है कि सर कहने में क्या हर्ज है। अषीष फोन काट देता है और शाम को वकिल साहब को फोन करके कहता है कि अंकल, पूजा हमको सर कहती है। वकिल साहब कहते हैं कि सर हो तो सर ही न रहोगे, अषीष कहता है कि अंकल ट्युषन पढ़ाना छोड़ दिये फिर भी सर ही कहेगी, इस पर वकिल साहब कहते है कि ‘‘तो क्या कहेगी?’’ अषीष बड़बड़ाते हुए फोन काट देता है और सीधे भवेष के पास जाता है। सारी बातों की जानकारी होने के बाद भवेष हँसते हुए अषीष से कहता है कि अब तुम पूजा का चक्कर छोड़ दो, क्यों कि पूजा तुमको सर मानती है। अषीष दुःखी मन से भवेष को कहता है कि अगर तुम्हारे पापा ईमानदारी और जिम्मेदारी की बात नहीं कहते तो हम आज भी पूजा को पढ़ाते रहते और मेरा काम हो जाता। भवेष अपनी खुले हुए किताब को बन्द करता है और कहता है अपनी पूजा चालिसा बन्द करो क्यों कि हमको कोचिंग जाना है, और हाँ सर कहती है तो सर ही मानती भी है इस बात का गाँठ बाँध लो और वैसे भी जो लड़की तुमसे प्रेम करे तुम्हे उसी से शादी करनी चाहिए ना कि तुम जिससे प्रेम करो।
भवेष की बातों को सुन कर अषीष का पूजा के प्रति आत्मविष्वास कमजोर हो जाता था लेकिन पूजा की हरकतों को देखकर अषीष का आत्मविष्वास मजबुत हो जाता था। इसी प्रकार पूजा का चक्कर काटते हुए अषीष का समय गुजरता जा रहा था, भवेष का नामांकन एन0आई0टी0, वारंगल में हो गया और वह अपनी पढ़ाई करने वारंगल चला गया। इधर अषीष पूजा के प्रेम के चक्कर में एक बार इण्टरमिडिएट फेल हो चुका था और दूसरी बारी परीक्षा के लिए फार्म भर चुका था, उधर पूजा भी दषवीं कक्षा की छात्रा हो चुकी थी। अब अषीष को समझाने वाला यहाँ कोई नहीं था शायद इसलिए वह अपने मन की करने लगा।
एक बार की बात है टयूषन पढ़ाने के बाद करीब रात को 8.00 बजे अषीष पूजा के घर पहूँच जाता है। दरवाजा खटखटाते हीं पूजा दरवाजा खोलती है, अंदर जाने के बाद अषीष देखता है कि वकिल साहब अपनी कुछ वकालत की फाईलें देख रहे हैं, पूजा भी वहीं पलंग पर बैठ कर टीवी देखने लगी, शायद पूजा के घर पर उसके पिता और उसके अलावा कोई नहीं था। वकिल साहब, अषीष को आता देखकर अपना फाईल देखते हुए बोले की, आओ अषीष आओ, कैसे आना हुआ? इस पर अषीष राहत की साँस लेते हुए कहा कि इधर से गुजर रहे थे तो सोंचे आप से मिलते चलें, इस पर वकिल साहब बोले कि, अच्छा किए। वकिल साहब इच्छा भरी नजरो से देखते हुए अषीष से बोले कि पूजा को ट्युषन पढ़ाना है, पढ़ाओगे? अषीष अनजान बनते हुए बोला कि किस कक्षा में पढ़ती है, वकिल साहब बोले कि अभी वह दषवीं में गई है और अगले वर्ष फाईनल परीक्षा हैं। अषीष पूजा की तरफ देखता है, वह हँसते हुए नजर झुका दी। अषीष अपनी दुविधा बताते हुए बोला कि अंकल हम इस बार इण्टरमिडिएट की परीक्षा दिए हैं, हम पूजा को नहीं पढ़ा पाएँगे और पूजा की तरफ देखता है। पूजा, अषीष को गुस्से से घुरती है इस पर अषीष हँसते हुए हाँ मे अपना सर हिला देता है। वकिल साहब बोले कि कोई अच्छा सा ट्युटर दो, इस पर अषीष हँसते हुए जबाव दिया कि जरूर ट्युटर भजेंगे अंकल। वकिल साहब अषीष को सुझाव देते हुए बोले कि जब तुम इण्टरमिडिएट पास कर जाना तो मेरे पास जरूर आना।
हमेशा की तरह अषीष ट्युषन पढ़ाने जाने से पहले पुजा को देखने जाता है, अषीष को देखते हीं थोड़ी दूरी पर से ही पूजा हँसते हुए अषीष को नमस्ते सर कहती है, अषीष अपने आगे पिछे देखता है, एक केबल ऑपरेटर हाथ में केबल का तार लिए आ रहा होता है। अषीष, पूजा को दुधो नहाओ-पुतो फलो का आर्षिवाद देते हुए केबल ऑपरेटर को पास बुलाता है, अषीष का अर्षिवाद सुनकर पूजा थोड़ा शर्मा जाती है। अषीष केबल ऑपरेटर से कहता है कि आप इस लड़की को अच्छी तरह देख लिजीए, इतने में पूजा चली जाती है। केबल ऑपरेटर पूछता है कि क्या हुआ? पहले अषीष केबल ऑपरेटर का सर्विस एरिया पूछता है, जबाव में केबल ऑपरेटर गाँधी मूर्ती, पटेलनगर, पटना कहता है। अषीष ऑपरेटर से साथ में आगे बढ़ते हुए कहता है कि आप मेरा एक काम करेंगे, और अपनी सारी योजना केबल ऑपरेटर को बता देता है और बदले में दो माह का केबल कनेक्षन का फी देने को कहता है। केबल ऑपरेटर राजी हो जाता है। दूसरे दिन वह केबल ऑपरेटर से मिलता है और उसके साथ सीधा पूजा के घर के पास चला जाता है और कहता है इसके द्वितीय तल पर ट्युटर बन कर जाना है और मात्र एक दिन उपस्थित होकर ये कहना है कि हम नहीं पढ़ा पाएँगें। केबल ऑपरेटर ऐसा ही करता है और अपना चेहरे का बाल हटा कर पूजा के घर चला जाता है, पूजा के घर के दरवाजे को तीन बार खटखटाता है, पूजा बाहर आती है और उसका परिचय पुछती है, केबल ऑपरेटर कहता है कि हमको अषीष जी भेजे है ट्युषन पढ़ाने के लिए, पूजा नमस्ते सर कहती है, तब तक पूजा की मम्मी दरवाजे पर आती है और पूजा को अंदर जाने के लिए कहती है। ट्युटर से बात करने के दौरान पूजा की मम्मी को उस पर शक हो जाता है और वह ट्युषन पढ़वाने से मना कर देती हैं। शाम को अषीष केबल ऑपरेटर से मिलता है और यह जानकर बहुत हँसता है कि एक केबल ऑपरेटर को पूजा नमस्ते सर बोली। केबल ऑपरेटर अषीष से पैसे की माँग करता है तो अषीष पैसा दिखाते हुए कहता है कि आपका पैसा मेरे पास रखा हुआ है, कल षिव मंदिर के पास बस स्टॉप पर देंगे और सारी बाते समझा देता है।
अगले दिन पहले से हीं केबल ऑपरेटर बस स्टॉप पर पहूँचा हुआ था। समयानुसार अषीष भी पहूँच गया, पूजा को बस से उतरते ही केबल ऑपरेटर हाथ में केबल के कुछ तार लिए पूजा के पिछे चलने लगा, पूजा को आता देखकर अषीष भी पूजा की तरफ बढ़ने लगा और दूर से ही केबल ऑपरेटर को नमस्ते सर कहा, पूजा पिछे मुड़कर देखती है। पूजा केबल ऑपरेटर को पहचान जाती है और बात समझते देर नहीं लगती है और वह अपने करीब आ रहे अषीष को गुस्से से घूरते हुए देखती है। अषीष, पूजा को रोका और सौ का नोट देते हुए कहता है अपने सर को फी नहीं दिजिएगा, पूजा नोट लेकर उसके चार टुकड़े कर देती है और अषीष के तरफ फेंकते हुए बोली कि देख लेंगे आपको, पूजा के गुस्सा को देख कर अषीष वहीं पर हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता है। पूजा के जाने के बाद अषीष केबल ऑपरेटर को 250 रू0 देते हुए कहता है कि ये फटा हुआ नोट भी तुम रख लो और केबल ऑपरेटर पैसा लेकर खुषी-खुषी चला जाता है।
इस घटना के बाद पूजा, अषीष की तरफ देखना बंद कर देती है फिर भी अषीष पूजा को देखने उसके बस स्टॉप पर जाता था। अषीष जब भी पूजा को देखता था तो पूजा को देखकर उसे हँसी छुट जाती थी। करीब 10-15 दिन ऐसा हीं होता रहा, उसके बाद अषीष पूजा को बात करने के लिए रोकता था लेकिन पूजा अषीष के बात को अनसूनी करके आगे बढ़ जाती थी, अषीष आवाज भी देता था लेकिन वह नहीं सूनती थी। एक बार की बात है, अषीष के इण्टरमिडिएट के परीक्षा का परिणाम आता है और वह तृतीय श्रेणी से पास हो जाता है। अषीष परीक्षाफल पत्र लेकर सीधे पूजा के बस स्टॉप पर जाता है लेकिन बस पूजा को छोड़कर जा चुकी होती है। अषीष अपनी साईकिल को तेज करके पूजा का पिछा करता है और अंततः पूजा को पकड़ लेता है। वह साईकिल को धिरे करके पूजा के साथ चलने लगता है। रास्ता को सुनसान देखकर अषीष पूजा से बात करने की कोषिष करता है लेकिन पूजा का जबाव होता है कि वह थर्ड क्लास के आदमी से बात नहीं करना चाहती है। अषीष को झटका लगता है कि इसे कैसे पता चला कि मुझे परीक्षा परीणाम में तृतीय श्रेणी मिला है, लेकिन पूजा के बात को नजर अंदाज कर अषीष अपनी साईकिल घुमाने लगता है, तब पूजा पिछे मुड़कर देखती है लेकिन अषीष अपना सर झूकाए साईकिल पर बैठ कर चला जाता है।
अषीष जब भी पूजा को देखने उसके बस स्टॉप पर जाता था तो पूजा के साथ उसकी छोटी बहन और एक लड़का भी बस से उतरता था जिसका उम्र करीब 14 साल था, जिसे अषीष नहीं जानता था। लेकिन वह लड़का अपने रास्ते जाता था। एक दिन की बात है अषीष पूजा को देखने जाता है लेकिन उस दिन पूजा स्कूल नहीं जाती है। बस स्टॉप पर सिर्फ वह लड़का उतरता है और धिरे-धिरे चल रहा होता है। अषीष उस लड़के को रोकता है और उसका नाम पूछता है, नाम पूछने पर लड़का अपना नाम शुभम बताता है। अषीष उस लड़का से पूछता है कि तुम्हारे साथ दो और लड़कियाँ बस से उतरती थी, वो आज नहीं आई है? लड़का कुछ याद करते हुए कहता है कि आप पूजा और पल्लवी की बात कर रहे हैं? आषीष हाँ में जबाव देता है। लड़का पल्लवी की बात करते हुए कहता है कि वह उससे प्रेम करता है। अषीष उस लड़के को घूरते हुए सर से पाँव तक देखता है, फिर कहता है कि कल से तुम पुजा के साथ बात करते हुए घर जाना। लड़का सवालीय नजरो से अषीष को देखता है और पूछता है क्यों? अषीष कहता है कि वास्तव में हम पूजा से कुछ बात करना चाहते हैं और तुम उनके साथ रहोगे तो पूजा घरबरायेगी नहीं। लड़का ठीक है कहकर जाने लगता है और अषीष भी अपनी साईकिल को आगे बढ़ा देता है। इस दौरान अषीष के मन में एक सवाल बार-बार आ रहा था कि लड़का आखिर उससे यह क्यों बोला कि वह पल्लवी से प्रेम करता है। काफी विचार करने के बाद अषीष को समझ में आया कि वह लड़का उसके दिल का भेद लेना चाह रहा था।
अपने सभी छात्रों को ट्युषन पढ़ाने के बाद अषीष अपने मित्र कन्हैया से मिलता है और कहता है कि कल तुम मेरे साथ पूजा से मिलने चलना। कन्हैया पूछता है कोई बात है क्या? इस पर अषीष कहता है कि बात कुछ नहीं है, कल हम पूजा से बात करेंगे, तुमको यह देखना है कि हमसे बात करने के बाद पूजा की प्रतिक्रिया क्या होती है। कन्हैया तैयार हो जाता है और अगले दिन षिव मंदिर वाले रोड के दूसरे छोर पर खड़ा होकर अषीष और कन्हैया बस के आने का इंतजार करते हैं। बस के आते हीं अषीष, कन्हैया से कहता है कि तुम यहीं खड़ा होकर पूजा का प्रतिक्रिया देखना, हम जा रहे हैं। अषीष अपने साईकिल से पूजा की तरफ चल देता है। लेकिन वह लड़का (षुभम) अषीष को धोखा दे देता है, और अषीष को देखते हीं पूजा से अलग रोड के दुसरे किनारे पर चला जाता है। लेकिन अषीष का इरादा आज पक्का था और सारे लोगों के सामने अपनी साईकिल को रोड के दुसरे किनारे (पूजा के तरफ) पर चला जाता है। पूजा को रूकने के लिए कहता है, इस पर पूजा कहती है कि मम्मी डाँटेगी। तब अषीष, पूजा से पूछता है कि मम्मी क्यों डाँटेगी? पूजा अपनी नजर झुकाते हुए कहती है कि घर पर आकर बात किजिए, ठीक है हम आ रहे हैं अषीष कहता है और पूजा चली जाती है। उसके बाद अषीष कुछ दूरी पर साईकिल खड़ा करके कन्हैया का इंतजार करता है। कन्हैया के आने के बाद अषीष कहता है कि पूजा को देख लिए ना। अब पूजा की प्रतिक्रिया बताओ, इस पर कन्हैया हँसते हुए जबाव देता है कि तुम्हारे जाने के बाद पूजा बहुत हँसते हुए जा रही थी, और वह लड़का? अषीष पूछता है, कन्हैया कहता है कि वह लड़का तुम्हें और पूजा को इस तरह से देख रहा था जैसे वह किसी फिल्म की सुटिंग देख रहा हो। उसके बाद कन्हैया अपने घर चला जाता है और अषीष ट्युषन पढ़ाने।
KAAL SAGAR "Ek Mahakavya" (English)
(चतुर्थ चरण)
विष्णु ने शेष नाग को आदेष दिया कि अषीष को एक स्वप्न दो जो इस प्रकार है:- ट्युषन पढ़ाने के क्रम में अषीष हमेषा पूजा के बारे में सोंच रहा था, किस तरह से कल सुबह पूजा के घर जाना है, पूजा से क्या बात करनी है और भी बहुत सारी बातें। ट्युषन पढ़ाने के बाद अषीष रात को सीधा अपने घर आ जाता है। घर आने के बाद स्वयं श्री हरि विष्णु अषीष के आत्मा के परमेष्वर को आदेष देते हैं कि अषीष के दिमाग में हमेषा पूजा का ख्याल लाते रहो और होता भी वहीं था, अषीष पूजा से मिलने के लिए बेचैन था। रात हो चुका था, घर में सभी सो चुके थे। करीब रात्रि 12.00 बजे श्री हरि अशीष स्वप्न मंे देखा कि वह आकाष में उड़ता हुआ एक भव्य महल में पहूँचता है। वह, वहाँ स्वर्ण सैया पर एक मोति चमकते हुए देखता है। अषीष मोति को जैसे ही छुता है मोति एक सुन्दर लड़की का रूप ले लेती है और एक आवाज आती है कि यह लड़की कौन है? अषीष झट से जबाव देता है कि यह पूजा है। आगे प्रष्न किया जाता है कि क्या तुम इससे शादी करोगे? इस पर अषीष का जबाब ‘‘हाँ’’ होता है, आगे आवाज आती है कि ‘‘ठिक है इसे ले जाओ’’।
इधर श्री हरि विष्णु स्वयं अषीष का रूप पकड़ कर माँ काली के आवास में प्रकट होते हैं जहाँ बहुत सारी कुँवरदेवीयाँ टहल रही थी, श्री हरि विष्णु ने अषीष के बहन का हाथ पकड़ा और सीधे अषीष के घर पर ले आयें और कुँवरदेवी से बिना कोई बात किये अषीष का आत्मा बनकर अषीष के शरीर में प्रवेष कर गये और शेषनाग के आसन पर विराजमान हो गये। उधर काली आवास में सुबह पहर जब सभी कुँवरदेवीयों को अपने स्थान पर बैठाया जाता है तब एक कुँवरदेवी का स्थान खाली रह जाता है, भैरवनाथ आष्चर्य में पड़ जाते हैं और सोंचते हैं कि एक कुँवरदेवी आखिर गयी कहाँ? ये बात भैरवनाथ माता काली को बताते है और माता काली अपने दिव्य चक्षु से देखती है और कहती है कि एक कुँवरदेवी को उसका मणुष्यदेवा पकड़कर ले गया। भैरवनाथ अपनी इच्छाषक्ति से अषीष की बहन (कुँवरदेवी) के पास पहूँचते है और पुछते है कि तुमको कौन यहाँ लाया। इसपर कुँवरदेवी अषीष की तरफ इषारा करते हुए बोली की मेरा मणुष्यदेवा मुझे यहाँ लाया। भैरवनाथ अषीष के सीना पर मणुष्यदेवा का निषान देखते है और सही पाते हैं कि यही इस कुँवरदेवी का मणुष्यदेवा है।
कुँवरदेवी को वहीं छोड़कर भैरवनाथ सीधा तांत्रिक राजेन्द्र जोकि गया में रहता था, के पास पहूँचते है और सारी बातों से अवगत कराते हुए कहते है कि तुम्हारी कुँवरदेवी को उसका मणुष्यदेवा छुड़ा लिया। बात की जानकाारी लेने के बाद राजेन्द्र सीधा पशुपति सिन्हा (जो कि अभी भी सरकारी फ्लैट में हीं निवास कर रहे थे) के घर की ओर प्रस्थान किया। इधर श्री हरि विष्णु ने अषीष की घर की बैमत को अषीष के घर पर आने की इच्छा दी और घर की बैमत अषीष का हाल-खबर लेने के उसके घर पर आती है और कुँवर देवी को वहाँ मौजूद पाती है। घर की बैमत को पता चल जाता है कि कुँवरदेवी छुट चुकी है और वह सीधा शेख साहब को यह समाचार देने चली जाती है। शेख साहब यह खबर सून कर खुष होते हैं और बैमत से कह देते हैं कि उचित समय देखकर आयेंगे। इधर राजेन्द्र अपने तीन बैमत के साथ पशुपति सिन्हा के घर पर पहूँचता है।
मंगलवार के दिन अषीष के घर पर भैरवनाथ का आगमन होता है और साथ में राजेन्द्र की तीनों बैमत और घर की भी बैमत होती है। पहले भैरवनाथ अषीष से पूछते हैं कि अखीर तुम कुँवरदेवी को यहाँ लाये कैसे? इस पर अषीष स्वप्न वाली सारी बात बता देता है। फिर भैरवनाथ पूछते है कि पूजा कौन है? तब अषीष पूजा के बारे मंे भी बता देता है। तब भैरवनाथ अपने दिव्य चक्षु से पूजा को देखते है, जो खाना खा रही होती है और पूजा के मन को झाँकते हुए कहते है कि मणूष्यदेवा (अषीष) सत्य कह रहा है और एक शर्त को पूर्ण पातें है। राजेन्द्र की बैमत को एक शर्त पूर्ण होने की बात कहते हुए भैरवनाथ काली आवास चले जातें हैं, लेकिन राजेन्द्र की बैमत और घर की बैमत वहीं अषीष के पास रूक जााती है। इस दौरान अषीष को डर-भय का सामना करना पड़ता है। अषीष के इस हालत को देखते हुए अषीष के परिवार वाले उसका ईलाज पास के हीं एक भगत से करवाया जो पुजा-पाठ करने की सलाह देता है। अषीष सुबह स्नान कर पुजा-पाठ करने लगा। चुँकि भगत को पता चल चुका था कि अषीष के शरीर पर बैमत का प्रकोप है इसलिए उसने अषीष को पुजा करने की बात कहीं थी और अषीष भी सिर्फ एक अगरबत्ती प्रज्वलित कर पुजा करता था। लेकिन घर की बैमत छाया में प्रकट होकर उसे अतीत की याद दिलाती है और कहती है कि किस प्रकार उसकी बहन की मृत्यु हुई थी और उसने अषीष के द्वारा बलि का खस्सी की मन्नत रखवाई थी इसलिए वह वहीं अगरबत्ती शनिवार के दिन प्रज्जवलित करने की बात कह रही थी लेकिन अषीष उसकी बात को नहीं मानता है और कहता है कि भगत हमको सिर्फ अगरबत्ती प्रज्जवलित करने के लिए कहा है न कि दिन का नाम बताया है इसलिए हम अपनी इच्छा से मंगलवार के दिन ही अगरबत्ती प्रज्जवलित करेंगे। इस पर बैमत क्रोधित हो जाती है और कहती है अगर मेरी बात नहीं मानोगे तो हम तुम्हें मार देंगे, इस पर अषीष शर्तों की बात करते हुए कहता है कि अगर तुम हमें मार देती हो तो हम तुम्हारे साथ कहीं भी चलेंगे और नहीं मार पाती हो तो हम तुम्हारी किसी भी प्रकार की अगरबत्ती नहीं प्रज्जवलित नहीं करेंगे। भैरवनाथ इन सारी बातों को सून रहे होते है और घर की बैमत को कहते हैं कि तुम इस लड़के की जान नहीं लोगी, तुम इसको दंडित करोगी और अगर दंडित करते समय अगर तुमसे माफी मांगता है तो यह हार जाएगा और तुम्हारी असली पुजा करेगा और अगर जीतता है तो तुम्हें इससे किसी प्रकार का पुजा-पाठ की माँग नहीं करना होगा। बैमत मान जाती है और उसी रात्रि 12.00 बजे से अषीष की आत्मा में अपने नाखून को चुभोना शरू कर देती है, अषीष कभी श्री हनुमान, कभी श्री राम तो कभी भगवान षिव का नाम लेकर रात काटना शुरू कर देता है लेकिन उसके हृदय का दर्द बढ़ता ही चला जाता है, अंत में शेषनाग अपने फन से अषीष के आत्मा के हृदय को ढक देते है और अषीष को आराम महसुस होता है तथा वह सो जाता है। इधर अषीष को सोते देख भैरवनाथ आष्चर्य में पड़ जाते हैं और घर की बैमत को समझाते हुए कहते है कि अगर लड़का की मृत्यु हो जाती है तो तुम्हारा खाल उधेड़ देंगे, इस लड़के पर राजेन्द्र की बैमत का भी अधिकार है और वह तो किसी प्रकार से इसके प्राण लेने वाली हरकत नहीं की है और जिस प्रकार कुँवरदेवी मेरी है उसी प्रकार ये लड़का भी मेरा है। भैरवनाथ सुबह 4.00 बजे बाद अषीष के हृदय की जाँच करते है जो चल रहा होता है। भैरवनाथ, घर की बैमत से कहते हैं कि तुम हार चुकी हो और अब ये लड़का अपनी इच्छा से तुम्हारी पुजा करेगा तो ठीक, परन्तु तुम इस पर अपनी पुजा करने का दबाव नहीं बना सकती हो।
इस अवस्था में भी उसे याद था कि पूजा उसे अपने घर आने के लिए बोली है इसलिए वह पूजा के घर चला गया। लेकीन घर का दरवाजा पूजा की माँ खोलती है। अषीष, उनसे वकिल साहब के बारे मंे पूछता है तो वह जबाब देती है कि ‘‘वह अभी नहीं हैं’’ और अषीष वापस चला आता है।
एक बार माता काली के आवास में चर्चा हो रही थी कि लड़का (अषीष) मणुष्यदेवा किसका बनेगा। वास्तव में पहला शर्त में यह कहा गया था कि जब इसका भाई कुँवरदेवी का मणुष्यदेवा बनकर आयेगा और तुम चारो देवियों मंे से किसी एक का मणुष्यदेवा बनेगा और जिसका मणुष्यदेवा बनेगाा वह भी उसे मणुष्यदेवा बनायेगा तब कुँवरदेवी को यहाँ से छोड़ना। माता काली कुछ सोंचकर बोलीं कि लड़का हम चारों मंे से जिसके माथे पर सिन्दुर का तिलक लगायेगाा, लड़का उसी का मणुष्यदेवा होगा।
इधर अषीष हमेषा की तरह समयानुसार पूजा को देखने गया। अषीष पूजा को एक मोड़ से गुजरते हीं देखता है कि पूजा के पिछे से एक लड़का (षुभम) झट से अलग होता है और अषीष की नजर उस लड़के की ओर दौड़ जाती है और इधर पूजा अषीष सामने हीं हँसने लगती है। अषीष अपना साईकिल रोककर नजर झूकाए कुछ सोंचता है। अषीष को लगा कि पूजा, अषीष को प्रपोज करने का इषारा कर रहीं है। लेकिन अषीष अपना साईकिल पूजा की ओर ले जाने के बजाय आगे बढ़ा लेता है और ट्युषन पढ़ाने चला जाता है। उस समय श्री हरि विष्णु अषीष की बुद्धि का हरण कर लेते है।
हमेषा कि तरह स्नान के बाद अषीष पुजा-पाठ करने लगा। चुँकि अषीष को पता था कि पूजा करने के दौरान पुरूषजाति द्वारा देवियों को तिलक उनके पैर पर किया जाता है, इसलिए अषीष हमेषा देवियों को तिलक पैर पर ही देता था। लेकिन एक दिन पुजा-पाठ करने के दौरान अषीष के आस-पास बैमत के साथ भैरवनाथ भी खड़े थे, और अषीष द्वारा देवियों को तिलक करने के दौरान भ्रम पैदा किया जाता था, जिससे अषीष का सिन्दुर वाला हाथ हमेषा देवियों के ललाट पर चला जाता था, परन्तु अषीष ध्यान देकर देवियों के पैर पर ही तिलक लगाता था। एक बार की बात है, अषीष पूजा-पाठ करने जा रहा था, इधर काली आवास पर चारो देवियों की नजर अषीष पर हीं थी, हमेषा की तरह बैमतो द्वारा भ्रम पैदा किया जा रहा था और अषीष भी ध्यान से देवियों के पैर पर तिलक लगा रहा था तभी स्वयं श्री हरि विष्णु ने अषीष के हाथ को अपने वष में किया और माता लक्ष्मी के ललाट पर सिन्दुर का तिलक लगा दिया और उधर माता लक्ष्मी की आँखे झुक गयी, इधर अषीष अपनी गलती भी महसूस किया।
इस घटना के बाद सभी बैमत माता काली के आवास पर पहूँचे और कहने लगे कि लक्ष्मी उसे अपना मणुष्यदेवा कब बना रही हैं?, लेकिन माता काली द्वारा संत्वना दिया गया कि जल्द ही लक्ष्मी लड़के को अपना मणुष्यदेवा बनायेगी। इतना कह कर माता काली ने माता लक्ष्मी से कहा कि तुम्हे उस लड़के (अषीष) को मणुष्यदेवा बना कर यहाँ ले आना चाहिए। माता लक्ष्मी ने अपना तर्क देते हुए कहा कि मारना हमारा काम नहीं है, हमारा काम धन देना या लेना है। इस पर माता काली चिढ़ते हुए बोलीं कि ‘‘तो जाओं किसी तरह उसे अपना मणुष्यदेवा बनाओ’’। इस बात पर माता लक्ष्मी ने कहा कि जिस तरह वह लड़का (अषीष) हमारे तस्वीर पर सिंदुर का तिलक दिया है उसी तरह हम भी अपना छाया भेज कर उसे अपना मणुष्यदेवा बनायेंगे और माता लक्ष्मी अपना छाया भेज देती हैं। इधर दोपहर के खाने के बाद अषीष सो रहा था, उसने स्वप्न देखा कि एक सुंदर स्त्री, जो दुल्हन की भेष में थी, अषीष का हाथ पकड़ ली और उसे छोड़ ही नहीं रही थी, अषीष झटके के साथ अपना हाथ छुड़ाया, इतने में अषीष की आँखे खुल गयी और इस प्रकार माता लक्ष्मी ने अषीष को अपना मणुष्यदेवा बनाया और शर्त को पूर्ण किया। तब माता काली ने भैरवनाथ को कहा कि किसी तरह वे कुँवरदेवी को वापस लाए। इसके लिए भैरवनाथ ने अषीष से कहा कि तुम जो चाहो ले लो लेकिन कुँवरदेवी वापस कर दो। लेकिन अषीष का जबाव ‘‘नही’’ होता था।
इधर राजेन्द्र की बैमत, राजेन्द्र के आदेष पर अषीष को भय में रखती थी ताकि अषीष उससे अपना ईलाज करवाये आौर राजेन्द्र को कुँवरदेवी मिल जाए। दिनों-दिन अषीष का स्वास्थ्य खराब होता जा रहा था, अषीष के परिवार, मित्रगण, यहाँ तक कि जहाँ भी वह पढ़ाने जाता था, सभी चिंताग्रस्त थे। तब अषीष के पिता जी ने जहाँ अषीष की माँ का ईलाज करवाया था वहीं उसे ले गये। वहांँ जाने के बाद इस्लामीक भगत ने उनसे अतीत की जानकारी ली और कहा कि आपकी पुत्री को किसी ने तांत्रिक बनने के लिए बलि दे दिया है। इस पर अषीष की माँ अतीत में हुुए घटना को दोहराते हुए अपनी शंका को जाहिर करती है कि उनकी पुत्री को राजेन्द्र ही मारा है। भगत आगे कहता है कि अगर आयी है तो शरीर पर खेलकर ही जाएगी। अषीष, भगत की बात को ध्यान से सुन रहा था। भगत अपने शहिद के द्वारा शेख को बुलवाता है, वे आते तो हैं लेकिन अषीष की माँ के शरीर पर नही खेलते हैं। भैरवनाथ, शेख साहब को वस्तुस्थिति से अवगत कराते है और समझाते हुए कहते है कि जब तक शर्त पूर्ण नहीं होता है कुँवरदेवी नहीं खेलेगी और कुँवरदेवी को माता काली के आवास पर भेज देते हैं। शेख साहब स्वयं शर्त को पूर्ण करने के लिए आगे आतें है इस पर भैरवनाथ द्वारा कहा जाता है कि शर्त कुँवरदेवी के भाई को पूर्ण करना है, आपको नहीं। तब शेख साहब द्वारा क्रोधपूर्वक भैरवनाथ को कहा जाता है कि तुम कुँवरदेवी के भाई को शर्त दो। तब भैरवनाथ, शेख साहब को समझाते हुए कहते हैं कि समय आने पर शर्त दे दिया जाएगा। इधर अषीष अपने साथ घटीत बातों को जैसे स्वप्न, देवी का मणुष्यदेवा बनना, आदि बाते अपनी माँ को कहता था जिससे वह भगत को अवगत कराती हैं। भगत, अषीष को एक ताबीज देता है और कुछ मंत्र जड़ा हुआ जल भी देता है जिससे अषीष के स्वास्थ्य में सुधार होता है और अषीष की माँ कुँवरदेवी को अपने शरीर पर ले लेती हैं।
अषीष इस्लामीक भगत और अपनी माँ द्वारा कहे गए बातों को याद करते हुए कहता है कि राजेन्द्र तुमने ‘‘आगाज किया है, अंजाम हम दिखाएँगे’’ शायद तुम्हे पता नहीं कि तुमने नौडीहा के कायस्थ के घर में हाथ डाला है। अषीष के इस भनभनाहट को राजेन्द्र की बैमत सुन रही थी, वह सीधा भैरवनाथ को इस बात से अवगत करायी। भैरवनाथ अषीष से पूछ बैठते हैं कि ‘‘नौडीहा का परिभाषा क्या है’’? इस पर अषीष भैरवनाथ को जबाब देता है कि नौडीहा, नौ डइया के लाष पर बना है और राजेन्द्र की लाष से नौडीहा की नींव को मजबुत करेंगे। इस पर भैरवनाथ व्यंग करते हुए कहते है कि तब तो हमें भी यहाँ आना उचित नहीं है। भैरवनाथ के जाने के बाद अषीष अपनी बहन कुँवरदेवी के बारे मंे सोंचते हुए मन ही मन दुःखी होकर कहता है कि ‘‘हमें उसका चेहरा भी याद नहीं है’’। अषीष के कुँवरदेवी के प्रति इस भावना को घर की बैमत भैरवनाथ को बता देती और उसी रात्रि को भैरवनाथ, कुँवरदेवी के साथ उपस्थित होते है और अषीष जो घोर निंद्रा में था उसे अर्धनिंद्रा में लाते हुए कुँवरदेवी को दिखाते हैं जो सफेद साड़ी में थी और अपने सर पर आँचल को रखते हुए रोए जा रही थी। भैरवनाथ कुँवरदेवी को अषीष का परिचय कराते हुए कहते हैं कि यह लड़का तुम्हारा भाई है लेकिन कुँवरदेवी अपने आँसू को पोछते हुए कहती है कि ये हमें बहन मान सकते हैं लेकिन हम इन्हें अपना मणुष्यदेवा ही मानेंगें। अषीष उसी अवस्था में दुःखी मन से कहता है कि तुम ऐसा क्यों सोंचती हो? इसपर भैरवनाथ अषीष से कहते है कि न तुम गलत हो और न यह कुँवरदेवी गलत है। यह वहीं कुँवरदेवी है जिसने तुम्हे प्राप्त करने के लिए माता काली के कहने पर करीब 16 वर्ष भगवान षिव की तपस्या की है, अगर तुम इसे छुड़ाने मंे सफल होते हो तो इसे अपनी बहन बना लेना और विफल होते हो तो तुम्हें इसका मणुष्यदेवा बनना स्वीकार करना होगा और इस बात का समर्थन कुँवरदेवी भी करती है। अषीष उसी अवस्था में इस बात को चुनौती के रूप मंे स्वीकार कर लेता है इसके बाद भैरवनाथ अषीष को पूर्ण निंद्रा देते हुए कुँवरदेवी के साथ वापस काली निवास चले जाते हैं। सुबह निंद्रा से जागने के बाद घर की बैमत अषीष से पूछती है कि बहन को देख लिए? अषीष खुष होते हुए कहता है ‘‘हाँ’’ लेकिन वह अपनी बहन और भैरवनाथ के बातों को सुनकर दुःखी रहता है और इसलिए दुर्गा-काली का माँ-बहन भी कर देता है। राजेन्द्र की बैमत अषीष की अवस्था को देख कर उसे चिढ़ाती है और कहती है कि सब माता काली का खेल है, इस पर अषीष गुस्साते हुए कहता है कि ‘‘काली को तो मारते-मारते गोरी कर देंगे’’। इस बात को राजेन्द्र की बैमत माता काली को बता देती है और माता काली वहीं से अषीष के मन को झाँक लेती है और बात को सत्य पाती हैं। रात्रि में जब अषीष सो जाता है तब माता काली अपनी छाया अषीष के घर पर भेजती है और अषीष के आत्मा को बाहर निकाल लेती है। लेकिन वहाँ पर श्री हरि विष्णु अषीष के आत्मा को वष मंे करके अषीष को मासूम बालक बना देते हैं और माता काली अषीष की मासुमियत को देखकर कहती है कि ‘‘इसकी तो अभी खेलने-कुदने के दिन हैं’’। चुँकि अषीष अभी भी ट्युषन पढ़ाने जाता था और साथ में सारे बैमत और कुँवरदेवी भी जाती थी। ट्युषन पढ़ाने के दौरान अषीष बैमत की छाया को अपने आस-पास में देखता था, उसे डर था कि अगर उसके छात्रों को कुछ हो गया तो दिक्कत हो जाएगी, इसलिए वह बैमत और कुँवरदेवी को सावधान करते हुए कहा कि अगर ट्युषन पढ़ाने के दौरान किसी ने घर में प्रवेष किया तो ‘‘शेख साहब’’ से कहकर अच्छी धुलाई करवा देगा और भैरवनाथ भी अषीष के बातों से सहमत थे इसलिए उन्होंने भी अपने तरफ से इस प्रकार का आदेष दे दिया। इसके बाद किसी बैमत अथवा कुँवरदेवी की हिम्मत नहीं हुई की वे सब ट्युषन पढ़ाने के दौरान किसी के घर में प्रवेष कर जाए, सब घर के बाहर ही सड़क पर रहती थी’’।
एक दिन की बात है, अषीष घर पर ही स्नान कर रहा था, अषीष द्वारा भैरवनाथ को ना कहने पर उन्होंने अषीष से पूछा कि तुम कुँवरदेवी रख कर क्या करोगे। इस पर अषीष मन ही मन चिल्लाता है और कहता है कि इस कुँवरदेवी से हम दुनिया से समस्त भूत-बैमतों का नाष करेंगे। वे आगे कहते है कि तुम विष्णु हो, लेकिन अषीष बार-बार यही कहता है कि हम विष्णु नहीं हैं। भैरवनाथ द्वारा एक हीं बात दोहराते देख स्वयं श्री हरि विष्णु ने अपने तरफ से कह दिए कि हम ‘‘नियमित’’ (आते रहते हैं) हैं। अषीष के मुख से ‘‘नियमित’’ शब्द सुनकर माता सरस्वती अपना दिव्य चक्षु से अषीष के आत्मा के अंदर झाँक लेती है (जो अषीष और भैरवनाथ की वार्ता को सून रही थी) और देखती है कि श्री हरि विष्णु आत्मा के अंदर ही समुद्र बनाये हुए है और शेषनाग पर विराजमान होकर भैरवनाथ से बात कर रहे हैं। फिर उन्होने पितामह श्री ब्रहा्राजी से सम्पर्क किया और पूछा कि श्री हरि विष्णु का अवतार कब हुआ? इस पर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने माता सरस्वती से मौन रहने को कहा और श्री हरि विष्णु की लीला देखने को कहा। इधर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कलयुग को ध्यान से अषीष के चेहरे को देखकर विचार करने को कहा और कलयुग भी अषीष का चेहरा ध्यान से देखकर कहता है कि ‘‘ पितामह, अगर इस लड़के के चेहरे पर से बाल हटा दिया जाए तो ये साक्षात् विष्णु दिखता है’’, ब्रहा्राजी के इस लीला को स्वयं श्री हरि विष्णु देख रहे थे और उन्होंने पितामह श्री ब्रहा्राजी से षिकायत भरे शब्दों में कहा कि ‘‘पितामह, आपने ये अच्छा नहीं किया’’ इस पर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने हँसते हुए कहा कि काल चाहे जो कुछ इस लड़के के साथ करे, लेकिन यह लड़का अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगा और कलयुग ने अषीष और उसके परिवार पर अपनी टेढ़ी नजर डाल देता है ताकि श्री हरि विष्णु उसके काल रहते अपने चर्तूभुज रूप में उसे को मारने के लिए दौड़े। इधर भैरवनाथ ने अषीष से कहा कि कुवँरदेवी को क्या बनाओगे, पुत्री बनायेंगे अषीष बोला, इस पर भैरवनाथ ने कहा बहन भी बन सकती है लेकिन अषीष बोला अब वह समय नहीं रहा। भैरवनाथ ने आगे पूछा, पुत्री कैसी हो? मेरी पुत्री, मेरी बहन के समदृष्य हो, आगे बोलो, अषीष बोला मेरी पत्नी साक्षात् लक्ष्मी हो, ठीक है भैरवनाथ ने कहा। पुत्री का गुण धर्म कैसा होना चाहिए? भैरवनाथ ने पूछा इस पर अषीष का जबाव था कि लक्ष्मी की पूत्री लक्ष्मी ही ना होगी। भैरवनाथ ने अषीष को समझाते हुए कहा कि तुम कुँवरदेवी को नहीं छुड़ा पाओगे, कुँवरदेवी तुम्हे अपने साथ अपने आवास पर ले हीं जायेगी, तुम अपनी प्रेमिका के साथ खेलो-कुदो, क्यों जिद कर रहे हो। अषीष ने भैरवनाथ की बात को समझते हुए कहा कि हर समस्या का समाधान होता है और इस समस्या का समाधान भी जरूर होगा लेकिन आपको हमारा साथ देना होगा। भैरवनाथ उग्र होते हुए बोले कि हम तो तुम्हारे साथ हैं ही लेकिन कुँवरदेवी छुड़ाने के लिए जो शर्त है उसे तुम पूर्ण नहीं कर पाओगे या कोई भी पूर्ण नहीं कर पाएगा। अषीष पूछता है कि शर्त क्या है? इस पर भैरवनाथ जबाव देते है कि पहले तुम वचन दो कि यह बात तुम किसी और को नहीं बताओगे या फिर इस संदर्भ में किसी के समक्ष अपना मुख नहीं खोलोगे। अषीष भैरवनाथ कि बात मान लेता है, तब भैरवनाथ कहते हैं कि एक शर्त तो तुम पूर्ण कर चुके हो जिसमें तुम्हारी जान भी जा सकती थी, दूसरा शर्त यह है कि तुम्हें ‘‘माता दूर्गा को मारना है’’, और तीसरा शर्त यह है कि तुम्हे ‘‘कुँवरदेवी साथ एक और कुँवरदेवी खड़ा करना होगा’’। अषीष क्रोधित होते हुए कहता है कि आप लोग ऐसा-ऐसा शर्त रखते हैं। इस पर भैरवनाथ ने हँसते हुए कहा कि कुँवरदेवी पर तुम्हारा भी अधिकार है इसलिए तुम्हारा गुस्सा सही है। इस प्रकार कुँवरदेवी पर अषीष का आधा अधिकार होता है और आधा राजेन्द्र का। अषीष कुँवरदेवी पर अपना अधिकार दिखाते हुए कहता है कि ‘‘मेरे पक्ष में कुँवरदेवी राजेन्द्र के खिलाफ अपना हाथ-पैर चला सकती है’’, लेकिन वह बैमत, जिसने अषीष के बहन को मारा था, उसके डर से कुँवरदेवी राजेन्द्र का कुछ नहीं बिगाड़ पाती है क्योंकि उस बैमत के पास एक सिद्धि था जो कुँवरदेवी को डरा कर रखता था।
चुँकि अषीष, राजेन्द्र के प्रति प्रतिषोधात्मक भावना रखता था और इस प्रकार राजेन्द्र इस बात का फायदा उठाना चाहता था, वह जानता था कि उसे देखते हीं अषीष जरूर राजेन्द्र के साथ कुछ अनहोनी कर देगा। शायद इसलिए एक बार राजेन्द्र अपने शरीर पर बैमत का प्रवेष करवाकर अषीष के रास्ते में खड़ा हो जाता है। उस समय अषीष ट्युषन पढ़ाकर वापस आ रहा होता है और राजेन्द्र को अपने रास्ते में खड़ा देखकर वह अपनी साईकिल रोकना चाहता है लेकिन श्री हरि विष्णु की प्ररेणा से साईकिल रूकने के बजाय और तेज हो जाती है। चुकी अषीष को पिछे मुड़कर देखने की आदत नहीं थी इसलिए वह अपने रास्ते चला जाता है। अषीष राजेन्द्र का पहचान जाता है, उसके ललाट पर चन्दन का त्रिषुल बना देखकर अषीष झिझकते हुए कहता है कि वह अपने ललाट पर त्रिषुल बनाता है? उसे हम सिन्दुर लगाने के लायक नहीं छोड़ेगे।
इधर अषीष पूजा को देखने जाता है जिसकी हालत अषीष के प्रपोजल के बगैर कुछ खराब रहती है और पूजा अषीष के आँखों में मानो कुछ ढुँढती थी। लेकिन ऐसा लगता था मानों अषीष को किसी ने रोक रखा है। अषीष पूजा से मिलकर सीधे भगत के पास पहूँचता था जहाँ उसकी माँ उसका इंतजार करती थी। एक बार के बात है भगत शेख का अव्ह्ान करता है लेकिन शेख बन कर एक प्रेत, एक औरत पर खेल रही होती है। अषीष वहीं पर उस औरत को देख रहा था और उसे माँ-बहन करके कहता है ये शेख हो हीं नहीं सकता है। प्रेत अषीष की बात को सुन लेती है और अषीष के तरफ घूरते हुए देखती है लेकिन अषीष भी कम नहीं था और वह भी उसे अपना आँख दिखाता है जिससे वह अषीष के खुन की प्यासी हो जाती है और उसके पिछे पड़ जाती है। वास्तव में वह प्रेत, तुरीन थी। (तुरीन वह होती है जिसे साधारण बैमत मारती है और मरने के बाद आत्मा किष्चिन का रूप ले लेती है। लेकिन किष्चिन, बैमत का साथ दोस्ती करके, बैमत का गुण-धर्म अपनाती है और खुँखार हो जाती है। बैमत ही उसे तुरीन का नाम देकर संबोधित करती है। वास्तव में किष्चिन ही असली कुँवरदेवी होती है जिसके अंदर शर्म और लज्जा होती है)। इधर कुँवरदेवी को जब पता चलता है कि अषीष (मणुष्यदेवा) के पिछे तुरीन पड़ी हुई है और उसके जान की दुष्मन बनी हुई है तब कुँवरदेवी तुरीन से मिलती है (जो रास्ते में अषीष का इंतजार करती थी) और उसके पिछे पड़ने का कारण पूछती है तब तुरीन सारी बातें बता देती है। कुँवरदेवी अषीष के मन से भी इस बात की जानकारी लेती है और सही पाती है। इस पर कुँवरदेवी और भैरवनाथ दोनो तुरीन को समझाते है और कहते है कि यहाँ अलग खेल चल रहा है तुम बीच में मत पड़ो और अगर पड़ोगी तो जान से हाथ धो दोगी। इस पर तुरीन कहती है कि इसने हमको गाली दिया है हम इसका खून पिएँगे। कुँवरदेवी क्रोध में आकर कहती है कि ये मेरा मणुष्यदेवा है, अगर तुम इसे हाथ भी लगााओगी तो हम तुम्हे चीर के रख देंगे और इस पर काली-दूर्गा भी अनदेखी कर देगी। कुँवरदेवी और तुरीन को शांत करते हुए भैरवनाथ कहते है कि ठिक है अगर कुँवरदेवी के मणुष्यदेवा तुम्हे दूबारा टोकता है तो तुम अपना इच्छापूर्ति कर लेना और तुम इसके रास्ते मंे आ सकती हो लेकिन एक बार। तब से कुँवरदेवी, तुरीन और भैरवनाथ साथ मंे राजेन्द्र की बैमत भी होती थी और अषीष के पिछे रहती है।
इधर अषीष, पूजा को प्रपोज भी करना चाहता था, इसलिए हर बार कोषिष मंे रहता था लेकिन पता नहीं क्यों नाकाम हो जाता था। एक बार की बात है अषीष पक्का इरादा करके पूजा को प्रपोज करने जाता है। लेकिन पूजा के करीब जाते हीं अषीष के दिल की धड़कन तेज हो जाती है और वह ना में सर हिलाते हुए मन ही मन कहता है कि हमसे नहीं होगाा। तब अषीष को एहसास होता है कि पूजा ठिक पिछे है अगर वह इस तरह सर हिलाएगा तो वो समझेगी कि वह उसे नहीं चाहता है और अपना नजर पिछे करता है। लेकिन जब वह अपना नजर पिछे करता है तो देखता है कि पूजा रूग्न अवस्था में उसके पास खड़ी है तब श्री हरि विष्णु स्वंय अपना प्रभाव दिखाते है और अषीष को संदेह होता है कि वह तो साईकिल से है और पूजा इतनी जल्दी उसके इतने करीब कैसे आ गयी, जरूर कोई गड़बड़ है और वह अपनी साईकिल तेज करके आगे बढ़ जाता है। वह वास्तव में वह पूजा नहीं तुरीन थी और इस प्रकार तुरीन का मौका खत्म हो जाता है, लेकिन तुरीन कुँवरदेवी को अपने रास्ते का पत्थर समझती है और उसे हटाने के लिए कुँवरदेवी पर टूट पड़ती है, कुछ देर लड़ाई होने के बाद कुँवरदेवी तुरीन का सर उसके धड़ से उखाड़ देती है और उस तुरीन का वहीं अंत हो जाता है। भैरवनाथ राजेन्द्र की बैमत से कहकर तुरीन के लाष को सड़क के किनारे एक गड्ढे मंे डलवा देते हैं।
इधर जब शेख साहब को तुरीन के हरकतों का खबर मिलता है तो अषीष की सुरक्षा के लिए अपने दो सहायकों को उसके देखभाल के लिए छोड़ दिया। शायद शेख के डर से हीं तुरीन अषीष के घर पर नहीं आती थी। अषीष हर शुक्रवार को शेख साहब का अराधना अपने घर पर करवाता था और उस दिन श्वेत पोषाक पहन कर शेख साहब के नाम से पान खाता था। कुँवरदेवी, अषीष के इस रूप को मणुष्यदेवा का रूप कहती थी। चुँकि राजेन्द्र की बैमत हमेषा अषीष के साथ रहती थी और अषीष को किसी तरह राजेन्द्र की तरफ खिंचती थी। एक बार की बात है हमेषा के तरह अषीष ट्युषन पढ़ाने जाता था और राजेन्द्र की बैमत अषीष की साईकिल पर बैठ जाती थी। शुक्रवार का दिन था अषीष अपने रूप में था और साईकिल से ट्युषन पढ़ाने जा रहा था। बैमतों द्वारा साईकिल पर बैठने पर एक बैमत को शेषनाग ने डस लिए जिससे बैमत को मानों लहर के साथ एक हाथ सून्न हो गया और दो बैमतें चिल्ला कर कहने लगी कि तुमको मना किये है कि शुक्रवार को शेख उसके साथ होता है साईकिल पर मत बैठना, लेकिन तुम नहीं मानी, बैमत रोते हुए बोली कि यहाँ तो हमें शेख नहीं दिख रहा है। किसी तरह से बैमत राजेन्द्र के पास पहूँचती है तो राजेन्द्र भी कहता है कि शेख ही होगा।
एक बार की बात है अषीष के घर पर उसके मामा का आगमन होता है और उसके मामा अषीष से उसकी नानी का समाचार कहते है और कहते है कि तुम्हारी नानी तुम्हे बहुत याद करती है, जाने उसकी जींदगी कब खत्म हो जाए, एक बार जाकर मिल आओ, इस पर अषीष मन हीं मन कहता है कि नानी अभी नहीं मरेगी। फिर भी कुछ दिनों के बाद अषीष की इच्छा अपनी नानी से मिलने को करता है और वह ‘‘गया’’ की ओर प्रस्थान कर जाता है। नानी से मिलकर अषीष बहुत खुष होता है, अषीष कमाता भी है यह बात सून कर उसकी नानी भी खुष होती है और वह अपनी नानी को तरह तरह की चीजें लाकर खिलाता है। लेकिन उसकी नानी को अपना कष्ट सहा नहीं जाता है और वह अषीष को अपना दुःख कहती है। उसकी नानी को लगता था कि उसके सामने कोई काले वस्त्र में औरत खड़ा रहता है। इस बात को अषीष संज्ञान में लेते हुए अपने साथ पहूँचे हुए बैमतो और कुँवरदेवी से पूछता है कि आखीर कौन है जो उसकी नानी को डराता है। कुँवरदेवी के साथ बैमत भी कहती है कि यहाँ आस-पास में कोई नहीं है, ऐसे हीं वृद्धावस्था के कारण वह ऐसा सोंचती होगी। अब अषीष नानी से मिलकर पटना की ओर प्रस्थान करता है और घर आने पर श्री हरि विष्णु अषीष के मन में विचार देते हैं और पूछते है कि नानी के मृत्यु के बारे में क्या कहते हो? इस पर अषीष मन ही मन कहता है कि नानी की मृत्यु अभी नहीं होगी। इस पर श्री हरि विष्णु अषीष को उसकी नानी की दुर्बल अवस्था को याद दिलातें हैं, और अषीष झुँझलाते हुए अपना मुँह फेरता है और कहता है कि ठीक है नानी को मरने दिजीए और उसी रात अषीष की नानी की मृत्यु हो जाती है। मृत्यु उपरान्त यमदूत अषीष के नानी के आत्मा को ब्रहा्रांड में सीधे षिवजी के पास ले जाती है जहाँ षिवजी तपस्या में लीन थे। अषीष की नानी को पहूँचते ही षिवजी अपनी आँखे खोलते है और अषीष की नानी को प्रणाम करते है, इस पर अषीष की नानी सवाल करती है कि आप तो भगवान षिव है, भला आप हमें क्यों प्रणाम कर रहे हैं। भगवान षिव हँसते हुए कहते है कि आपके घर में श्री हरि विष्णु का अवतार हुआ है, इस प्रकार आप श्री हरि विष्णु की नानी हुईं, तो हमारी भी नानी हुई ना, अषीष की नानी मौन रहती है। उसके बाद षिवजी अषीष की नानी की इच्छा पूछते हैं तब अषीष की नानी कहती है कि हमारा जन्म अषीष के घर में ही हो। चुँकि उचित समय नहीं रहता है इसलिए षिवजी अषीष की नानी को ब्रहा्राण्ड में ही यमदूत के साथ रहने के लिए कहते हैं और उन्हें खाने के लिए छुहारा-किषमिष दे देते है। अषीष की नानी छुहारा-किषमिष खाते हुए वहीं पर अपने अगले जन्म का इंतजार करती है।
अषीष घर पर हीं पूजा को प्रपोज करने का योजना बना रहा होता है तभी भैरवनाथ आते है और कहते है कि क्या योजना बना रहे हो, अषीष भैरवनाथ को अपनी बात बता देता है। भैरवनाथ कहते है कि प्रपोज करने बाद शादी भी करोगे? अषीष ‘‘हाँ’’ में जबाव देता है इस पर भैरवनाथ विचार करते हुए कहते है कि तनीक अपनी माँ से पूछ लो, क्या वह तुम दोनों की शादी के लिए राजी होगी? अषीष भैरवनाथ के बातों से सहमत होता है और अपनी बात, अपनी माँ को बता देता है। इस पर अषीष की माँ शादी के लिए सहमत नहीं होती है और कूल-खानदान की बाते करने लगती है। अषीष भी अपना तर्क देते हुए कहता है कि पूजा के शरीर में कौन सा हरा खून प्रवाहित हो रहा है जो हम उससे शादी नहीं कर सकते हैं? कुछ देर शांत होकर अषीष सांेच लेता है कि वह किसी भी हालत में पूजा को प्रपोज करेगा। लेकिन भैरवनाथ अषीष को समझाते हुए कहते है कि क्यों अपने और उस लड़की के जान के दुष्मन बने हुए हो। कुँवरदेवी वापस कर दो और अपना जीवन जीओ, लेकिन अषीष मानने को तैयार नहीं था और बार-बार कह रहा था कि हम कुँवरदेवी वापस नहीं करेंगे। भैरवनाथ अषीष को विस्तार से समझाते हैं कि अगर तुम पूजा को प्रपोज करते हो तो वह जरूर तुमको स्पर्ष करेगी जो कुँवरदेवी को अच्छा नहीं लगेगा और तुम दोनों का लाष वहीं गिरा देगी, तुम तो काली आवास पर चले जाओगे लेकिन पूजा भटक जाएगी और इस तरह तुमदोनों कभी नहीं मिल पाओगे, वैसे भी पूजा एक वकिल की बेटी है क्या तुम परिवार से अलग होकर पूजा को अपनी पत्नी बना पाओगे, क्या वकिल तुम्हें अपनी पुत्री देगा। इस पर अषीष हँसते हुए भैरवनाथ से कहता है कि अगर वकिल साहब पूजा को अपने नेत्र में भी छुपा लेते है तो हम उनके नेत्र से पूजा को निकाल कर अपनी पत्नी बना लेंगें। यह तुम कैसे कर सकते हो? भैरवनाथ अषीष के समक्ष एक सवाल कर देते हैं। अषीष अपने दिमाग पर जोर देते हुए भैरवनाथ को कहता है कि ‘‘पूजा हमें पसंद करती है ये आपको भी पता है और हमें भी, बस वकिल साहब के साथ एक खेल खेलेंगे और आगे अषीष भैरवनाथ को समझाते हुए कहता है कि हम पूजा के साथ पहले उच्च न्यायालय मंे विवाह करेंगे उसके बाद वैवाहिक कागजात को अपने पास रख लेंगे। पूजा, हमारे साथ अपने प्रेम प्रसंग के बारे में अपने परिवार में बतायेगी और वह हमारे साथ विवाह भी करना चाहती है, चुँकि वकिल साहब को हम पर पूर्ण विष्वास है इसलिए वो हमसे षिकायत हीं करेगे न की किसी प्रकार की कार्रवाई, हम वकिल साहब से कहेंगे कि पूजा अपने राह से भटकी हुई लड़की थी जो हमारे प्रेम में फँस गयी और हमने पूजा को संभालने के लिए उसे झुठा प्रेम दिखाया, क्यांे कि ऐसी स्थिति में लड़कियाँ गलत लोगों के हाथ लग जाती है, लेकिन पूजा को संदेह था कि हम उसे बहला-फुसला रहे हैं इसलिए हमारे प्रेम के सबुत के तौर पर पूजा हमसे सादे कागज पर हस्ताक्षर करवा ली है और उसे एक वैवाहिक कागजात का रूप दे दिया है। चुँकि, असली वैवाहिक कागजात हमारे पास हीं होगा और उसका छायाप्रति पूजा के पास। हम वकिल साहब से कहेंगे की हमने आपकी पूत्री को संभाला है न कि आपकी पूत्री को बहकाया है, अगर आपको किसी प्रकार का हम पर संदेह हो तो पूजा की कौमार्यता की जाँच करवा सकते हैं। इसके बाद पूजा वैवाहिक कागजात कि छायाप्रति अपने पिता को दिखाएगी, जिससे साबित होगा कि हम और पूजा आपस मंे विवाह कर चुके है और वैवाहिक कागजत की मूलप्रति वकिल साहब जरूर ढुंढंेगे । तब एक बार फिर वकिल साहब हमसे षिकायत करेंगे लेकिन हम उनको समझा देंगे कि हमने हीं अपने प्रेम का प्रमाण दिखाने के लिए स्वहस्ताक्षरित सादा कागज पूजा को दिया था लेकिन वह वैवाहिक कागजात बना लेगी हम नहीं जानते थे। एक तरफ पूजा को हम कह देंगे कि असली वैवाहिक कागजात प्राप्त करने के लिए तुम्हारे माता-पिता, तुम्हारे साथ मार-पीट भी कर सकते हैं, तो तुम मार खा लेना, चुँकि हम तुम्हारे घर के दामाद होंगे तो हमारा मार खाना उचित नहीं होगा, वैसे भी तुम तो अपने माता-पिता से बचपन में मार खाई हीं होगी। दूसरी तरफ हम वकिल साहब को कहेंगे की आप पूजा के आँखों पर ध्यान दें क्योंकि पूजा जहाँ भी असली वैवाहिक कागजात रखी होगी वहाँ उसकी नजर जरूर जाएगी, वकिल साहब तो यही समझेंगे कि हम उनके साथ हैं। उसके बाद पूजा अपने पिता को एक दूसरे वकिल के हाथों एक वैधानिक चेतावनी पत्र भेजेगी, जिससे वकिल साहब की खोपड़ी घूम जाएगी, भैरवनाथ हँसते हुए कहते हैं कि तुम वकिल को ही वैधानिक चेतावनी पत्र भिजवा दोगे? अषीष तीखी हँसी दिखाते हुए कहता है, ‘‘कभी सूना है आपने?’’ वैसे भी वकिल साहब की कोर्ट मंे अपनी एक इज्जत भी होगी जो मेरे हाथ लग जाएगी और परिणामस्वरूप वकिल साहब को पूजा का हाथ मेरे हाथ में देना ही पडे़गा’’। इसपर भैरवनाथ खुषी से अष्चर्यचकित होते हुए कहते हैं कि तुम तो कुँवरदेवी छुड़ा हीं लोगे, ये हम जानते हैं।
इधर अषीष भैरवनाथ से सवाल करता है कि भला कुँवरदेवी हमदोनो को क्यों मारेगी? वह तो मेरी बहन है। कुँवरदेवी को तुम अपना बहन मानते हो लेकिन वह तुमको अपना मणुष्यदेवा मानती है, भैरवनाथ, अषीष को समझाते हुए बोले। अषीष अपना सर झुकाते हुए कहता है, चाहे जो जाए हम पूजा को प्रपोज जरूर करेंगे। भैरवनाथ गूस्से से कहते है कि जाओ प्रपोज करो और अपनी और उस लड़की के जान का दुष्मन बन जाओं। इस पर अषीष चिढ़ते हुए कहता है कि पूजा कोई वैष्या नहीं है जो हर लड़के को प्रपोज करने के लिए इषारा करती है। भैरवनाथ कुछ सोंचकर कहते हैं कि इससे पहले तुम पूजा को कभी स्पर्ष किए हो अथवा नहीं? अषीष ‘‘नहीं’’ में जबाव देता है। भैरवनाथ हँसते हुए बोलते है कि इतने दिन तुम उसको ट्युषन पढ़ाए लेकिन स्पर्ष नहीं किए, अजीब प्रेम कहानी है दोनों का? और दूसरे तरफ भैरवनाथ कहते हैं कि ये तो और खतरे की बात है।
समय बीतता गया, चुँकि अषीष पूजा को प्रपोज करने का इरादा पक्का कर लिया था इसलिए एक दिन अषीष पूजा को प्रपोज करने समयानुसार पहूँच जाता है। उस दिन अषीष के साथ भैरवनाथ स्वयं और कुँवरदेवी होती है और राजेन्द्र की बैमत तथा घर की बैमत भी होती है। राजेन्द्र की बैमत इस बात से खुष थी की अगर पूजा अथवा अषीष एक दूसरे को स्पर्ष करते हैं तो अषीष जरूर मरेगा और मारने वाली उसकी बहन कुँवरदेवी होगी और इस प्रकार राजेन्द्र का रहस्य जो कि अब तक कोई नहीं जानता था, रहस्य ही रहेगा और समाज में उसकी इज्जत बनी रहेगी। अषीष पूजा को आते हुए देखता है। अषीष अपनी साईकिल एक कपड़े की दूकान पर खड़ा कर देता है और पूजा के पिछे चलने लगता है। आगे चलकर अषीष पूजा को रूकने के लिए कहता है लेकिन वह नहीं रूकती है, तब अषीष पूजा को कान के पास जाकर कहता है कि ‘‘ वह, उससे प्रेम करता है’’, लेकिन पूजा इस पर अषीष को जली-कटी सूनाती है और कहती है कि वह अपने भैया से बोल देगी। अषीष जोष में आकर कहता है कि ‘‘जाओ, अपने भैया से कह देना’’, और वापस लौटने लगता है तभी उसे नेहा कि याद आती है जिसे किसी समय अषीष बोला था कि ‘‘जाओ पापा को बोल देना’’, और भयंकर झगड़ा हुआ था। अषीष अपनी गलती पर पछताने लगा। उस दौरान भैरवनाथ और कुँवरदेवी दोनो अषीष की अवरस्था को देख रहे थे और भैरवनाथ बराबर कहे जा रहे थे कि लड़का, लड़की को स्पर्ष नही किया है। ठीक दूसरे दिन अषीष, समयानुसार पूजा से मिलने यह सोंचकर जाता है कि पूजा की क्या प्रतिक्रिया है, और वह कपड़ा दूकान पर साईकिल खड़ा करके वहीं रूक जाता है। समय पर पूजा का आगमन होता है। लेकिन पूजा के साथ उसके भाई भी होते हैं। पूजा नजर झुकाए अषीष के सामने से गुजर जाती है। पूजा के भाई अषीष के पास पहूँचते हीं उससे पूछते हैं कि तुम पूजा से बोले हो कि ‘‘तुम उससे प्रेम करते हो’’? अषीष ‘‘हाँ’’ में जबाव देता है। इतने में पूजा के भाई ने अषीष के शर्ट के कॉलर को पकड़ लिया। अषीष उनसे अपने कॉलर को छुड़ाते हुए कहता है कि ‘‘आप जो कर रहे हैं न, हम भी कर सकते है और आप से बेहतर ढंग से’’। इस पर कॉलर को छोड़ते हुए पूजा के भाई कहते हैं कि ‘‘आज के बाद तुम इधर नजर नहीं आओगे’’ इतना कहकर वे चले जाते हैं। अषीष पूजा के भाई को घूरते हुए अपने साईकिल से ट्युषन पढ़ाने चला जाता है। दूसरे दिन फिर अषीष अपने जिद पर समयानुसार पूजा से मिलने चला जाता है और देखता है कि पूजा के साथ उसके भाई अपने मित्र के साथ बात करते हुए आ रहे हैं। पूजा अपने भाई से आगे थी और वह अषीष को देखते हीं हल्का मुस्कुरा कर अपनी आँखे झुका लेती है। अषीष भी नजर झुका कर ट्युषन पढ़ाने चला जाता है। शाम को बाजार में पूजा अपनी छोटी बहन पल्लवी के साथ खड़ी थी, अषीष की नजर पूजा पर पड़ती है। अषीष थोड़ा ठहर जाता है, तब तक पूजा भी अषीष को देख लेती है। अषीष को देखते ही पूजा मुस्कुरा कर अपनी नजर झुका लेती है। उस शाम पूजा अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक खुबसूरत दिख रही थी। लेकिन समय की दिवार ने दोनों को रोक रखा था और अषीष इस बात को समझते हुए पूजा से बिना कुछ बात किए वहाँ से चला जाता है। उसके बाद पूजा जब भी अषीष से रास्ते में मिलती थी तो दूर से हीं कभी हाथ जोड़कर तो कभी कान पकड़कर माफी माँगती थी लेकिन अषीष अपने दिल पर पत्थर रखकर अपना मुँह मोड़ लेता था।
समय बीतता गया और पूजा की हालत दिनों-दिन खराब होती गयी। उसके घर वाले परेषान थे। तब पूजा की छोटी बहन (जो अषीष और पूजा के बारे में सबकुछ जानती थी) सारी बाते अपनी माँ को बता दिया जिससे पूजा की माँ काफी परेषान हुई और पूजा को समझाते हुए कहने लगी की ‘‘तुम्हारी शादी अषीष से भी अच्छे लड़के से करवा देंगे’’, और पूजा का ईलाज भी करवाया। यह बात जब पूजा के पिताजी यानि वकिल साहब को पता चला तो वे निर्णय लेते हुए बोले कि अब पूजा यहाँ नहीं बल्कि बाहर जाकर अपनी पढ़ाई पूरी करेगी। इस पर पूजा अपने माँ और पिताजी के पैर पकड़ते हुए कहती है कि उसे यहीं रहने दिया जाए। लेकिन पूजा की एक नहीं चलती है और वह समय आ जाता है जब पूजा को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए उड़िसा जाना पड़ता है। उड़िसा जाने से पहले पूजा अपने पिताजी से विनती करती है कि उसे एक झलक अषीष को देख लेने दें, तब वकिल साहब खुद अपने बाईक से पूजा को अषीष के रास्ते (जहाँ अषीष का अक्सर आना-जाना होता था) से गुजरते हैं, उस समय अषीष भी अपनी साईकिल से गुजर रहा होता है और वह पूजा को रूग्न अवस्था में देखता है, पूजा के गालों पर आँसू के कुछ लकीरें थी। लेकिन अषीष भी क्या करता, वह अपने धून में ट्युषन पढ़ाने चला गया, उस समय स्वयं श्री हरि विष्णु अषीष को विचार दिया कि ‘‘पूजा का यह अंतिम दृष्य है’’, इस पर अषीष मन ही मन अपने आप से कहता है कि ‘‘अषीष की वापसी होगी’’।
Third Edition of Kaal Sagar "Ek Mahakavya"
।। पूजा की याद में अषीष द्वारा लिखे गए कुछ शायरी।।
ऽ तेरी बद्दुआ कुबुल हमें,
देखते हैं मेरी किस्मत इसे किस तरह अपनाता है।
ऽ बहुत खुषी होती थी ये सोंच कर साथ चलेंगे दोनो,
समय का योग तो देखों हम रास्ते में हीं बिछड़ गए।
ऽ मेरी तव्वजों में तेरा निषान नहीं,
मेरी जुबान पर तेरा बयान नहीं,
तू कौन सी कली है अपने बाग की
ये तेरे माली को भी पता नही।
ऽ कमबख्त! तुने पूछा तो होता ज़हर खाने से पहले,
कि तुने खाया की नहीं।
ऽ गर नजर मिले तो खुदा की मवर््वत है,
गर नजर न मिले तो आपकी कयामत है।
ऽ आज-कल की आषिकों की आषिकी मंे दम कहाँ,
जो हमसे टक्कर ले, क्यों कि; आषिकों की आषिकी मैं स्वयं हूँ।
ऽ शक्ल की षिकायत हर कोई करते हैं,
और जो करते हैं, हम पर मरते हैं,
मरने वालों मे ंहम भी हैं,
लेकिन हम किसी की शक्ल की षिकायत नहीं करते हैं।
ऽ लिखा था किसी ने किस्मत हमारी,
लेकिन वो किस्मत थी न हमारी,
न जाने किन-किन लोगों की नजर पड़ी,
वह हमारी न रही बेचारी।
ऽ सत्य थे हम असत्य हो गए,
जाने कैसे ये कब हो गए,
करते थे मिन्नते बार - बार,
लेकिन वे किसी और के हो गए।
ऽ जमाने भर की षिकायत किया उन्होंने, हमने ध्यान भी दिया,
क्या करें कमबख्त! समय ने उनकी षिकायत दूर करने का मौका नहीं दिया।
ऽ बहुत मन्नते माँगी थी हमने, मन्नते कुबुल भी हुई,
जाने कौन सी घड़ी थी वो, जिस समय हमसे भूल हुई।
ऽ सुना था राहों में कितने मनचले होंगे,
उन मनचलों के साथ दिलजले भी होंगे,
मेरी यह कारवां फरियाद की,
तेरे ही आवाज में मिले होंगे।
ऽ मैं सिंचता हूँ पत्थर को,
बनाता हूँ मोम उसे,
मैं खो जाता हूँ कहीं,
न जाने करता हूँ याद किसे।
ऽ तेरे साथ चलकर यह महसूस हुआ कि तु करीब नहीं है,
गुंजाईष थी करीब होने की, लेकिन तू मजबूर नहीं है।
पूजा से स्वयं को अलग करने के बाद अषीष मन से पूरी तरह टूट जाता है और इधर भवेष अपनी पढ़ाई पूरी करके अपने घर वापस आ जाता है। अषीष अपने दिल का दर्द भवेष को बताता है जिसपर भवेष, अषीष को सलाह देता है कि ‘‘तुम्हे पूजा को दूध में पड़ी मक्खी के तरह निकाल कर फेंक देना चाहिए और धीरे-धीरे भवेष, अषीष के दिल का सहारा बन जाता है। अषीष अपनी हर बात भवेष को बताता था लेकिन कुँवरदेवी के बारे में कुछ नहीं बताया, क्योंकि वह जानता था कि यह भूत-प्रेत वाली बात है और भवेष के घर में कुछ भी अनिष्ठ होगा तो अषीष पर ही इल्जाम आएगा और इस प्रकार दोस्ती खत्म हो सकती है और भवेष भी अषीष को अपनी छोटी-छोटी बातों को बताता था जिसका अषीष सही सलाह देता था। अषीष को पूजा की जब भी याद आती थी तब वह उस रास्ते पर चला जाता था जहाँ पूजा उसे दिखाई देती थी, लेकिन पूजा के न दिखाई देने पर अषीष की स्थिति को देखकर स्वयं श्री हरि विष्णु दुःखी थे और उन्होने अषीष के दुःख का कारण दिखाते हुए अषीष को विचार दिया कि अपना घर यहाँ से दूर ले जाओ, न तुम यहाँ रहोगे न पूजा की याद आएगी, और अंततः होता भी यही है। अषीष, अपने परीवार की सहमती पर सन् 2006 में अपना घर साईंचक, बेउर ले आता है, जहाँ चारो तरफ सुकून थी। लेकिन वहाँ भी वह अक्सर अकेले में पूजा के बारे में सोंचा करता था, तब श्री हरि विष्णु ने अषीष को विचार दिया कि अब तुम्हें पूजा के बारे में नहीं सोंचना चाहिए बल्कि कुँवरदेवी छुड़ाने के लिए दूसरे शर्त पर ध्यान देकर उसे पूर्ण करना चाहिए। इधर भैरवनाथ अषीष के घर आते है, और तब अषीष उनसे दूसरा शर्त पूर्ण करने का तरीका पूछता है। इस पर भैरवनाथ उसे समझाते हुए कहते हैं कि तुम्हारे मित्रगण एम॰ए॰ और एम॰सी॰ए॰ कर रहे हैं और एक तुम हो जो भूत-प्रेत के चक्कर मंे पड़े हुए हो, इस पर अषीष भी भैरवनाथ को समझाते हुए कहता है कि हम भी एम॰ए॰ए॰ कर रहे हैं। अषीष की बातों को सून कर भैरवनाथ आष्चर्य से पूछते है कि ये एम॰ए॰ए॰ क्या होता है। इस पर अषीष, भैरवनाथ को हँसते हुए कहता है कि मास्टर इन एस्ट्रोलॉजी एप्लीकेषन, मतलब? भैरवनाथ पूछते है, तब अषीष इसका हिन्दी अनुवाद करते हुए कहता है कि ‘‘ज्योतिषषास्त्र में मास्टर की डिग्री’’। भैरवनाथ का नजर झूक जाता है और वह समझ जाते है कि लड़का इसी को अपना कैरियर बनाएगा। आगे भैरवनाथ से अषीष दूसरी शर्त के पूर्ण होने की बात पूछता है लेकिन भैरवनाथ अगली बार आऐंगे तो बोलेंगे कहकर चले जाते हैं। अषीष पूजा का विचार त्याग कर इग्नू विष्वविधालय से बी॰ए॰ में अपना नामांकन करा लेता है, और कुछ पढ़ाई भी करता है लेकिन वह असफल हो जाता है इस कारण से वह अपनी पढ़ाई करना ही छोड़ देता है।
समय बदल रहा था, अषीष का ध्यान अब कम्प्युटर की तरफ आकर्षित होने लगा, उसे भी कम्प्युटर चलाने का शौक हो गया। एक बार ग्रीष्मावकास में अषीष का मित्र भवेष का पटना आगमन होता है। और वह आने के क्रम में अपना कम्प्युटर भी साथ लाता है। अषीष अपने इच्छा को भवेष के सामने प्रकट करते हुए कहता है कि उसे भी कम्प्युटर चलाना सीखाए और भवेष भी अषीष के समक्ष अपना कम्प्युटर प्रस्तुत कर देता है और कहता है कि जहाँ भी गड़बड़ी हो, बस फिर से र्स्टाट कर देना। इस प्रकार अषीष का कम्प्युटर के प्रति भय खत्म हो जाता है। इसके बाद अषीष बचा-खुचा कसर साईबर कैफे में पूरा किया, उसके द्वारा किसी प्रकार की गड़बड़ी होने पर वह उल्टे साईबर वाले को षिकायत करता था। अषीष अब काफी हद तक कम्प्युटर चलाना सीख चुका था। वह पटना स्थित सचिवालय कैम्पस के एक दुकान में कम्प्युटर टाईपिंग का काम शुरू कर दिया, जहाँ उसे टाईपिंग की ट्रेनिंग दी जाती थी और साथ में अषीष ट्युषन भी पढ़ाता था। धिरे-धिरे अषीष कम्प्युटर ऑपरेटर हो गया तथा वह ट्युषन पढ़ाना छोड़ दिया और इस प्रकार पूजा की याद भी ट्युषन के साथ खत्म हो गयी।
एक समय की बात है, भवेष अपनी पढ़ाई पूरी करने के दौरान बीच में ही अपने घर पर आता है। भवेष, अषीष के काम-काज की खबर लेता है। अषीष भी अपने काम के बारे में बताते हुए कहता है कि अगर मेरे पास एक कम्प्युटर होता तो अच्छी कमाई होती। तब भवेष, अषीष को कहता है कि मेरी पढ़ाई पूरी हो जाने दो, उसके बाद हम अपना कम्प्युटर तुम्हें दे देंगे। इस बात पर अषीष अपना मुँह तो बन्द कर लेता है लेकिन मन में इच्छा रख लेता है कि भवेष उसे कम्प्युटर देगा और श्री हरि विष्णु ने भी मान्यता दे देते हैं कि अगर भवेष कम्प्युटर दे देगा तो भवेष की नौकरी पक्की।
समय बीतता जाता है, चुकि भवेष की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी, भवेष अपने घर आता है। अषीष को पहले भवेष के द्वारा बोले गए शब्द (कम्प्युटर के बारे मेेे) याद रहता है। चुँकि अषीष स्वाभिमानी लड़का था और वह भवेष से सीधे कम्प्युटर की माँग न करके कहता है कि उसे एक कम्प्युटर खरीदना है, चँकि तुमलोगों की पढ़ाई पूरी हो चुकी है, बेचोगे? भवेष अपने द्वारा कही गयी बात भूल जाता है और अपने कुछ मित्रों से कम्प्युटर बेचने की बात करता है और उसके सभी मित्रों ने न कह दिया और इस प्रकार भवेष भी अषीष को न कह देता है। भवेष के द्वारा न कहने पर स्वयं श्री हरि विष्णु कुपित हो जाते हैं और भवेष को उसके सहपाठियों के द्वारा भ्रमित कर देते हैं जिससे वह ‘‘सॉफ्टवेयर इंजिनीयर की ट्रेनिंग’’ में असफल हो जाता है। है और उस पर गंभीरता पूर्वक विचार करता है, वह अक्सर विचार करता था कि आखिर दुर्गा माता को कैसे मारा जाए और यही सोंचते-सोंचते अषीष की दिमागी हालत खराब हो गयी। अषीष का दिमागी ईलाज भरपूर चला, और इसी अवस्था में श्री हरि विष्णु ने अषीष की एक परीक्षा भी ले ली, जो इस प्रकार है:-
एक समय की बात है अषीष अपने घर में अकेला था, वह अक्सर सोंचा करता था कि अगर आज भगवान षिव होते तो दुर्गा-काली को ऐसा खेल खेलने की हिम्मत न होती। अषीष की मन में एक विचार और आता था कि इस दुनिया में भगवान की क्या जरूरत है। अगर आज के दौर में लूटेरे-बदमाष हैं तो दूसरी तरफ पुलिस-प्रषासन भी है तब अषीष अपने ही मन से कहता था कि यहाँ के पुलिस-प्रषासन हमारी समस्या को सुलझा नहीं सकती है। तभी उसके मन से आवाज आती है कि इस दुनिया में सत्य है अथवा नहीं, अषीष का जबाव ‘‘हाँ’’ में होता है, तब अषीष का एक मन कहता है कि अगर सत्य है तो षिव हैं, और अगर षिव हैं तो ये संसार सुन्दर है। ‘‘फिर भी यहाँ षिव हैं कहाँ’’ तब अषीष के मन से आवाज आती है कि वत्स हम ब्रहा्र और विष्णु तुम्हारे ही उदर में विराजमान हैं, और प्रमाणस्वरूप श्री हरि विष्णु अपने सुदर्षन की छाया अषीष के समक्ष प्रकट कर देते है जिससे अषीष यह समझता है कि श्री हरि विष्णु उसी के उदर में है तब अषीष ब्रहा्र का प्रमाण पूछता है? तब श्री हरि विष्णु अपना कमल पुष्प की छाया अषीष के समक्ष प्रकट कर देते है और अषीष समझता है कि ब्रहा्राजी भी उसके उदर में हैं। तब श्री हरि विष्णु अपने दुःख का दिखावा करते हुए कहते हैं कि वत्स समय ऐसा चाल चल गया है कि हमें तुम्हारे उदर में छुपना पड़ा। इस पर अषीष आसमान की तरफ देखते हुए अपने मन हीं मन गुस्साते हुए कहता है कि ‘‘समय अपना औकात भूल चुका है’’। उसके बाद अषीष षिव जी के बारे मंे पूछता है तब श्री हरि विष्णु माता काली की तस्वीर की छाया दिखाते हुए कहते हैं कि ‘‘ये देख रहे हो न काली को, षिवजी, काली के कदमों तले दबे हुए हैं और यह जो षिव जी का त्रिषुल देख रहे हो न, अगर ये त्रिषुल षिवजी के हाथ में आ जाए तो काली रूपी पाप के पुतले का अंत हो जाएगा और षिवजी मुक्त हो जाएगें। किसी तरह उनका त्रिषुल को षिवजी के हाथ में दे दो, अषीष त्रिषुल का प्राप्त करने के बारे में बहुत सोंचता है लेकिन कोई उपाय नहीं सूझता है। तब श्री हरि विष्णु अषीष की व्यस्तता को देखते हुए कहते है कि अगर ये त्रिषुल तुम्हारे हाथ लग जाए तो तुम क्या करोगे? तब अषीष झट से उत्तर देता है कि अगर त्रिषुल मेरे हाथ आ जाए तो हम हीं काली का पेट चीर देंगे, इस पर श्री हरि विष्णु मंद-मंद मुस्कुराते हुए शेषनाग से कहते है कि यह षिवजी का परम् भक्त है। उपरोक्त बात की जानकारी भैरवनाथ और राजेन्द्र की बैमत को हो जाती है और भैरवनाथ कहते हैं कि ये सब शेख का खेल है। राजेन्द्र की बैमत भी भैरवनाथ के साथ मिलकर ऐसा ही खेल खेलना चाहते हैं और भैरवनाथ, अषीष से कहते है कि तुम माता दुर्गा के सवारी ‘‘सिंह’’ थे तथा उनके द्वारा श्रापित होकर यहाँ जन्म लिए हों। अषीष को विष्वास नहीं होता है और भैरवनाथ से पूछता है कि पुनः माता दुर्गा की सवारी बनने के लिए हमें क्या करना होगा। तब भैरवनाथ, अषीष को समझाते हुए कहते हैं कि अभी तुम जब घर से बाहर जाओगे तब तुम्हें एक शेर दिखेगा तुम उसे स्पर्ष करना, स्पर्ष करने से हीं तुम श्राप मुक्त हो जाओगे। इधर राजेन्द्र की बैमत खुष थी कि अगर वह शेर रूपी भैरवनाथ को स्पर्ष करेगा तो एक प्रेत को छेड़ने के समान होगा और अषीष मारा जाएगा। इधर घर से बाहर निकलते हीं सुनसान सड़क के बीचो-बीच अषीष को एक शेर दिखायी देता है, चुँकि अषीष की नियत शेर को स्पर्ष करने की थी ना कि उसे लात मारने की, लेकिन शेर के करीब जाते हीं अषीष के शरीर में स्वयं श्री हरि विष्णु खडें हो जाते हैं और अपने करीब आ रहे शेर को एक जोरदार पैर मारते हैं जिससे शेर रूपी भैरवनाथ सड़क के दूसरे किनारे का लूढ़क जाते हैं, भैरवनाथ कराहते हुए माँ दुर्गा का नाम लेते है और बैमत से कहते हैं कि उसके शरीर पर शेख था इसलिए ऐसा हुआ है। इधर रात्रि को अषीष दूसरा शर्त पर विचार करते हुए सो जाता है, सो जाने के उपरान्त श्री हरि विष्णु अषीष को स्वप्न दिखाते है कि ‘‘उसके बिस्तर के नीचे एक कुत्ते का बच्चा है जो ‘‘ऊँ शक्ति ऊँ’’ मंत्र का उच्चारण कर रहा है। सुबह उठते हीं अषीष पहले अपने स्वप्न पर विचार करता है जो राजेन्द्र की बैमत और घर की बैमत जान जाती है और अषीष के मन में सवाल खड़ा कर देती है कि इससे क्या होगा। तब श्री हरि विष्णु अषीष को विचार देते हैं कि ‘‘इस युग की नारी को दुर्गा, काली और लक्ष्मी का दर्जा प्राप्त है। अगर ‘‘ऊँ शक्ति ऊँ’’ मंत्र का उच्चारण करते हुए किसी नारी को मार दिया जाए तो यह माता दुर्गा के मारने के समान होगा और इस प्रकार दूसरा शर्त भी पूर्ण हो जाएगा। अषीष इसी संदर्भ में बार-बार विचार कर रहा था कि ये सार्थक होगा अथवा नहीं और इस बात की भनक बैमतों को लग जाती है। वे भैरवनाथ को सारी बाते बता देती है, भैरवनाथ दौड़े-दौड़े आते है और बातों का संज्ञान लेते है। अषीष, रात्रि को आए स्वप्न के बारे में बता देता है, इस पर सारी बैमत कहती है कि यह सब भैरवनाथ का चाल है, ये किसी तरह कुँवरदेवी अषीष को देना चाहते हैं। भैरवनाथ, बैमतों को समझाते हैं कि ये सब शेख की चाल है एवं अषीष को माता दुर्गा के महत्वता को बताते हैं और कहते हैं कि तुम इस तरह से दूसरा शर्त तो पूर्ण कर हीं लोगे लेकिन शर्त पूर्ण किसी बड़े घर की नारी पर करना। इधर इस बात की जानकारी कुँवरदेवी सहित उसके सहेलियों (जो कि कुँवरदेवी हीं थी) हो चुकी थी, कुँवरदेवी को उसकी सहेली यह कह कर चिढ़ाती थी कि ‘‘पता नहीं तुम्हारा मणुष्यदेवा तुम्हे बहन बना कर रखेगा या अपनी कुँवरदेवी’’ और कुँवरदेवी हमेषा की तरह एक ही जबाव देती थी कि अगर मेरा मणुष्यदेवा हमें यहाँ से छुड़ाने में सफल होता है तो हम उसकी बहन बन जाएगें और विफल होता है तो उसे मेरा मणुष्यदेवा बनना पड़ेगा तथा यह बात वह अच्छी तरह जानता है। इसपर उसकी सहेलियों में से एक बोलती है कि ‘‘ऐसा करो पहले तुम ही उसे मणुष्यदेवा बना कर ले आओ’’। इस पर कुँवरदेवी अफसोस करते हुए कहती है कि ‘‘हम भी असली कुँवरदेवी है और जो कह देते है वही करते भी हैं’’।
अषीष, भैरवनाथ की बातों को मानते हुए अपने कार्यस्थल से कार्य समाप्ति के बाद सीधे डाक बंगला स्थित हरिनिवास कॉम्प्लेक्स चला आता है और वहाँ कोई बड़े घर की नारी का इंतजार करता है लेकिन अषीष के नजर में कोई ऐसा नारी प्रतीत नहीं होता है, अंततः अषीष वापस लौट जाता है। अषीष दूसरे दिन भी प्रयत्न करता है और उस दिन वहाँ एक नव विवाहित जोड़ा एक कार से उतरता है और हरि निवास कम्प्लेक्स की ओर जाने लगता है। अषीष उनकी तरफ लपक कर जाता है, तभी आकाष में माता दुर्गा की छाया दिखाई देता है जो हाथ में चन्द्रह्ाष लिए हुए थी और मानों किसी प्रकार की चेतावनी दे रही हो। लेकिन अषीष मन ही मन कहता है ‘‘आज चाहे जो कर लो, तुमको मारे बिना छोड़ेगें नही’’ और आगे बढ़ने लगता है, नव-जोड़ा के करीब जाते हीं अषीष मंत्र का उच्चारण करना शुरू कर देता है और नारी के हाथ पर इस प्रकार मारता है जैसे उसके हाथ पर किसी प्रकार का किड़ा बैठा हो, इसके प्रतिक्रिया में नारी अषीष को घुरते हुए देखती है और अषीष अपना नजर को नीचे किए हुए वापस अपने घर की ओर लौट जाता है।
घर पहूँचने पर अषीष देखता है कि भैरवनाथ के साथ उसकी बहन कुँवरदेवी की छाया भी उपस्थित है। भैरवनाथ अषीष को समझाते हुए कहते हैं कि तुम माता दुर्गा से अपनी बहन को छुड़ा लिये हो लेकिन माता दुर्गा तुमसे नाराज है, तुमको उन्हें मनाना चाहिए। अषीष गुस्सा दिखाते हुए कहता है कि हम उन्हें क्यों मनाने लगे और अगर उन्हें हमारे हाथो मार पड़ी है तो ये उनका ही कर्म है। घर की बैमत भी अषीष को समझायी तो अषीष मान गया और उसी वक्त स्नान करके माता दुर्गा का पुजा-पाठ नौ दीपक प्रज्वलित कर एक भजन गीत गा कर किया:-
4th Edition of Kaal Sagar "Ek Mahakavya"
तिनका - तिनका हुआ रे मेरा नाम,
तू आजा माँ शेरावाली,
मेरे शीष पड़े हैं तेरा काज,
तू आजा माँ शेरावाली,
जय माँ शेरावाली, जय माँ मेहरावाली..........।
उम्मीद भरा है तेरा आष,
तू आजा माँ शेरावाली,
आज तिनका हुआ रे संसार,
तू आजा माँ शेरावाली,
जय माँ शेरावाली, जय माँ मेहरावाली............।
हमेषा सज के रहा तेरा दरबार,
तू आजा माँ शेरावाली,
मुझे तुने ही दिया है संस्कार,
तू आजा माँ शेरावाली,
जय माँ शेरावाली, जय माँ मेहरावाली..............।
तेरे दर पे खड़ा हूँ मैं आज,
तू आजा माँ शेरावाली,
तेरे दर पर पड़ा मेरा लाज,
तू आजा माँ शेरावाली,
जय माँ शेरावाली, जय माँ मेहरावाली...............।
और साथ में अपनी बहन कुँवरदेवी को भी पुजा। तभी कुँवरदेवी अपने हाथ में रखे हुए लक्ष्मी के शक्ति का अंष अषीष को दिखाती है और बोलती है कि आते वक्त माता लक्ष्मी हमको दी थी। अषीष सवालिया नजरो से पुछता है कि इसका हम क्या करेंगे, तब कुँवरदेवी बताती है कि इसकी पूजा करने से घर में धन-सम्पदा बढ़ती है। उसको अषीष उसे अपने पुजा स्थल पर रखवा देता है यह कहते हुए कि माँ पुजा करेगी। उसके बाद अषीष जहाँ भी जाता था वहाँ कुँवरदेवी भी साथ होती थी। अषीष कुवँरदेवी के द्वारा भैरवनाथ को कहलवाया कि अब कुँवरदेवी पर अषीष का अधिकारी एक तिहाई का है यानि 75 प्रतिषत, लेकिन माता काली ने जबाव भिजवाया कि जब तक कुँवरदेवी शरीर पर खेलती नहीं है तब तक कोई हिस्सा-बखेरा नहीं।
इधर राजेन्द्र बौखलाया हुआ था, उसे धिरे-धिरे अपने हाथ से कुँवरदेवी निकलते हुए प्रतीत हो रहा था, उसे ऐसा लग रहा था कि अगर कुँवरदेवी छुट जाती है तो समाज में उसे कितनी बेईज्जती झेलनी पड़ेगी और तो और अपने जान से भी हाथ धोना पडे़गा, और सारे फसाद का ठिकरा राजेन्द्र बैमत पर फोड़ता है। राजेन्द्र की बैमत अपनी समस्या भैरवनाथ को सुनाती है और कोई अच्छा सा सुझाव माँगती है। तब भैरवनाथ अपना अक्ल दौड़ाते हैं और कहते हैं कि अगर बलि का खस्सी लड़के के हाथ से पड़ जाता है तो कोई बात बन सकता है। भैरवनाथ अषीष के पास आते है और बलि की खस्सी की बात करते है जो अषीष बचपन में देना मंजूर किया था। लेकिन अषीष भी अपना अंदाज बदल देता है और कहता है कि हमने खस्सी देने के लिए कहा था जो हम जरूर देंगें लेकिन कब देने को कहा था, पता है। तब भैरवनाथ सोंचते हुए कहते है तुमने ऐसा कुछ नहीं कहा था। तब अषीष कहता है कि उस समय का अधूरा बात को हम पूर्ण करते हुए आज कहते हैं कि बलि का खस्सी कुँवरदेवी को शरीर पर खेलने के बाद देंगे। तब भैरवनाथ घर की बैमत का सहारा लेते है और कहते हैं कि अगर बलि का खस्सी तुम दो शर्त पूर्ण होने पर हीं दिलवा देती हो तो कुँवरदेवी पर जो अधिकार लड़का का है वही अधिकार तुम्हारा होगा लेकिन कुँवरदेवी राजेन्द्र के पास ही रहेगी। घर की बैमत सहमत हो जाती है और अषीष को सुझाव देती है कि तुम किसी तरह घरवालों से छिपा कर घर मंे ही बलि का खस्सी दे दो, इस पर अषीष चौंकते हुए कहता है कि घर पर खस्सी पड़ता है? और वैसे भी खस्सी कटेगा, कोई मच्छर नहीं मारा जाएगा कि घरवालों को पता नहीं चलेगा। तब बैमत कहती हैं कि तुम पुजा स्थल पर खस्सी का कान ही काट दो, काम हो जाएगा। अषीष बात को समझ रहा था और गुस्साते हुए कहता है कि भैरवनाथ से कहना कि कुत्ता का कान चलेगा तो काट देंगे।
भैरवनाथ को इस बात की जानकारी होती है तो बहुत गुस्सा होते है और सोंच लेते है कि किसी प्रकार इस लड़के के हिम्मत का कमर तोड़ना होगा और एक चाल चलते हैं। वे सभी को अषीष के घर पर इकट्ठा होने के लिए कहते है, शेख साहब, घर की बैमत, भैरवनाथ स्वयं, राजेन्द्र की बैमत। सारे के सारे अषीष के घर पर इकट्ठा हो जाते है। भैरवनाथ पहले घर की बैमत को अषीष के समक्ष प्रस्तुत करते है और कहते हैं कि यह बैमत तुमसे पुजा करवायेगी, इस संबंध में तुम क्या कहना चाहते हो? अषीष अपने अतीत को झाँकता है और कहता है कि यह वही बैमत है जो किसी दिन मेरी माँ के मुँह से खुन गिराती थी और उसके कलेजे का खुन चाटती थी, आज इसने कैसे सोंच लिया हम इसकी पुजा करेंगे। अगर इसको हमसे पूजा हीं लेना था तो उस दिन अपने कर्म का रोक सकती थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसलिए हम इसकी पुजा नहीं करेंगे। इस बात पर घर की बैमत अपनी गलती को मानती है और कहती है कि ठीक है हम जा रहे हैं। उसी वक्त घर की बैमत को भैरवनाथ हमेषा के लिए जाने को कह देते हैं।
भैरवनाथ, शेख साहब को आगे करते हुए कहते हैं कि तुम्हारी कुँवरदेवी के सहारे ये दुर्गा-काली से बदला लेना चाहते हैं। इस पर अषीष कुपित होते हुए कहता है कि जो अपने घर को हीं अपना न समझे, उसे न रहने मंे ही भलाई है और अगर शेख साहब मेरी बहन के सहारे काली-दुर्गा से किसी प्रकार का बदला लेना चाहते हैं तो हम उनके साथ हैं। शेख साहब अषीष की बातों को सूनकर बहुत खुष होते है और हँसते हुए कहते हैं कि हम सदैव इस बच्चे के साथ हैं। अब भैरवनाथ स्वयं को अषीष के समक्ष खड़ा करते है और कहते हैं कि अब हम तुम्हारा साथ नहीं दे सकते हैं, इस पर अषीष भैरवनाथ को याद दिलाते हुए कहता है कि आपने तो कहा था कि हमने साथ दिया। भैरवनाथ होषियारी दिखाते हुए कहते है कि हमने ‘‘दिया का मतलब ‘‘दीपक’’ कहा था। अषीष अपने आपको भैरवनाथ के समक्ष ठगा सा महसूस कर रहा था, फिर भी वह भैरवनाथ को जाने के लिए कह दिया और राजेन्द्र की बैमत तो विरोधी हीं थी इसलिए भैरवनाथ ने उनलोगों के बारे में कुछ नहीं कहा। अषीष इस लड़ाई में खुद को अकेला महसुस कर रहा था लेकिन उसे शेख साहब का सहारा दिख रहा था। लेकिन भैरवनाथ के नजर में इतना करना भी पर्याप्त नहीं था और वह किसी तरह शेख को अषीष से अलग करना चाहते थे। शायद इसलिए भैरवनाथ हमेषा शेख से विनम्रता से बात करने लगे और एक दिन अषीष के घर पर भैरवनाथ संग शेख का आगमन होता है। आते ही भैरवनाथ भगवान षिव पर विवाद खड़ा कर देते है और अषीष की तरफ इषारा करते हुए कहते हैं कि आज यह बच्चा है लेकिन आने वाले समय में यह बालक षिवजी को छुड़ाने में जरूर सफल होगा। शेख साहब भैरवनाथ और त्रिदेवियों संग माता काली के चतुराई से अच्छी तरह परिचित थे इसलिए अषीष पर उन्हें संदेह हो जाता है और अषीष से पूछ बैठते हैं कि भविष्य में तुम षिवजी को वापस लाने का कार्य सिद्ध करोगे। अषीष विचार करते हुए कहता है कि हमारे पास अगर शक्ति हो तो हम अभी के अभी षिवजी को वापस ले आऐंगे। भैरवनाथ हँसकर बोले कि मान लो तुम्हारे नेत्र में कुछ शक्तियाँ है जो मक्का की दुर्गति कर सकती है तो तुम क्या करोगे। तब अषीष बोलता है कि हम अभी के अभी मक्का-मदीना को जला कर राख कर देते हैं। शेख साहब अषीष की बात को गौर से सुनते हैं और हँसते हुए कहते हैं कि तुम अभी बच्चे हो। अगर कभी इच्छा हो षिवजी से मिलने की, तो मक्का आ जाना हम वहाँ तुम्हारा इंतजार करेंगे और शेख साहब वापस लौट जाते हैं।
एक दिन कि बात है घर की बैमत,अषीष के घर पर उसकी अपनी दो फुआ जो कि एक बैमत हीं थी, के साथ आती है और कुँवरदेवी की पहचान कराते हुए कहती है कि यही तुम्हारी भतीजी है। लेकिन कुँवरदेवी घर की बैमत के अलावा किसी को नहीं पहचानती है। वह अषीष को उनदोनों की छाया दिखाते हुए पूछती है कि आप इनदोनों को पहचानते हैं, इसपर अषीष ‘‘ना’’ मंे जबाव देता है। उसके बाद कुँवरदेवी सभी को घर से बाहर धकेलते हुए कहती है कि तुमलोग इस खेल में शामिल नहीं हो इसलिए घर से बाहर रहो। घर की बैमत कुँवरदेवी को समझाते हुए कहती है कि अपने भाई से पूछ लो उसका क्या जबाव है। इस पर कुँवरदेवी, अषीष पूछती है कि दो बैमत है जो अपने को हमारी फुआ बता रही है, आप उसको खेल में शामिल किजिएगा। इस पर अषीष झुँझलाते हुए ‘‘ना’’ में जबाव देता है। तभी घर की बैमत एक और करिष्मा करती है, वह अषीष के बड़े चाचा (जो कि एक किच्चक थे और बैमत के संगती में तुरैता हो चुके थे) जो युवा अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त किये थे उसको अषीष के सामने खड़ी कर देती है। चुँकि इससे पहले अषीष इस चेहरे को देख चुका था (इससे पहले ‘‘पेड़ के नीचे किसी ने उसे बुलाया है’’ कहने वाले शेख इन्ही का रूप बनाये थे) लेकिन संबंध स्थापित नहीं कर पाता है, अंततः अषीष ‘‘ना’’ में जबाव देते हुए कहता है कि हम इनको नहीं पहचानते हैं। इस पर अषीष के चाचाजी अपना अक्ल लगाते हुए कहते हैं कि हम तुम्हारे पिताजी को देखेंगे और तभी बतायेगें कि यह घर हमारा है कि नहीं। जब अषीष के चाचाजी, अपने छोटे भाई को देखते हैं तो उनका नाम लेकर रोने लगते हैं, अषीष भी मायुस हो जाता है और अपनी बहन कुँवरदेवी की तरफ देखता है। कुँवरदेवी कहती है कि मेरा मणुष्यदेवा किसी को नहीं पहचान रहा है, इसलिए तुम सब घर के बाहर चले जाओ और यह कहते हुए घर के चारो तरफ अपने नाखून से एक लकीर खिंच देती है। तभी राजेन्द्र की बैमत अषीष की घर पर आती है और उसके घर पर भीड़ देखकर पुछती है कि ये सब कौन है? इस पर घर की बैमत अषीष के चाचा को बताते हुए कहती है कि यही तुम्हारे बेटी को मारी है और इस पर चाचा बैमत से उलझ जाते हैं लेकिन राजेन्द्र की बैमत अपने सिद्धि की ताकत दिखाती है और उसके चाचा की बुरी हालत हो जाती है। तब कुँवरदेवी चाचा को समझाते हुए कहती है कि क्यों अपना दूर्गति करवा रहे हैं चले जाइए यहाँ से। तब अषीष के चाचाजी कुँवरदेवी को आर्षिवाद देते हुए कहते हैं कि हम आस-पास में ही रहेंगे और घर की बैमत और अषीष की दोनो फुआ राजेन्द्र की बैमत की ताकत को देखकर वापस चली जाती है।
एक बार अषीष अपने घर पर अकेला था, साथ में उसकी बहन कुँवरदेवी भी थी अषीष अपने अतीत में खोया रहता है तभी वह कुँवरदेवी से पूछता है कि आखिर तुमलोग पुजा क्यों खोजती हो? इस पर कुँवरदेवी कहती है कि हमलोगों का भी समाज है, अगर किसी कि पुजा होती है तो समाज में उसका बड़ा नाम और इज्जत होता है। तब तो तुम भी हमसे पुजा खोजेगी, अषीष पूछता है। कुँवरदेवी शर्माते हुए नजर नीचे कर लेती है और ‘‘नहीं’’ में जबाव देती है। कुँवरदेवी का ष्षर्माना देखकर अषीष को बहुत गुस्सा आता है और वह कुँवरदेवी से पूछ बैठता है कि ‘‘तुम शर्माती क्यों हो?’’ इस पर कुँवरदेवी अपना मुँह लटकाते हुए कहती है कि ‘‘भला, मणुष्देवा कभी कुँवरदेवी को पूजता है? इस पर अषीष सवाल करता है कि ‘‘कौन मणुष्यदेवा’’? कुँवरदेवी अषीष के तरफ इषार कर देती है। अषीष गुस्सा दिखाते हुए कहता है कि अगर तुम जीवन मंे होती तो तुमको पीटकर सुई के तरह सीधा कर देतें। उसके बाद अषीष आगे पूछता है कि कुँवरदेवी की पुजा किस प्रकार की जाती है। कुँवरदेवी नजर उठाते हुए जबाव देती है कि ‘‘देवी मंदिर में या घर पर मंगलवार के दिन देवियों के नाम से पहले सिंदुर का सात तिलक दिया जाता है उसके बाद उसके नीचे जितनी कुँवरदेवियाँ है, सिंदुर का उतनी तिलक दिया जाता है, घी का दीया जलाकर उड़हुल के फुल, धूप, अगरबत्ती और मिठाई का भोग लगाया जाता है। अषीष आगे पूछता है कि बैमत की पूजा कैसे की जाती है? कुँवरदेवी चौंकते हुए जबाव देती है कि ‘‘किसी जगह पर शनिवार के दिन पहले काजल का एक तिलक दिया जाता है उसपर सिंदुर का तिलक दिया जाता है उसके बाद घी का दीया जलाकर उड़हुल के फुल, अगरबत्ती, मिठाई से भोग लगाया जाता है, कुँवरदेवी इस पर सवाल करती है कि आप ये सब जान कर क्या किजीएगा? तब अषीष जबाव देता है कि हम या हमारे परिवार वाले अभी तक बहुत भगत का चक्कर काट चुके है और हम चाहते हैं कि इस दौरान हमसे कोई भूत-बैमत की पुजा न करवाये, कुछ सोंचकर अषीष, कुँवरदेवी से पूछता है कि किसी के घर में कुलदेवी और कुलदेवता कैसे तैयार होता है? इस बात पर कुँवरदेवी हँसते हुए कहती है कि ‘‘ये बात आप भैरवभाई से पूछिएगा’’ और कुँवरदेवी भैरवनाथ को बुलाकर ले आती है, तब अषीष भैरवनाथ के समक्ष अपना प्रष्न दुहराता है, तब भैरवनाथ हँसते हुए विस्तार से बताते हैं कि अगर तुमको कुँवरदेवी अपने साथ मणुष्यदेवा बनाकर ले जाती है और ऐसी अवस्था में जोड़ा लग जाएगा तब तुम दोनों अपने घर-खानदान का कुलदेवी-कुलदेवता बन जाओगे और अगर तुम कुँवरदेवी छुड़ा लेते हो और अपनी मृत्युपरान्त तुम कुँवरदेवी के साथ आओगे तब भी कुलदेवी-कुलदेवता बनोगे। अषीष भैरवनाथ से फिर एक सवाल करता है कि अगर कुँवरदेवी हमको मणुष्यदेवा बनाकर ले जाती है तब हम किसके अधीन कुलदेवी-कुलदेवता बनेंगें? राजेन्द्र के अधीन, भैरवनाथ जबाव देते हैं। इस पर अषीष विचार करते हुए कहता है कि ‘‘तब तो वह हमारे घर में कुछ भी नहीं देगा’’। इस पर भैरवनाथ अषीष को समझाते हुए बोलते हैं कि ज्यादा मत सोंचों क्यों कि काली माता राजेन्द्र को सूचित कर चुकी है कि यह खेल कुलदेवी-कुलदेवता का नहीं है और तुम सुरक्षित हो। फिर अषीष हँसते हुए कुँवरदेवी से कहता है कि अगर काजल का तिलक हम तुमको दें दे तब? कुँवरदेवी चिढ़ते हुए कहती है कि अगर काजल का तिलक हमको दिजिएगा तब सब हमको देखकर हँसेंगें। अगर तुम चाहती हो कि सब तुमको देखकर न हँसे तो ‘‘आज से हमको अपना मणुष्यदेवा कहना अथवा समझना बंद करो’’ अषीष कुँवरदेवी को समझाते हुए कहता है, इस पर कुँवरदेवी गुस्से से कहती है कि ‘‘हम आपके सामने आएगें हीं नही’’ और चली जाती है। भैरवनाथ अषीष की बातों को सून लेते है और अषीष को डाँटते हुए कहते हैं कि ‘‘यही करना, एकदम नाषवान लड़का है’’। इधर अषीष बाजार से एक काजल का डब्बा खरीद कर लाता है और हमेषा अपने पॉकेट में रखता है, राजेन्द्र की बैमत द्वारा पूछे जाने पर की काजल का डब्बा क्यों लाये हो? अषीष उपरोक्त बातें बैमत को समझा देता है जिससे बैमत कुँवरदेवी पर खुब हँसती है और कुँवरदेवी कल्पना मात्र से रो देती है, फिर भी कुछ भी हो, अषीष द्वारा सफर के दौरान कुँवरदेवी हमेषा अषीष के साईकिल के आगे ही चलती थी लेकिन अषीष को अपना चेहरा नहीं दिखाती थी।
एक समय की बात है, राजेन्द्र (तांत्रिक) अषीष को पकड़ने के लिए पशुपति सिन्हा के घर के पुजा स्थल पर एक काला कलष रख दिया जिसमें जिसमें सिद्धि थी और अपनी बैमत से बोला कि किसी तरह वह लड़का यह कलष छु ले तो उसे कुँवरदेवी प्राप्त हो सकती है। इधर कुँवरदेवी अषीष से इस बात को अवगत कराते हुए राजेन्द्र के षड्यंत्र के बारे में बताया। इस पर अषीष बोला कि हम ‘‘वहाँ क्यों जाएँगें? समय बितता गया, एक बार अषीष के पिताजी दोपहर के खाना खाने घर पर नहीं आते हैं। अषीष की माँ ने अषीष को कहा कि दुकान पर जाकर उन्हें खाने के लिए कह आओ, और वहाँ नहीं हुए तो पशुपति सिन्हा के घर देख लेना। अषीष सफेद पोषाक पहन कर, अपने मुँह में पान रख लिया और पहले पशुपति सिन्हा के घर पहूँचा। राजेन्द्र की बैमत अषीष को देखकर स्तब्ध हो गयी, क्योंकि उसे इस स्वरूप में शेख साहब नजर आते थे। अषीष पशुपति सिन्हा के पत्नी से अपने पिता जी के बारे में पुछा, तब उन्होनंे ‘‘नहीं’’ कह दिया और अषीष को अंदर आने के लिए कहा। अषीष बेझीझक घर में चला गया और कुर्सी पर बैठ गया, उनलोगों ने उससे खाने के लिए पुछा, चुँकि मुँह में पान था इसलिए अषीष ने सिर्फ चाय के लिए कहा और अषीष अपना मुँह साफ कर चाय पी लेता है। लौटते वक्त अषीष की नजर पुजा स्थल पर जाता है जो कि रास्ते में ही पड़ता था। अषीष वहाँ रखे कलष को एक नजर देखता है और घर से निकल जाता है। तब तक अषीष के पिताजी स्वयं अपने घर पहूँच जाते हैं। इधर कुँवरदेवी अषीष से कलष पर विस्तृत चर्चा करती है जिसको सूनकर अषीष, राजेन्द्र (तांत्रिक) को बेवकूफ बताता है।
समय बितता गया, हकिम और भगत के चक्कर काटते-काटते अषीष और उसके परिवार हिम्मत हार जाते है लेकिन कुँवरदेवी नहीं खेलती है और ना हीं अषीष पूरी तरह स्वस्थ्य हो पाता है।चुँकि शेख इस दौरान एक बार भी अषीष के माँ पर नहीं खेलते हैं इसलिए उसकी माँ भी शेख की पूजा करना छोड़ देती है। लेकिन अषीष जो सारी कहानी को जानता था इसलिए पटना हाईकोर्ट के दरगाह के बाहर एक कोने में हर शुक्रवार को शेख की पूजा करता था। इससे शेख बहुत खुष होते है और हमेषा अषीष की सहायता के लिए तत्पर रहतें हैं। अब अषीष तीसरा शर्त यानि कुँवरदेवी का जोड़ा लगाने के संबंध मंे सोंचता है और वह ये भी सोंचता है कि किस तरह जोड़ा लगाया जाए ताकि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। तब स्वयं श्री हरि विष्णु शेख के स्वर में अषीष को समझाते हुए कहते हैं कि तुम जोड़ा तीन तरह से लगा सकते हो, पहला तरीका, कुँवरदेवी के साथ स्वयं को खड़ा कर दो। दूसरा तरीका, कुँवरदेवी के साथ किसी दूसरी लड़की को कुँवरदेवी बना कर खड़ा कर दो और तीसरा तरीका कुँवरदेवी के साथ किसी दूसरे लड़के को मणुष्यदेवा बनाकर खड़ा कर दो। लेकिन अषीष इन सब योजनाओं को पूर्ण करने में असमर्थता प्रकट कर देता है और कहता है कि ये हमसे नहीं होगा। अगर कोई और रास्ता हो तो बताएँ, तब शेख के स्वर में वार्ता कर रहे श्री हरि विष्णु ने अषीष को अतीत में ले जाते हैं और कहते हैं कि ध्यान दो जब तुम्हारी बहन कुँवरदेवी बनी होगी और शर्त रखने के क्रम में बैमत, त्रिदेवियों से किस प्रकार बोली होगी कि ‘‘इसका जोड़ा लगा देना’’, अषीष अपने दिमाग पर जोर देते हुए कल्पना करता है और कहता है कि ‘‘सीधी बात तो यही हुआ होगा कि बैमत, कुँवरदेवी के शरीर को छू कर ही बोली होगी कि ‘‘इसका जोड़ा लगा देना’’, और उस समय कुँवरदेवी के शरीर पर क्या होगा? श्री हरि विष्णु ने सवाल किया। उस समय तो उसके शरीर पर कपड़ा ही होगा जो उसके शरीर को जमीन में गाड़ते समय हमारे घर से मिला था। अषीष सारी बातों को समझते हुए स्वयं से कहता है कि ‘‘हमे कपड़ा का जोड़ा लगा देना चाहिए’’। वह शेख साहब को धन्यवाद देते हुए खुषी-खुषी कहता है कि कल मंगलवार है और उसी दिन हम कपड़ा का जोड़ा लगा देंगे। अषीष अपनी माँ से कपड़ा माँगता है जो अषीष स्वयं अपनी ममेरी बहन के लिए खरीदा था। माँ आष्चर्य से पूछती है कि तुम कपड़ा क्या करोगे? तब अषीष चतुराईपूर्वक कहता है कि एक मन्नत था जो पूर्ण हो गयी है, देवी मंदिर चढ़ाना है। अषीष की माँ एक कपड़ा निकाल कर अषीष को ये कहते हुए देती है कि दो कपड़ा और मेरे पास रह गया। सुबह करीब 7.30 बजे स्नान करके अषीष अनीसाबाद, बाईपास मोड़ पर स्थित काली मंदिर पहूँच जाता है और वहीं से अगरबती, फुल आदि खरीद कर कपड़ा का जोड़ा लगा देता है और शाम को अषीष देखता है कि कुँवरदेवी उसी मंदिर के द्वारा पर चढ़ाया हुआ कपड़ा ओढ़े खड़ी है, अषीष को महसुस हुआ कि त्रिदेवियाँ इस प्रकार से कपड़े का जोड़ा स्वीकार कर ली हैं और हुआ भी यही था लेकिन भैरवनाथ अपने जिद पर थें कि वे इस प्रकार के कपड़े का जोड़ा लगाना स्वीकार नहीं करते हैं और तो और अषीष के मृत्यु का आदेष जारी कर दिये। हुआ ये कि कपड़े का जोड़ा लगाने के बाद राजेन्द्र और राजेन्द्र की बैमत कुछ ज्यादा हीं परेषान दिख रहे थे और किसी प्रकार कुँवरदेवी को अपने अधिकार में लेना चाहते थे लेकिन भैरवनाथ जो स्वयं शेख साहब के दबाव में थे, अषीष का कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे। फिर भी भैरवनाथ राजेन्द्र की बैमत से मिलकर बोले कि तुम माता काली के अर्षीवाद का उपयोग करो और अपने असली चेहरा उस लडके को दिखा दो उसके बाद वह लड़का मृत्यु को प्राप्त कर जाएगा और तुम्हें कुँवरदेवी संग मणुष्यदेवा भी मिल जाएगी। राजेन्द्र की बैमत ऐसा ही करती है। अषीष अपने घर में टीवी देख रहा होता है तभी टीवी के सामने बैमत अपनी डरवाना चेहरा का छाया प्रकट करती है। पहले तो अषीष डर जाता है, लेकिन कुछ पल बाद अषीष खुद को संभालते हुए अपनी आँखे बैमत के डरावनी आँखों में डाल देता है। इतने में परिवार के सदस्य भी उस कमरे में आ जाते है और बैमत, अषीष के सामने से हट जाती है। तभी शेख साहब का आगमन होता है और बैमत की हरकतों को देखकर उसे दो थप्पड़ जड़ देते हैं। उसके बाद शेख साहब अषीष का हाल-समाचार लेते हैं, अषीष भी अपना समाचार बताता है और शर्त रखते समय की स्थिति से परिचित करते हुए कपड़े की जोड़ा वाला बात कह देता है। शेख साहब बहुत खुष होते है और माता दुर्गा-काली से बहस करने चले जाते हैं। इधर राजेन्द्र की बैमत, भैरवनाथ से मिलती है और उस समय कि स्थिति से अवगत कराती है। बैमत कहती है कि लड़का तो डरा भी नहीं और तो और उल्टे हमें ही घुरने लगा। भैरवनाथ कुछ सोंचते हुए कहते है कि उसे लड़का नहीं मणुष्यदेवा कहो जिसे हमने हीं बचपन में तैयार किया था अगर वह लड़का होता तो तुम्हारा चेहरा देखते हीं मृत्यु के गोद में चला जाता। इधर श्री हरि विष्णु, शेख साहब का विचार बदल देते हैं और शेख साहब ‘‘मक्का’’ की ओर चले जाते हैं। श्री हरि विष्णु स्वयं शेख साहब का स्वरूप बना कर काली आवास पहूँच जाते हैं और कपड़े की जोड़ा वाला बात त्रिदेवियों को समझाते हैं इस पर माता काली भैरवनाथ की ओर इषार करते हुए कहती है कि इन सब बातों का हिसाब-किताब वही रखता है, उसी से जाकर बात करें। शेख रूपी श्री हरि विष्णु, भैरवनाथ को शर्त वाली बातों को दुहराते हुए अतीत में ले जाते हैं, इसपर भैरवनाथ शेख रूपी श्री हरि विष्णु को गरजते हुए बोलते हैं कि आप ही बड़े ज्ञानी है? इस बात पर शेख रूपी श्री हरि विष्णु को गुस्सा आ जाता है और शेख साहब की भाँति कोड़ा प्रकट करके भैरवनाथ को पीटना प्रारंभ कर देते हैं और करीब 20 मिनट तक भैरवनाथ की अच्छी पिटाई करतें हैं। त्रिदेवियाँ मौखिक रूप से शेख रूपी श्री हरि विष्णु का हस्तक्षेप कर रही थी लेकिन उनका हाथ रूक ही नहीं रहा था। तब माता दुर्गा को नही रहा गया और वे अपना त्रिषुल शेख रूपी श्री हरि विष्णु पर छोड़ दिया। श्री हरि विष्णु ने माता दुर्गा के शक्ति का मान रखते हुए त्रिषुल के प्रहार को अपने शरीर पर धारण किया और कंदराओं के दिवार से चिपक गए। इधर माता सरस्वती जो दिनभर में एक बार श्री हरि विष्णु का दर्षन जरूर करती थी, शेषनाग के आसन को खाली पातीं है, माता सरस्वती से नहीं रहा जाता है और वे आत्मा में कर रहे निवास शेषनाग जी से पूछ बैठती है कि स्वयं श्री हरि विष्णु कहाँ हैं। इस पर श्री हरि विष्णु अपने चतुर्भूज रूप को छाया में प्रकट करते हुए कहते है कि हम यहाँ है मातें। माता सरस्वती आष्चर्यचकित हो जाती है और अफसोंस करते हुए कहती है कि अब तो तीन-चार दिन आपको इसी अवस्था में रहना होगा। चुँकि ब्रहा्राजी द्वारा माता सरस्वती को आदेष था कि मौन रह कर श्री हरि विष्णु की लीला देखें, इसलिए वे मौन ही रहीं। अंततः चार दिनों के बाद माता दुर्गा स्वयं भैरवनाथ को शेख रूपी श्री हरि विष्णु के शरीर से त्रिषुल निकालने को कहती हैं। त्रिषुल निकलते ही शेख रूपी श्री हरि विष्णु जख्मी हालत में जाने लगते है तभी माता दुर्गा, शेख रूपी श्री हरि विष्णु को समझाते हुए कहती है कि अपनी इस दुर्दषा का कारण तुम स्वयं हो, आज के बाद भैरवनाथ पर नजर मत डालना। श्री हरि विष्णु स्वस्थ्य रूप में वापस अपने शेषनाग के आसन पर विश्राम करने चले जाते हैं। तभी काली आवास मंे शेख साहब का आगमन होता है, शेख साहब को देखकर माता दुर्गा अष्चर्यचकित हो जातीं है और माता काली की ओर देखती हैं। भैरवनाथ, शेख साहब को देखकर सहम जाते है क्यों कि उन्हें अपनी पीटाई याद आ जाती है। माता काली शेख साहब को इज्जत देते हुए बोलती है कि ‘‘षेख, आप यहाँ?’’ शेख साहब गंभीरतापूर्वक अषीष द्वारा तीसरे शर्त की पूर्ण होने की बात करते हैं। इस पर माता काली भैरवनाथ से पूछती है कि ‘‘भैरव, इस पर तुम्हारी क्या राय है’’? भैरवनाथ, शेख साहब की स्वास्थ्यता पर ध्यान देते हुए हल्के स्वर में कहते हैं कि अतीत की बात हमें याद नहीं है, चुँकि कुँवरदेवी का जोड़ा एक कुँवरदेवी से लगाना है तो यही होना चाहिए। शेख साहब के गुस्से को देखकर भैरवनाथ सहम जाते है और एक तरफ हट जाते हैं। शेख साहब, दुर्गा-काली को माँ-बहन करते हुए कहते है कि तुमलोग एक बच्चे के साथ खेल कर रही हो, किस हक से तुमलोग इनकी खूदा हो, तुम्हारी इस हरकत से तो शैतान को भी लज्जा आएगी। इस पर माता काली जबाव देते हुए कहती है कि ‘‘तुम भी एक खुदा हो, जो भोली-भाली कुँवरदेवियों को उठा कर अपनी ऐय्यासी का साधन बनाते हो, अगर वह लड़का तुम्हारी नियत को जान जाए तब वह कुँवरदेवी छुड़ाने के बदले मरना पसंद करेगा। ‘‘जो कुछ कहो काली लेकिन तेरे आवास की एक कुँवरदेवी तो मेरे हाथ लग ही गयी, अब उस कुँवरदेवी को अपने परिवार वाले के शरीर पर खेलने दो’’, षेख साहब बोलते हैं। माता काली गुस्से से चिलाते हुए बोलती है कि कुँवरदेवी जरूर खेलेगी, लेकिन तेरे लाष पर। माता काली के इस बात को सुनकर शेख साहब कुँवरदेवी का हाथ पकड़ते हैं और सीधे अषीष के घर पर पहूँच जाते हैं जहाँ अषीष सो रहा होता है। रात के करीब 12.30 बजे अषीष रोते हुए जागता है जिसको सुनकर परिवार के लोग एकत्रित हो जाते है और अषीष को चुप कराते हैं, इतने में भैरवनाथ आते है और अषीष के शरीर पर से कुँवरदेवी को खींच लेते हैं, तब शेख साहब स्वयं दुर्गा-काली को माँ-बहन करते हुए खेलते है और कहते है कि दुर्गा-काली कुँवरदेवी नहीं छोड़ रही है, लेकिन अपना नाम नहीं बताते हैं। इधर भैरवनाथ शेख साहब को अगाह करते है कि कुँवरदेवी जब मूँह खोलेगी न तब यहाँ खड़े सारे लोग मृत्यु की गोद मे समा जाऐंगे, क्यों कि राजेन्द्र कुँवरदेवी के सिर में सिद्धी डाल रखा है, शेख साहब को सबकुछ अपने हाथ से छुटता नजर आता है और यह कहते हुए चले जाते है कि हम तुमलोग से बाद में निपटेंगे। जब सबकुछ ठीक हो जाता है तब अषीष को होष आता है और देखता है कि घर में सब जागे हुए हैं, अपने मन में ही पूछता है ‘‘क्या हुआ था’’ और दुर्गा-काली को माँ-बहन कौन कर रहा था, तब श्री हरि विष्णु स्वयं जबाव देते है कि अभी ‘‘षेख’’ खेल रहा था, वैसे भी दुर्गा माता को कौन गाली दे सकता है। इधर राजेन्द्र की बैमत, राजेन्द्र को सारी बातों से अवगत करा देती है जिससे राजेन्द्र का खून सूख जाता है, तब वह भैरवनाथ से कहता है कि हम आपको पचास खस्सी की बलि देंगे लेकिन वह कुँवरदेवी हमको चाहिए। इसपर भैरवनाथ, राजेन्द्र से कहते है कि कुँवरदेवी तुमको माता काली या दुर्गा ही दिलवा सकती है क्यों की सारी शर्तों की पूर्ति हो चुका है। कुँवरदेवी को एक ही बात रोक रही है कि तुम उसके सिर में सिद्धि डाल कर रखे हो, नहीं तो अब तक कुँवरदेवी खेल जाती। इधर अषीष की सोंच शुरू से ही यही रही थी कि शर्त पूर्ण हो अथवा न हो, कुँवरदेवी छुटे अथवा न छुटे लेकिन भूत-प्रेत का जो भी खेल भूत में हुआ था या भविष्य में हो सकता था वह खेल अषीष तक हीं समिति रहे क्यों कि अगर अषीष अपना परिवार बनाता है तो फिर वह खेल शुरू हो सकता है जो उसकी माँ के साथ हुआ था और शायद इसीलिए वह भविष्य में विवाह न करने की ठान रखी थी।
एक बार अषीष बाजार से गुजर रहा था, रास्ते में एक दुकान देखा जहाँ देवी-देवताओं की तस्वीर बिक रहा था, कुँवरदेवी भी साईकिल पर हीं पीछे बैठी हुई थी, अषीष दुकान के पास साईकिल को रोक कर रामकृष्ण परहंस की एक तस्वीर उठा लिया और बहन से पूछा कि इस तस्वीर की क्या कहानी है? कुँवरदेवी इतराते हुए बोली कि ये जो पुरूष है न वो काली माता के मणुष्यदेवा है, इनकी बहन को भी कोई भगत तांत्रिक बनने के लिए मार दिया था और हमलोग के तरह ही जोड़ा लग गया था। अफसोस करते हुए कहती है कि बेचारे को उनकी कुँवरदेवी के कहने पर काली माता कुँवरदेवी छुटने के तीन महिने में हीं मार कर ले आयी। अषीष कुछ डरते हुए कहता है कि उनकी कुँवरदेवी, उनकी बहन नहीं थी? इस पर अषीष की कुँवरदेवी अपना मुँह बनाते हुए कहती है कि उनके साथ शेख साहब नहीं थे और अषीष अपने बारे में सोंचते हुए मन ही मन कहता है हमें तो कुँवरदेवी छुड़ाये करीब 6 साल हो गये। आगे अषीष कहता है कि ‘‘हमने तो सुना हैं कि ये काली माता के परम् भक्त थे और 90-95 वर्ष की अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुए थे? कुँवरदेवी षिकायत भरे शब्दों में कहती है कि ये सब भैरवभाई अफवाह फैंलाये है और सारी दुनिया यही जानती है जो आप कह रहे हैं। ‘‘तब तो ये काली आवास मंे अभी भी होंगे’’ अषीष पूछता, कुँवरदेवी ‘‘हाँ’’ का जबाव देते हुए कहती है ‘‘बहुत बुढे़ हो चुके हैं’’। अषीष को उनकी हालत पर बहुत दया आती है। कुँवरदेवी हँसते हुए कहती है कि हमलोगों कि भी एक तस्वीर बनेगी जिसमें काली माता के जगह लक्ष्मी माता होगी, इस पर अषीष विचार करते हुए कहता है कि तेरी दुर्गा माता और लक्ष्मी माता हमारे घर पर आएगी तभी ऐसा तस्वीर बनेगा क्योंकि हम तो जाने से रहें, कुँवरदेवी अपने बात पर जोर देते हुए कहती है कि अपकी मृत्यु के बाद हीं बने लेकिन बनेगा जरूर। इधर भैरवभाई चुपके से कुँवरदेवी और अषीष की बाते सून रहे थे और अषीष पर क्रोधित होते हुए बोले कि तुम दुर्गा-काली को धरती पर लाओगे? अरे, मेरी त्रिषुल की गर्मी तो ये धरती सहन हीं नहीं कर सकती, दुर्गा-काली को क्या सहन करेगी, उससे पहले हीं धरती फट जाएगी। अषीष अपनी साईकिल से उतरते हुए भैरवनाथ पर मन ही मन गरजते हुए बोला; भैरवनाथ, जितनी गर्मी आपके त्रिषुल में हैं न उतनी गर्मी मेरे सिर में भी है, मेरा सिर तो नहीं फटा फिर ये धरती कैसे फट जाएगी और रही बात दुर्गा-काली को धरती पर लाने की, उस समय हम भी होंगे और आप भी, आपकी दुर्गा-काली भी। भैरवनाथ अषीष की बातों को सुनकर मजाकिया शब्दों में कहते है कि तुम और तुम्हारी कुँवरदेवी, दोनों हमारे लिए प्रतिष्ठा के द्योतक हो इसलिए हम तुम्हारी बातो को सहन कर रहे हैं।
Final Edition of Kaal Sagar "Ek Mahakavya"
(पंचम-चरण)
समय गुजरता जा रहा था, अषीष को वह मकान खाली करना पड़ा जहाँ वह रहता था। इसके बाद वह श्रीकृष्ण विहार कॉलोनी, बेऊर चला गया लेकिन किसी वजह से तीन महिने के बाद उस मकान को भी खाली करना पड़ा और अषीष के परिवार वाले साईंचक भट्ठा, बेउर मंे किराया पर मकान लेकर रहने लगे। चुँकि बीच-बीच में अषीष की तबियत भी खराब होती रहती थी इसलिए वैद्य का चक्कर लगा हुआ था। अब समय आ चुका था कि अषीष की भाईयों की शादी हो इसलिए लड़की वालों का आना शुरू हो गया था। बड़े भाई के शादी के दौरान कुँवरदेवी और राजेन्द्र की बैमत खुब खान-पान किया। लेकिन राजेन्द्र की बैमत को खस्सी पड़ने का इंतजार था इस पर अषीष कह दिया हमारे यहाँ का ऐसा रिवाज नहीं है और शादी पूर्ण हो जाता है और इधर तबियत खराब होने के बावजूद अषीष का ट्युषन पढ़ाने का सिलसिला जारी रहता है।
इधर श्री हरि विष्णु, भगवान षिव से संम्पर्क करके कहते है कि अब हम अषीष को अपना परिचय दे सकते हैं? इस पर षिवजी कहते हैं कि अगर अषीष शत् प्रतिषत कुँवरदेवी अपने अधिकार में समझता है तो आप अपना परिचय अषीष को दे सकते हैं। ट्युषन पढ़ाकर आने के दौरान रास्ते में श्री हरि विष्णु कुँवरदेवी खेलाने की बात छेड़ देते हैं। अषीष साईकिल चलाते हुए कहता है कि दो शर्त पूर्ण होने के बाद कुँवरदेवी 75 प्रतिषत मेरे हिस्से मे आ गयी थी लेकिन कपड़े का जोड़ा को उनलोगों ने मान्यता नहीं दी। इस पर श्री हरि विष्णु अषीष से पूछते है कि अगर कपड़े के जोड़े को मान्यता दे दे तो? इस पर अषीष खुष होते हुए कहता है कि ‘‘इस प्रकार कुँवरदेवी शत् प्रतिषत मेरे हिस्से में आना ही चाहिए, उधर षिवजी सारी बातों को सुन रहे थे लेकिन ब्रहा्राजी कहने लगे कि इसे अभी अच्छी तरह से पता नहीं है। इस पर श्री हरि विष्णु कहते है कि इस लड़के को कौन बतायेगा?, ऐसा करें कुँवरदेवी को खेलने दें, वह समझ जाएगा कि उसने कुँवरदेवी को शत् प्रतिषत प्राप्त कर लिया। ब्रहा्राजी बात से सहमत नहीं हुए और षिवजी की तरफ को देखने लगे और षिवजी ने श्री हरि विष्णु को कह दिया कि तुम अषीष से बात करके अपना परिचय दे सकते हो।
अषीष ट्युषन पढ़ाकर घर आता है और हमेषा की तरह अपना कपड़ा बदलता है और बिस्तर पर लेट जाता है। बगल में कुँवरदेवी छाया में खड़ी रहती है, तभी श्री हरि विष्णु की छाया प्रकट होती है। वैसे इस छाया को कुँवरदेवी भी देखती है लेकिन अषीष द्वारा पूछे जाने पर की ऐसा छाया कौन प्रकट कर रहा है, तब कुँवरदेवी कहती है कि यहाँ तो अभी कोई नहीं है। चुँकि अषीष से श्री हरि विष्णु हमेषा कभी ‘‘शेख’’ बनकर तो कभी ‘‘भैरवनाथ’’ बनकर बात किया करते थे उसी प्रकार बात करके अपना परिचय दिये। अषीष को विष्वास नहीं होता है और वह फिर कुँवरदेवी से पूछता है कि ‘‘कौन बैमत यहाँ है?’’। तब श्री हरि विष्णु स्वयं कहते हैं कि यहाँ बैमत नहीं है, हम स्वयं श्री हरि विष्णु तुम्हारे अंदर से बात कर रहे हैं। अषीष को विष्वास नहीं होता है और फिर भी श्री हरि विष्णु से कहता है कि ‘‘हमारे कुछ सवालों के जबाव दें देगें तो हम मान लेंगे की स्वयं श्री हरि विष्णु हैं’’। अषीष कहता है कि ‘‘युगों का ज्ञान तो भूत-प्रेत अथवा बैमत को होगा नहीं, चुँकि आप श्री हरि विष्णु है तो हमें ये बताए कि ‘‘पहले कौन सा युग आया’’ द्वापर अथवा त्रेता?। श्री हरि विष्णु हँसते हुए कहते हैं कि पहले ‘‘द्वापर युग’’। इसके बाद अषीष का सवाल करता है कि अगर पहले द्वापर युग है तो ‘‘गंगापूत्र भीष्म कैसे हुए?, गंगा का आगमन तो त्रेता युग में महाराज भगीरथ द्वारा हुआ था। तब श्री हरि विष्णु हँसते हुए कहते है कि ‘‘भीष्म’’ एक ‘‘गंगा’’ नामक युवती के पुत्र थे, वो गंगा नहीं जो तुम समझ रहे हो। अषीष आगे श्री हरि विष्णु से सवाल करता है कि इससे पहले भी एक अवतार हुआ है ‘‘कलकी अवतार’’ उसके बारे में क्या कहते हैं, श्री हरि विष्णु जबाव देते हुए कहते हैं कि ‘‘कलकी अवतार’’ का मतलब ‘‘काल की अवतार’’ होता है जो कभी नहीं हुआ है, भला काल का भी कभी अवतार होता है। यह कलयुग की एक मनगढ़ंत कहानी थी जिसके कारण लोग हमारे अवतार लेने के बारे में सोंचना हीं भूल गए, वैसे भी ‘‘कलकी अवतार’’ का ग्रन्थ अथवा महाकाव्य होना चाहिए, कभी देखा अथवा पढ़ा है तुमने? अषीष ‘‘नही’’ में जबाव देता है। अशीष अपने प्रश्न को आगे करते हुए कहता है की द्वापर युग का क्या अर्थ है? तब श्री हरि विष्णु हँसते हुए कहते है कि ‘‘द्वापर’’ कभी अपने आगे ‘‘द्वा’’ नही लगाता और कहता है कि हम पर, परन्तु और लेकिन तक ही रहेंगे और त्रेता युग में तो स्वयं मैं, भगवान शिव और पितामह ब्रहा्राजी क्रीडा करते हैं। तब अषीष आगे पूछता है कि हमारे घर पर आना कैसे हुआ? तब श्री हरि विष्णु हँसते हुए कहते हैं कि हम हर युग में किसी न किसी घर में अवतार तो लेते हीं है इस बार हम तुम्हारे घर मे और तुम्हारे शरीर में अवतार धारण किए हैं। यह सून कर अषीष का मन हर्षित हो जाता है। तभी राजेन्द्र की तीनो बैमत आ जाती है। कुँवरदेवी, तीनो बैमत को कहती है कि इसके अन्दर विष्णु भगवान बैठे हुए है। बैमत भी गौर से अषीष के शरीर को देखती है लेकिन श्री हरि विष्णु किसी को नजर नहीं आते हैं अंत में तीनो बैमत भैरवनाथ के पास जातीं है और सारी बाते बता देती हैं। भैरवनाथ भी आते हैं और अषीष के शरीर को अच्छी तरह निरीक्षण करते हैं लेकिन भैरवनाथ को भी श्री हरि विष्णु नजर नहीं आते हैं लेकिन तब तक माता दुर्गा, माता काली, माता लक्ष्मी अपने दिव्य चक्षु से श्री हरि विष्णु को देख लेती हैं। वे सभी भैरवनाथ का वापस बुलाती है लेकिन षिवजी भैरवनाथ को थोड़ा घमंडी बना देते है और भैरवनाथ क्रोधपूर्वक कहते है कि हमारे शब्द का पहेली सुलझा दोगे तो हम जान जाऐगें कि तुम ‘‘स्वयं विष्णु’’ हो। श्री हरि विष्णु हँसते हुए कहते हैं कि ‘‘शब्द’’ क्या है। ‘‘कुंडल का जल’’ इसका क्या अर्थ है? यह काम श्री हरि विष्णु अषीष को सौंपते हैं और अषीष भी कहता है, यहाँ दो वाक्य है एक ‘‘कुंडल और काजल’’ और दूसरा ‘‘कंुडल का जल’’ वैसे कुंडल क्या होता है। श्री हरि विष्णु हँसते हुए कहते है भैरवनाथ दुनिया को मुर्ख बनाता है, यहाँ ‘‘कुंडल’’ नहीं ‘‘कमंडल’’ होगा। षिवजी, भैरवनाथ को थोड़ा और हवा दे देते हैं। भैरवनाथ, अषीष की होषियारी को अच्छी तरह जानते थे, वो क्रोधित होते हुए बोले कि ‘‘अभी अपने कमंडल के जल से तुम्हे खत्म कर देते हैं’’। इस बात पर श्री हरि विष्णु हँसते हुए बोलते है कि ‘‘तुम्हारे कमंडल में तो विषद्ध जल भी नहीं है, तुम क्या हम पर छिड़कोगे’’। भैरवनाथ को अपनी असलियत पर लज्जा आ जाती है और राजेन्द्र की बैमत पूछती है कि सही में इसके अन्दर विष्णु है? तब भैरवनाथ कहते हैं कि ‘‘लगता तो है’’, और भैरवनाथ दुर्गा माता के पास सही बात की जानकारी के लिए चले जाते है। माता दुर्गा, काली, लक्ष्मी और सरस्वती सभी एक शब्द में कहते हैं कि श्री हरि विष्णु का अवतार हुआ है। सभी देवियाँ श्री हरि विष्णु से षिकायत करती है कि अवतार के विषय में हमलोगों को बताना चाहिए था। इस पर श्री हरि विष्णु हँसते हुए कहते हैं कि जिसका ‘‘काल’’ चल रहा है उसे तो हमारे अवतार के बारे में पता हीं नहीं है, आपलोग कैसे जानेंगे। वैसे इस खेल (कुँवरदेवी-मणुष्यदेवा) को आप लोग किस तरह खत्म करेंगे। इस पर दुर्गा माता कहती है कि आप जो चाहेंगे वही होगा। तब श्री हरि विष्णु सिद्धिदात्री माता को आदेष देते हैं कि या तो उस सिद्धि को वापस बुला लो या फिर उसे वहीं खत्म कर दो। सिद्धिदात्री माता द्वारा बार-बार आग्रह करने पर भी वह सिद्धि वापस नहीं आती है और अंतत सिद्धिदात्री माता को तीर और धनुष का सहारा लेकर उस सिद्धि को वहीं जलाना पड़ता है। सिद्धि को जलते हीं इधर कुँवरदेवी प्रकट हो जाती है और अषीष के पैर पकड़कर माफी माँगते हुए रोने लगती है, अषीष भी रूग्न अवस्था में आ जाता है, फिर भी खुद को संभालते हुए अपनी बहन को चुप कराता है। काली आवास से दो-चार और कुँवरदेवीयाँ आ जाती है जो कुँवरदेवी (अषीष की बहन) की सहेली थी और अषीष से कहने लगती है कि आप जैसा भाई मिलना सौभाग्य की बात है, आपके जैसा भाई सभी को मिले। इधर श्री हरि विष्णु सिद्धिदात्री माता से कहते हैं कि तुम मेरा आदेष मानकर हमें खुष किया है, माँगो क्या माँगती हो? इस पर सिद्धिदात्री माता कुछ सोंचते हुए कहती है कि अगर आप किसी तरह शेख को हमारे आवास पर आने से रोक दे, तो हम सभी पर कृपा होगी। श्री हरि विष्णु हँसते हुए कहते हैं कि समझो अब शेख तुम्हारे आवास पर नहीं आएगा और इधर श्री हरि विष्णु शेख और उसके साथियों का उदर इस प्रकार खराब करते हैं कि वह हमेषा दीर्घषंका पर हीं बैठा रहता है। राजेन्द्र की बैमत को अभी भी विष्वास नहीं हो रहा था और वे बार-बार अषीष के शरीर के अन्दर झाँकती थी और सोंचती थी कि शेख हीं होगा लेकिन उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता था। तब श्री हरि विष्णु, राजेन्द्र की बैमत को समझाते हुए कहते हैं कि ‘‘राजेन्द्र से कहना कि जब वह जाल बिछा रहा था, तब हमने भी उसमें धागे पिरोए थे’’, और हाँ, उससे यह जरूर कहना कि आज से वृहस्पतिवार की व्रत करना शुरू कर दें। चुँकि बैमतों को विष्वास नहीं हो रहा था कि सही में अषीष के अन्दर श्री हरि विष्णु की उपस्थिति है, इसलिए तीनों इतराते हुए बोली कि ‘‘हम तो वृहस्पतिवार को ही मांस-चावल खाऐंगे’’। इतना सुनने पर श्री हरि विष्णु क्रोधित हो गए और तीनों की सिद्धि को छिनते हुए एक को उसी कमरे के जमीन में गाड़ देते हैं, बाकि दोनों के पीछे कुँवरदेवी को छोड़ देते है। कुँवरदेवी को जिस बैमत ने मारा था, कुँवरदेवी उसी को पकड़ लेती है। काली माता ये सारी लीलाएँ देख रही थी उन्होंने कुँवरदेवी डाँटते हुए कहा कि तुम इसे नहीं मार सकती हो, यह मेरी बेटी है। इसपर स्वयं श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि अगर अपनी बेटी की इज्जत की इतनी हीं चिंता है तो स्वयं आकर इसे मार दो। इस पर माता काली जो बैमत की प्राण की पुड़िया अपने पास रखी हुई थी, उसे खोल देती है और वह बैमत वहीं ढंेर हो जाती है। तीसरी बैमत भागते हुए राजेन्द्र के पास पहूँचती है लेकिन कुछ बोल नहीं पाती है, क्यों कि श्री हरि विष्णु उसकी आवाज को खत्म कर देते हैं। राजेन्द्र के द्वारा बार-बार पूछे जाने पर भी बैमत इषारा करके कुछ बताना चाहती है लेकिन राजेन्द्र को समझा नहीं पाती है। तभी कुँवरदेवी राजेन्द्र के घर पर पहूँच जाती है और कलात्मक तरीके से उसका भी अन्त कर देती है। आगे राजेन्द्र यह सोंच कर परेषान हो जाता है कि घर में बैमत का लाष पड़ा होना बहुत बड़ा अनर्थ का द्योतक है लेकिन राजेन्द्र की विनती पर सात दिन बाद भैरवनाथ और कुँवरदेवी मिलकर बैमत की लाष को घर से बाहर कर देते हैं। चुँकि अषीष के घर में भी एक बैमत का लाष था जिसे श्री हरि विष्णु के कहने पर भैरवनाथ और कुँवरदेवी मिलकर घर से बाहर मैंदान में फेंक देते है। प्रथम पहर के 3.30 बजे तक राजेन्द्र की सारी बैमतों का अंत हो जाता है। तब अषीष, कुँवरदेवी को कहता है कि इस बस्ती में जितने भी बैमत है, सभी का अंत कर दो। कुँवरदेवी बस्ती में घुमना प्रारंभ कर देती है और एक जगह देखती है कि एक और अपने शरीर पर बैमत को बिठा कर सिद्धि प्राप्ति के लिए पुजा कर रही थी। कुँवरदेवी बैमत का बाल पकड़ के खड़ा कर देती है, इतने में औरत कहती है कि कौन है आप और क्यों हमें परेषान कर रहे हैं? इस पर कुँवरदेवी कहती है कि मेरे भईया बोले हैं कि इस बस्ती से सभी बैमतों का अन्त कर दो और इतना कहकर कुँवरदेवी उस बैमत का गर्दन मरोड़ देती है, इस प्रकार उस रात उस बस्ती से करीब 4-5 बैमतों का अंत किया जाता है।
अषीष श्री हरि विष्णु के द्वारा अपने घर-परिवार और समाज में हो रहे घटनाओं के बारे मंे जानना चाहा कि आखिर उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है तब उन्होनें कहा कि ये सब काल का खेल है। अषीष ने अपने मित्र भवेष के बारे मंे उसकी नौकरी छुटने के संबंध मंे भी खास कर पूछा तो उन्होंने हँसते हुए कहा कि भवेष तुमसे नहीं हमसे कम्प्युटर देने की बात कहीं थी, चुकि उसने अपना वचन पूरा नहीं किया इसलिए हमने भी अपना कदम पिछे खिंच लिया। जब अषीष को पता चलता है कि भवेष की दूर्गति के कारण स्वयं श्री हरि विष्णु हैं तो वह षिकायत भरे शब्दों में उनसे कहा कि ‘‘आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था’’ कितना रोया है वह? फिर कुछ सोंच कर अषीष श्री हरि विष्णु से पूछा कि अगर अब वह हमें कम्प्युटर दे देता है तो उसकी नौकरी वापस हो जाएगी? तब श्री हरि विष्णु ने ‘‘हाँ’’ कह दिया। अषीष अपने जिह्वा से भवेष को कम्प्युटर के लिए कहता है लेकिन वह अपनी मजबूरी बताते हुए कहता है कि लाने में दिक्कत है। तब अषीष भवेष को धमकी भरे शब्दों मंे कहता है कि इस बातर अगर पटना आए तो तुम्हारा लॅपटॉप रख लेंगे, भवेष ‘‘हाँ’’ कह देता है, लेकिन भवेष को पटना आते ही अषीष अपनी दोस्ती में खो जाता है और लॅपटॉप की बाते भुल जाता है।
इधर अषीष की बड़े भाई की पत्नी गर्भवती होती है और षिवजी, अषीष की नानी के आत्मा को उसी गर्भ में स्थापित कर देते हैं। समय अनुसार अषीष के घर में एक बच्ची का जन्म होता है, जिसे देखकर अषीष बहुत खुष होता है। इधर दुनिया के वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी किया कि सन् 2012 के 21 दिसम्बर को दुनिया खत्म हो जाएगी, जिससे संसार के सारे लोगो में खौफ था तथा लोग बचने के लिए तरह-तरह के उपाय ढ़ूढ़ रहे थे। बस यूँ कहा जाय कि संसारिक लोगो में हाहाकार मचा हुआ था। तब श्री हरि विष्णु ने पितामह श्री ब्रहा्राजी से संपर्क किया और षिकायत भरे शब्दों में कहा कि इस संसार के लोगो में ये कैसा खौफ है? पितामह श्री ब्रहा्राजी ने प्रसन्नचीत मुद्रा में कहें कि 21 दिसम्बर 2012 को कलयुग अपने काल का पूर्णचक्रण करने वाला है, इस पर श्री हरि विष्णु ने पितामह श्री ब्रहा्राजी से आपत्ति भरे शब्दों में कहा कि जब हम अवतार ले चुके है और काल का अंत भी होने वाला है तब पूर्नचक्रण की क्या आवष्यकता है। तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने श्री हरि विष्णु को समझाते हुए कहे कि हे हरि, काल का अभी तीन वर्ष की आयु शेष है और धरती भी भर चुकी है, ऐसी अवस्था में पूर्नचक्रण करना अनिवार्य हो जाता है। तब श्री हरि विष्णु ने प्रष्नात्मक शब्दों में कहा कि ‘‘क्या कलयुग तीन वर्ष में पुनः धरती को भर पायेगा’’, उचित यही होगा कि धरती का कुछ हिस्सा रिक्त करके अपना काल दिखा दे और फलतः धरती के कुछ हिस्सों मंे भारी भूकम्प आता है। इधर समय का पहिया चलता जा रहा था, श्री हरि विष्णु ने राजेन्द्र की बैमत के द्वारा छिनी गई सिद्धि को कुँवरदेवी को सौंप दिया और समझाते हुए कहते हैं कि अपने भाई का अनुषरण करते हुए इसका प्रयोग करना और अषीष, कुँवरदेवी को पटना नगर के सभी गंगा घाट का निरीक्षण करने के लिए कहता है और यह भी कहता है कि जहाँ भी बैमत दिखे उसे वहीं ढेर कर दो। कुँवरदेवी सिद्धि के बल पर सभी घाटों का निरीक्षन रात को 12.00 से 4.00 के बीच करती थी और बैमत को देखते हीं उसे मृत्युदण्ड देती थी, पटना नगर से करीब-करीब सारी बैमतों का अंत हो चुका था। चुँकि बैमतो द्वारा मारी गयी कुँवरदेविया अभी भी काली आवास पर पहूँच रही थी, जो श्री हरि विष्णु के लिए असहनीय था, और उन्होने षिवजी से मिलकर एक योजना बनाई जो इस प्रकार है:-
श्री हरि विष्णु ने षिवजी को एक शब्द में कहा कि ‘‘हमारा लक्ष्य है कि संसार के समस्त भूत-प्रेत और बैमतों का अंत हो जाए’’, इस पर षिवजी ने माता काली का चुनाव करते हुए इस कार्य के लिए उचित ठहराया। लेकिन षिवजी को एक डर अंदर ही अंदर खाए जा रहा था कि ‘‘कही काली के तांडव से धरती फट न जाए’’ और ये बात उन्होने श्री हरि विष्णु को बता दिया। धरती को संभालने की जिम्मेवारी लेते हुए श्री हरि विष्णु ने अपने शेषनाग को तैयार कर दिया। ब्रहा्राजी भी षिवजी और श्री हरि विष्णु के योजनाओं से अंजान नहीं थे और उन्होंने कटू शब्दों में कहा कि ‘‘अपने योजनाओं को कार्यान्वित करने से पहले आप सबकों ‘‘शेख’’ को स्वस्थ्य करना होगा’’, श्री हरि विष्णु सहमत हो गये।
अप्रैल 2012 को श्री हरि विष्णु के द्वारा शेषनाग को आदेष दिया गया कि ‘‘वे अपने दो स्वरूपों में धरती के गर्भ में समा जाएँ और अपने फन को धरती के सतह के बराबर रखें’’। शेषनाग, श्री हरि विष्णु के आज्ञा का पालन करते हुए अपने दो स्वरूपों को प्रकट करते है और धरती के गर्भ में समा जाते हैं। इधर माता दुर्गा, माता काली को चन्द्रह्ाष देते हुए आदेष देती है कि संसार के समस्त भूत-प्रेत और बैमतो का अंत करके ही वापस आना। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कलयुग को धरती से वापस आने का आदेष देते है जो छोटा बालक बनकर पितामह श्री ब्रहा्राजी के गोद में बैठ जाता है और श्री हरि विष्णु भी धरती माता, अषीष की बहन को काली आवास जाने का निर्देष देते हैं। अब धरती पर सिर्फ भूत-प्रेत और बैमत हीं नजर आ रहे थे। इधर षिवजी, माता काली को शेख द्वारा किये गए र्दुव्यवहारों को याद दिलाते है जिससे माता काली पूर्ण रूप से गुस्से मे आ जाती है और धरती पर मौजुद भूत-प्रेत और बैमतो पर बिजली बन कर टूट पड़ती है, काली माता के तांडव के दौरान सारे भूत-प्रेत और बैमत त्रस्त हो जाते है और जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगते हैं। कुछ बैमत अपनी जान बचाने के लिए मानव जाति का सहारा लेते है और उसमें समा जाते हैं और ऐसे मानव जाति में अषीष की प्रेमिका पूजा भी आ जाती है और उसे भी काली माता के चन्द्रह्ाष का भाजन बनना पड़ता है। पूजा के आत्मा के दो टुकड़े हो जाते है और उसका शरीर वही पर गिर जाता है। काली माता तांडव करते-करते पष्चििमी देषों में पहूँच जाती है, जहाँ शेख के कुछ नुमाइंदे, शेख को खबर देते है कि ‘‘काली गुस्से में इधर ही चली आ रही है’’। शेख खुद को तैयार कर ‘‘माता काली’’ का इंतजार करने लगता है। माता काली को समीप आता देख शेख और उसके नुमाइंदे माता काली पर टूट पड़ते हैं, लेकिन एक हीं झटके में शेख के नुमाइंदों का अंत हो जाता है। माता काली के चन्द्रह्ाष का प्रहार से शेख को कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा था, वहीं शेख के प्रहार से माता काली को भी एक खरोंच तक नहीं आ रहा था। दोनों के बीच करीब दो घंटे तक द्वंद युद्ध चलता रहा, कभी शेख शैतानी स्वरूप में आता था कभी मानव स्वरूप में। अंत में षिवजी के प्रेरणा से माता काली का त्रिनेत्र (जो माता पार्वती ने कलयुग की शुरूआत में षिवजी के भय से माता काली को जीवन रक्षा हेतु दिया था) खुल जाता है और शेख वहीं जल कर राख हो जाता है। संसार के समस्त भूत-प्रेत और बैमतों का अंत होने के बाद माता काली को शांत करने के लिए श्री हरि विष्णु भैरवनाथ को माता काली के समक्ष प्रस्तुत कर देते है और भैरवनाथ को देखते हीं माता काली शांत हो जाती हैं। शेषनाग धरती से बाहर आकाष में चले जाते हैं जिस पर भैरवनाथ और माता काली सवार रहती है और सीधे काली आवास पहूँचते हैं, जहाँ माता दुर्गा, माता सरस्वती और माता लक्ष्मी उनका इंतजार कर रही होतीं हैं। सभी माता काली की जय-जयकार करते हैं, इधर ब्रहा्रजी भी कलयुग को धरती पर जाकर अपना काल चलाने की अनुमति दे देते हैं।
इधर श्री हरि विष्णु, अषीष से संकोचपूर्वक कहते है कि तुम्हारी प्रेमिका पूजा का अंत काली के इस तांडव के दौरान हो गया है। अषीष को थोड़ा दुःख होता है फिर कुछ सोंच कर श्री हरि विष्णु से इच्छा करता है कि उसके मृत आत्मा को यहाँ मंगवाएँ। श्री हरि विष्णु भैरवनाथ को आदेष दिया कि पूजा की आत्मा को अषीष के घर पर ले आएँ, भैरवनाथ वैसा ही करते हैं, कुवँरदेवी उसके आत्मा और सिर को सही तरीके से सटा देती है और श्री हरि विष्णु उस आत्मा को पूर्नजीवीत कर देते हैं। अषीष के इच्छा पर कुँवरदेवी, श्री हरि विष्णु द्वारा प्राप्त सिद्धि को पूजा के आत्मा में स्पर्ष कर देती है जिससे पूजा भी कुँवरदेवी बन जाती है। चुँकि अषीष के घर पर सभी लोग घोर निंद्रा में थे इसलिए श्री हरि विष्णु पूजा को प्रकट कर देते है और पूजा, अषीष से लिपट कर रोने लगती है एवं ढे़र सारी षिकायतें करती है। पूजा को रोते देखकर अषीष के आँखों में भी आँसू आ जाते हैं। अषीष पूजा के आँसू पोछते हुए कहते है कि ‘‘वह एक समय था जो खत्म हो गया’’, वैसे भी गलती तुम्हारी थी, तुम्हे हमसे बात करना चाहिए था, क्या हम इस योग्य भी नहीं थे? रात काफी हो गयी है, तुम मेरी बहन (बहन का परिचय कराते हुए) के साथ काली आवास चली जाओ। आषीष की बहन, पूजा को यह बताते हुए काली आवास ले जाती है कि ‘‘तुम मर चुकी हो’’ और ‘‘एक कुँवरदेवी भी हो’’, काली आवास पहूँचते ही पूजा सभी देवियों को देखकर आष्चर्यचकित हो जाती है। पूजा को सभी देवियाँ भैव्य रूप में दिख रहीं थी, पूजा कुछ सोंचते हुए अषीष की बहन से कहती है कि इनके बारे में तो हमने सिर्फ सुना था, आज देख भी लिया और सभी के चरण स्पर्ष करती है। रात्रि में भैरवनाथ, अषीष का पूजा से अलग होने का कारण बताते हुए सारी कहानी सूना देते हैं और यह भी कहते हैं कि अषीष के अर्न्तआत्मा में स्वयं श्री हरि विष्णु विराजमान है और शायद इसीलिए आज वह जीवीत है। सुबह करीब 8.00 बजे पूजा और अषीष की बहन दोनो छाया मंे अषीष के समक्ष उपस्थित होते हैं और पूजा, अषीष को घूरते हुए कहती हैं कि आप हमसे क्यों अलग हुए थे इसका पता हमें चल गया, भला ऐसे भी कोई करता है, आप माफी के योग्य भी नहीं हैं। अषीष अपना सर झुकाते हुए कहता है कि हम तुम्हें अपने प्रेम संबंध के बारे में नहीं बताने वाले थे लेकिन तुम्हारी हालत को देख कर तुम्हें प्रपोज करना पड़ा। पूजा रूग्न अवस्था में बोलती है ‘‘अगर आप प्रपोज करने के बदले मेरे साथ जबरदस्ती संभोग कर लेते तो शायद हम आपको माफ कर देते और हम यही सोंचते कि जैसे भी हो हमने अषीष को प्राप्त कर लिया और सुना है आप में स्वयं विष्णु विराजमान है, किसी युग में स्त्री के मर्यादा की रक्षा करने वाले आज मेरे हीं मर्यादा से खेल कर बैठे, कहाँ हैं वो, इस पर स्वयं श्री हरि विष्णु पूजा को समझाते हुए कहते हैं कि हमने तुम्हारी भी मर्यादा की रक्षा की है और अगर न की होती तो पिछले रात को तुम अषीष से जो लिपट कर रो रही थी, किसी कारागृह में कैद एक बंदी की भाँति एक कोने खड़े होकर रो रही होती। इसपर पूजा प्रष्नात्मक शब्दों में श्री हरि विष्णु से पूछती है कि किसी युग में आपने भी राधा से प्रेम किया था, क्या आपने उसे स्पर्ष नहीं किया था? श्री हरि विष्णु थोड़ा विचार में फँस जाते है और सोंचते हैं कि आखिर इसको इतना ज्ञान कहाँ से आ गया? इस पर शेषनाग फुँफकारते हुए कहते है कि प्रभू, माता सरस्वती इसको ज्ञान दे रहीं हैं। श्री हरि विष्णु गुस्साते हुए बोलते हैं कि ‘‘ज्ञान देने दो उस निर्लज को’’ और पूजा के सवालों का जबाव देते हुए कहते हैं कि ‘‘अगर हमें आवष्यकता पड़ती तो हम अपने गौ को भी हाथ नहीं लगाते’’। इधर अषीष के मन मंे इच्छा थी कि भैरवनाथ को बुलाया जाए और श्री हरि विष्णु की प्रेरणा से भैरवनाथ अषीष के घर पर आते हैं। तब अषीष कहता है कि जानते है भैरवनाथ मेरे नाना जी एक कहावत कहते थे ‘‘भैरवानन्द जोगीया नहीं मानेगा’’ और आज हमें प्रतीत होता है कि ‘‘सच में नहीं मानेगा’’। भैरवनाथ अपना सर झुका देते हैं और पूजा एवं आषीष की बहन को लेकर काली आवास चले जाते हैं। इधर श्री हरि विष्णु माता सरस्वती से अपत्ति भरे शब्दों में कहते हैं कि ‘‘आपको, उस लड़की को इतना ज्ञानी बनाने की क्या आवष्यकता थी’’, इसपर उत्सुकतापूर्वक हँसते हुए माता सरस्वती कहती हैं कि ‘‘आपको उस अर्धरात्रि में शेख के द्वारा कुँवरदेवी खेलाने की क्या आवष्यकता था’’? श्री हरि विष्णु हँसते हुए कहते हैं कि ‘‘हम अपने अवतार को पूर्ण कर रहे थे’’। इसपर माता सरस्वती ने श्री हरि विष्णु को समझाते हुए कहा कि ‘‘हम भी एक कुँवरदेवी को उसका अधिकार दे रहे थें’’।
एक बार की बात है, लक्ष्मी-पुजा का समय था, माता लक्ष्मी कुँवरदेवी को लक्ष्मी की शक्ति का अंष देती हैं और कहती हैं इसे तुम अपने घर ले जाओ। कुँवरदेवी खुषी-पूर्वक उस अंष को अपने घर लेकर आती है। रास्ते में पूजा कुँवरदेवी से पूछती है कि ये क्या हैं, इस पर कुँवरदेवी हँसते हुए कहती है कि यह लक्ष्मी का अंष है जिसकी पुजा करने से घर में धन-सम्पदा बढ़ती है। पूजा बोलती है कि ऐसा अंष हमें भी चाहिए, हम भी अपने घरवालों को देना चाहते हैं। कुँवरदेवी इस बात को अषीष को बता देती है, अषीष धर्मसंकट में पड़ जाता है और सोंचने लगता है कि अब क्या किया जाए। अषीष सोंच हीं रहा था कि श्री हरि विष्णु हँसते हुए पूजा से कहते हैं कि तुम्हें भी लक्ष्मी की शक्ति का अंष मिल सकता है अगर तुम अपने घर जाकर अपनी पुजा करवा लो। पूजा खुष होती है और अगले माह कुँवरदेवी के साथ अपने घर जाती है तथा कुँवरदेवी उसे अपने माँ के शरीर पर खेलने के लिए कहती है, वह खेल भी जाती है। लेकिन पूजा के पिताजी साफ कह देते हैं कि हम इन सब बातों पर विष्वास नहीं करते हैं। पूजा दुबारा कहती है कि हम अषीष के साथ रहते हैं, इस पर पूजा के पिता जी कहते हैं कि उसके साथ अच्छी तरह से रहना। इसके बाद पूजा वापस अषीष के पास चली आती है और अपनी बाते कहती है कि हमारे पिता जी इन सब बातों पर विष्वास नहीं करते हैं, इस पर अषीष बोलता है कि तुम्हारे पिताजी मूर्ख हैं, अगर वह तुम्हारी पुजा करते तो तुम उनकी अधिकतर कामों में साथ दे सकती थी, उनके बिगड़े काम बना सकती थी। इस पर पूजा कहती है कि छोड़िए हम किसी को समझा सकते हैं, उसका किस्मत थोड़े ही बदल सकते हैं।
इधर श्री हरि विष्णु को ‘‘कूरान’’ का ख्याल आता है जो कलयुग के उदर में जख्मी होकर पड़ी हुई थी, उन्होने षिवजी से सम्पर्क करे अपनी बातों को दोहराया। षिवजी ने हँसते हुए कहा कि ‘‘आपका अवतार सबके लिए कल्याणकारी होता है, आप कुरान का भी कल्याण कर दें’’, तब श्री हरि विष्णु अपने शेषनाग को एक खड़ग देते हुए आदेष देते हैं कि ‘‘कलयुग के उदर से कुरान को स्वतंत्र करा दो’’ श्री हरि विष्णु के आदेष के पालनार्थ शेषनाग मानव रूप बनाकर कलयुग के पैर के पास खड़े हो जाते हैं और ऐसे कलयुग के सिर तक जाते है जैसे कोई ताड़ के वृक्ष पर चढ़ता है, उसके बाद कलयुग को एक चुटिया प्रकट करते है और उस चुटिया को पकड़कर धरती की ओर कूद जाते है जिससे कलयुग मुँह के भर गिरता है, कलयुग के उदर को चीरने के बाद शेषनाग ‘‘दिव्य महाभारत, दिव्य रामायण सहित दिव्य कूरान’’ को बाहर निकाला और साथ मंे उसी के काल के स्वर्णाभूषण, मणि-माणिक्य और कुरान द्वारा अपनी सुरक्षा के लिए निकाले गये तिलीस्मी तलवार, जादुई चिराग और भी बहुत कुछ थे, को निकाला। धरती माता जो कि वहीं खड़ी थी, महाभारत, रामायण दिव्य कुरान (जो कराह रही थी) सहित सभी सामग्री को धरती के अन्दर अपने लोक में ले गयी। धरती माता अपने लोक में जाते हीं कूरान के पन्नो को पलटा जो काफी गंदा हो चुका था और गंदगी के कारण ही वह कराह रही थी। धरती माता के स्पर्ष मात्र से सुकुन मिल रहा था और वह ऐसा ही करने को बोल रहीं थी। तब धरती माता ने कूरान के हर एक पन्ने को अपने हाथों से साफ किया और कूरान पूर्णतः स्वस्थ्य हो गयी। ठिक उसी प्रकार धरती माता ने जादुई चिराग को रगड-रगड़ कर साफ करना शुरू किया लेकिन हाथ की रगड़ पाकर एक जिन्न ठहाका लगाते हुए बाहर आ गया और बोला क्या हुक्म है मेरे आका; जिसको देखकर धरती माता डर गई, इधर श्री हरि विष्णु और अषीष भी सारी बातों को सून रहे थे। अषीष झट से बोला कि ‘‘आप जिन्न को उसी चिराग में वापस जाने के लिए कह दें, धरती माता ने अषीष का अनुसरण किया और जिन्न, जो हुक्म मेरे आका कहकर वापस चिराग में ही चला गया, तब कूरान अपने सारे सामग्री को अपने अंदर रख लिया। कूरान अपने ‘‘कुबुलिस्तान’’ को एक नजर देखने की इच्छा करती है, इस पर श्री हरि विष्णु आदेष देते हुए कहते हैं कि तुम कुबुलिस्तान क्या सारा इस्लाम देख सकती हो और कूरान आधुनिक युग के इस्लाम को देखकर यह कहते हुए रो देती है कि ‘‘इस्लाम की यह हालत हो गयी है कि आज वे जानवरों की हत्या करने लगे’’, इससे बेहतर तो यह होता कि ‘‘मेरे आका मुझे इस जहान में भेजता ही नहीं’’। इधर कलयुग स्वस्थ्य रूप से दुबारा खड़ा हो जाता है।
समय बितता गया और 21 दिसम्बर 2012 से 21 दिसम्बर 2013 हो चुका था, धरती के लोग धरती के विनाष होने की बात को भूल चुके थे। इधर अषीष अपनी बहन कुँवरदेवी को अपनी माँ के उपर खेलाने का विचार कर रहा था तभी उसके परिवार में सास-बहु के बीच झगड़ा शुरू हो जाता और स्थिति को देखते हुए अषीष अपना कदम इस विचार से पीछे खींच लेता है कि कुँवरदेवी खेलने के बाद उसकी माँ को दो-चार नाम और मिल जाऐगें और जब भी सास-बहु में झंझट होता था अषीष अपनी भतीजी को लेकर घर से बाहर चला जाता था, चुँकि अषीष झगड़े की जड़ का जानता था इसलिए वह अपनी बहन कुँवरदेवी को साफ तौर पर कह दिया कि जो जैसा करता है उसे वैसा ही फल देना। इधर अषीष अपनी भतीजी के साथ खेल-कुद करता था और उसके प्रतिक्रिया को देखकर महसूस करता था कि उसकी छाया अषीष की नानी के तरह है। लेकिन श्री हरि विष्णु, अषीष को बता देते हैं कि यह उसकी नानी का पूर्नजन्म है, और सारी कहानी कह देते हैं। अषीष सोंचते हुए श्री हरि विष्णु से कहता है कि मेरी नानी बेवकुफ हैं, उसे चाहिए था कि किसी धनी घर मंे जन्म लेने की बात कहे, उसे इस घर में क्या मिलेगा। चुँकि अषीष को अपनी नानी का पूर्नजन्म अच्छा नहीं लगता है इसलिए वह श्री हरि विष्णु से विनती करता है कि भतीजी के शरीर से नानी की आत्मा को निकाल कर नये आत्मा को स्थापित करें। इस पर श्री हरि विष्णु अषीष को समझाते हुए कहते हैं कि अगर नये आत्मा को स्थापित करेंगे तो वह घर में किसी को नहीं पहचानेगी। तब अषीष सोंचते हुए कहता है कि भतीजी के मूल आत्मा की छायाप्रति निकाल कर मेरी भतीजी में स्थापित कर दें और मूल आत्मा के परमेष्वरी को पिछले जन्म ले जाने के लिए कहें जिससे मेरी नानी वापस आ जाएगी। श्री हरि विष्णु ने अर्धरात्रि में सभी घोर निंद्रा दे दिया और कार्य आरंभ कर दिया। पहले श्री हरि विष्णु ने अषीष के भतीजी के जीवन दीप को आदेष दिया कि आत्मा के निकलने के बाद तुम अपने जगह पर स्थापित रहोगी, उसके बाद श्री हरि विष्णु ने आत्मा को निकाला, फिर उसकी छाया निकाला, उसके बाद उस छाया को आत्मा का रूप दिया और अषीष की भतीजी में स्थापित कर दिया। इधर भतीजी के मूल आत्मा के परमेष्वरी को आदेष दिया कि आत्मा को पिछले जन्म में ले जाओ, और अषीष की नानी खड़ी हो जाती है, नानी को देखने के बाद अषीष श्री हरि विष्णु से विनती करके उसे देवयुगीन स्वर्गलोक में भेज देता है।
समय बितता जा रहा था अब अषीष के मंझले भाई की विवाह की बारी आ गयी, चुँकि उन्हंे किसी प्रकार की सरकारी नौकरी नहीं मिल रही थी, शायद इसलिए वे विवाह नहीं कर रहे थे। लेकिन श्री हरि विष्णु की नजर परिवार के हर सदस्य पर थी और जहाँ मई 2014 को अषीष के मंझले भाई को पदभार पत्र मिला वहीं उन्हें विवाह करने के लिए आमंत्रित भी किया गया, चुँकि नौकरी मिल चुकी थी इसलिए वे भी विवाह के लिए तैयार हो गये और फरवरी 2015 को शादी भी हो गयी, लेकिन शादी के दौरान एक रात कलयुग, अषीष के घर में भूत-प्रेत की छाया खड़ा कर देता है जिससे कुछ लोग भयभीत हो जाते हैं आधी रात में ही हल्ला होने लगता है। अषीष भी जाग जाता है और बात को समझते हीं कुँवरदेवी से पूछता है लेकिन वह कुछ नहीं देख पाती है और कहती है कि कहीं कुछ नहीं है, सब स्वप्न देखी है। लेकिन श्री हरि विष्णु कलयुग के इस खेल से अषीष को अवगत करा देते हैं। मंझले भाई के शादी के एक वर्ष हो जाते हैं और उनकी पत्नी माँ बनने वाली होती है लेकिन समय से पहले गर्भ में ही कलयुग उनके बच्चे को मार देता है। जब अषीष को इस बात की खबर मिलती है तब वह कुँवरदेवी से अच्छी तरह पूछ-ताछ करता है, लेकिन वह एक हीं जबाव देती है कि कोई भूत-बैमत गर्भ में नहीं मारता है। चुँकि श्री हरि विष्णु इस बात को जान गये थे इसलिए उन्होंने यह कहते हुए अपना सूदर्षन छोड़ दिया कि ‘‘पितामह ने तुमको कुछ ज्यादा ही अधिकृत कर दिया है’’ और सुदर्षन कलयुग को सलाद की भाँती काट देता है और उसके सिर को पितामह श्री ब्रहा्राजी के गोद मंे डाल देता है। पितामह श्री ब्रहा्राजी दुःखी हो जाते हैं और अश्रु की धारा बहाते हुए कलयुग के शरीर को इकट्ठा करते हैं और उसे पुर्नजीवित करते हैं एवं श्री हरि विष्णु से षिकायत भी करते हैं कि यह आप अच्छा नहीं किए। इस पर श्री हरि विष्णु कटू स्वर में बोले कि आप कलयुग को ज्यादा ही अधिकृत कर दिया था, उसे क्या जरूरत थी हमारे घर पर नजर रखने की। पितामह श्री ब्रहा्राजी रूग्न अवस्था में बोले कि कलयुग अज्ञानी है और बालक भी है, उसे क्या पता ये धरती और तुम्हारा घर, वह तो सिर्फ अपने काल दिखा रहा है। श्री हरि विष्णु ने पितामह श्री ब्रहा्राजी को समझाते हुए कहते हैं कि जब उसे किसी वर्ण-भेद तक मालूम नहीं तो उसे आयु देने की क्या आवष्यकता है। इस पर ब्रहा्राजी ने अपना तर्क देते हुए कहा कि हमारे चार पुत्र है, सत्, द्वापर, त्रेता और काल। हमने सभी को एक-एक कागज दिया और सभी ने अपने ढंग से चित्रकारी किया लेकिन काल, जो अपने कागज पर एक टेढ़ी लकीर हीं खिंच दिया तो तुम क्या कहते हो हम उससे उसका अधिकार छीन ले तात्पर्य उसे कागज ही न दें। इस पर श्री हरि विष्णु मौन हो जाते हैं, लेकिन भगवान षिव बात को बीच में ही काटते हुए ब्रहा्राजी से कहते हैं कि अब श्री हरि विष्णु ‘‘कलयुग’’ को अपना विराट स्वरूप का दर्षन करवायेंगे और यही इनका दण्ड है, इसपर पितामह श्री ब्रहा्राजी खुष होते हैं।
इधर अषीष अपने भतीजे की मृत्यु की दुःख से बाहर आते हीं श्री हरि विष्णु से कहता है कि इसकी मृत्यु का क्या कारण हो सकता है। तब श्री हरि विष्णु कहते हैं कि यह कलयुग का एक खेल था जिसका अंत हमने कर दिया है। तब अषीष, श्री हरि विष्णु से इच्छा करता है कि ‘‘जिस बच्चे को कलयुग द्वारा मार दिया गया है, उस बच्चे की आत्मा को अपने पास रखें और समय आने पर उसी को पुर्नजन्म दे जिसका रंग और रूप पहले की भाँति हो। श्री हरि विष्णु उस आत्मा को (जो अगले जीवन की तलाष मंे रहता हैं) अपने पास रख लेते हैं और उचित समय देखकर उसे पूर्नजन्म देते हुए अषीष के मंझले भाई के पत्नी के गर्भ में डाल देते हैं।
चुँकी कलयुग का अंत हो चुका था, माता दुर्गा ने षिवजी से सम्पर्क किया और कहा- हे नाथ, काली को कब तक ‘‘काली’’ रहना पड़ेगा, इसे श्राप मुक्त करें। तब भगवान षिव ने माता काली को वरदान देते हुए कहा कि ‘‘देवयुग में काली, पार्वती की प्रिय सखा होगी और आपके आवास में जो झरना बह रहा है उसमे स्नान करने से काली का कालिमा खत्म हो जाएगा। काली माता ऐसा हीं करती है और वह एक कुँवरदेवी की भाँति हो जाती है और इस प्रकार काली माता का भी अंत हो जाता है।
अप्रैल 2016 को अषीष का घर दो टुकड़ो में बँट जाता है, मंझले भाई माँ-पिता के साथ जहानाबाद में रहने लगते हैं वहीं अषीष अपने बड़े भाई के साथ मित्रमंडल कॉलोनी, पटना में हीं रहने लगता है। चुँकि श्री हरि विष्णु द्वारा साईचक भट्ठा के मकान मंे गाड़ी गई बैमत वहीं गड़ी हुई थी, अषीष के कहने पर श्री हरि विष्णु उस बैमत को वहाँ से निकाल लेते हैं और वापस राजेन्द्र के घर पर जाने के लिए कहते हैं, वास्तव में अषीष देखना चाहता था कि राजेन्द्र इस बार कहाँ अपना षिकार करता है, वैसे भी कुँवरदेवी उस बैमत को सुबह-षाम उसके घर पर जाकर उसे पिटती थी। इधर श्री हरि विष्णु अषीष के चाचा को जो कि एक ‘‘किच्चक’’ थे, अषीष द्वारा पूछे जाने पर कि ‘‘कभी किसी कि हत्या की है’’ तब उनके द्वारा जबाव दिया जाता है कि ‘‘हम तो जमीन में गड़े हुए थे’’, बैमत द्वारा हमें वापस निकाला गया है। तब अषीष द्वारा कहने पर कुँवरदेवी उनके शरीर मंे सिद्धि स्पर्ष करवाती है, जिससे वे मणुष्यदेवा बन जाते हैं और साथ में रहने लगते हैं।
स्वयं श्री हरि विष्णु अपने ही द्वारा बसायी नगरी ‘‘स्वर्ण विहार (जो कि अब बिहार और झारखण्ड है)’’ के पटना जिला के हवाई अड्डा पर अपने आत्मीय स्वरूप को आकार देते हुए विराट स्वरूप दिखाते हैं जिसको देखकर भगवान षिव, ब्रहा्राजी, त्रिदेवियों सहित माता काली, कलयुग, भैरवनाथ, कुँवरदेवी और पूजा भी तृप्त होती है, अषीष भी इस दृष्य से वंचित नहीं रहता है, चुँकि शेषनाग अषीष के शरीर में हीं उपस्थित थे इसलिए वह शेषनाग के नेत्र से हीं श्री हरि विष्णु के विराट स्वरूप का दर्षन करता है। इस दौरान कलयुग, श्री हरि विष्णु के पैर पकड़ लेता है और ब्रहा्रजी से कहता है कि इन्हें इसी अवस्था मंे खड़े रहने के लिए कहिए, हम इन्हें जी भर के देखना चाहते हैं। इस पर षिवजी कलयुग से कहतें है कि इनके इस स्वरूप को विराट स्वरूप कहते हैं और श्री हरि विष्णु के दुर्लभ स्वरूप को प्रणाम करो, फिर श्री हरि विष्णु के बराबरी मत करना और कलयुग अपना कान पकड़ कर कहता है हम ऐसी गलती दुबारा नहीं करेंगे, इस पर श्री हरि विष्णु अपने विराट स्वरूप दिखाने के दौरान कलयुग से कहते हैं कि ‘‘हे कलयुग, तुम मुझे अवतार के दौरान चर्तुभूज रूप में न देख सके, इसलिए तुम्हारे काल का अंत होता है’’। इधर त्रिदेवियों संग भैरवनाथ, कुँवरदेवी सहित पूजा भी श्री हरि विष्णु के इस दूर्लभ स्वरूप का दर्षन की एवं शत्-षत् नमन की।
इधर अषीष, श्री हरि विष्णु के सिर की गिनती कर रहा था, और कुल बीस सिर पाया, और शेषनाग से सारे सिर की परिभाषा जानना चाहा, शेषनाग, सभी सिरों के बारे में बताते हुए कहा कि दष सिर दषावतार के हैं, चार सिर काल के एक षिव, एक गणेष, एक अग्नीदेव, एक वरूणदेव, पवनदेव जो स्वयं श्री हरि विष्णु के सहायक हैं और एक सिर जो तुम देख रहे हो, जो तुम्हारे चेहरे से मिलता-जुलता है, वह मणुष्यदेवा का सिर है। जो इस युग के अवतार को दर्षाता है जो भविष्य में ‘‘अषीषावतार’’ कहलायेगा इसी के उग्र स्वरूप को ‘‘चंडालावतार’’ कहा जाएगा। इसके बाद अषीष अपना दोनो हाथ जोड़ देता है। श्री हरि विष्णु के विराट स्वरूप को खत्म होते हीं सभी देव एवं देवियाँ अपने-अपने जगह पर चलीं जातीं हैं, श्री हरि विष्णु भी अपने विराट स्वरूप को खत्म कर अषीष के आत्मा में पुनः प्रवेष कर जाते हैं और शेषनाग पर विराजमान हो जाते हैं। इधर कलयुग भी हँसते हुए ब्रहा्रजी के उदर में चला जाता है।
एक समय कि बात है भगवान षिव, श्री हरि विष्णु और त्रिदेवियों संग अषीष आपस मे वार्तालाप कर रहे थे तभी भगवान षिव की जटा में बैठी माता गंगा, षिवजी से आदेष लेते हुए कहती है कि प्रभू हम अषीष से कुछ कहना चाहते हैं और भगवान षिव का आदेष पाते ही माता गंगा, अषीष से पूछती है कि तुम काल के शुरूआत की बातों को चर्चा करके धरती के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए बोले थे कि हमें भी धरती पर विराजमान हीं रहना चाहिए था। अगर हम धरती पर होते तो हमारी क्या र्दूगति होती ये हम समझ सकते है। इस पर अषीष अपना जबाव देते हुए कहता है कि अगर धरती पर सबकी दूर्गती ही हो रही थी तो स्वयं श्री हरि विष्णु को अवतार नहीं लेना चाहिए था। इस जबाव को सुन कर माता गंगा गुस्साते हुए भगवान षिव से बोली की इस लड़के का जिह्वा तो तलवार की तरह चलता है। इस पर श्री हरि विष्णु ने माता गंगा को समझाते हुए बोले, हे देवी; इस कलयुग में जब पाप जलता है तब धुँआ उठता है, जब पुण्य जलता है तब आग उगलता है तथा जब पाप और पुण्य दोनो जलता है न तब बात होती है। इस प्रकार इसकी जिह्वा तलवार नहीं है ये इसके अंदर बैठा पुण्य त्रिदेवियों के पाप को दर्शाता है जो सम्पूर्ण कलयुग इन्होंने पितामह ब्रहा्रजी के कहने पर किया है।
श्री हरि विष्णु स्वयं अषीष से कूँवरदेवी के खेल का विष्लेषन करने लगे कि किस प्रकार उन्होंने राजेन्द्र के तीन नवरात्र, तीन वर्ष की कुँवरदेवी और तीन र्शत के प्रतिउत्तर में उसे ‘‘तीन का अंक’’ का जबाव ‘‘तीन अंक’’ से दिया है। शुरू से देखें तो अषीष भी अपने माता-पिता की तीसरी संतान और जिस किराये के मकान में अषीष की बहन कुँवरदेवी बनी थी, उससे ठीक तीसरे किराये के मकान मंे कुँवरदेवी का पहला शर्त पूर्ण हुआ और जिस प्रकार राजेन्द्र ने पशुपति सिन्हा के फ्लैट से अषीष के धर में षड्यंत्र किया ठीक उसी प्रकार अषीष भी भवेष के फ्लैट से पूजा के घर प्रेम लीला करके कुँवरदेवी का प्रथम शर्त पूर्ण किया। पूजा तीसरी लड़की थी जिसे अषीष ने पसंद किया था, इससे पहले अषीष की पसंद वंदना (जिसकी कोई कहानी नहीं है) और नेहा थी और पूजा भी अपनी माता-पिता की तीसरी संतान थी।
कुछ सोंचकर अषीष, श्री हरि विष्णु से पुछता है कि राजेन्द्र (तांत्रिक) जो की पढ़ा-लिखा व्यक्ति था, भूत-प्रेत के चक्कर में कैसे फँस गया। श्री हरि विष्णु अतीत में जाते हुए अषीष से कहा कि तुम जानते हो कि तुम्हारे नानिहाल में तुम्हारे नाना के पास जो भी भू-खण्ड उपलब्ध था उसे भी वे अपने ननिहाल से ही प्राप्त किये थें। लेकिन तुम्हारे ननिहाल वालों ने यह अनुभव नहीं किया कि आखिर उन्हें इतनी सारी जमीन क्यों दिया जा रहा है? वास्तव में तुम्हारे नाना जी के दादा जी (गौरी लाल) केे चार पूत्र देवनाथ लाल, द्वारिका लाल, गुलजारी लाल और सुखाड़ी लाल एवं एक बहन रूकम्णी थी, जिसमें रूक्मणी सभी भाईयों से बड़ी थी। गुलजारी लाल तुम्हारे नाना जी के पिता हुए, गौरी लाल की सास जोकि विधवा हो चुकी थी बैमत पूजती थी (वही बैमत जिसे काल की शुरूआत में माता काली ने अपनी पुत्री माना था)। तुम्हारे नाना जी के फुआ जिनका नाम रूक्मणि था, अपने भाई बहनों में सबसे बड़ी थी और अपनी नानी की दुलारी भी थी और वह अक्सर अपने ननिहाल में हीं रहती थी। चुँकि बैमत तंत्र-मंत्र और सिद्धि के बारे में जानती थी इसलिए वह गौरी लाल के सास को सिद्धि प्राप्ति के लिए रात्रि 12.00 बजे हवन करने के लिए कहती थी। वह किसी प्रकार अपने समाज और परिवार से बच कर सिद्धि तो प्राप्त कर ली लेकिन एक कुँवरदेवी प्राप्त करने के लिए उसे नवरात्र करवाने की जरूरत पड़ी जो वह नहीं कर सकी। चुँकि रूक्मणि अक्सर अपनी नानी के घर ही रहती थी और उनकी हर बात को मानती भी थी, उस समय उनकी आयु करीब 9 वर्ष की थी लेकिन समझ-बुझ में अपनी माँ को भी पीछे छोड़ देती थी। एक बार बैमत की दृष्टि नानी और नातीन के बीच संबंधों पर पड़ा और वह गुलजारी लाल के सास को बोली की तुम अपनी नातीन को हीं क्यों न कुँवरदेवी बना देती हो, वह तुम्हारे साथ रहना भी पसंद करती है और कुँवरदेवी बन कर भी तो तुम्हारे साथ ही रहेगी लेकिन रूक्मणि की नानी को यह बात पसंद नहीं आया और एक कुँवरदेवी की जरूरत भी थी। तब वह अपनी नातीन को बातों-बातों में कह दिया कि अगर हमारी मृत्यु हो जाए तो तुम अकेली रह पाओगी, इस पर रूक्मणि इतराते हुए बोली की तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी तो हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे जैसे तुम्हारी नानी तुम (अषीष) से कहती थी कि मरने बाद भी हम तुम्हारे साथ रहेंगे। तब रूक्मणि के नानी को समझ आ गया कि कुँवरदेवी बनने के बाद यह हमारे साथ हीं रहेगी और बिना कोई नवरात्र करवाए रूकमणि की नानी ने रूकमणी को उसी के घर पर कुँवरदेवी बना दिया और माता काली के समक्ष प्रस्तुत करके तीन शर्त दे दिया चुँकि नवरात्र नहीं हुआ था इसलिए बलि का विधान उन्होंने अपने घर पर हीं किया। चुँकि एक समय माता काली अपने निवास स्थल पर कुँवरदेवियों की बढ़ती संख्या को देखकर स्वयं बोली थी कि जिस घर की बेटी कुँवरदेवी बनेगी उस घर में धन का अकाल पड़ेगा ताकि लोग शक्ति के लालच में अपने हीं बेटी को कुँवरदेवी न बनाएँ और यह बात बैमत भली-भाँति जानती थी, इसलिए गौरी लाल और उनके परिवार को इस प्रकोप से बचाने के लिए रूक्मणि की नानी ने अपने भू-खण्डो में से कुछ भू-खण्ड गौरी लाल को दे दिया लेकिन साथ में वह बैमत भी भेज दी यह कहकर कि अब से तुम इन लोगों के साथ रहो और इन्हीं से कुलदेवी-कुलदेवता बन कर पुजा-पाठ लो और उधर नानी और कुँवरदेवी नातीन एक साथ रहने लगी जिसे कभी भी अपने परिवार की याद नहीं आती थी।
चुँकि जमीन गौरी लाल को ससुराल से प्राप्त हुआ था इसलिए उनलोगों को बैमत को हीं अपना कुलदेवी और भैरवनाथ को हीं अपना कुलदेवता मानना पड़ा और बैमत भी अपने को उस सम्पत्ति की कुलदेवी बताती थी, वह अपने बारे में उनलोगों कभी नहीं बतायी की वह एक बैमत है। गौरी लाल ने सभी भूखण्डों का बँटवारा अपने चारो पुत्रों के मध्य कर दिया । इसमें गुलजारी लाल को भी अपना हिस्सा मिला चुँकि बैमत गौरी लाल के तीनों पुत्रों से कुलदेवी बनकर हीं पूजा लेती थी और रहती थी गुलजारी लाल के साथ, क्योंकि रूक्मणी की नानी हीं बोली थी कि गुलजारी लाल के साथ हमेषा रहना। गुलजारी लाल के चार पुत्र हुए, मथुरा लाल, कामेष्वर लाल, छोटे नारायण लाल, और नन्हकु लाल। चुँकि मथुरा लाल की माँ बैमत को कुलदेवी के रूप में पुजा कर चुकी थी, इसलिए वह मथुरा लाल के पत्नी (जो कि घर में सबसे बड़ी थी) के समक्ष कुलदेवी बनकर खड़ी हो गयी और आगे चलकर सच्चाई से अवगत करवा दी। चुँकि मथुरा लाल की पत्नी बैमत का प्रसाद खाकर पूरी तरह उसके काबू में थी और शायद इसलिए वह बैमत का हर बात मानती थी। बैमत मंझली बहु के समक्ष भी इसी तरह प्रकट हो गयी लेकिन वह इन सब बातों को मानने से इनकार करते हुए उसकी पुजा करने से भी इनकार कर दी और शायद इसलिए उसे कोई संतान की प्राप्ति नहीं हुई। बैमत को सभी घर से पुजा चाहिए था इसलिए वह मंझली बहु को मृत्यु देते हुए उसे अपने रास्ते से हटा दी। कामेष्वर लाल की दूसरी शादी हुई और उनसे उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति भी हुआ। मथुरा लाल की पत्नी अक्सर अपने देवरानियों से कहती थी कि हम लोगों को भूत-प्रेत हटाना सिखना चाहिए लेकिन मंझली देवरानी कहती थी कि हमको भूत-प्रेत से डर लगता है और शायद इसलिए उन पर अक्सर भूत खेलता था और संझली देवरानी बोली की हम टूटा हुआ हाथ-पैर देखते हैं हम यही करेंगे और शायद इसलिए हमेषा वह गिरती-पड़ती रहती थी, इन सब काण्डों में बैमत का भरपूर योगदान रहता था। छोटी देवरानी को मथुरा लाल की पत्नी ने कुछ नहीं बोली। समय बितता गया और मथुरा लाल की पत्नी की मृत्यु हो गयी। मथुरा लाल की एक मात्र पुत्री थी शोभामणि देवी जिनका विवाह गया जिला के अरण्डा ग्राम के गोविंद शरण के साथ हुआ, जिन्हें दो पुत्र और एक पुत्री थी। राजेन्द्र, सत्येन्द्र और गीता। राजेन्द्र बचपन से हीं अपने ननिहाल में रहता था और वहीं अपनी पढ़ाई करता था, अपनी नानी के मृत्योपरान्त उस कमरे में राजेन्द्र अकेला रहता था। अवसर देखकर बैमत, उसकी नानी का स्वरूप बनाकर खड़ी हो गयी। अपनी नानी को देखकर राजेन्द्र खुष हुआ और उससे बाते करने लगा। बैमत उससे बोली की हमको यहाँ कोई नहीं रहने देगा। चुँकि राजेन्द्र भी तुम्हारी (अषीष) तरह अपनी नानी का दुलारा था इसलिए वह बोला कि तुम हमारे साथ रहो और तुम जो कहोगी वही हम करेंगे और धीरे-धीरे राजेन्द्र भी बैमत के चंगुल में फँस गया और अपनी नानी के रूप में बैमत की पुजा करने लगा। जब राजेन्द्र को सच्चाई का पता चला तो राजेन्द्र मजबुरी वष उसी रास्ते को अपना भविष्य बना लिया और आगे की कहानी तो तुम (अषीष) जानते हीं हो।
इधर श्री हरि विष्णु माता लक्ष्मी की अवस्था को देखकर चकित थे और माता दुर्गा से पूछ बैठे कि लक्ष्मी के द्वारा इस कलयुग में मेरी देवयुगीन तपस्या क्यों की जा रही है। इस पर माता दुर्गा ने श्री हरि विष्णु को समझाते हुए कहा कि यह तपस्या आपकों काली आवास में प्रकट होने के लिए की जा रही है। श्री हरि विष्णु ने अपनी समस्या को माता दुर्गा के समक्ष रखते हुए बोले कि ‘‘अगर हम लक्ष्मी के समक्ष आते हैं तो वह समय हमारा अवतार का अंत माना जाएगा और हम इस आत्मा (जहाँ श्री हरि विष्णु विराजमान हैं) को वचन दे चुके है कि इसके शरीर के सौ वर्ष की अवस्था तक हम यही विराजमान रहेंगे और दूसरे तरफ हमारे काली निवास आगमन से आपके प्रिय भ्राता भैरवनाथ का अंत भी हो सकता है जैसा कि आपने स्वयं कलयुग की शुरूआत में भैरवनाथ से कहा था। इसपर माता काली भैरवनाथ के भविष्य का समर्थन करते हुए बोली कि ‘‘श्री हरि विष्णु का विराट स्वरूप का दर्षन करने वाले की मृत्यु कैसे हो सकती है’’, श्री हरि विष्णु ने माता काली को स्पष्ट कराते हुए कहा कि ‘‘मेरे विराट स्वरूप का दर्षन तो द्वापर युग में अर्जुन ने भी किया था तो क्या उसकी मृत्यु नहीं हुई, अगर भैरवनाथ को हमारे विराट स्वरूप का फल हीं चाहिए तो उसे हम मोक्ष देंगें। देवताओं के बीच इतना बहस होने के बावजूद माता लक्ष्मी की तपस्या जारी था, तब श्री हरि विष्णु ने स्वयं की छाया को माता लक्ष्मी के सिर पर प्रकट किया और कहा कि देवी हम तुम्हारे मस्तिष्क पर विराजमान है, अगर तुम हमारा दर्षन कर सकती हो तो कर लो। तब माता लक्ष्मी ने अपना नेत्र खोला तो पाया कि श्री हरि विष्णु अषीष के आत्मा में ही विराजमान हैं। श्री हरि विष्णु के इस छल को माता लक्ष्मी ने प्रणाम किया और मुस्कुराते हुए कहा कि आप तो हमारे हृदय में विरामान है, हम हीं मुर्ख हैं जो आपके दर्षन के लिए ब्यर्थ में तपस्या किए जा रहे हैं।
एक बार अषीष त्रिदेवों के नामों के बारे में विचार कर रहा था और आखिरकार उनके नामों का अर्थ श्री हरि विष्णु से पुछ बैठा। चुँकि श्री हरि विष्णु स्वयं चकित थे कि उसके मन में ऐसा विचार आया कहाँ से। तब स्वयं ब्रहा्रजी ने श्री हरि विष्णु के नामों का ब्याख्यान करते हुए कहा कि ‘‘विष्णु’’ शब्द में दो शब्द छिपे हुए हैं पहला ‘‘विष’’ और दूसरा ‘‘णु’’ और आगे कहा कि विष का मतलब तो तुम समझ ही रहे होगे ‘‘णु’’ का अर्थ ‘‘अमृत’’ होता है। इस पर अषीष प्रष्न करते हुए कहा कि ‘‘णु’’ का मतलब अमृत होता है ऐसा मैने पहले कभी नहीं सुना, अगर आप इसकी व्याख्यान करें तो कृपा होगी। तब ब्रहा्रजी ने समुद्र मंथन के समय का याद दिलाते हुए कहा कि जब समुद्र मंथन हो रहा था तब धनवन्तरि स्वयं श्री हरि विष्णु के समक्ष अमृत का कलष लेकर प्रस्तुत हुए और श्री हरि विष्णु ने उस अमृत के कलष को अपने अधिकार में ले लिया और जब दैत्य लोग श्री हरि विष्णु से धनवन्तरि अथवा अमृत के बारे में पुछा तब श्री हरि विष्णु ने सोये हुए अवस्था में ही कह ‘‘णु’’ अर्थात नही कह दिया, जो कि अमृत का संस्कृत है। तब अषीष बोलता है शायद इसलिए ये अपने भक्तों को पहले विष रूपी कष्ट देते है और जो उस विष को पार कर लेता है तभी उसे अमृत रूपी कृपा बरसाते हैं, सभी हँसने लगते हैं। तब अषीष अपने बात को आगे बढ़ाते हुए ‘‘षिव’’ शब्द का अर्थ पुछ बैठा, तब ब्रहा्रजी ने अषीष को समझाते हुए बोले कि हम तो भोलेनाथ को ‘‘षिव’’ प्रेम से बोलते हैं भगवान षिव का नाम ‘‘शीत’’ शब्द से रखा गया है, वास्तव में किसी समय ये काफी उग्र हुआ करते थे तब मैंने इन्हें समझाते हुए कहा कि आप ‘‘शीत’’ अथवा षितल है तभी से समस्त चराचर के देवगण इन्हें ‘‘षिव’’ कहकर संबोधित करने लगे। जब पहली बार ब्रहा्राण्ड बना था तब ये कैलाष पर्वत पर विराजमान होते थे और अपनी तपस्या में लीन रहते थे, शायद इसलिए वहाँ के रहने वाले लोग इन्हें कैलाष मुनी कहने लगे थे। उस समय हमारे ब्रहाण्ड में विष्णु नामक कोई पक्षी भी नहीं था। चुँकि अवतार भी इन्हीं को लेना होता था इसलिए अपने कार्याें के दुगुना बोझ देखते हुए उन्होने अपनी समस्या हमें सुनाई और तब मैंने कोटि-कोटि काल तपस्या के बाद ‘‘विष्णु’’ की उत्पति की और अवतार लेने की जिम्मेवारी इन्हें सौंपा, जो सही मायने में क्षत्रिये हैं या फिर क्षत्रिये की उत्पति इन्ही से होती है। तब अषीष श्री हरि विष्णु से प्रष्न करता है कि आपने शेषनागजी का नाम ‘‘शेषनाग’’ क्यों रखा? इनका नाम पंचमुखी नाग अथवा नागदेव भी हो सकता था। तब श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि शेषनाग के जन्म अथवा नाम के पीछे एक देवयुगीन घटना है, जो मैं तुमसे कहता हूँ। वास्तव में शेषनाग एक साधारण नाग थे, बात उस समय की है जब हम (श्री हरि विष्णु) और माता लक्ष्मी अपने बैकुठ लोक के उद्यान में भ्रमण कर रह थे, उस समय सूर्यदेव षिर्ष पर थे, चुँकि हमदोनों के साथ हमारी छाया भी वहाँ उपस्थित था, एक साधारण नाग हमारी छाया पर अपना फन पटके जा रहा था, मानो वह नाग समझ रहा हो कि वह हमारी छाया नहीं अपितु हमारा शत्रु है। माता लक्ष्मी इस बात को काफी गौर कर रही थी, उन्होंने जब हमें इस बात की जानकारी दी तब हमने भी इसका परीक्षण किया, तब तक उस नाग ने इतना फन धरती पर पटक चुका था कि उसका नथुना शेष दिख रहा था। माता लक्ष्मी के आग्रह पर हमने उस नाग को उठा लिया और अपने महल में ले आए, चुकि नाग काफी जहरीला था, इसलिए हमने उसे अपने वष में करने के लिए उससे कहा कि ‘‘हे नाग, हम तुम्हें अपने वष में करने के लिए तुम्हारे ऊपर अपना सुदर्षन छोड़ रहे हैं हो सकता है इस दौरान तुम्हारा सिर कट जाए, इसके बदले में तुम हो चाहे इस सुदर्षन से माँग लेना। लेकिन जैसे ही मेरा सुदर्षन ने नाग का सिर काटा, उसी क्षण पुनः नाग के पाँच सिर प्रकट हो गया। माता लक्ष्मी इस अलौकिक जीव को पहली बार देख रही थी, वह उस पंचमुखी नाग को लेकर षिवलोक पहूँची, ऐसी जीव की कल्पना ब्रहा्रा जी ने भी नहीं किया था। षिवजी ने उसे इच्छाधारी बना दिया, चुँकि नाग ने भूतकाल में अपनी बुद्धिहीनता दिखा दी थी और उसका नाथुन भी शेष रह गया था इसलिए इस घटना को याद में रखते हुए हमनें इनका नाम ‘‘शेषनाग’’ रखा। शेषनाग के बनावट को देखकर हीं ब्रहाजी ने देवराज इन्द्र के लिए एरावत की उत्पत्ति की थी जिसके पाँच सूँढ थे।
एक बार शिवजी जी ने अशीष को समझातें हुए पुछा कि तुम ये बताओं की आर्शीवाद स्वरूप जो देवताओं द्वारा ‘‘तथास्तु‘‘ षब्द का प्रयोग किया जाता है वो शुद्ध है अथवा अशुद्ध? अशीष काफी विचार करते हुए बोला कि यह शब्द (तथास्तु) शुद्ध है और आज भी अधिकतर साधु-संत इसका प्रयोग करते हैं। अशीष के इस बात को सुनकर श्री हरि विष्णु मुस्कुराते हुए बोलें कि ‘‘तथास्तु’’ में दो शब्द विराजमान है, एक ‘‘तथा’’ जिसका अर्थ ‘‘और’’ एवं ‘‘स्तु’’ का अर्थ ‘‘हो’’ अथवा ‘‘होगा’’ होता है इस प्रकार तथास्तु का क्या अर्थ होगा ये तुम समझ सकते हो। अशीष सारी धरती के साधु-संतो के आर्शिवादों को संज्ञान में लेते हुए पहले तो बहुत हँसा और फिर हँसते हुए बोला कि ‘‘तथास्तु’’ शब्द का अर्थ है ‘‘और होगा’’ अथवा ‘‘और हो’’, लेकिन ‘‘तथास्तु’’ का शुद्ध शब्द क्या होगा? अशीष श्री हरि विष्णु से पुछा, तब शिवजी ने मजाकिये शब्दों में बोले कि तुम इतना हँसोगे तो श्री हरि विष्णु कैसे बतायेंगे। तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि ‘‘तथास्तु’’ का शुद्ध शब्द है ‘‘यथास्तु’’, जिसका अर्थ होता है ‘‘ऐसा ही होगा अथवा ऐसा ही हो’’।
अशीष भारत में मनाये जाने वाले सभी त्योहारों का धार्मिक महत्व समझता था लेकिन ‘‘गंगा दषहरा’’ का महत्व नहीं समझता था शायद इसलिए वह श्री हरि विष्णु से ‘‘गंगा दषहरा’’ की महत्वता के बारे में पुछ बैठा। इस पर स्वयं श्री हरि विष्णु ने कहा कि भगवान षिव अक्सर माता पार्वती से अपने षिवगणों की तारीफ किया करते थे। माता पार्वती भगवान षिव की इस हरकत से तंग हो चुकी थी। उन्होंने इस बात की जानकारी लेनी चाही की आखिर सत्य क्या है और भगवान षिव की अनुपस्थिति में स्वयं को भगवान षिव का स्वरूप लेकर उनके आसन पर विराजमान हो गईं। माता पार्वती की सहेलियों ने आते हीं भगवान षिव रूपी माता पार्वती की वंदना की और चली गयी, षिवगण भी लेकिन भगवान षिव के स्वरूप को अधूरा पाया, सभी लोगों के मध्य आष्चर्य ब्याप्त था, कोई उन्हें दानव कह रहा था तो कोई षिव लीला क्योंकि षिव रूपी माता पार्वती की जटाओं से गंगा नहीं प्रवाहित हो रही थी। तभी भगवान षिव का आगमन हुआ और उन्होंने षिवगणों के बीच फैले इस आष्चर्य को देखकर भीड़ के पीछे हीं खड़े होकर सत्य का पता लगाया। माता पार्वती की इस लीला को देखकर भगवान षिव खुष हुए और उन्होंने षिव स्वरूपा माता पार्वती के जटाओं से भी गंगा प्रवाहित कर दिया। जिससे तपस्या में लीन माता पार्वती की आखें खुल जाती है लेकिन गंगा प्रवाहित होते हीं षिवगणों के मध्य भगवान षिव की जय-जयकार होने लगती है। माता पार्वती, भगवान षिव को देखकर अपना स्वरूप प्रकट करती हैं और भगवान षिव का चरण स्पर्ष करते हुए क्षमा माँगती है। इस पर भगवान षिव ने कहा कि हमें जो संदेह था वही सत्य निकला। माता पार्वती ने भगवान षिव द्वारा कहे ‘‘संदेह’’ शब्द पर प्रष्न किया तो भगवान षिव ने कहा कि ‘‘हमें संदेह था कि गंगा हमारी पहचान बन गई है और वही सत्य निकला, तभी पितामह श्री ब्रहा्राजी का आगमन होता है और उन्होंने माता पार्वती की जटाओं से गंगा के प्रवाह को देखकर आष्चर्य किया, सारी बातों की जानकारी लेने के बाद पितामह श्री ब्रहा्राजी ने माता गंगा को वरदान दिया कि कलयुग में माता गंगा को याद करते हुए माता दुर्गा की पुजा होगी जिसे माता सरस्वती ने ‘‘गंगा दषहरा’’ कह कर उच्चारित किया और कहा कि इस प्रकार गंगा ‘‘माता दुर्गा’’ की भी पहचान बनेगी।
‘‘अषीष’’ आगे श्री हरि विष्णु के वराह अवतार पर संदेह प्रकट करते हुए कहता है कि आपके द्वारा लिए गए वराह अवतार पर हमें संदेह होता है, भला सागर जो कि धरती पर हीं हैं उसमें एक दैत्य द्वारा धरा को उसी सागर में कैसे डुबोया सकता है? इस प्रष्न के जबाव में स्वयं श्री हरि विष्णु ने एक कथा सुनाते हुए कहा देवराज इन्द्र अक्सर हम त्रिदेवों को हीं शक्ति का केन्द्र बताया करते थे, और बार-बार किसी प्रकार के दुःख मंे हम त्रिदेव अथवा त्रिदेवी को ही परेषान किया करते थे जबकि अपने कष्ट के कारण वे स्वयं होते थे। पितामह श्री ब्रहा्रजी ने एक योजना के तहत सौरमंडल के एक ग्रह (षुक्र ग्रह) को हरा रंग का कर दिया तथा हमारे द्वारा देवराज इन्द्र को कहलवाया कि आप देवताओं कि शक्ति ब्रहा्राण्ड (सौरमंडल का एक ग्रह) का एक ग्रह ‘‘जिसको हमने इंगित करते हुए हुए बताया’’, है तथा हमलोग उसी पिंड से शक्ति प्राप्त करते हैं। चुँकि देवराज इन्द्र ने बेखौफ होकर अपने नित कर्म में व्यस्त हो गए कि उनकी शक्ति तो एक पिंड में विराजमान है और उस पिंड को कोई प्राप्त नहीं कर सकता है क्यों कि वह पिण्ड धरा से अलग थी। उक्त बातें दैत्यों कि मध्य चली जाती है। उसमें मुख्य रूप से हृण्याक्क्ष और हृण्यकष्यप था जिसमें देवताओं का विरोध कूट-कूट कर भरा था, उन दोनों भाईयों ने उक्त पिण्ड को गायाब करके धरती के सागर तल में डूबो दिया, परिणाम स्वरूप हमे वराह अवतार लेना पड़ा और उक्त पिण्ड को सागर से निकाल कर उसी स्थान पर पुनः स्थापित करना पड़ा।’’
अशीष अपने मन में ‘‘भव सागर’’ को समझने की इच्छा हमेशा अपने मन में रखता था और सोंचता था कि कभी अगर चर्चा हुई तो इस पर से भी पर्दा हटाएगा। एक दिन श्री हरि विष्णु ने अशीष से कहा कि अगर कुछ जानने की इच्छा रखते हो तो बोलो, काफी विचार करने के बाद अशीष ‘‘भव-सागर’’ को समझने की इच्छा रखा। तब श्री हरि विष्णु ने अशीष से पुछा कि ‘‘भव-सागर’’ शब्द का क्या अर्थ है? तब अशीष ने श्री हरि विष्णु की प्रेरणा से कहा कि ‘‘भव’’ शब्द का अर्थ ‘‘होना’’ और ‘‘सागर’’ इस धरा अथवा संसार को कहते हैं अर्थात यह संसार हीं भव-सागर है? श्री हरि ने हँसते हुए ‘‘हाँ’’ में जबाव दिया, तो इस सागर को किस प्रकार पार किया जा सकता है। तब स्वयं श्री हरि विष्णु ने कहा कि वैसे तो यहाँ के समस्त प्राणी, मानवजाति, सारी प्रजातियों मंे एक आत्मा मौजूद होती है जोकि हमारी हीं शक्ति का एक कण मात्र होती है। हमारी कुछ शक्तियाँ जो कि समय अथवा काल के चक्रण के कारण अनैतिकता की भागी बन जाती है, हम वैसी शक्तियों को आत्मीय स्वरूप में प्रकट करके दंडित करते हैं तथा उन्हें जीवन जीने के लिए पाप और पुण्य जीवन चक्र में छोड़ देते और पुनः हमारे द्वारा कहा जाता है कि अगर वे अपने जीवन काल में कुछ ऐसे पूण्य अथवा परोपकार करें जिससे हमें उनमें सिर्फ सदाचारिता हीं नजर आए और हम पुनः वैसी आत्माओं को मोझ देते है और वे पुनः एक शक्ति का कण बनकर हमारी धमनियों में प्रवाहित होने लगती है। तभी पितामह श्री ब्रहा्रा जी ने कहा कि भव-सागर में सिर्फ ये संसार वाले ही नहीं बल्कि हम स्वयं फँसे हुए हैं और स्वयं श्री हरि विष्णु और शिव जी भी फँसे हुए हैं और तब ब्रहा्राजी स्वयं कहना आरंभ किया किया:-
हम त्रिदेव-त्रिदेवियाँ, समस्त ब्रहा्रण्ड अथवा यहाँ पर निवास करने वाले लोग अपने-अपने भाग्य को प्रतियोगित कर रहे हैं और ये सारा खेल परम्पिता ब्रहा्रा का रचा हुआ है। मैं स्वयं ब्रहा्रा और इस चराचर में निवास करने वाले एक तुक्ष जीव में कोई अंतर नहीं है। चुँकि अभी कलयुग खत्म होने को है और संसार वाले ब्रहा्रण्ड के समस्त रहस्यों को जान चुके हैं अथवा जानने की इच्छा रखते हैं, तो मैं स्वयं वास्तविक भव-सागर के रहस्यांे से अवगत करा रहा हूँ। वास्तव में मैं स्वयं एक आत्मा हुँ जो कि एक तुक्ष जीव को भी प्राप्त होता है, ये तो मेरा भाग्य है कि मैं ब्रहा्रा हूँ और वह एक तुक्ष जीव। परम्पिता ब्रहा्रा जो आत्म की बीज की उत्पत्ति करते हैं और उन बीजों को अपने सहायकों के सहयोग से किसी को ब्रहा्रा बनाते हैं कुछ बीजो को ब्रहा्रा की शक्ति बनाते हैं और कुछ बीजों के सहयोग से हमारे द्वारा इस ब्रहा्रण्ड की रचना की गयी है तथा कुछ बीजों को जीवन मंे डाल दिया जाता है जिनमें एक स्वयं तुम हो। ऐसी ही बातें हम समस्त देवताओं के साथ भी है, शिवजी कहते हैं। इस पर अशीष प्रश्न करता हैं कि हम और आप इस भव-सागर को कैसे पार कर सकते हैं? इस पर ब्रहा्रा जी कहते हैं कि मैं स्वयं ये प्रश्न परम्पिता ब्रहा्रा से कर चुका हूँ तो उन्हांेने कहा कि हमारे भी एक विधाता है जो हमें बीज देते हैं और मैं उन्हीं बीजों में से किसी को ब्रहा्रा, किसी को विष्णु तो किसी को शिव बनाता हूँ, मैं ये तय नहीं करता हूँ कि किस बीज से ब्रहा्रा, विष्णु अथवा शिव बनाऊँ और किन बीजों के सहयोग से ब्रहाण्ड की रचना करवाऊँ, ये सब उन बीजों का भाग्य है। बस कुछ अवधि तक तुम्हें ब्रहा्रा बनकर ब्रहाण्ड को चलाना है उसके बाद मैं स्वयं तुम्हें अपने परम्पिता ब्रहा्रा के समक्ष प्रस्तुत करूँगा। जो कि तुम्हारे ब्रहा्रत्व अथवा शिष्टाचार की परीक्षा लेंगे और सफल होने पर तुम्हें अपने साथ ले जाकर कुछ महत्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करवायेंगे। तब अशीष झट से पुछता है कि अगर आप असफल हो गये तो? इस पर पितामह श्री ब्रहा्रजी ने कहा कि असफल होने पर वे पुनः हमें आत्मा का एक बीज बना देंगे और फिर किसी दिन भाग्य उदय हुआ तो पुनः ब्रहा्रा भी बनेंगे।
अशीष द्वारा श्री हरि विष्णु से पुछे जाने पर कि इस सृष्टि की उत्पत्ति अथवा निर्माण, पितामह श्री ब्रहा्राजी का प्रकट होना, यहाँ तक की धरती पर स्त्रियों और पुरूषों के बीच आकर्षण, इन सब बातों का क्या रहस्य है, आखिर ऐसी लीलाएँ क्यों किया गया ? तब स्वयं श्री हरि विष्णु ने विचार करते हुए कहा कि हमारे आगमन के पहले भगवान षिव और पितामह श्री ब्रहा्रजी का आगमन हो चुका था, हम जब आए थे तब सारी लीलाएँ हो रही थी और हमें भी इन लीलाओं में शामिल किया गया। तुम्हारे इस प्रष्न का जबाव या तो भगवान षिव अथवा पितामह श्री ब्रहा्राजी ही दे सकते हैं। अषीष के इस सवाल से भगवान षिव भी आष्चर्यचकित थे और वे ये भी जानते थे कि संसार के अधिकत्तर प्राणी इन रहस्यों को जानना चाहता है। तब उन्होंने इस प्रष्न को आगे दुहराते हुए पितामह श्री ब्रहा्राजी से कहा। पितामह श्री ब्रहा्रजी ने हँसते हुए कहा कि ये कलयुग है और इस कलयुग में सांसारिक लोगो के बीच पारदर्षिता है चाहे वह शासन हो अथवा प्रषासन, चाहे भोग हो या विलास। इसलिए हम आज इस रहस्य से भी पट हटा ही देते हैं और उन्होने कहना आरंभ किया।
‘‘बात उस समय कि है जब यह ब्रहा्रण्ड नहीं था, चारो तरफ अंधेरा ही अंधेरा था, जो भी स्थान, धरा अथवा धरती थी वो सब एक ही दिव्य पुरूष की ही थी जो परम्पिता श्री ब्रहा्रजी कहलाते है, हम इस बात से अवगत नहीं है कि उनकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई परन्तु हम अपनी उत्पत्ति के विषय में जरूर अवगत करवा सकता हूँ। बात उस समय की है जब परम्पिता श्री ब्रहाजी ने हमलोगों की उत्पत्ति किया था, हम चार भ्राता हुआ करते थे, हमारे पिताजी ने कुछ कला दिखाने का आदेष देते हुए कहा कि ’’कुछ ऐसी कलाकृतियाँ दिखाओ, जो हमारे समान तो हो लेकिन हमसे विपरीत भी हो, हमारे सभी भ्राताओं ने एक से एक कलाकृतियाँ दिखाई और उसमें हम भी शामिल थे, किसी ने मानव की आकृति बना कर उसके सर पर सींग बनाया तो किसी ने मानव को पूछ दे दिया, हम भी कला दिखा रहे थे हमने भी चित्रकारी किया जो सभी से भिन्न था, हमने एक नग्न मानव चित्र बनाया या फिर ये कहा जाए कि हमने अपना ही चित्र बनाया लेकिन चित्र में जाँघो के बीच एक लकीर खींच दिया। सभी ने अपनी चित्रकारी को परमपिता श्री ब्रहाजी के समक्ष प्रस्तुत किया, उन्होंने सभी की चित्रकारी को देखा उसमें मेरा चित्रकारी भी शामिल था, उन्होंने मेरा चित्रकारी को देखकर हँसे और बोले की यह क्या है हमने भी ये कहते हुए प्रतिक्रिया दिखाई कि ‘‘पिताश्री, हमने स्वयं को ही इस चित्र में प्रस्तुत किया है लेकिन जाँघों के बीच एक लकीर खींच दिया है। परम्पिता ब्रहा्राजी ने हमारे चित्रकारी को सुधारते हुए उसके बाल को लम्बे कर दिए, उसके स्तन को उभार दिए तथा उसे वस्त्र पहनाया। उसके बाद उस चित्रकारी पर अपनी शक्ति से प्रहार किया, जिससे एक स्त्री प्रकट हो गयी जो कि एक मानव भी थी और हमसे विपरीत भी थी। इस प्रकार सभी के चित्रकारी पर भी शक्ति से प्रहार किया गया लेकिन किसी ने दैत्य बनाया था तो किसी ने दैत्यु रूपी पषु। परमपिता श्री ब्रहा्रजी ने उस स्त्री को, ‘‘स्त्री को उत्पन्न करने वाली एक यंत्र बना दिया, उसका मुख्य कार्य स्त्री की आत्माएँ प्रकट करना है जो कि हमारे गर्भ में निवास करती है। स्त्री और पुरूष के बीच आकषर्ण का कारण उन दोनों की ज्ञानेन्द्रिया हैं जो समय के साथ विस्तार करती हैं और कुछ काल अथवा समय का भी दोष होता है। परम्पिता ब्रहा्राजी ने हमें कुछ शक्ति देते हुए कहा कि तुम इसके साथ जाओं और ब्रहा्रण्ड बनाकर कुछ लीलाएँ करों। इस कहानी को सुनकर अषीष ब्रहा्राजी से पुछा कि ‘‘आपने तो भव सागर का मतलब शक्ति का बीज बताया है, इस पर पितामह श्री ब्रहाजी ने हँसते हुए कहा कि ‘‘समय के साथ परिवर्तन भी होता है, और विधान भी बदलते रहते हैं, यही कारण है कि हमने भव सागर का मतलब शक्ति का बीज बताया है।
पुनः अशीष प्रश्न करता है कि अगर आप चले जाऐगें तो इस ब्रहा्रण्ड का क्या होगा? इसे कौन चलाएगा? तब श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि ब्रहा्राजी के जाने के बाद हम लोगों की प्रोन्नति होगी और शिवजी ब्रहा्रा बनेंगे और मैं स्वयं शिव, इस पर ब्रहा्रजी ने आपत्ति जताते हुए शिवजी के बारे में कहा कि शिवजी से पितामह श्री ब्रहा्राजी का पद नहीं संभलेगा क्यों कि ये मादक पदार्थो का सेवन करते है हर बार श्री हरि विष्णु को ब्रहा्रपद संभालने के लिए आग्रह करते हैं, इस पर शिवजी मजाकिये शब्दों में कहते हैं कि हमें इस धरती से प्रेम है और हम इसे छोड़ कर नहीं जाऐगे। तब श्री हरि विष्णु की प्रेरणा से अशीष हँसते हुए कहता है कि आपकों धरती से प्रेम है अथवा परम्पिता ब्रहा्र की परीक्षा से बचना चाहते हैं, आपको असफल होने का डर है और आप पुनः आत्मा का बीज बनने से डरते हैं। इस पर शिवजी हँसते हुए कहते हैं कि हम मादकीय देव है लेकिन बुद्धु नहीं।
फिर कुछ सोंचकर अशीष प्रश्न करता है कि पितामह श्री ब्रहा्राजी के चले जाने के बाद स्वयं श्री हरि विष्णु, ब्रहा्रा बनेंगें तो विष्णु कौन बनेगा? तब ब्रहा्रजी ने कहा कि श्री हरि विष्णु की प्राप्ति के बाद मैं स्वयं परमपिता ब्रहा्रा से प्रश्न किया कि हमारे जाने के बाद ब्रहा्रण्ड कौन संभालेगा? तब उन्होंने कहा कि तुम्हें ब्रहा्रण्ड से बाहर निकालने के पहले हम तुम्हारे देवों को प्रोन्नति देंगे और रिक्त पद पर किसी साधारण प्राणी की आत्मा को पदस्थापित करेंगे और हमें (ब्रहा्रजी को) पूर्ण विधान समझा दिया। तब शिवजी ने आगे कहाँ कि ब्रहा्रा जी के विधान के अनुसार तुम (अशीष) वो आत्मा हो जो भविष्य मंे हम त्रिदेवों मंे शामिल होगे क्यों कि पितामह श्री ब्रहा्रजी ने स्वयं कहा था कि कलयुग में जिस प्राणी में श्री हरि विष्णु का अवतार होगा वहीं प्राणी का आत्मा त्रिदेवों में शामिल होगा और इस प्रकार तुम हमारे चतुर्थ भ्राता हुए। इस पर स्वयं श्री हरि विष्णु, अशीष से पुछते हैं कि तुम्हारी क्या इच्छा है? तब अशीष विचार करते हुए कहता है कि हम शिवलोक में निवास करके ब्रहा्राजी के सम्पूर्ण कालचक्र (युगों के समुह को कालचक्र कहते हैं) को देखना चाहते हैं, देवयुग में कैसे माता दुर्गा महिषासुर और रक्तबीज जैसे दैत्यांे का वध करती है? द्वापर युग में कैसे महाभारत में चक्रव्युह रचा जाता है? और त्रेता युग में कैसे आप स्वयं (श्री हरि विष्णु) रावण वध करते हैं।
अषीष पूछता है कि शनिदेव किस युग के देवता हैं। इस पर श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि शनिदेव हमारी हीं गलतियों का परिणाम हैं। वास्तव में देवयुग में सभी देवों को वरदान देने की इच्छा होती है। सभी चाहते हैं कि हमारी कोई तपस्या करे और हम भी उसे वरदान स्वरूप कुछ दें। भगवान षिव और भष्मासूर की कथा तो तुम जान ही रहे हो, वैसे ही मेरी भी कहानी हैं। माता सरस्वती की प्रेरणा से शनिदेव ने हमारी (श्री हरि विष्णु) तपस्या करना प्रारंभ किया। समय पूर्ति होने के पश्चात् हम शनिदेव को दर्षन दिए और खुष होकर वरदान माँगने को कहा, इसपर शनिदेव ने ‘‘तथा’’ और ‘‘एवं’’ का प्रयोग करके बहुत सारे वरदान माँगने लगे, जैसे- हम किसी भी योद्धाओं पर विजय प्राप्त कर लें, किसी भी प्राणी में अपने प्रति प्रेम भर दें, सुक्ष्म प्राणी को विषालकाय स्वरूप और विषालयकाय प्राणी को सुक्ष्म स्वरूप दे सकें, और भी भाँति-भाँति प्रकार के वाक्य थे। हम भी आष्चर्य में पड़ गए क्योंकि उनके वरदान के वाक्य समाप्त ही नहीं हो रहे थे। इसलिए हमने शनिदेव के नेत्र में ऐसी शक्ति दे दी जिससे वे किसी भी प्राणी के सोंच को विपरित कर सकें अथवा उसकी अवस्था को विपरित कर सकें। अब तुम ही बताओं किसी भी योद्धा पर विजय प्राप्त करने वालाा उसके मन में प्रेम कैसे भर सकता है, ये तो उसके आत्मा के साथ उत्पीड़न ही होगा न। किसी भी जीव को विषालयकाय अथवा सुक्ष्म स्वरूप देना ब्रहा्राजी के सृष्टि के साथ खिलवाड़ होगा, तभी मैंने उसे ऐसा वरदान दिया। वरदान प्राप्ति के बाद शनिदेव खुष होकर पहले अपनी पत्नी के समक्ष प्रस्तुत हुए जो उनके लौटने का इंतजार कर रही थी। लेकिन शनिदेव के नेत्र पड़तें ही उनकी पत्नी का प्रेम, नफरत में बदल गया और अंततः उन्हें अपनी पत्नी का त्याग करना पड़ा। उनके शत्रु उनसे प्रेम करने लगे और प्रेमवष वे किसी को अपने अधीन नहीं कर सकते थे। ऐसी परिस्थिति को देखकर परेषान शनिदेव हमारे समक्ष प्रस्तुत हुए और हमें अपने दुःख से अवगत कराया। हमें भी आष्चर्य का दिखावा करना पड़ा। उसी समय हमने एक काक को जाते देखा, उस काक के मन में हंस की भाँति सफेद होने की इच्छा थी, मैंने शनिदेव को इषारे में उस काक को देखने के लिए कहा और शनिदेव का नेत्र पड़ते हीं काक का वर्ण काला हो जाता है। अपनी इस अववस्था को देखकर काक को बहुत गुस्सा आता है और वह शनिदेव से षिकायत करता है। मैंने भी शनिदेव को समझाते हुए कहा कि तुम काक की भाँति उस समय चतुराई की उड़ान कर रहे थे इसी के परिणामस्वरूप तुम्हारे साथ ऐसा हुआ। काक वहीं विलाप कर रहा था। मैंने शनिदेव को समझाते हुए कहा कि इस काक को अपना वाहन बनाओं और उसी प्रकार आकाष में भ्रमण करो, जिस प्रकार वरदान माँगते समय कर रहे थे। उसके बाद पितामह ब्रहा्राजी के इच्छा से हमने भी वरदान देना समाप्त कर दिया। वैसा ही हाल माता सरस्वती के साथ भी हुआ। माता सरस्वती भी सुब्रारूसूर को वरदान देने गई। चुँकि माता सरस्वती ज्ञान की देवी थी और हर वाक्य का अर्थ भलीभाँति समझती थी, इसलिए उन्होंने सुब्रारूसूर को मनोवांछित वरदान नहीं दे रही थी। उस अवस्था में सुब्रारूसूर माता सरस्वति पर क्रोधित हो गया, माता सरस्वती सुब्रारूसूर को समझा रही थी। तभी शनिदेव ने सुब्रारूसूर पर अपना नेत्र डाल दिया और इसके विपरित वह असूर क्रोध करने के बजाय माता सरस्वती से प्रेम-प्रलाप करने लगा, फलतः माता सरस्वती को बिना वरदान दिए हीं वहाँ से लौटना पड़ा और तब से उन्होंने भी वरदान देना समाप्त कर दिया। ब्रहा्राजी ने माता दुर्गा को वरदान देने के लिए अधिकृत नहीं किया था, क्योंकि सभी असूरों का संहार करने वाली वही एक मात्र देवी शेष थी।
अषीष दूबारा पुछता है कि शनिदेव देवताओं में कैसे शामिल हुए? तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि चुँकि शनिदेव हमेषा काक पर सवार होकर आकाष में भ्रमण करते थे। उनके मन में एक षड्यंत्र आया और शनिदेव ने पितामह श्री ब्रहा्रजी को स्वयं को देवताओं में सम्मिलित करने की बात कही, जिससे ब्रहा्राजी क्रोधित हुए लेकिन उन्होंने ब्रहा्राजी पर अपना नेत्र रख दिया जिससे ब्रहा्राजी क्रोध करने के बजाय प्रेम पूर्वक बातें करने लगे। उन्होंने हम त्रिदेवों और त्रिदेवियों का अव्ह्ान कर शनि देव को देव में शामिल करने का प्रस्ताव रखा। हम सारी बाते समझ रहे थे, चुँकि ब्रहा्राजी का वचन था, मेंरे अंदर दुःख के साथ आक्रोष भी था। हमने षिवजी को इषारे में कहा कि इसका वध कर देते हैं? इस पर षिवजी ने कहा कि गलती तुम्हारी है, भला इसका वध क्यों करोगे? और इस प्रकार शनिदेव, देवताओं में शामिल हो गए। तब अषीष आगे पुछता है कि शनिदेव का इस कलयुग में क्या भूमिका है? तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि इस कलयुग की अवधि 78000 वर्ष किसी को सहन नहीं हो रहा था, सिवाय ब्रहा्राजी के। हर कोई अपने तरह से काल को हटाने के विषय में सोंचता था, इन्द्रदेव को अपने वज्र पर घमंड था तो वृहस्पतिदेव को अपने ज्ञान पर और स्वर्ग जोकि ब्रहा्रण्ड के पूर्वी छोर पर है वहीं बैठे-बैठे योजनाएँ बनाते थे। एंेसा भी कुछ शनिदेव के साथ भी था। वे अक्सर कलयुग को हटाने अथवा मारने के लिए भाँति-भाँति प्रकार के खड्यंत्र अपने सेवकों के साथ करते थे। वे अपने सेवक को कलयुग की परिक्रमा करके उसकी छाया को पकड़कर लाने के लिए कहते थे ताकि वे अपनी छाया पर ही नेत्र रखकर काल का अंत कर दें। ब्रहा्राजी ने उन्हें धरती की तरफ नेत्र रखने का ख्याल हीं नहीं दिया था और वैसे भी वे खुद को हमसे भी बड़े मानते हैं। उनका एक सेवक जो डेड़ दिन में काल का एक परिक्रमा करता है जो डेओढ़ा कहलाता है और एक सेवक जो साढ़े सात दिन में काल का एक परिक्रमा करता है जो ‘‘साढ़े साती’’ कहलाता है। धरती के प्राणीयों पर शनिदेव का क्या प्रभाव है? इस प्रष्न के जबाव में श्री हरि विष्णु ने कहा कि ‘‘जो भी ग्रह-नक्षत्र हैं वे काल के अनुसार हीं अपना कार्य सिद्ध करते हैं या फिर ये कहें कि काल हीं किसी प्राणी को, किसी ग्रह के अर्न्तगत उससे काम करवाता है और अंततः फल भी प्रदान करवाता है, इसमें शनिदेव का कोई योगदान नहीं है।
अषीष आगे प्रष्न करता है, तब श्री हरि विष्णु ने साफ शब्दों में कहा कि शनि, राहू, केतू, वृहस्पति, शुक्र, सूर्य और भी अन्य ग्रह अथवा नक्षत्र है। इन सब के स्वामी कलयुग है और वही इन सभी ग्रहों के तरफ से परिणाम दिखाता था चाहे वह प्राणियों के हित में हो या अहित में। अषीष आगे पूछता है कि समस्त भारतवर्ष में वृहस्पति के व्रत के रूप में आपकी पुजा होती है। तो क्या कलयुग की ये इच्छा होती है कि उसके काल में आपकी पुजा हो? तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि काल की शुरूआत में पितामह श्री ब्रहा्राजी ने सभी देवताओं की एक सभा बुलायी थी। नियमानुसार सभी देवताओं को उनका एक दिवस दिया और कहा कि:-
रविवार:- जो कि सूर्य है। इसलिए सूर्यदेव की पुजा इसी दिन होगी।
सोमवार:- चन्द्र का घोतक है, चुँकि षिवजी चन्द्रषेखर हैं। अथवा उनके ललाट पर चन्द्र है इसलिए सोमवार को षिव की पूजा होगी।
मंगलवार:- चुँकि मंगल, कुमार कार्तिके का दूसरा नाम है। इसलिए इस दिन त्रिदेवियों की पूजा होगी।
बुद्धवार:- बुद्धवार बुद्धिहीन लोगों का होगा, जो हमारी (ब्रहा्राजी) पुजा करेंगे।
वृहस्पतिवार:- देवगुरू वृहस्पति की पुजा होगी। इस पर हमने ब्रहा्राजी से कहा कि वृहस्पतिवार को हमारी पुजा होनी चाहिए। तब ब्रहा्राजी ने कहा कि वृहस्पतिवार को श्री विष्णु हरि की पुजा तभी मानी जाएगी जब इनकी प्रतिमा/तस्वीर पर ‘‘कनैल’’ का पुष्प चढ़ाया जाएगा, अन्य पीले वर्ण के पुष्प में वृहस्पति विराजमान होंगे।
शुक्रवार:- कलयुग में बहुत सारे धर्म के लोग होंगे इसलिए ये दिन उन्हीं लोगों का होगा।
शनिवार:- शनिदेव वहीं मौजूद थे, ब्रहा्राजी ने शनिदेव की ओर इषारा करते हुए कहा कि शनिवार के दिन शनिदेव की पुजा होगी। इतना सुनकर शनिदेव चले जाते हैं। ब्रहा्राजी आगे कहते हैं कि इसी दिन धरती पर भूत-प्रेत की भी पुजा होगी।
इतना कहकर श्री हरि विष्णु ने कहा कि ब्रहा्राजी के द्वारा बनाया गया विधान के अनुसार ही कलयुग कार्य कर रहा है।
आगे अशीष कुछ विचार करते हुए श्री हरि विष्णु से कहा कि आप हमें शस्त्रों का ज्ञान दें। तब श्री हरि विष्णु ने ‘‘राम वाण’’ से शुरूआत की और कहा कि राम वाण पौरूषोत्व को दर्शाता है और उस वाण से वैसे दैत्य अथवा राक्षसी का वध होता है जिन्होंने पराये स्त्रियों अथवा पुरूषों के साथ संबंध बनाये रखा है। यही वजह है कि रावण को मारने के लिए हमें प्रक्षेपास्त्र का प्रयोग करना पड़ा जिसमें सृष्टि के समस्त शक्तियाँ मौजूद थी जिसमें अग्नी ने रावण के उदर में उपस्थित अमृत को सोख लिया और अन्य शक्तियाँ रावन वध के लिए पर्याप्त थी। शक्ति वाण, जिसमें माता दुर्गा स्वयं विराजमान होती हैं। ब्रहा्रास्त्र, जिसमें ब्रहा्राजी स्वयं विराजमान होते हैं। सर्पास्त्र, जिसमें षिवजी के सर्पराज विराजमान होते हैं। परसुपास्त्र, जिसे शिवजी ने स्वयं इसे श्राप बताया, जिसके प्रयोग से धरती के समस्त जीव किसी मक्के की भाँति भष्म जाते हैं। तब अशीष पूछता है कि परसुपास्त्र को शिवजी ने श्राप क्यों कहा? चुँकि देवयुग की शुरूआत में काले वर्ण को पाप अथवा पाप चिन्ह् कहा जाता है और परषुपास्त्र का वर्ण भी काला हीं था। इस लिए षिव जी ने परषुपास्त्र को स्वयं के उपर श्राप अथवा पाप बताया। इस बात से दुःखी होकर स्वयं भगवान षिव की शक्तियों ने षिवजी को सावधान किया कि आपने परषुपास्त्र को श्राप अथवा पाप बताया है इसलिए कि उसका वर्ण काला है। जिस दिन परषुपास्त्र धरती पर चलाया गया उसी दिन सम्पूर्ण धरती का विनाष हो जाएगा। स्वयं भगवान षिव ने इस बात पर अपना खेद प्रकट किया और ऐसा कहने का कारण पुछा तब उनकी शक्तियों ने जबाव दिया कि आप देवगण धरती पर पाप को बढ़ावा नहीं होने देते हैं और आपके अनुसार परषुपास्त्र एक पाप है जो कि धरती पर चलाया जाएगा और धरती पर परषुपास्त्र अथवा पाप चलने से तो धरती और वहाँ उपस्थित समस्त जीवांे का नाष निष्चित है।
आगे अषीष कुछ और सुनने की इच्छा श्री हरि विष्णु के समक्ष रखता है तब श्री हरि विष्णु ने राम और रावन की लड़ाई के बारे मे बताया कहा कि युध में जाने से पूर्व हमने पितामह श्री ब्रहाजी से सम्पर्क किया और कहा कि आज हमारे और रावण के मध्य निर्णायक युध होने वाला है, आप इसमें हस्तक्षेप नहीं करेंगे। चुँकि रावण पितामह श्री ब्रहा्रजी के प्रिय भक्त था, इसलिए युद्ध के दौरान पितामह श्री ब्रहा्राजी ने स्वयं को ब्रहा्राण्ड के उपरी छोर पर ये सोंच कर स्थापित कर रखा था कि कहीं रावण हार कर पितामह श्री ब्रहा्राजी के शरण मंे न आ जाए और फिर कोई दूसरी शक्ति की माँग न कर बैठे, और हुआ भी कुछ ऐसा हीं विभीषण द्वारा रावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बाद रावण वहाँ से कुछ पल के लिए अदृष्य हो गया था और पितामह श्री ब्रहा्राजी की तलाष करने लगा लेकिन वे कहीं नहीं मिले, रावण जानता था कि राम एक तपस्वी है जो हमारा पीछा नहीं कर सकता है और इसलिए हमने भी रावण के इस इच्छा को पूर्ति किया और उसके प्रकट होने का इंतजार किया और प्रकट होते ही प्रेक्षपास्त्र चला दिया, जिससे रावण वही ढेर हो गया।
तब अशीष पूछता है कि परशुराम जब शिवजी के अवतार थे तब वे पापी कैसे हुए? तब श्री हरि विष्णु ने उस समय कि एक कथा सुनाई जब परशुराम धरती से समस्त क्षत्रिय कुल का अंत करने का संकल्प उठाया था। वास्तव में परशुराम स्वयं एक क्षत्रिय कुल में जन्म लिए थे लेकिन बचपन से ही वे तपस्वी थे, जो ब्रहा्रणत्व को दर्शाता था। इस बात से दुःखी होकर उनके माता-पिता ने उन्हें वन में भटकने के लिए छोड़ दिया। अपने परिवार के इस व्यवहार से उन्हें क्षत्रिय कुल से नफरत हो गया। युवावस्था में पहूँचते ही उन्होंने हमारी (श्री हरि विष्णु) घोर तपस्या कि तब हमारी (श्री हरि विष्णु) प्रेरणा से माता सरस्वती ने परशुराम से धरती पर ही एक धणुष की आकृति बनवाया और उस पर भगवान शिव की कृपा पड़ गई। जब परशुराम ने उस धणुष पर एक प्रत्यंचा चढ़ाया और उसे छोड़ा तो कोटि-कोटि दूरी तक के क्षत्रीय वंश का विनाश हो गया। उस शिव धणुष मंें ऐसा गुण था कि साधारण से साधारण ती उस धणुष पर चढ़तें ही वह एक परसुपास्त्र के समान काम करता था। तब उस धणुष के बल पर परशुराम ने संसार के समस्त क्षत्रिय को अंत करने का संकल्प उठाया। तब स्वयं हमंे (श्री हरि विष्णु) क्षत्रीय बनकर परशुराम के समक्ष अपना सिर झुकाना पड़ा और उन्हें क्षत्रिय स्वीकार करना पड़ा तथा हमने उपहार स्वरूप एक फरसा भी उन्हें प्रदान किया ताकि वे उसी फरसे से अपनी सुरक्षा के लिए अन्य दैत्यों का संहार कर सकेें। परसुराम राजा जनक के पूज्य थे। राजा जनक के सेवा सत्कार को देखते हुए उन्होंने खुश होकर शिव धणुष राजा जनक को दे दिया। अब शिव धणुष एक क्षत्रिय कुल मंे था जिसका प्रयोग कभी भी किया जा सकता था। इसलिए भगवान शिव स्वयं उस धणुष पर विराजमान हो गए और वह धणुष किसी अन्य क्षत्रिय से नहीं उठता था। तब राजा जनक के घर सीता के रूप में माता लक्ष्मी का अवतार हुआ और वह धणुष सीता के देख-रेख मंे चला जाता है। यह वही धणुष था जिसे मैंने (श्री हरि विष्णु) रामावतार में सीता स्वयंवर मंे उपस्थित होकर तोड़ डाला। तब अशीष आगे पूछता है कि उस धणुष को आपने तोड़ा क्यो? अपने उपयोग के लिए रख सकते थे। तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि वह धणुष उस समय का प्रलयंकारी धणुष था। इसे मैंने माता दुर्गा के आदेश पर तोडा था ताकि इसका लाभ भविष्य में कोई न उठा सके। अशीष आगे पूछता है कि बीते हुए काल में परसुपास़्त्र किन-किन योधाओं के पास था।़ तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि महाभारत काल में परसुपास्त्र दो लोगों के पास था। पहला परसुपास्त्र अभिमण्यु और दूसरा अश्वथामा के पास था। तब अषीष आगे पुछता है कि अभिमण्यु को परसुपास्त्र कैसे प्राप्त हुआ तब स्वयं श्री हरि विष्णु ने कहा कि द्वापर युग में जब पाण्डव युद्ध के पूर्व सस्त्रों की प्राप्ति के लिए स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर रहे थे तब अभिमण्यु भी साथ जाने को हठ कर रहा था तब मैंने उसे सिर्फ बहलाने मात्र से उसे परसुपास्त्र दे दिया और कहा कि इस सस्त्र से तुम अपने पिताश्री अर्जुन को भी परास्त कर दोगे। युद्ध के समय अभिमण्यु ने परसुपास्त्र का प्रयोग द्रोणाचार्य के उपर करने की ठान ली थी तब मेरी (श्री हरि विष्णु) प्रेरणा से उस समय को उचित नही ठहराया। और महाभारत के अंत में अश्वथामा ने परसुपास्त्र का प्रयोग अभिमण्यु के पुत्रों पर किया जिसे मैंने स्वयं (श्री हरि विष्णु) अपने हाथों से रोका था और अश्वथामा को पागल करार देकर उससे उसकी दिव्य मणि छीन लिया जिससे वह पूर्णतः पागल हो गया। आगे अशीष पुछता है कि अश्वथामा के ललाट पर जो मणि था उसके क्या गुण-धर्म थे? तब श्री हरि विष्णु ने समझाते हुए कहा कि वह एक दिव्य मणि था जो दिव्य नेत्र के समान कार्य करता था, जो वर्तमान में घटीत हो रहे घटनाओं को दिखाता था और इस बात की जानकारी सिर्फ द्रोणाचार्य और कृपाचार्य को थी। तब तो महाभारत काल में आपके विराट स्वरूप को अश्वथामा ने भी देखा होगा? तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि हमारे अंदर से उत्पन्न दिव्य प्रकाश ने अश्वथामा के मणि को कुछ समय के लिए निष्क्रिय कर दिया था, अश्वथामा वही देखता था जो हम चाहते थे। तब अशीष पुछता है कि अभिमण्यु द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्युह भेदने के समय परसुपास्त्र क्यों नहीं चलाया। इस पर श्री हरि विष्णु ने कहा कि उस समय उसे चक्रव्युह के सातों दरवाजे भेदने के अलावा कुछ और नहीं सुझ रहा था। आप भी परसुपास्त्र कि याद अभिमण्यु को दिला सकते थे, अशीष पूछा। तब श्री हरि विष्णु ने अफसोस करते हुए कहा कि मैं स्वयं इतनी बड़ी जिम्मेदारी नहीं उठा सकता था। क्यांे कि हम जानते थे कि इसके प्रयोग से सिर्फ महाभारत हीं नहीं समाप्त होगा बल्कि संसार के समस्त जीवों का अंत हो जाएगा। आगे अशीष पूछता है कि रामायण काल में परसुपास्त्र किसके पास था। तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि रामायण काल में परसुपास्त्र किसी के पास नहीं था। वैसे ये सस्त्र कुंभकर्ण को प्राप्त हो सकता था। अशीष प्रश्नात्मक शब्दों में पूछा, कैसे? तब श्री हरि विष्णु ने कहा जब कुंभकर्ण पितामह ब्रहा्राजी की तपस्या में इन्द्रासन के लिए किया था तब माता सरस्वती ने छलपुर्वक इन्द्रासन के जगह निन्द्रासन कहलवाया था। माता सरस्वती के इस छल से शिवजी दुःखी हो गए और उन्होने कुंभकर्ण को परसुपास्त्र प्राप्ति हेतु तपस्या के लिए प्रेरित किया तब माता सरस्वती ने शिवजी के समक्ष हाथ जोड़कर बोलीं, हे भोलेनाथ, ऐसा न करें। परसुपास्त्र प्राप्ति के बाद कंुभकर्ण निन्द्रावस्था से जाग कर बीना सोंचे समझें उसका प्रयोग कर सकता है, जिससे धरती पर उपस्थित समस्त जीवों का नाश हो जाएगा। अषीष आगे पुछता है कि द्वापर युग में गंगा नामक जो युवती थी, जो महाराज सांतनू के पत्नी हुई वह अपने ही बच्चों को क्यों मृत्यु देती थी? तब श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि गंगा, महाराज सांतनू के बारे में अच्छी तरह जानती थी कि उन्हें जब पुत्र की प्राप्ति हो जाएगी तब उनके मन से गंगा के प्रति जो प्रेम है वह समाप्त हो जाएगा और शायद इसलिए विवाह करने से पहले गंगा, महाराज सांतनू से वचन ली थी कि वे उसके काम में दखल न देंगे और पुत्र उत्पत्ति के उपरान्त वह उन्हें तुरंत हस्तीनापुर में बह रही नदी में महाराज सांतनू के सामने हीं फेंक आती थी। महाराज सांतनू कुछ नहीं कर पाते थे क्योंकि वे वचनबद्ध थे और हार कर उन्होनंे गंगा से पूछ बैठा कि वे ये सब क्यों कर रही है? महाराज सांतनू ने गंगा से पूत्र की भीक्षा माँगी। तब गंगा ने यह कहकर उन्हें देवव्रत नामक पुत्र को जन्म दिया (जो बाद में भीष्म पितामह हुए) कि पुत्र प्राप्ति के बाद वह इस संसार को त्याग देगी क्योंकि गंगा के लिए सांतनू के सिवाय कुछ प्यारा नहीं था। मृत्यु के बाद गंगा का आत्मा नदी के आस-पास भटकती थी जिससे अक्सर भीष्म पितामह बातें किया करते थे। वैसे तो गंगापुत्र भीष्म भी हस्तिनापुर के वंष की बरबादी हीं चाहते थे और भला क्यों नहीं, जिस पुत्र ने अपने पिता की खुषी के लिए स्वयं को जीवन भर अविवाहित रखने की भीषण प्रतिज्ञा ली, उसे बदले में मिला क्या, इच्छा मृत्यु जो कि देवव्रत (भीष्म पितामह) के लिए एक श्राप के समान था या जीवन भर घूट-घूट कर मरने के समान, महाराज शान्तनु को सोचना चाहिए था जो पुत्र में मेरे लिए इतना बड़ा कदम उठाया उसे हस्तिनापुर का राजसिंहासन न सही, लेकिन इन्द्रप्रस्थ तो देना चाहिए था जहाँ वह राज कर सके लेकिन मिला क्या, हस्तिनापुर के राजसिंहान का देख-भाल, यही कारण है कि गंगापुत्र भिष्म ने स्वयं को दुर्योधन के हर जिद पर स्वयं को विफल बताया, अगर वह चाहते तो धृराष्ट्र हस्तिनापुर के राजा नहीं बनते और अगर हो भी गये तो द्रौपदी का चीर हरण और महाभारत कभी नहीं होता। इसी क्रम में महामंत्री विदूर अपनी हर नीति में जो उस समय के सर्वश्रेष्ठ नीतिवान थे, महाराज धृतराष्ट्र को नेत्रहीन ही बताया लेकिन शकुनी के ‘‘पासे’’ के आगे सब व्यर्थ । हार कर महामंत्री विदूर समय का इंतजार करने लगे। और द्रौपदी के चीर हरण के बाद समझो कि उनका इंतजार खत्म ही हो गया क्यों कि महाभारत की नींव पड़ चुकी थी। महाभारत में दुर्योधान सहित धृतराष्ट्र के सारे पुत्रों के मृत्यु के पष्चात भी जब महामंत्री विदूर ने धृतराष्ट्र को राजसिंहान पर अधिकार देखा तो उनसे नहीं रहा गया और षड्यंत्र के तह्त उन्होंने पाण्डव सहित धृतराष्ट्र-गांधारी और हस्तिनापुर के मुख्य पदाधिकारी को अपने घर रात्रि भोजन के लिए आमंत्रित किया, हम चुकी वहाँ कृष्ण के अवतार में थे और महामंत्री विदूर के सारे छल को समझ रहे थे और वैसे भी हमारी नजर उन पर पहले से भी थी, किन्तु हमें भी उचित समय का इंतजार था। हमने पाण्डवों को महामंत्री विदूर के रात्रि भोजन में सम्मिलित होने से मना कर दिया, उस भोज में सभी शामिल हुए,चुकि हमें भी आमंत्रित किया गया था, हम भी वहीं थे, महामंत्री विदूर ने सारे भोज्य पदार्थ में विष मिला दिया, हम सारे कारनामों को समझ रहे थे। सभी ने खाने का दो निवाला ही लिया था कि सभी ने कराहते हुए अपनी गर्दन पकड़ ली, इधर महामंत्री विदूर हमें भी खाने के लिए न्योता दे रहे थे, सारे तमाषे को देखकर हमने महामंत्री विदूर से षिकायत भरे शब्दों में कहा कि ‘‘ये क्या, लगता है आपने भोजन में विष मिला रखा है, उस समय हम सुरक्षित मुद्रा में थे, इतना देखकर महामंत्री विदूर ने हम पर अपने खड़ग से प्रहार करना चाहा लेकिन हमने अपने पैर से उन्हें ठोकर मार कर दूर धकेल दिया और अपने शुदर्षन से उनका वहीं वध कर दिया। उसके बाद हम भीष्म पितामह से मिले जो कुरूक्षेत्र में अपने सैया रूपी वाणों पर लेटे थे, हमें आया देखकर भीष्म पितामह ने दुःख भरे शब्दों में पूछा कि हस्तिनापुर में कोई है भी जो हमें मुक्ति दिला सके? तब हमने उन्हें सारे प्रकरण से अवगत कराया। तब भीष्म पितामह ने स्वयं को अपने पैर पर खड़ किया और अपने शरीर से वाण निकालते हुए कहा कि हमने तो पिताश्री को वचन दिया था लेकिन समय ने उन्हें श्राप दे रखा था। महाभारत शुरू होने के पूर्व हीं हमने आप से कहा था कि आप पर अपने पिता का श्राप का जो बोझ है उसे पाण्डवों के साथ मिलकर हल्का कर लें, लेकिन आपने मना करते हुए कहा कि हमें पिताश्री ने हस्तिनापुर के राजसिंहासन का देखभाल जो जिम्मेदारी दी है। अगर आप चाहते तो महामंत्री विूदर नहीं मारे जाते, आज हस्तिनापुर का राजसिंहासन सुनसान है वहाँ कोई बैठने वाला नहीं है, आप जीवीत होने के अधिकारी होते तो आज आप न सहीं पाण्डवों या पाण्डव पुत्रों को राजा बनते जरूरत देखते। उसके बाद हमने उन्हें स्वयं को विष्णु का अवतार बताया और चर्तुभूजी रूप दिखाया, यह देखकर वे विलाप करते हुए मेरे पैरों पर गिर पड़े और मैंने उन्हें उठाते हुए अतीत का याद दिलाया और कहा कि आप स्वर्गलोक के एक गर्न्धव है जो देवराज इन्द्र के कहने पर पितामह श्री ब्रहा्रजी के घोर तप किया और गंगापूत्र बनने की इच्छा जतायी थी इसलिए पितामह श्री ब्रहा्राजी का वरदान पूर्ण हुआ, अब आप स्वर्ग की ओर प्रस्थान करें।
एक गन्धर्व को गंगापूत्र बनने की इच्छा पर अषीष स्वयं को रोक नहीं पाया और पुनः श्री हरि विष्णु से प्रष्न किया कि एक गंधर्व, ‘‘गंगापुत्र’’ बनने की इच्छा क्यों रखता है आखिर उस गंगा नामक युवती में ऐसा क्या था? तब श्री हरि विष्णु ने देवयुगीन एक घटना का विस्तार किया और कहा कि त्रिलोक में मक्क्षिकासूर का आतंक छाया हुआ था, देवराज इन्द्र सहित सारे देवता त्राहिमाम कर रहे थे, चुँकि पितामह श्री ब्रहा्राजी ने मक्क्षिकासूर को वरदान दिया था कि तुम्हारी मृत्यु इस मक्खि के मरने से होगा जो सदैव मक्क्षिकासूर के कान में बैठी रहती थी, माता दूर्गा भी मक्क्षिकासूर का वध करने में विफल रहीं, चुँकि स्वर्गाधीपति होने के कारण हमें भी स्वर्गलोक के वातावरण का ख्याल रखना पड़ता था, हम लक्ष्मी सहित शेषासन पर विराजमान थे, कुछ कारणों से गंगा का आगमन हुआ और तभी देवराज इन्द्र भी त्राहिमाम् करते हुए हमारे समक्ष प्रकट हुए और गंगा को देखकर मोहित हो गये। बाद में उन्हे पता चला कि ये गंगा है जो बैकुण्ठ लोक में निवास करती है, लेकिन अपने को हमसे कनिष्ठ पाकर उन्होनें गंगा को कुछ नहीं कहा और एक षड्यंत्र के तहत गंधर्व के द्वारा पितामह श्री ब्रहा्रजी का घोर तप करवाया और उनसे गंगापुत्र बनने का वरदान मांगने को कहा, देवराज इन्द्र जानते थे कि त्रिलोक में उनके अलावे कोई गंगा के योग्य नहीं हैं और त्रिदेव तो स्त्रियों के भाँति सती ही हैं। इसलिए उन्हें पूर्ण विष्वास था कि उन्हें ही गंगा के लिए चुना जाएगा। हम देवराज इन्द्र के इस चतुराई से अनजान नहीं थे और भगवान षिव के द्वारा पितामह श्री ब्रहाजी को इस बात से अवगत करवाया, और तपस्या का वरदान ढंग से देने को कहा, पितामह श्री ब्रहा्राजी ने हम सभी को आष्वास्त किया और गंधर्व को गंगापुत्र होने का वरदान ये कहते हुए दिया कि द्वापर युग में तुम गंगापुत्र जरूर बनोगे। वरदान की बात सुनकर देवराज इन्द्र दुःखी हुए और समय का इंतजार करने लगे। पर ये क्या समय आने पर गंगा नामक युवति के पुत्र बना दिया गया जो कि महाराज शान्तनु की प्रेमिका थी। इधर अंत में मक्क्षिकासूर का सामना हमसे होता है, जब हम आकाष मार्ग से अपने गरूड़ पर भ्रमण करने निकले तब। मक्क्षिकासूर आकाषमार्ग के रास्ते हमारे मार्ग में हीं खड़ा था हमने मक्क्षिकासूर को रास्ता छोड़ने को कहा लेकिन मक्क्षिकासूर अपने पराक्रम पर कुछ ज्यादा ही अभिमानी हो गया था इसलिए हमें युद्ध के लिए ललकारा और कहा कि अगर विजय हुए तो हम रास्ता छोड़ देंगे नहीं तो तुम अपने प्राण छोड़ दोगे। मैंने गरूड़ महाराज से एक इषारा किया, इतने में गरूड़ महाराज ने मक्क्षिकासूर के कान के पास जाकर अपने पंख को फड़फड़ाया जिससे मक्क्षिकासूर के कान में बैठी मक्खि, जिसमें मक्क्षिकासूर के प्राण थे, उड़ा और हमने झट से उसे अपने हथेलियों से रगड़ दिया जिससे मक्क्षिकासूर वहीं ढेर हो गया।
अषीष आगे विचार करते हुए श्री हरि विष्णु से प्रष्न करता है कि महाभारत काल में सर्वश्रेष्ठ दुष्टात्मा दुर्योधन हीं था या कोई और ? इस पर श्री हरि विष्णु ने कहा कि महाभारत की लड़ाई का कारण तो मुख्य रूप से दुर्योधन हीं था लेकिन हस्तिनापुर यानि खाण्डवप्रस्थ पर महाराज पाण्डू की मृत्यु के बाद धृतराष्ट्र सहित महामंत्री विदूर की भी नजर थी, महामंत्री विदूर धृतराष्ट्र के नेत्रहीन होने के कारण मुख्य रूप से स्वयं को हस्तिनापुर के राजसिहांसन की उत्तराधिकारी मानते थे, लेकिन गंधार नरेष शकुनी की कुटनीति और धृतराष्ट्र की ज्येष्ठता और युधिष्ठर के बाल्यावस्था के कारण हस्तिनापुर की राजसिंहासन धृतराष्ट्र को हीं मिला और इसे रोकने में गंगापुत्र भीष्म पितामह भी विफल रहें।
तब अषीष माता दुर्गा के नौ स्वरूप और उनकी उत्पत्ति जानने की इच्छा श्री हरि विष्णु के समक्ष रखता है। तब स्वयं श्री हरि विष्णु ने माता दुर्गा के आदेष पर माता दुर्गा के नौ स्वरूपांे की उत्पत्ति इस प्रकार किया और कहा:-
देवयुग में माता पार्वती दुर्गा स्वरूप में अनेक दैत्यों का वध किया है, चुकि दैत्यों से युद्ध के क्रम में उन्हें अपने समस्त शक्तियों को उपयोग करने में कठिनाई होती थी। इसलिए उन्होंने देवयुग में हीं धरती पर ही पल रही आठ मुख्य बच्चियों को कुँवरदेवी बना दिया और उनके बीच अपने समस्त शक्तियों का बँटवारा कर दिया। सिद्धिदात्री जो कि षिवलोक में ही पलने वाली एक बच्ची थी पाँच वर्ष की आयु में वह अक्सर तपस्या में लीन षिवजी के जटाओं को खींचती-खेलती थी, माता पावर्ती को उस बच्ची से बहुत प्रेम भी था और शायद इसलिए उन्होंने उसे अपना एक स्वरूप बना लिया और उसका सिद्धिदात्री नाम पड़ा, ‘‘सिद्धिदात्री’’ का मुख्य कार्य दैत्यों का वध होने के बाद उसे सिद्ध करना था नहीं तो वह दैत्य पुनः जीवित हो सकता है और मानव जाति के हर कार्य को सिद्ध करने का वरदान देती हैं। इस प्रकार सिद्धिदात्री को माता दुर्गा का स्वरूप बनते हीं देवयुग के अधिकत्तर बच्चियों में माता दुर्गा के स्वरूप बनने की इच्छा जाग गयी लेकिन सभी को माता दुर्गा अपना स्वरूप नहीं बना सकती थी इसलिए कुछ चुनिंदा बच्चियों को अपना स्वरूप में शामिल करने का वरदान दिया और समय आने पर उन्हें अपना स्वरूप भी बनाया जिसमें ‘‘शैलपुत्री’’ जो युद्ध के दौरान माता दुर्गा के हठ धर्मिता को एक शैल कि भाँति रखतीं हैं जिससे वे युद्धक्षेत्र में दैत्यों का वध करके ही वापस लौटती हैं, ‘‘कालरात्रि’’ जो दैत्यों का उनके छाया मात्र से अपने वष में कर लेती है, पाताल लोक में उसकी शक्ति दोगुनी हो जाती है, और देवयुग में ये दैत्यों के लिए यमराज सिद्ध होती हैं। ‘‘चन्द्रधंटा’’ जो उस समय का आकलन करती थी जब पितामह श्री ब्रहा्राजी द्वारा असुरो के मृत्यु का समय निष्चित किया जाता है, ‘‘कत्यायनि’’ जो माता दुर्गा के लिए शस्त्रों को संभालती है और उन्हें मंत्रयुक्त रखती हैं, युद्ध के दौरान उचित शस्त्र माता दुर्गा को उपयोग करने का सुझाव देती है। ‘‘ब्रहा्रचारिणी’’ जो युद्ध के दौरान माता दुर्गा के सतित्व की रक्षा करती है, ‘‘स्कन्द’’ जो युध के दौरान मानवजाति तथा अन्य जीवों को सुरक्षा प्रदान करती है। यह बात पाताल लोक तक पहूँच गयी जहाँ दैत्यों का निवास होता था। उसमें से एक ‘‘कुष्माण्डा’’ नामक दैत्या जो माता दुर्गा के स्वरूप बनने के लिए इच्छुक थी और माता दुर्गा का घोर तप किया। लेकिन माता पावर्ती जो कि हमारी तरह मानवहित हीं सोंचती थी उसके तप पर कभी ध्यान नहीं दिया। ‘‘कुष्माण्डा’’ के घोर तप को देखकर पितामह श्री ब्रहा्राजी द्रवित हो उठे जो कि असुरों के पक्षधर थें, और माता पावर्ती के समक्ष प्रकट होकर ‘‘कुष्माण्डा’’ को वरदानित करने को कहा लेकिन मानवहित को देखते हुए माता पार्वती ने पितामह श्री ब्रहा्राजी को भी निराष कर दिया। इधर ‘‘कुष्माण्डा’’ घोर तप किये जा रही थी, हम सभी त्रिदेवों की नजर ‘‘कुष्माण्डा’’ और ‘‘माता पार्वती’’ पर हीं थी। थक-हार कर ‘‘कुष्माण्डा’’ गुस्से से माता दुर्गा का अव्ह्ान करना शुरू किया जैसे युद्ध के लिए ललकार रही हो लेकिन फिर भी विफल। अंत में ‘‘कुष्माण्डा’’ ने यह कहते हुए कि अगर तुम प्रकट नहीं हुई तो यह अंगुठी जो पितामह श्री ब्रहा्राजी जी द्वारा मुझे प्रदान किया गया है जिसके स्पर्ष मात्र से हर वस्तु विषैला हो जाएगी, जल-सागर (प्रषांत महासागर) में डाल दुँगी जिससे इसमें पल रहे सारे निर्दाेष जीव मारे जायेगंे जिसका एक मात्र कारण तुम (माता दुर्गा) होगी। मैं (श्री हरि विष्णु) स्वयं आष्चर्यचकित हो गया और माता पार्वर्ती से सम्पर्क किया तब तक वह पितामह श्री ब्रहा्रजी द्वारा प्राप्त विष युक्त अंगुठी जल-सागर (प्रषांत महासागर) में डाल चुकी थी, हमने शेषनाग को अगाह किया और वे तुरंत जल-सागर में प्रवेष करके उस अंगुठी को अपने मुख में धारण कर लिया, और हमारी ही इच्छा पर माता दुर्गा नें ‘‘कुष्माण्डा’’ को अपना स्वरूप होने का वरदान दिया उन्हें ‘‘कालकृत की शक्ति’’ प्रदान किया और उनका का मुख्य कार्य असूरांे का रक्त पीना था। ‘‘महागौरी’’ जो स्वयं माता पार्वती का ही स्वरूप है इनका यह रूप षिवभार्या होने को दर्षाता है इस रूप में उन्होंने सतीत्व की शक्ति को धारण किया है। दुर्गा माता का कत्यायनि स्वरूप, कालकृत स्वरूप, कालरात्रि स्वरूप और सिद्धिदात्रि स्वरूप मिलकर माता दुर्गा के ‘‘तुरीन देवी स्वरूप’’ का निर्माण करती है जिससे माता काली थर्र-थर्र काँपती हैं माता दुर्गा द्वारा आदेषित प्रत्येक कार्य का सिद्ध करती हैं। दुर्गा माता का कालरात्रि स्वरूप, कालकृत स्वरूप एवं सिद्धिदात्रि स्वरूप मिलकर माता दुर्गा का ‘‘चुरीना देवी स्वरूप’’ का निर्माण करती है जिससे माता काली भय खाती हैं और सदैव माता दुर्गा के कार्यों को सिद्ध करती हैं। माता दुर्गा अपने स्कंद स्वरूप, कालरात्रि स्वरूप और सिद्धिदात्रि स्वरूप को मिलाकर ‘‘किच्चीन देवी स्वरूप’’ प्रकट करती हैं जिसे माता काली काफी प्रेम-दुलार देती हैं। माता दुर्गा अपने कात्ययनि स्वरूप, कालकृत स्वरूप और सिद्धिदात्रि स्वरूप को मिलाकर ‘‘यमराज्ञी स्वरूप’’ बनाती है जो दैत्यों को यमलोक पहूँचाने के लिए पर्याप्त होता है।
अषीष के द्वारा जीवन-मृत्यु के रहस्य पूछे जाने पर स्वयं श्री हरि विष्णु ने कहा कि जिस प्रकार मानव का जन्म नग्न होता है उसी प्रकार मृत्योपरान्त उसकी आत्मा नग्न ही दूसरा जन्म लेती है। हरेक आत्मा का स्वामी उसी आत्मा में मौजूद परमेष्वर होता है जोकि आत्मा के नाभी के आस पास यमदूतों के द्वारा चिपकाया जाता है और बिना परमेष्वर के आत्मा मृत समान होती है। सम्पूर्ण जीवन काल में मानव द्वारा किए गए कर्मो का ब्यौरा उसके परमेष्वर के पास होता है। मृत्योपरान्त जब आत्मा यमदूतों द्वारा यमलोक लाया जाता है तब स्वयं महाराज चित्रगुप्त पाप-पूण्य का लेखा-जोखा लेते हैं। इस पर अषीष आगे पूछता है कि अगर परमेष्वर झूठ बोल दे तो? तब श्री हरि विष्णु हँसते हुए बोले कि यमराज के समक्ष परमेष्वर का एक नहीं चलती है, परमेष्वर को भय होता है कि कहीं झूठ पकड़ी गई तो उसे इस झुठ का अंजाम उनकी गदा से भुगतना पड़ सकता है जिसमें अतितीव्र गति से बिजली प्रवाहित होती है। चुँकि इस कलयुग में यमराज और यमलोक नाम का कोई व्यवस्था नहीं किया गया है इसलिए मानव अपने मृत्यु पष्चात् जीवन दीप की खोज में भटकता है इस दौरान उसे भूख प्यास भी लगती है तो वह अपने जीवनकाल में प्राप्त भोजन को, जोकि परमेष्वर अपने भोग के रूप में अपने पास संचित रखता है उसे खा लेता है और ऐसी अवस्था में पर्याप्त भोजन नहीं उपलबध नहीं होने पर उसे जल्द हीं जीवन लेने की जरूरत पड़ती है। अगर मानव मृत्यु के तुरंद बाद जीवन दीप को प्राप्त कर लेता है तो उसे अधिक समय तक भटकना नहीं पड़ता है। भूख-प्यास से ग्रसीत आत्माएँ जीवन दीप को प्राप्त करते हीं लाचार होकर किसी भी योनि में जीवन प्राप्त कर लेते हैं क्यों कि उनके पास जीवन चुनने के लिए पर्याप्त समय नहीं होता है। वह जीवन दीप हीं है जिससे मानव अथवा किसी भी प्राणी का लम्बी अथवा छोटी आयु होती है। होता ये है कि मृत्योपरान्त जब आत्माएँ अगले जीवन के लिए जीवन दीप की खोज करती है तो उसे अधिकतर वैसी हीं जीवन दीप मिलती है जिसने अभी जीवन से छुटकारा मिलता है, कुछ जीवन दीप तो न कहकर आगे बढ़ जाती है तो कुछ आत्मा के परमेष्वर के विनती पर उसे अगले जीवन में साथ देने के लिए तैयार हो जाती है। लेकिन आत्मा के परमेष्वर से वचन लेती है कि वह उसके साथ 10 या 12 वर्षों तक ही रहेगी और उसके बाद जीवन दीप को निकलते हीं मानव मृत्यु को प्राप्त कर लेता है और इस प्रकार मानव की आयु 10 से 12 वर्ष की हीं होती है। अगर कोई जीवन दीप परमेष्वर को 100 वषों तक साथ रहने का वचन दे देती हैं तो उस मानव अथवा प्राणी की आयु 100 वर्ष की हो जाती है। वैसे तो संसार में असंख्य जीवन दीप मौजूद है अपने मानव आत्माएँ अपने शरीर के नष्ट होते ही अपने नये जीवन कि तलाष मंे चले जाते है। शरीर में बुढ़ापा जीवन दीप के कारण हीं आता है, वास्तव में होता यह है कि शरीर प्राप्त होने के बाद जीवन दीप प्राणी के आत्मा और शरीर को जोड़े रखता है और उसे इंतजार रहता है कि उसके दिए हुए वचन (आयु) कब पूरी हो, चुकि हर किसी को किसी न किसी प्रकार से उर्जा चाहिए इसलिए उर्जावान होने के लिए जीवन-दीप मानव के रक्त की शक्ति का छोटा सा अंष अपने अंदर शोख लेती है जिससे समय दर समय आदमी व्यस्क से बुढा हो जाता है, और प्राणी के आत्मा के परमेष्वर को दिए हुए वचन के पूर्ण होते हीं जीवन दीप आत्मा का साथ छोड़कर वायु में उड़ जाती है और प्राणी मृत हो जाता है। कुछ आत्माएँ परमेष्वर के प्रकोप में आ जाती है और भूत-प्रेत भी बन जाती है। वास्तव में होता यह है कि अपने जीवन काल में किसी भी कारण मानव की अकाल मृत्यु जैसे आत्महत्या करना, जहर खाना, किसी के द्वारा हत्या कर देना और भी भाँति-भाँति प्रकार के मृत्यु होने पर परमेष्वर के साथ जीवन दीप को भी दुःखी होना पड़ता है। चुँकि जीवन दीप दुःख को बर्दास्त नहीं करती है जिससे वह आत्मा का साथ ये कहकर छोड़ देती है कि यह आत्मा अधर्मी है अथवा पापी है। जिससे आत्मा का परमेष्वर आत्मा पर क्रोधित हो जाता है और अपने प्रकोप में लाकर उसे भूत-प्रेत और भी बहुत राक्षसी आत्माएँ बना देता है, और इस प्रकार आत्माएँ जीवन मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर, भटकती है और किसी दूसरे प्राणी का अहित करती है। वहीं देषहीत अथवा धर्म के लिए अकाल मृत्यु को परमेष्वर भली भाँति समझता है कि आत्मा मेरे आदेष में था और कभी गलत नहीं किया और न हीं किसी तरह का पाप, इसलिए वैसी आत्माओं को उसका परमेष्वर पुनः नये जीवन की ओर अग्रसर कर देता है। और ऐसी स्थिति में जीवन दीप भी खुष होकर परमेष्वर का साथ देती है और आत्मा को मनोवांछित जीवन मिलता है। स्त्री की आत्मा स्त्री ही होती है और उसको हमेषा स्त्री का जीवन ही मिलता है चाहे वह जिस योनि में हो और पुरूष का आत्मा हमेषा पुरूष योनि में ही जन्म लेता है। तब अषीष आगे पुछता है कि स्त्री और पुरूष के बीच जो सात जन्मों का वचन होता है क्या यह सही है और वास्तव में वे एक दूसरे से पति-पत्नी के रूप में सात जन्म तक मिलते है। तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि ऐसी कसमें तो सिर्फ कहानियों में ही होते हैं। अब तुम ही बताओं क्या स्त्री और पुरूष की मृत्यु कभी एक साथ हुई है? पहले या तो स्त्री की मृत्यु होती है या फिर पुरूष की। अगर पुरूष की मृत्यु होती है तो क्या वह अपनी स्त्री की मत्यु का इंतजार करेगा और अगर इंतजार भी करले तो उपरोक्त कथित बातों को ध्यान मंे रखा जाय तो वह पुरूष आत्मा भूखा हीं मर जाएगा या फिर लाचार होकर किसी जीव-जन्तु में जन्म ले हीं लेगा। अगर उस पुरूष आत्मा का भाग्य ने साथ दिया भी और वह मानव जीवन ले भी लेता है तो वह अपने स्त्री के नये जीवन तक वह उसका पिता तुल्य हो जाएगा। कहाँ रहा सात जन्मों का खेल? अषीष आगे पुछता है कि जीवन मंे स्वप्न आने का क्या रहस्य है। तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि, जब आत्मा दूःखी होता है या किसी वस्तू अथवा प्राणी के लिए अभिलाषीत होता है चाहे वह उसे भूत में खो ही चुका क्यों न हो तब परमेष्वर उस आत्मा को खुष करने के लिए निंद्रा अवस्था में उसे स्वप्न के रूप में उसे उस प्राणी अथवा वस्तु से अवगत अथवा मिलवा देता है जिसे आत्मा खुषी से तृप्त हो जाती है, यह तो सदैव सत्य है कि आत्मा शरीर से एक हीं बार निकलती है-मृत्यु के बाद, और अगर पहले निकलती है तो उसे अकाल मृत्यु कहा जाएगा जिसका कारण सिर्फ और सिर्फ परमेष्वर होगा, जीवन दीप को तो खुषी होगी कि उसे बहुत कम समय में हीं जीवन से छुटकारा मिल गया और भ्रमण करने का मौका मिला।
अषीष द्वारा पूछे जाने पर कि इस कलयुग में हर पुजा के पहले गोबर-गणेष की पुजा क्यों कि जाती है, चुँकि भगवान गणेष को प्रथम पुजा का अधिकारी बनाया गया है तो गोबर के स्थान पर भगवान श्री गणेष की प्रतिमा क्यों नहीं स्थापित की जाती है? इस प्रष्न के जबाव में स्वयं श्री हरि विष्णु ने कहा कि कलयुग की जब शुरूआत हुई तो इससे पहले हमारे और पितामह श्री ब्रहा्रजी के मध्य काफी विचार-विमर्ष हुआ और तो और वे कलयुग को वरदान की श्रृंखला दिए जा रहे थे। चुँकि कलयुग वहीं उपस्थित था और सारी बाते सुन भी रहा था तो उसे हमारी बाते अच्छी नहीं लगी और वह क्रोध में आकर कह बैठा की हम अपने काल में ईष्वर की अराधना से पहले मल-मुत्र की अराधना करवायेंगे और इस बात पर भी पितामह श्री ब्रहा्रजी ने यथास्तु कह दिये। इस बात से माता सरस्वती को काफी आष्चर्य हुआ कि आखिर पितामह ने कलयुग को ऐसा वरदान क्यों दिया। इधर पितामह श्री ब्रहा्रजी ने अपने इस कर्म का बोझा माता सरस्वती पर छोड़तें हुए अंर्तध्यान हो गए। माता सरस्वती ने कुछ सोंचते हुए कहा कि कलयुग में गौ-मल (गोबर) की पुजा पहले होगी तब अन्य देवताओं की पुजा होगी। इस बात पर माता पार्वती कुपित हो गई और वह सीधे ब्रहा्रलोक पहूँची जहाँ पितामह श्री ब्रहा्राजी हम सभी के क्रियाकलापों को देख रहे थे। माता पार्वती ने पितामह ब्रहा्रजी से पूछा की जब देवयुग में हीं गणेष को प्रथम पुजा का अधिकारी बनाया गया तब वर्तमान समय में मल-मूत्र क्यों किया जा रहा है। तब तक हम सभी देवी-देवता ब्रहा्रलोक पहूँचे और माता पार्वती को शांत किए। उसके बाद मैं स्वयं लक्ष्मी की तरफ देखा और हँसते हुए कहा कि मैं देवी लक्ष्मी को गौ-मल (गोबर) में विद्यमान पाता हूँं। इस बात से देवी लक्ष्मी चिढ़ गई लेकिन माता सरस्वती ने उन्हें समझाते हुए कहा कि तुम भी तो श्री हरि विष्णु के समक्ष अपनी मुर्खता का परिचय देती हो, आज अगर उन्होंने तुम्हे गौ-मल में विद्यमान कहा तो क्या गलत कहा? तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने गौ-मल को लक्ष्मी होने का वरदान दे दिया और ये भी कहा कि कलयुग में देवी लक्ष्मी और गणेष की पुजा विभिन्न पौराणिक कथाओं को याद करते हुए की जाएगी। इस प्रकार लक्ष्मी-गणेष ही गोबर-गणेष हो गए और कलयुग में गोबर-गणेष की प्रथम पुजा होने लगी और शायद यही पितामह श्री ब्रहा्राजी का कलयुग को अंतिम वरदान था।
अशीष प्रश्नात्मक शब्दों में श्री हरि विष्णु से पूछता है कि वह कौन सा युग है जब बाघ और हिरण एक ही घाट पर पानी पीते हैं? तब श्री हरि विष्णु ने समझाते हुए कहा कि सत्युग में बाघ और हिरण एक ही घाट पर पानी पीतें हैं। वास्तव में सत्युग में हर जीव मणुष्यों की तरह बात करते हैं। जब बाघ को भूख लगती है तो वह ऐसे प्राणी की खोज करता है जो मृत्यु को प्राप्त करने को होता है या मृत्यु को प्राप्त करना चाहता है। जब बाघ ऐसे प्राणी की तलाश करता है तो वह अपने आहार से विनती पूर्वक पूछता है कि क्या तुम मेरा भोजन बनना स्वीकार करती हो? हाँ का जबाव सूनते हीं बाघ उसे अपना आहार बना लेता है और जिस दिन बाघ को ऐसा प्राणी नहीं मिलता है उस दिन उसे भूखा ही पानी पीकर सोना पड़ता है। आगे अशीष श्री हरि विष्णु से पूछता है कि त्रेता युग और द्वापर युग में ऐसा क्या गुण है जो इस कलयुग में नहीं हैं? इस युग में अग्नीवाण, शक्तिवाण और ब्रहा्रास्त्र क्यों नहीं चलाया जाता है? तब श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि ये सब काल का अपना-अपना गुण-दोष हैं। त्रेता युग के हवाओं मंे ऐसी शक्ति होती है जो सही मंत्रोच्चारण करने से साधरण से साधारण बाण को अग्नीवाण और शक्तिवाण बना देती थी। इस युग में ब्रहा्रास्त्र और सर्पास्त्र आदि ऐच्छिक शस्त्र थी जो देवताओं द्वारा तपस्या करके प्राप्त किया जाता था वहीं द्वापर युग में ऐसा गुण नहीं है, उस युग में देव अथवा त्रिदेव स्वयं अपने हाथों से किसी क्षत्रिय को शस्त्र प्रदान करते थे अथवा जन्म से हीं अपने पास मौजुद होता था। यही कारण है कि कृष्णावतार में मेरे (श्री हरि विष्णु) हाथों में सुदर्शन है और किसी को एहसास भी न हो सका की मैं स्वयं विष्णु का अवतार हूँ। तब आशीष कहता है कि ऐसा प्रतीत होता है कि भीष्म पितामह को आपके अवतार के बारे में सब कुछ जानते थे? तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि वे कृष्ण की तुलना विष्णु से इसलिए करते थे कि दोनों के हाथों में सुदर्शन था, जिसे दुर्योधन उनका भ्रम हीं कहता था। अशीष श्री हरि विष्णु से प्रश्न करता है कि आप हमेशा पूर्वोत्तर भारत में हीं अवतार क्यों लेते हैं? तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि हम ‘‘पूर्व’’ के रूप में ‘‘पहले’’ हैं, और उत्तर देना तो हमें सदैव आता है। पश्चिम-दक्षिण को हम पिछे दक्षिणा लेना मानते हैं। इस पर शिवजी ने हँसते हुए कहा कि दक्षिणा लेना ब्रहा्राजी का काम है, तभी तो त्रेता युग में जब राम और लक्ष्मण पंचकुटीर से स्वर्ण हिरण के पिछे गए थे तब ब्रहा्राजी ने रावण को उसकी इच्छाशक्ति से अपना स्वरूप दे दिया था जिसे सीता ब्रहा्रा समझकर भीक्षा देने के लिए लक्ष्मण द्वारा खींचे गए लकीर को लाँघ कर आयी, ये सोंच कर कि शायद ब्रहा्राजी उनसे परीक्षा ले रहे हैं और तभी रावण सीता हरण कर सका। अगर ब्रहा्राजी के स्वरूप के बदले कोई अन्य ऋषि का स्वरूप होता तो सीता लकीर कदापी नहीं पार करती। अशीष शिवजी से प्रश्न करता है कि आखीर श्री हरि विष्णु को अवतार क्यों लेना पड़ता है? वे स्वयं खडे़ होकर दैत्यों अथवा बुराईयों का नाश कर सकते हैं। तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि ब्रहा्राजी का विधान है कि सृष्टि में उत्पन्न मानव हीं दैत्य अथवा उनकी बुराईयों का नाश कर सकता है। इस अवस्था में हमें अवतार लेकर उस युग के गुण-धर्म से परिचित होना पड़ता है या उस युग के गुण-धर्म को सिखना पड़ता हैं और उसी युग के गुण-धर्म के अनुसार पाप अथवा बुराईयों का नाश करते हैं।
द्वापर युग में कृष्णावतार के दौरान श्रीकृष्ण की पत्नी माता लक्ष्मी के होने के बजाय सत्यभामा और रूक्मणी हुई। अषीष इस संबंध में भी श्री हरि विष्णु से पूछ बैठा। तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि माता पार्वती की भाँति लक्ष्मी भी माता बनना चाहती थी और इसलिए हीं वह हम से और पितामह श्री ब्रहा्राजी से पुत्र प्राप्ति की बात की, पितामह श्री ब्रहा्राजी ने तो अवतार के दौरान पुत्र प्राप्ति की बात कह दिए लेकिन मैंने स्वयं इस बात को स्वीकार नहीं किया लेकिन लक्ष्मी अपनी जिद पर थी। इसलिए द्वापर युग के कृष्णावतार में लक्ष्मी का अवतार नहीं हो सका और लक्ष्मी को सिर्फ चिढ़ाने मात्र के लिए हमने सत्यभामा और रूक्मणी नामक दो स्त्रियों से विवाह कर लिया, लेकिन लक्ष्मी अपना जिद नहीं छोड़ी। आगे जाकर त्रेता युग में लक्ष्मी का अवतार परम् आवष्यक माना गया और पितामह श्री ब्रहा्रजी ने हमारे रामावतार के दौरान लक्ष्मी को पुत्र प्राप्ति का वरदान दे दिया लेकिन फिर भी हमने स्वीकार नहीं किया, चुँकि पितामह श्री ब्रहा्राजी वरदान दे चुके थे इसलिए उनके वरदान को मान्यता देते हुए त्रेता युग में सीता के वनवास के दौरान सीता को लव और कुष नामक दो पुत्रों की प्राप्ति हुई। तब अषीष आगे पुछता है कि आप स्वयं को पुत्र योग से क्यों बचाते हैं? तब स्वयं श्री हरि विष्णु ने कहा कि स्त्री चाहे किसी की भी क्यों न हो, वह एक माया है, कोई पुरूष भले हीं अपनी धर्मपत्नी के प्रति कठोरता दिखा दें लेकिन उससे उत्पन्न संतानों के प्रति मोह-माया जरूर रखता है और पाप को बढ़ावा देता है अथवा उसके लिए किसी तरह का पाप करने से पीछे नहीं हटता है। यही करण है कि मैं स्वयं को पुत्र योग से बचाता हूँ और यहाँ तक की मैं स्वयं लक्ष्मी को ‘‘माया’’ कहता हूँ।
अशीष आगे श्री हरि विष्णु से ‘‘कृष्ण’’ शब्द का अर्थ पूछ बैठता है, तब श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि ‘‘कृष्ण’’ शब्द का अर्थ तो तुम्हें भगवान षिवजी ही बता सकते हैं। तब भगवान षिव ने हँसते हुए कहा कि ‘‘कृष्ण’’ का अर्थ ‘‘माता दुर्गा का क्रोध’’ है। तब अषीष आष्चर्यपूर्वक पूछता है वो कैसे? तब भगवान षिव कहते है कि ‘‘कृष्ण’’ शब्द में दो शब्द छिपे हुए हैं, प्रथम ‘‘कृ’’ और द्वितीय ‘‘षण’’। माता दुर्गा जब क्रोध में आती है तब कृं, कृं का उच्चारण करती है तथा शब्द ‘‘षण’’ का अर्थ ‘‘संग’’ होता है अर्थात द्वापर युग में श्री हरि विष्णु का अवतार माता दुर्गा के क्रोध के साथ हुआ था इसलिए उस युग में पितामह श्री ब्रहा्राजी ने श्री हरि विष्णु के इस अवतार को ‘‘कृष्णावतार’’ कहा।
एक बार की बात है अषीष भगवान श्री गणेष की चर्चा करता है और माता दुर्गा से पूछता है कि वो इस वक्त क्या कर रहे हैं? इस पर माता दुर्गा हँसते हुए कहती है कि गणेष हमेषा कलयुग खत्म होने का इंतजार करता है, मैं जब भी मिलने जाती हूँ तो पूछता है ‘‘माते, कलयुग कब खत्म होगा?, मैं, आप और पिताश्री कब एक साथ होंगे? तब मैं उसे समझाते हुए कहती हूँ कि जब मैं और तुम्हारे पिताश्री एक साथ आएँगे तो समझना की कलयुग खत्म हो गया। तब अषीष आगे पुछता है कि इस वक्त वे क्या कर रहे होंगे। तब माता दुर्गा कहती है कि अपने मुषक को मुर्ख बनाकर मोदक खा रहा होगा। अक्सर वह मोदक की एक थाली लेकर बैठता है और एक स्वयं खाता है और एक अपने मुषक को देता है, अंत में जब मात्र एक मोदक शेष रहता है तब वह अपने मुषक से कहता है कि अगर माता श्री आयी तो ये मोदक तुमको देंगे अन्यथा मैं स्वयं खा जाऊँगा। काफी इंतजार करने के बाद मुषकराज हाथ मलते रह जाते हैं और मोदक गणेष खा जाता है।
कुछ सोंच कर अषीष अपने एक प्रष्न को त्रिदेवों के समक्ष रखता है जो कि सभी अपने-अपने स्थान पर उपस्थित थे और कहता है कि पितामह श्री ब्रहा्राजी ने इस ब्रहा्रण्ड की रचना किस प्रकार की? तब पिमामह श्री ब्रहाजी ने हँसते हुए कहा कि बात उस समय की है जब इस ब्रहा्राण्ड के पहले यहाँ कुछ भी नहीं था। तब हमारे पिताजी महाराज श्री परमपिता ब्रहा्राजी ने हमें प्रकट किया और शक्ति के आठ मोदक जिसमें दो श्वेत शक्ति थी एवं छः पर्णहरित शक्ति थी, देते हुए आदेष दिया कि अपनी सोंच समझ से एक सृष्टि सहित ब्रहा्राण्ड की रचना करो जिसमें जीवन लीला हो। तब हमने अपना पूर्ण विषालकाय रूप धारण किया और पर्णहरित शक्ति के एक मोदक से अपने चारो तरफ एक लकीर खींच दिया। उसके बाद हमने अपने सहयोग के लिए देवी सरस्वती को प्रकट किया। तथा हमदोनों ने मिलकर इस ब्रहा्राण्ड की रचना की। समस्त सृष्टि, ग्रह, नक्षत्र और सुर्य-तारे-चंद्र सभी के सभी पर्णहरित शक्ति से बने हैं। हमदोनों ने ब्रहा्रमाण्ड के मध्य एक स्थान पर खडे़ होकर इसकी रचना की है। ब्रहा्रण्ड रचना होने के पष्चात् हमने धरती को पर्वत तथा पहाड़ों सहित वृ़क्ष और नदियांे से सजाया और इस दौरान हमारे पास पर्णहरित शक्ति के मात्र एक मोदक शेष रह गये थे तब हमने उसके दो टुकड़े कर दिये जिससे षिव और पार्वती की उत्पत्ति हुई। तब आषीष आगे पुछता है कि षिव-पार्वती के अर्धनारिष्वर स्वरूप की क्या कहानी है। तब स्वयं षिवजी ने कहा कि जब भी कालचक्र का अंत होता है तब स्वयं पितामह श्री ब्रहा्रजी हमारी परीक्षा यह कहकर लेते हैं कि युगों के दौरान कही तुमदोनों की शक्तियों में कमी तो नहीं आयी है? और हमदानोें को एक ज्योति बनाकर उपरी तल ब्राहण्ड में तारों के बीच भ्रमण करने के लिए यह कहकर छोड़ देते है कि जब तुमदोनों आपस में टकराओगे तब स्वयं को अर्धनारिष्वर रूप में पाओगे और हम यही समझेंगे की युगों के दौरान तुमदोनों में किसी प्रकार की पाप का वास नहीं हुआ है। चुकि हमदोनांे एक पर्णहरित शक्ति के मोदक के दो टुकड़े है इसलिए ज्योतियों के टक्कर के उपरान्त अर्धनारिष्वर स्वरूप में खड़े हो जाते हैं। तब अषीष आगे पुछता है कि इस ब्रहा्राण्ड की माप क्या है? इस बात पर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने स्वयं कहा कि हमारे कदम से ‘‘एक कदम’’ षिवजी के कदम से ‘‘दो कदम’’ और श्री हरि विष्णु के कदम से मात्र ‘‘तीन कदम’’ इस ब्रहा्राण्ड की माप है, तब अषीष आगे पुछता है कि महाराज शेषनाग की लम्बाई क्या है तब स्वयं श्री हरि विष्णु ने कहा कि इस धरा की परिधि ही शेषनाग की लंबाई है।
अषीष आगे प्रष्न करता है कि अगर समस्त सागर के जल को नदियों के जल की भाँति मीठा करना हो तो कैसे होगा। तब स्वयं श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि देवयुग के शुरूआत में संसार के समस्त जल-भूभाग मीठा अथवा सागर-समुद्र में मीठा जल हीं होता था, चुँकि समस्त काल (सत्, द्वापर और त्रेत्रा) के आगमन पर काल (सत्, द्वापर, त्रेता) स्वयं धरती की सफाई करते हैं तब उसका सारा मलवा सागर अथवा समुद्र में चला जाता है जिसके निरंतर होने से सागर अथवा समुद्र का जल खारा हो गया जिसको पुनः देवयुग के शुरूआत से पहले स्वयं पितामह श्री ब्रहा्राजी सागर अथवा समुद्र के समस्त जल-जीवों सहित सभी को मोक्ष देंगे और पुनः शुद्ध एवं षीतल जल को प्रवाहित करेंगे। अषीष आकाष-पाताल लोक पर विचार करते हुए पुछा कि आकाष तो दिखाई देता है परन्तु धरती पर पाताल लोक कहाँ है। इस पर स्वयं श्री हरि विष्णु ने कहा कि देवयुग में धरती घुमती नहीं है और ऐसी अवस्था में सुर्य सदैव भारतवष की ओर केन्द्रित रहती है। धरती का आधा भाग जो अंधकारमय होता है उसे ही पाताल लोक कहा जाता है। तब अषीष आगे पूछता की अगर धरती देवयुग में धरती नहीं घुमती है तो रात भी नहीं होती होगी? ऐसी अवस्था में समय का आकलन कैसे होता है? तब श्री हरि विष्णु कहते हैं कि धरती भले हीं सूर्य की परिक्रमा न करता हो परन्तु चन्द्र धरती की परिक्रमा जरूर करता है और ऐसी अवस्था में माता पार्वती का एक स्चरूप ‘‘चन्द्रघंटा’’ नक्षत्र में उपस्थित चन्द्र की स्थित को देखकर समय का आकलन करती है और वही अपने शक्तियों के माध्यम से समय का प्रचार-प्रसार करती है एवं देवयुग में ‘‘चन्द्रघंटा’’ का मुख्यतः यही काम है।
अशीष त्रेता युग मंे रघुवंषीयों की शुरूआत कब और कैसे हुई, इस विषय पर श्री हरि विष्णु से पूछता है। तब स्वयं श्री हरि विष्णु ने सारे वृतांत बताते हुए कहते हैं कि महाराज भगीरथ के दो पुत्र थे- कृतरथ और दषरथ। कृतरथ, कुमार दषरथ के बड़े भ्राता थे और कौषल्या, जिनके गर्भ से हमारा रामावतार हुआ, कौषल नरेष पूर्वांकुष की पुत्री थी। युवराज कृतरथ को कौषल्या से बहुत प्रेम था। लेकिन कौषल्या, जिनका नाम उनके ही राज्य के नाम पर उनके पिता महाराज पूर्वांकुष ने रखा था, जो उनकी एक मात्र पुत्री थी, कृतरथ को पसंद नहीं करती थी और अक्सर अपने पिता से षिकायत भी करती थी। महाराज पूर्वांकुष क्रोधी प्रवृति के थे। एक दिन महाराज पूर्वांकुष ने अयोध्या पर चढ़ाई करके कृतरथ का वध कर दिया। उस समय महाराज भगीरथ भगवती गंगा को लाने के लिए भगवान षिव की तपस्या में लीन थे और कुमार दषरथ आखेट करने के लिए वन में चले गये थे। अपने भ्राता के इस प्रकार की मृत्यु को देखकर कुमार दषरथ ने कौषल राज्य पर चढ़ाई करके कौषल नरेष पूर्वांकुष का वध कर दिया और और तो और कुमारी कौषल्या से विवाह भी कर लिया। इधर महाराज भगीरथ, देवी गंगा को धरा पर लाने का वरदान भगवान षिव से प्राप्त करने के बाद जब अपने राज्य अयोध्या की ओर प्रस्थान किया तब रास्ते में ही उन्हें पता चलता है कि कौषल नरेष पुर्वांकुष ने युवराज कृतरथ का वध कर दिया है लेकिन कुमार दषरथ ने कौषल नरेष पुर्वांकुष पर विजय प्राप्त कर ली है। कुमार दषरथ की विरता को देखते हुए उसी समय उन्हें अयोध्या का राजा घोषित कर दिया। महाराज दषरथ अयोध्या का राजा बनते ही कौषल राज्य को अपने राज्य अयोध्या में मिला लिया। चुकि महाराज दषरथ ने देव और असुर संग्राम में देवराज इन्द्र का साथ दिया था इसलिए महाराज दषरथ के परिवार में मेरा (श्री हरि विष्णु) रामावतार हुआ।
हर रात्रि में करीब 1.00 बजे तक अषीष एक कहानी सुनकर ही सोता था। अगर श्री हरि विष्णु नहीं सुना सकें तो त्रिदेवियों में से कोई न कोई उसे एक कहानी सुना ही देती थी। माता दुर्गा ने एक कहानी सुनाते हुए कहा कि ‘‘एक समय की बात है, ब्रहासुर नामक दैत्य रूपी एक ऋषि ने पितामह श्री ब्रहा्राजी की घोर तप किया और ब्रहा्रा बनने की माँग कर बैठा। पितामह श्री ब्रहा्राजी को भी आर्ष्च हुआ और उन्होंने ने ऐसा वरदान देने से भी पिछे नहीं हटें। वरदान देते हुए उन्होंने ब्रहा्रसुर से कहा कि अब तो धरती पर दो-दोेेेेेेेेेेेेेेेेेे ब्रहा्रा हो गये है, देखते है तुम्हारे (ब्रहा्रासुर) अनुकूल कौन-कौन चलता है। ब्रहासुर के अनुकूल षिवजी थे जो नीत अपनी तपस्या में लीन रहते थे, बालक गणेष था जो हमेषा अपने खेल-कुद में व्यस्त रहता था और तो और संसार के अधिकतर लोग ब्रहा्रसुर के अनुकूल हीं था, प्रतिकूल थे तो मैं, श्री हरि विष्णु और कुमार कार्तिके जो सदैव दैत्यों की खबर रखते थे। उसी दौरान एक और कृतसुर नामक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्रजी की घोर तप किया और षिवलोक की माँग किया। इसपर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने विजय श्री का आर्षिवाद देते हुए कहा कि अगर तुम कुमार कार्तिके को युद्ध में पराजित कर देते हो तो षिवलोक तुम्हारा हो जायेगा और इतना कहकर अन्तर्ध्यान हो गये। कृतसुर हमेषा यह ताक में रहता था कि कुमार कार्तिके कब उसे अकेला रहतें हैं, और इसी दौरान कुमार कार्तिके और कृतसुर के मध्य भयंकर युध होता है, कुमार कार्तिके को पराजित होता देखकर भगवान षिव जी ने अन्दरूनी रूप से कुमार कार्तिके को अपना त्रिनेत्र दे दिया और कृतसुर उस त्रिनेत्र की अग्नी से जल कर भष्म हो गया। इधर ब्रहा्रसुर को कृतसुर का पराजय भी अनुकूल नहीं लगा और देवताओं से कृतसुर का बदला लेने के लिए उसने समस्त सृष्टि का अधिकारी मानते हुए बैकुण्ठ लोक चला गया और वहाँ जाकर श्री हरि विष्णु के आसन पर विराजमान हो गया। श्री हरि विष्णु स्वयं आष्चर्यचकित थे लेकिन फिर भी पितामह श्री ब्रहाजी के वरदान होने के कारण कुछ न बोले और अपने शेषनाग के आसन पर विरामावस्था में पड़े रहे। फिर अचानक श्री हरि विष्णु ने अपने प्रिय सेवक ‘‘जय’’ को संकेत देकर बुलाया जो कि चतुर्भूजी थे और अपना सुदर्षन, शंख, गदा और पुष्प उसे दे दिया या युँ कहा जाय कि जय को ही उन्हांेने विष्णु बना दिया। विष्णु रूपी जय बैकुण्ठ लोक मंे जा कर ब्रहा्रसुर का चरण स्पर्ष करता है जो कि उसके अनुकूल था। इधर श्री हरि विष्णु ने माता दुर्गा से उपरोक्त शस्त्रों की माँग की और माता दुर्गा ने भी विलम्ब नहीं किया और पुनः वे पूर्णरूपेण श्री हरि विष्णु हो गये। इधर ब्रहा्रसुर जब बैकुण्ठ लोक से बाहर आया तब एक और विष्णु को देखकर आष्चर्यचकित हो गया। तभी ब्रहा्रासुर ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का अवह्ान किया और पूछा कि यहाँ दो विष्णु कैसे हो गये तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने प्रतिउत्तर में कहा कि धरती पर जब दो ब्रहा्रा हो सकते हैं तो विष्णु क्यांे नहीं वैसे तुम्हारा विष्णु कौन है? इस ब्रहा्रासुर ने जय रूपी विष्णु की ओर इषारा करते हुए का कि ‘‘ये हमारा विष्णु है’’ और श्री हरि विष्णु का इषारा पाकर विष्णु रूपी जय ने श्री हरि विष्णु का चरण स्पर्ष कर लिया। तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने हँसते हुए ब्रहा्रासुर से कहा कि जिस विष्णु ने तुम्हारा चरण स्पर्ष किया, उसी विष्णु ने इनका भी चरण स्पर्ष किया। अतः तुममे और इनमें कोई अन्तर नहीं है। चुँकि ये स्वयं हमें पितामह कहते है, इसलिए हमदोनों में ज्येष्ठ तो हम हीं हुए, हमारी बात मान लो और स्वर्गवासी हो कर स्वर्ग का भोग करांे। इस प्रकार ब्रहा्रसुर का धमंड भी चूर-चूर हो जाता है।
अषीष ‘‘ऊँ’’ शब्द की उत्पत्ति पर प्रष्न करते हुए श्री हरि विष्णु से ‘‘ऊँ’’ शब्द की उत्पत्ति के बारे में पुछा, तब स्वयं श्री हरि विष्णु ने एक कथा सुनाते हुए कहा कि एक समय की बात है पितामह श्री ब्रहा्राजी ने माता पार्वती से भगवान षिव के समान एक शब्द ढूँढने को कहा जो भगवान षिव का प्रतीक हो। तब माता पार्वती ने अपने आस-पास के हर वस्तु पर नजर दौड़ाई, लेकिन कुछ प्राप्त नहीं हुआ। तब उनकी नजर भगवान षिव के त्रिषुल पर पड़ी। उन्होंने उस त्रिषुल को जमीन पर रख दिया जिससे जमीन पर त्रिषुल का निषान पड़ गया तथा माता सरस्वती के सहयोग से उसी त्रिषुल के निषान को आधार बनाकर ‘‘ऊँ’’ शब्द बनाया। तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने एक मंत्र ‘‘ऊँ नमः षिवाय’’ का उच्चारण करते हुए कहा कि भगवान षिव भी माता पार्वती को नमन करते हैं। जहाँ ‘‘ऊँ’’ का शब्दिक अर्थ स्वयं भगवान षिव हैं वहीं षिवाय अथवा षिवा का अर्थ स्वयं माता पार्वती हीं हैं।
हमेषा की तरह अषीष श्री हरि विष्णु से उनकी देवयुगीन लीला सुनाने की बात करता है और श्री हरि विष्णु भी कह हीं देते थे। एक त्रेता युग की लीला सुनाते हुए श्री हरि विष्णु ने कहा कि एक समय की बात है उस समय हम रामावतार में नहीं थें। लक्ष्मी को स्वर्गलोक भ्रमण की इच्छा जाग उठी, हम (श्री हरि विष्णु), लक्ष्मी और राधा को साथ लिए तीनों स्वर्ग की ओर प्रस्थान किए और कुछ जलपान करने के लिए बैठ गये। राधा और लक्ष्मी के मध्य हमेषा खिंचा-खींची होती थी। हमने लक्ष्मी से कहा कि हम (श्री हरि विष्णु) तो दोनों के मध्य ही बैठेंगे लेकिन तुम किस तरफ बैठोगी। तब लक्ष्मी ने कहा कि हम शंख के तरफ बैठेंगे, कटने के लिए उसे (राधा) हीं छोड़ दिजिए। हम सहमत हो गये और जलपान आरंभ किए। चुकि राधा मेरे सुदर्षन की तरफ बैठी थी, इसलिए हम जलपान के दौरान जब भी झुकते थे तो ‘‘सुदर्षन’’ राधा से कहता था कि ‘‘माते, सावधान रहें’’। जलपान खत्म होने के बाद हमने राधा और लक्ष्मी की श्रेष्ठता के बारे में लक्ष्मी से पुछा, लक्ष्मी बोली कि ‘‘प्रभु हम सैदव आपके साथ रहते है, इसलिए श्रेष्ठ तो मैं हीं हूँ, इस पर हमें नहीं रहा गया और हमने कहा कि जलपान के दौरान तो मेरे सुदर्षन ने राधा को ‘‘माता’’ कहा इसलिए श्रेष्ठ तो राधा ही हुई, इस प्रकार लक्ष्मी एक बार और राधा से हार जाती है।
एक देवयुगीन कथा सुनाते हुए श्री हरि विष्णु ने अषीष से कहा कि एक समय की बात है रूद्राषुर नामक एक दैत्य ने पितामह श्री बह्रा्राजी की घोर तप किया और वरदान स्वरूप माता दुर्गा की माँग कर बैठा। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने यह कहते हुए वरदान दिया कि अगर रूद्राषुर भगवान षिव की कलाई में बँधी रूद्राक्ष को प्राप्त कर लेता है तो वह माता दुर्गा को प्राप्त कर लेगा अन्यथा माता दुर्गा के हाथों रूद्राषुर का वध हो जाएगा। वरदान प्राप्त कर रूद्राषुर षिवलोक पहूँचा जहाँ स्वयं भगवान षिव तपस्या में लीन थे। वह षिवजी के समक्ष तपस्या समाप्त होने तक खड़ा रहा। तपस्या समाप्ती के बाद षिवजी ने अपनी आँखे खोली और रूद्राषुरू को अपने समक्ष पाया, उन्होंने रूद्राषुर से खड़ा रहने का कारण पुछा तब रूद्राषुर ने षिवजी के कलाई पर बँधी रूद्राक्ष की माँग किया, इस पर षिवजी ने कहा कि हमारे इस रूद्राक्ष में त्रिलोक की परम््् शक्तियाँ विद्यमान है इसलिए हम ये रूद्राक्ष तुम्हें नहीं दे सकते हैं। इतना सुनकर रूद्राषुर, षिवजी से वह रूद्राक्ष छिनने लगा और षिवजी ने इसका विरोध किया, आगे चलकर यह विरोध मल्लयुद्ध में बदल गया और रूद्राषुर वहाँ से भाग गया और युद्ध के दौरान वह रूद्राक्ष षिवजी के कलाई पर से टूट कर षिवलोक में ही दूर गिर जाता है। अगले दिन रूद्राषुर पुनः षिवलोक में आता है और वहाँ के एक पहाड़ी पर बैठ जाता है। चारो तरफ देखते हुए रूद्राषुर की नजर रूद्राक्ष पर पड़ती है जो षिवलोक मंे ही झाड़ियों के मध्य गिरी हुई थी। वह रूद्राक्ष प्राप्त करने हेतु आगे बढ़ता है लेकिन जैसे हीं वह रूद्राक्ष की तरफ बढ़ता है तभी माता पार्वती अपने आवास से बाहर आती है और रूद्राषुर की नजर उन पर पड़ती है। उन्हें देखते ही रूद्राषुर वासना विभुत हो जाता है और माता पार्वती पर टूट पड़ता है। माता पार्वती ने रूद्राषुर को अपनी ओर आता देखकर दुर्गास्वरूप प्रकट करती हैं और अपने सुदर्षन से रूद्राषुर का वहीं वध कर देती हैं।
अशीष द्वारा पुछे जाने पर कि आप पापियों का हीं विनाष क्यों करते हैं? इस प्रष्न के उत्तर में श्री हरि विष्णु ने कहा कि मैं पापियों को भी सुधरने का मौका देता हूँ तभी तो हिरण्यकष्यप जैसे दैत्य के घर भक्ति भाव रखने वाले भक्त प्रहलाद का जन्म करवाया ताकि हिरणयकष्यप, भक्त प्रहलाद से प्रेरित होकर कुछ धार्मिक ज्ञान ग्रहण कर सके और हमारे प्रति शत्रुता का भावना त्याग दे। लेकिन हिरण्यकष्यप पर भक्त प्रहलाद का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उल्टे वह प्रहलाद को दंण्डित करने लगा। तब मैंने स्वयं नृसिंह अवतार धारण किया और हिरण्यकष्यप का वध कर दिया।
अशीष अक्सर श्री हरि विष्णु पर प्रष्नों का प्रहार करता था और एक प्रष्न जो सदैव उसके मन में खटकता था खास कर अपने ही आत्मा में श्री हरि विष्णु के अवतार होने के बाद पुनः हुआ। वह श्री हरि विष्णु से पुनः एक प्रष्न करता है और कहता है कि माता पार्वती जो कि कभी सती के नाम से जानी जाती थी जबकि सती का मतलब ‘‘पति के साथ चिता में जलना’’ जो कि उनके ही कार्यो से सिद्ध होता है, तो क्या माता सती भी अपने काल में स्वयं को जलाया करती थी अथवा भगवान षिव के साथ जलती थी? इस बात को सुन कर स्वयं श्री हरि विष्णु हँसने लगे और बोले कि माता सती का सही नाम ‘‘सत्ययी’’ था जो उच्चारण मात्र से ‘‘सती’’ लगता था और आगे चलकर वह ‘‘सती’’ ही कहलाने लगी। तब अषीष माता सत्ययी की कहानी सुनने को इच्छुक हो गया और इस अनुरोध पर श्री हरि विष्णु ने कहना आरंभ किया।
एक समय की बात है माता ‘‘सत्ययी’’ जो कि शक्ति स्वरूपा का प्रथम नाम था और वे षिवभार्या भी थीं। वास्तव में जब माता सत्ययी का धरती पर अवतरण हुआ तो भगवान षिव ने ही उन्हें पहली बार ‘‘सत्य’’ कह कर उच्चारित किया, कारण यह था कि जब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने भगवान षिव के लिए योग्य स्त्री की उत्पति करने की सोंची तो स्वयं भगवान षिव ने कहा था कि वह उनके समान दस भुजाओं के साथ शस्त्र धारण करने वाली हो और जब माता सत्ययी का अवतरण हुआ तब भगवान षिव ने परिक्षण किया तो पाया कि माता सत्ययी भी उन्हीं के समान दस भुजाओं के साथ शस्त्र धारण करने वाली है। तब भगवान षिव ने अपने मुख से पितामह श्री ब्रहा्राजी से कहा कि ‘‘सत्य है इ’’, भगवान षिव के श्री मुख से इस बात का उच्चारण करते हीं पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उन्हें सत्ययी नाम से संबोधित किया और उनका नाम सत्ययी हो गया। आगे चलकर भगवान षिव ने माता सत्ययी को उनके ‘‘सत्ययी’’ नाम होने का कारण बताया कि ‘‘सत्य है इ’’, मतलब तुम जो कहोगी हमारे द्वारा सत्य माना जाएगा और उस कथन पर हमारे द्वारा उचित आदेष किया जाएगा। इस बात को ध्येय में रख कर माता सत्ययी ने उनके उपर कुदृष्टि रखने वालों को भगवान षिव के हाथों दंडित करवाने लगी जो कि सत्य था और इसी बात से प्रेरित होकर माता सत्ययी षिवलोक में उपस्थित अपने आलोचकों को भी मनमाने ढंग से दण्डित करने लगी। जिसकी जानकारी भगवान षिव को हो चुकी थी। एक समय की बात है भगवान षिव ने कटू शब्दों में माता सत्ययी से पुछा कि ‘‘है इ’’ में क्या कमी है और इस प्रष्न के जबाव में माता सत्ययी ने कहा कि इसमें ‘‘सत्य’’ नहीं है। तब भगवान षिव ने पुनः पुछा कि ‘‘सत्य’’ कहाँ है? इस प्रष्न के जबाव में माता सत्ययी ने हँसते हुए कहा कि ‘‘क्या मैं सत्य से परिचित नहीं हूँ?’’ भगवान षिव का क्रोध चरम सीमा पर पहूँच जाता है और वे माता सत्ययी को एक थप्पड़ लगा देते हैं और पुनः पुछते हैं कि सत्य क्या है? तब माता सती ने कहा कि आपने हमें थप्पड़ मारा है, यही सत्य है। उसके बाद भगवान षिव ने पुनः पुछा कि हमने आपको थप्पड़ क्यों मारा। इस बात के जबाव में माता सत्ययी ने कहा कि मैने आपसे झूठ बोला था। आगे भगवान षिव ने पुछा कि सत्य क्या है?, इस बात के जबाव में माता सत्ययी ने कहा कि मैं सत्य नहीं हूँ। तब भगवान षिव ने अपना मुख फेरते हुए कहते हैं कि यानि की आप सती होने को तैयार है और माता सत्ययी को जलती हुई अग्नी में जाने का आदेष देते है और माता सत्ययी वहीं जल कर राख हो जाती है। लेकिन इतने पर भी भगवान षिव का क्रोध कम नहीं होता है और उन्होंने माता सत्ययी को श्राप दिया कि तुम जिस किसी दम्पति के गर्भ से जन्म लोगी, अगर उनलोगों ने पुनः तुम्हारा नाम सती अथवा सत्ययी रखा तो उनके राज्य अथवा यष का नाष होगा। इधर प्रजापति दक्ष संतान हेतु इच्छुक पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप करते हैं और षिव भार्या के समान शक्ति स्वरूपा पुत्री की माँग करते हैं। समय की मांग को देखते हुए पितामह श्री ब्रहा्राजी ने ‘‘तथास्तू’’ कह कर अर्न्तध्यान हो गये और उचित समय पर प्रजापति दक्ष के घर शक्ति स्वरूपा माता सत्ययी का पुनः जन्म होता है। लेकिन अपनी पुत्री के गुण और शक्ति को देखकर प्रजापति दक्ष ने प्रतियोगवष पुनः उनका नाम सत्ययी रखा। मैं स्वयं (श्री हरि विष्णु) भगवान षिव के समक्ष प्रस्तुत हुआ और समय की गंभीरता को देखते हुए प्रजापति दक्ष के द्वारा किये गए भूल को दर्षाया तथा इच्छा किया कि ये उनकी भूल हीं है जो उन्होंने शक्ति स्वरूपा का नामांकरण पुनः सत्ययी हीं रखा, इससे उनके ही राज्य अथवा यष कि क्षति होगी, ये उन्हें बताना होगा कि यह शब्द भगवान षिव के द्वारा श्रापित है। भगवान षिव ने अतीत को याद करते हुए कहा कि एक समय की बात है उस समय प्रजापति दक्ष हमारे गुरूकूल में षिष्य हुआ करते थे और मैं स्वयं उस समय गुरू था। मैं अपनी तपस्या में लीन था, वह देवी सत्ययी के साथ भ्रमण के लिए गए और जब देवी सत्ययी वापस आयी तो वह प्रजापति दक्ष को अपना पति स्वीकार कर ली थी। वास्तव में जब सत्ययी का अवतरण हुआ था, यह घटना उसी समय का है, उस समय सत्ययी को अपने शक्ति और पद की गरिमा का परिचय नहीं प्राप्त हुआ था और वह राजकन्या की भाँति रहना भी चाहती थी। मैंने क्रोध में आकर सत्ययी के दुर्गा स्वरूप का अवाह्न किया, जिसे देखकर प्रजापति दक्ष गिड़गिड़ाने लगे और मैनें प्रजापति दक्ष को कहा कि तुम किसी अन्य की भार्या को अपनी भार्या बना सकते हो लेकिन षिवभार्या को नहीं। संसार में अगर कोई दूसरा शक्ति स्वरूपा मिले तो उसे तुम अपनी भार्या हीं बनाना अन्य संबंध बनाया तो तुम्हारे कुल और राज्य का नाष होगा। भगवान षिव ने पुनः हमे समझाते हुए कहा कि प्रजापति दक्ष द्वारा अपनी पुत्री का नामांकरण सत्ययी रखने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।
अशीष श्री हरि विष्णु से प्रष्न करता है कि इस युग मंे आप जैसे परमात्मा से मिलना कैसे संभव है? इस प्रष्न के उत्तर में श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि कोई मानव परमात्मा से क्यों मिलना चाहेगा? अगर मिलना भी चाहेगा तो अपने इच्छा की पूर्ति, यष और धन की प्राप्ति हेतु ही मिलेगा तब इस अवस्था में परमात्मा से मिलन का उत्तरदायी मानव का कर्म ही होता है। कहा जाता है कि नियति और नियत जो कि दोनों एक दुसरे से विपरीत हैं, नियति का अर्थ है ‘‘होनी’’ अर्थात ‘‘परमात्मा का लेख’’ और नियत, जिसका अर्थ है, ‘‘मानव का इच्छा अथवा कर्म’’, अगर इन दोनों का मिलाप हो जाए तो मानव का कार्य सिद्ध हो जाएगा तथा उसी पल वह अनुभव करेगा कि उसे परमात्मा से मिलन हो गया।
अशीष श्री हरि विष्णु से दिक्पाल का परिचय पुछते हुए कहा कि आखिर रावण दिक्पाल को कैसे अपना बंदी बनाया था? इस प्रष्न के जबाव में श्री हरि विष्णु हँसते हुए कहते हैं कि दिक्पाल वास्तव में त्रेताकाल का पुत्र था। एक समय की बात है खड़गासूर नामक एक दैत्य जिसे पितामह श्री ब्रहा्राजी द्वारा वरदान प्राप्त था कि दिव्य नेत्र वाले को भी वह भ्रमित कर देगा। यही कारण था कि दिक्पाल को खड़गासूर भ्रम में डाल कर उससे मित्रता कर ली थी। इधर खड़गासूर, रावण को भ्रम में डाल कर लंका का राजा बनना चाहता था लेकिन वह सफल नहीं हो पाता था। खड़गासूर के इस योजना को देखकर रावण हमेषा भय में रहता था और शायद इसलिए वह भगवान षिव की तपस्या की ताकि उनसे प्राप्त चन्द्रह्ास से खड़गासूर का वध कर सके। चुँकि दिक्पाल और खड़गासूर में सच्ची मित्रता थी इसलिए खड़गासूर ने दिक्पाल से सहायता माँगा कि किसी प्रकार वह रावण द्वारा किये गये तपस्या को विफल कर दे और उसकी जान बचा ले। इसी उद्देष्य से दिक्पाल ने रावण द्वारा की जा रही तपस्या के दौरान उच्चारित मंत्र को भगवान षिव के पास जाने से रोक लिया और उसे अपने अंदर ही सोखना शुरू कर दिया। काफी दिन हो चुके थे रावण का तपस्या जारी था लेकिन उसके तपस्या का भगवान षिव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। अंततः मंत्रोच्चारण करते हुए वह अदृष्य हो जाता है और देखता है कि सारा मंत्र दिक्पाल द्वारा सोख लिया जा रहा है वह उसी छन प्रकट होता है और दिक्पाल को अपने मुट्ठी में जकड़ लेता है और करीब तीन माह दिक्पाल को अपनी मुट्ठी में हीं कैद रखता है, त्रेताकाल द्वारा विनती करने पर रावण दिक्पाल को छोड़ देता है और पुनः अपनी तपस्या में लीन हो जाता है जिससे उसे भगवान षिव द्वारा चन्द्रह्ास प्राप्त होता है और खड़गासूर को रावण ढूँढकर वध कर देता है।
अषीष श्री हरि विष्णु से प्रष्न करता है कि धर्म और संबंध में क्या अन्तर है अथवा धर्म और संबंध में से कौन महत्वपूर्ण है? इस प्रष्न के उत्तर में श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि धर्म, संबंध से बड़ा होता है तभी तो एक तरफ अधर्म का पालन करने वाला हिरण्यकष्यप ने अपने ही धर्माधिकारी पुत्र प्रहलाद को मारने का हर विफल प्रयास किया क्यों कि वह अधर्म को ही मानता अथवा उसकी पुजा करता था। जहाँ ‘‘पुत्र’’ शब्द एक ‘‘संबंध’’ को दर्षाता है वहीं प्रहलाद भी धार्मिक तथा मेरा अराधक थे तथा उन्होंने अपने धर्म के पालन हेतु अपने ही पिता हिरण्यकष्यप् को बार-बार समझाया, जहाँ ‘‘पिता’’ भी एक ‘‘संबंध’’ है। क्या कोई बालक अपने बाल्यावस्था में ही अपने पिता के विरूद्ध ज्ञान की खड़ग उठा सकता है, लेकिन वह छोटा बालक भी जानता था कि ‘‘धर्म’’ से बढ़कर कोई ‘‘संबंध’’ नहीं होता है।
अशीष के विनती पर स्वयं भगवान षिव ने अपनी ओर से एक देवयुगीन कथा सुनाते हुए कहा कि एक समय की बात है कि सतनासूर नामक एक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्रजी का घोर तप किया और वरदान स्वरूप समुद्रीय क्षेत्र का माँग कर बैठा है। इस पर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने आष्चर्यपूर्वक उससे पूछा कि समुद्रीय क्षेत्र का क्या उपयोग है तुम्हारे नजर में? तब सतनासुर ने हाथ जोड़ते हुए कहा कि ‘‘हे पितामह, हम पाताल लोक को इसी क्षेत्र में लाना चाहते हैं। तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने अपनी समस्या सुनाते हुए कहा कि ये क्षेत्र श्री हरि विष्णु के अधिकार में है, इसे पहले निर्जल करना होगा। तब सतनासुर पितामह श्री ब्रहा्राजी से समुद्र निर्जलीकरण करने का वरदान प्राप्त करता है और समुद्र का जल पीना प्रारंभ कर देता है और वह धिरे धिरे श्री हरि विष्णु के आसन के समीप आने लगता है। भगवान षिव सतनासूर के इस कार्य शैली को देख रहे थे और उन्होंने श्री हरि विष्णु के आसन के समीप गए और उनसे कहा कि हे हरि आप अपने आसन को थोड़ा पिछे की ओर ले जाएँ, श्री हरि विष्ण ने ऐसा ही किया और इस प्रकार भगवान षिव ने थोड़ा और पिछे-थोड़ा और पिछे कह कर काफी पिछे कर दिया। श्री हरि विष्णु ने भगवान षिव के इस विनती पर झल्लाते हुए कहा कि हमने तो इस प्रकार भारतवर्ष को काफी आगे छोड़ दिया। तब भगवान षिव ने कहा कि ये दुष्ट सतनासूर समुद्र को निर्जलीकरण करते हुए कहीं आपको न निगल जाये। तब श्री हरि विष्ण ने अपने विरामावस्था को छोड़कर सतनासूर को मना किया और कहा कि ये कार्य जो तुम कर रहे हो, पितामह श्री ब्रहा्राजी के सृष्टि के विरूद्ध है। तब सतनासूर ने हाहाकार करते हुए कहा कि पितामह ने ही हमें समुद्र को निर्जलीकरण करने का वरदान दिया है। तब श्री हरि विष्णु ने सतनासूर को समझाते हुए कहा कि निर्जलीकरण का भावार्थ ‘‘जल को सोखना होता है न कि जल को पीना, जाओ पुनः पितामह श्री ब्रहाा्रजी से समुद्र जल को पीने का वरदान प्राप्त करो। सतनासूर गुस्से से लाल हो उठा, जैसा कि उसके नाम से ही परिचित होता है ‘‘सतनासूर अर्थात सत्य को न सहन करने वाला’’ वह गुस्साते हुए श्री हरि विष्णु की ओर ये कहते हुए बढ़ा कि लगता है हमें पहले तुम्हारा रक्त ही पीना होगा, तब स्वयं श्री हरि विष्णु ने उसी समय अपने सुदर्षन से सतनासूर का वध कर दिया।
अषीष द्वारा किए गए एक सावाल के जबाव में श्री हरि विष्णु ने कहा कि परमात्मा न किसी मानव को पाप करने से रोकता है न पुण्य करने वाले को पुण्य करने को कहता है। वह दोनों को स्वतंत्र रखता है और उसे अपनी इच्छा की पुर्ति करने को कहता है, कुछ प्राणी पाप करके अपनी इच्छा की पुर्ती करते है तो कुछ पुण्य करके। इस अवस्था मंे जब पाप अथवा पापियों से धरा त्राहिमाम करने लगती है तो मेरा अवतार होता है और मेरे द्वारा पाप अथवा पापकर्मियों का विनाष किया जाता है।
अषीष द्वारा युगों अथवा बीते हुए काल का नाम पुछे जाने पर श्री हरि विष्णु ने सोंचते हुए कहा कि जब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने जब ब्रहा्राण्ड बनाया था तो सर्वप्रथम ‘‘परमत्व काल’’ लाया गया था जिसमें पितामह श्री ब्रहा्राजी ने हजारो असूरो की उत्पत्ति की, उधर श्री हरि विष्णु भी हजारों देवात्माओं की उत्पत्ति की तथा दोनों को एक हीं स्थान पर निवास करने के लिए छोड़ दिया गया। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उच्चारित करते हुए कहा कि इस धरती पर देवात्मा भी हैं और असूर आत्मा भी! अब हमें देखना यह है कि किसके आत्मा में परमत्व है अर्थात कौन - किनका शोषण करता है? जिसके आत्मा में परमत्व होगा वहीं स्वर्गलोक में निवास करेगा। चुँकि देवात्म स्त्रियाँ बहुत ही सुंदर और सुषील थी जिसे देखकर असूरों का दृष्टि खराब हो जाता था और वे इन स्त्रियों को बहला - भुसला कर अथवा जबरन इनके साथ शारिरीक संबंध बनाते थे और इस प्रकार असूरों के परमत्व पर प्रष्न चिन्ह् लग जाता है। इस प्रकार स्वर्गलोक देवात्माओं के हिस्से में चला जाता है और फिर उन्हीं देवात्माओं में से विभिन्न देवों का चयन किया जाता है। तत्पष्चात् पितामह श्री ब्रहा्राजी ने ‘‘देवकाल’’ लाये और उस काल के दौरान स्वर्गलोक के राजा इन्द्र ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप करके भारतवर्ष के अनेक भाग में अपने लिए एक स्वर्ग समान अलौकिक महल प्राप्त किया था जो गर्न्धव और अप्सराओं से परिपूर्ण था। उस दौरान जब सम्पूर्ण भारतवर्ष में देवराज इन्द्र द्वारा महल से परिपूर्ण कर दिया गया तब देवराज इन्द्र धमण्ड में आकर पितामह श्री ब्रहा्राजी से षिवलोक की माँग की तथा वहीं एक स्वर्ग समान महल की माँग कर बैठे इस बात के प्रतिउत्तर में पितामह श्री ब्रहा्राजी ने देवराज इन्द्र से कहा कि आपको षिवलोक में हीं मेरी तपस्या करनी होगी उसके उपरान्त ही मैं आपको षिवलोक में महल बनाने का आदेष दे सकता हूँ उसके बाद देवराज इन्द्र ने षिवलोक पर ही चढ़ाई करना चाहा तब माता दुर्गा ने उस दौरान अपने सुदर्षन से देवराज इन्द्र का वध कर दिया जो सीधा पितामह श्री ब्रहा्राजी के गोद में गीरता है। तत्पष्चात पितामह श्री ब्रहा्राजी ने देवराज इन्द्र को स्वर्गलोक में हीं निवास करने के लिए कहते है और वे भी अपने देव, अप्सराएँ और गन्धवों के साथ स्वर्गलोक में चले जाते हैं। उसके बाद पितामह श्री ब्रहा्राजी ‘‘ब्रहा्रकाल’’ लाते है तथा उस काल में माता दुर्गा, भगवान षिव, गणेष और कार्तिके के हाथों अनेकों दैत्यों का वध किया जाता है। तत्पष्चात् रूद्रकाल आता है जो माता दुर्गा के स्वरूपों पर आधारित होता है।
गंगा काल:- इस काल मे माता को हीं पितामह श्री ब्रहा्राजी का उपाधि प्राप्त होता है माता गंगा अपने भक्त अथवा दैत्यों को वरदान देते हुए उन्हें सच्चाई का मार्ग अपनाने को कहती हैं।
‘‘विष्णुकाल’’ के अर्न्तगत सत् काल, द्वापर काल, त्रेता काल आते हैं जिसके अर्न्तगत श्री हरि विष्णु का राजा सत्येवतार, कृष्णावतार और रामावतार होता है।
अषीष द्वारा सफलता की कुंजी के बारे मंे पुछे जाने पर स्वयं श्री हरि विष्णु ने कहा कि एक लक्ष्य और साफ नियत इंसान को सफल बना देती है। एक लक्ष्य का अर्थ यह है कि आप अपने लक्ष्य के प्रति जागरूक रहें उसी लक्ष्य पर अपनी आँखे जमाए रखे वहीं साफ नियत का अर्थ है कि अगर आप में किसी प्रकार का भ्रम अथवा किसी अन्य मानव के सोंच से प्रभावित नहीं होते हैं जो भ्रम पैदा करते हों। क्यों कि जिस मानव की मानसिकता शुद्ध हो वह मानव किसी के अन्य मानव के भ्रमजाल में नहीं पड़ सकता है तथा दिग्भ्रमित तथा गलत सोंच रखने वाले मानव हीं किसी अन्य मानव के भ्रमजाल में पड़ सकते हैं और इस दौरान दस राह को अपनाकर समय बर्बाद कर देते हैं तथा स्वयं को असफल भी रखते हैं।
अशीष आगे श्री हरि विष्णु से देवयुगीन दिनों का नाम पुछता है जिसे कलयुग में यहाँ के रहने वालों ने अपने इच्छा अथवा अधिकार में आकर बदल दिया था। तब श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि दिनों के नाम, ग्रह के नाम से जुड़ा हुआ है जो इस प्रकार हैं:-
रविवार - पर्मत्मक: इस दिन पितामह श्री ब्रहा्राजी, भगवान षिव तथा मैं (श्री हरि विष्णु) स्वयं क्रमषः ब्रहा्रलोक, षिवलोक और विष्णुलोक में स्वयं को मनोरंजित करते हैं।
सोमवार - षिवांक: इस दिन पितामह श्री ब्रहा्राजी, भगवान षिव और स्वयं मैं (श्री हरि विष्णु) सहित इन्द्र आदि अपने-अपने लोक में विराजित होकर त्रिलोक में चल रहे घटनाओं पर चर्चा करते हैं।
मंगलवार - भुष्णांक: इस दिन पितामह श्री ब्रहा्राजी, भगवान षिव अपने आसन पर विराजमान होकर त्रिलोक का भ्रमण करते हैं और मैं (श्री हरि विष्णु) स्वयं अपने गरूड़ पर विराजमान होकर माता लक्ष्मी संग त्रिलोक का भ्रमण करते हैं और इस दौरान शेषनाग अपने नागलोक में विश्रामावस्था में होते हैं।
बुधवार - बुद्धिश्रेष्ठ: इस दिन दैत्यगुरू शुक्राचार्य दैत्यों के मध्य उपस्थित होकर पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप करके उनसे वरदानित होने के लिए प्रेरित करते है वहीं दैत्य लोग वरदान संबंधित शब्दों अथवा वाक्यों पर विचार करते है, दूसरे तरफ त्रिदेव सहित इन्द्र और अन्य देवगण अपने अपने आसन पर विराजमान रहते हैं।
वृहस्पतिवार - वृष्णांक: इस दिन पितामह श्री ब्रहा्राजी सहित भगवान षिव, विष्णुलोक में उपस्थित होते हैं और अपने अपने लोक के परिस्थिति का वर्णन करते हैं तथा समस्या का समाधान श्री हरि विष्णु से पूछते हैं।
शुक्रवार - पर्वतांक: ये दिन त्रिदेवियों अर्थात् माता पार्वती, माता सरस्वति और माता लक्षमी के लिए होता है तथा इस दिन त्रिदेवीयाँ, त्रिदेवों को मुर्ख बनाने के लिए अपने अपने लोक में त्रिदेवों संग भाँति-भाँति प्रकार की लीलाएँ करती हैं। इधर पितामह श्री ब्रहा्राजी द्वारा दैत्यों को वरदान दिया जाता है इस अवस्था में माता सरस्वती दैत्यों को मुर्ख बनाती हैं।
शनिवार - पर्मत्मंक: इस दिन त्रिदेवों सेंग त्रिदेवी अपने अपने आसन पर विराजमान होते हैं और इन्द्रदेव सहित अन्य देवगण अपनी अपनी समस्या (जो असुरों से प्राप्त होता है) को त्रिदेवों के मध्य लाते हैं और समस्या का समाधान भी पाते हैं।
इस प्रकार ग्रहों के भी निम्न नाम हैं:-
सूर्य - सूर्येः, बुध - बुद्धियेः,
शनि - पर्मत्मंक्ेः, सोम - षिवे्ः,
शुक्र - पर्वतेंः, मंगल - भुष्णेः,
वृहस्पति - वृष्ण्ेः, धरती - धराः,
चन्द्रमा - चन्द्रेः शुद्र - प्रकाषेंः
(देवयुग में यह ग्रह प्रकाषित होती है)
अशीष द्वारा श्री हरि विष्णु से पुछे जाने पर कि पितामह श्री ब्रहा्राजी ने इस ब्रहा्राण्ड की रचना किस प्रकार की है? अषीष के इस प्रष्न के जबाव में स्वयं श्री हरि विष्णु ने कहा कि तुम्हारे इस प्रष्न का उत्तर स्वयं पितामह श्री ब्रहा्राजी ही दे सकते हैं और एक उचित समय का आषा करने को कहा। समय आने पर श्री हरि विष्णु ने पितामह श्री ब्रहा्राजी से कहा कि यह लड़का ब्रहा्राण्ड के कुछ रहस्यों को जानना चाहता है यथा वह यह जानना चाहता है कि आपने इस ब्रहा्राण्ड की रचना किस प्रकार की इसकी कथा आप स्वयं इससे कहें। तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने हँसते हुए कहा कि यह ब्रहा्राण्ड और इसके ग्रह तथा नक्षत्र सहित तारे रूद्र की शक्तियों से बने हैं जो परम बिन्दु अथवा नियत बिन्दु पर पहूँचते हीं मृत हो जाते हैं।
अषीष एक प्रष्न करते हुए कहता है कि धर्म की ब्याख्या क्या है अर्थात हम कैसे अनुभव कर सकते हैं कि हम धर्मी हैं अथवा अधर्मी? इस प्रष्न के उत्तर में श्री हरि विष्णु ने कहा कि नीति (व्यक्तिगत नियम) और नियम (सांसारिक नियम) जब एक सामान हो तो वह धर्म कहलाता है। कहा जाता है कि जब कोई मानव वृद्धावस्था में अपने हीं माता को वृद्धाश्रम में छोड़ आता है तो यह अधर्म है क्यों कि संसार का नियम यह है कि एक माता अपने पुत्र को जन्म देती है, उसका पालन करती है और वहीं पुत्र अपनी माता को वृद्धावस्था में सेवा करने के बदले वृद्धाश्रम छोड़ जाता है। यहाँ माता अपने धर्म का पालन करते हुए अपने बच्चे को किषोरावस्था तक साथ रखती है लेकिन पुत्र अपने धर्म को भूलकर अपने सफल जीवन की प्राप्ति हेतु अपनी माता को अधर्म का मार्ग अपना कर वृद्धाआश्रम छोड़ जाता है।
सर्वप्रथम हमने चयनित स्थान का मापन किया जो कि पूर्णतः परमत्व हो, अपने ही शरीर के आकार को बढ़ाते हुए जो कि एक परमत्व अथवा पाँच पैना के बराबर होता है, उसके दो गुणा से एक पैना कम आकार किया तथा अपने पग से पाँच कदम चलकर एक ब्रहा्राण्ड का आकार दिया तथा उसे चारो ओर से अपने शक्तियों से घेर दिया ताकि बाहरी अथवा दैत्यिक शक्तियाँ अन्दर न प्रवेष कर सके। उसके बाद हमने ब्रहा्राण्ड के केन्द्र में जाकर स्वयं एक परमत्व से आधे अथवा तीन पैना की ऊँचाई से पाँच पैने का का सूर्य बनाया जिसके केन्द्र में 2 पैना रूद्र की शक्ति छोड़ दिया ताकि यह सूर्य अक्ष पर हीं तैरता रहे। उसके समानान्तर 2 पैना की दूरी पर 1 पैना का बुद्धिया ग्रह बनाया जिसके केन्द्र में .5 पैना की रूद्र की शक्ति छोड़ दिया ताकि यह भी अपने अक्ष पर तैरता रहे पुनः बुद्धिया ग्रह से 2 पैने की दूरी पर 3 पैने का परमत्मंके ग्रह बनाया जिसके केन्द्र में 1 पैने की शक्ति छोड़ दिया जिससे यह भी अपने अक्ष पर तैरता रह गया तथैव समानान्तर पर्वते ग्रह, षिवे ग्रह, भुष्णे ग्रह, वृष्णे ग्रह, धरा, चन्द्र तथा मणिष्के भी बनाया तथा इन सभी के केन्द्र में 2 पैने की शक्ति को जीवीत छोड़ दिया ताकि ये सभी अपने अक्ष पर तैरते रहे। ग्रहों से नौ पैने की दूरी पर तीन पैने का नौ नक्षत्र बनाया तथा सभी नक्षत्रों के केन्द्र में एक पैने की जीवित शक्ति छोड़ दिया ताकि ये भी अपने अक्ष पर तैरते रहें और सभी को नौ ग्रहों से जोड़ दिया ताकि भविष्य में ये ग्रह कदापि न गिरे। तत्पष्चात धरा के सूर्य के तरफ उपर की ओर उत्तरी गोलार्ध बताते हुए रसातल की तरफ नीचे दक्षिणी गोलार्ध बताया तथा उसी प्रकार धरा को घुर्णन करने को कहा ताकि सूर्योदय और सूर्यास्त होने पर सर्यू निकलते और डुबते नजर आये चन्द्र को अपने अक्ष पर घुर्णन करते हुए धरती की परिक्रम करने को कहा तथा अन्य सभी ग्रह को अपने अक्ष पर घुर्णन करते हुए सूर्य की परिक्रमा करने को कहा। सूर्य की एक परिक्रम पूर्ण होने पर सभी ग्रह के एक पथ तैयार हो गया जो कि एक वृतीय था उसे हमने एक फँूक मार कर अण्डाकार कर दिया। ग्रहों के 5 पैने की उँचाई पर हमने तारो अथवा तारो का समुह को बनाया और इस प्रकार ब्रहाण्ड की रचना की गई।
तब अषीष पितामह श्री ब्रहा्राजी से पुछता है कि आखिर भगवान षिव दैत्यों के भी पक्षधर क्यों होते हैं? इस प्रष्न के उत्तर में पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा कि हमने ब्रहा्राण्ड बनाने के समय एक ग्रह को बनाया था जिसे देवयुग अथवा ब्रहा्रकाल में ‘‘पर्वतांक’’ कह कर संबोधित किया जाता है। उसे बनाते वक्त हमने उसे मूल रूप से 3 पैने का आकार दिया तथा अन्य को 5 पैने का। इसके बाद जब हमने उस ग्रह कि शक्तियों से बात किया तो उसने आपत्ति दिखाते हुए कहा कि आपने अन्य सभी ग्रहों को मूल रूप से 5 पैने का आकार दिया तथा हमें 3 हीं पैने का आकार दिया, आखिर आपने ऐसा क्यों किया? तब हमने झुठा बहाना बनाते हुए कहा कि उस समय शायद हमसे हीं व्यस्तता के कारण भूल हो गई। तब उस ‘‘पर्वतांक’’ ग्रह (जिसे कलयुग में ‘‘शुक्र’’ कहा जाता है) ने हमसे वरदान स्वरूप एक वचन लिया कि चुकि हमें आपने ‘‘पर्वतांक’’ कहकर संबोधित किया है तो धरती पर उपस्थित पर्वत अथवा पहाड़ों में निवास करने वाले सभी देव अथवा प्राणियों पर उसी ग्रह का अधिकार होगा और इस प्रकार देवयुग अथवा ब्रहा्रकाल में उत्पन्न सभी दैत्य अथवा प्राणी, भगवान षिव सहित जो कि स्वयं षिवलोक में निवास करते हैं पर ‘‘पर्वतांक’’ ग्रह अपना अधिकार समझता है तथा सभी को समान अधिकार देता है और इस प्रकार भगवान षिव भी दैत्यों के पक्षधर होते हैं।
आषीष श्री हरि विष्णु से परमात्मा का एक पहचान पूछता है और कहता है कि संसार में बहुत सारे लागों का कहना है कि जो वस्तु हमे ं दिखाई नहीं देता है उसे हम नही ं मानते हैं अर्थात परमात्मा भी दिखाई नहीं देते है तो वे उसे भी नहीं मानते हैं तब इस अवस्था में परमात्मा का क्या पहचान है और ऐसे लोगों को कैसे समझाया जा सकता है? इस बात के जबाव मंे श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि लोग अपने हीं जीवन में अपने ही शरीर के आंतरिक अंगों को नहीं देख पाते हैं और देखते भी हैं तो किसी अन्य माध्यम के द्वारा किसी चलचित्र अथवा संगणक पर तो क्या वे उसे अपना अगं नहीं मानते है?ं ऐसी अवस्था में जब उसी चलचित्र अथवा सगं णक पर परमात्मा का चित्र आता है तो उन्हंे उसी को परमात्मा मानना चाहिए और ऐसी अवस्था मंे परमात्मा का अवस्था और अस्तित्व का भी दर्षन हो जाता है।
अशीष श्री हरि विष्णु से माता वैष्णवी की कहानी सुनने की इच्छा रखता है तब श्री हरि विष्णु ने कहा कि द्वापर युग मंे अधर््वासूर नामक एक दैत्य था, उसने पितामह श्री ब्रहा्राजी का घारे तप किया तथा वरदान स्वरूप वृष्णी नामक जन्तु से मरने की इच्छा की। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उसे ‘‘तथास्त’ू ’ कहते हुए वरदानित किया और अत्ंर्यध्यान हो गए। समय बितता गया, अधर््वासूर का अत्याचार चरम पर था देवराज इन्द्र सहित सभी देवगण त्राहीमाम् करने लगे। तब मैं स्वयं षिवलोक में उपस्थित हुआ और भगवान षिव से देवताओं के इस प्रताड़ना से अवगत करवाया। उस समय माता पार्वती भी वहीं थी तथा भगवान षिवजी ने अवस्था से अवगत होते हुए बोले कि पार्वती जो कि दुर्गा स्वरूपा है वह भी अधर््वासूर का वध नहीं कर सकती है। अंततः विचारार्थ हमने माता सरस्वती से संपर्क किया जो षिवलोक मंे प्रकट हुई तथा बोलीं की हम तीनांे देविंयांे की शक्ति से उत्पन्न देवी हीं उसका अतं कर सकती है। माता लक्ष्मी के आगमन के साथ तीनांे देवियों ने अपनी अपनी त्रिनत्रे खोलकर अपनी शक्तियांे का आह्वान किया तथा तीनो ं के त्रिनेत्र से एक शक्ति प्रकट हुई जो अंत बिन्दु पर आपस मे ं टकराई और एक देवी प्रकट हो गयी। माता सरस्वती ने उन्हें ‘‘वैष्णवी’’ कहकर संबोधित किया। वैष्णवी ठहाका लगाते हुए तीनों देवियों को नमन किया और माता कहकर संबोधित किया। तभी पितामह श्री ब्रहा्राजी का आगमन होता है और उन्होंने कहा कि अधर््वासूर का अंत वृष्णी से होना है और ये वैष्णवी हैं अतः इस प्रकार अधर््वासरू का वध नहीं हो सकता है। तब माता सरस्वती ने पितामह श्री ब्रहा्राजी को ज्ञान देते हुए कहा कि दोनों का मूल शब्द ‘‘विष’’ ही है इसलिए वैष्णवी अधर््वासूर का वध कर सकती है और वैष्णवी को अधर््वासूर नामक दैत्य को वध करने का आदेष दे दिया। वैष्णवी सीधा अधर््वासूर के पास गई जहाँ अधर््वासरू कुछ सहयोगियों के साथ ऋषि-मुनियों का यज्ञ और तप भगं कर रहा। वैष्णवी को देखते हीं अर्ध्वासूर के सहयोगी उस पर टूट पड़े। वैष्णवी ने अपने आकार को विकराल कर लिया और अर्ध्वासूर के सहयोंगियों को निगल गई। अपने सहयोगियों के इस दषा को देखकर अधर््वासूर भयभित हो गया और भागने लगा। वैष्णवी ने अधर््वासूर को अपने पंजों में पकड़ लिया तभी अर्ध्वासूर अपना आकार छोटा कर लेता है और वैष्णवी के पजों से छुट कर धरा पर लुढक़ जाता है। पितामह श्री ब्रहा्राजी का आगमन होता है और वे वैष्णवी को समझाते हुए कहते हैं कि आप इनका वध नहीं कर सकती हैं इनका वध वृष्णी नामक जंतु से होना है। वैष्णवी ने वृष्णी का स्वरूप धारण किया और अपने सींगांे से अधर््वासूर का वहीं उदर चीर दिया और वहीं उसका वध हो गया। वापस आने पर सभी देवताओं ने वैष्णवी का जयगान किया और उन्हें वहीं षिवलोक में उचित स्थान दे दिया गया तथा वे वहीं हमारा तप करने लगी ताकी हम उन्हें पुत्री स्वरूप में स्वीकार कर सके।ं इधर असूरों के मध्य पितामह श्री ब्रहा्राजी का बहुत आलोचना होने लगा। सभी असूर कहने लगे कि अधर््वासूर को वरदान था कि उसे वृष्णी नामक पषु से हीं मृत्यु होगी लेकिन उसकी मृत्यु का कारण एक नारी हुई जिसके लिए हमलोग पितामह ब्रहा्रा के समक्ष खेद प्रकट करेंगे, अधर््वासूर के छोटा भाई नृसिंहसूर और उसके सहयोगी लोचनसूर और कृत्ययनसूर बहुत हीं क्रोधित हुए और उन्होंने ने सभी दैत्यों संग स्वर्ग पर आक्रमण करने की ठान ली और हुआ भी वही। लोचनसूर और कृत्ययनसूर सहित नृसिंहसूर ने दैत्यों की विषाल सेना लेकर स्वर्गलोक पर आक्रमण कर दिया जिसे देखकर सभी देवता सहित देवराज इन्द्र भी भयभित थे। देवराज इन्द्र भागते हुए षिवलोक में भगवान षिव से शरण माँगी और उक्त अवस्था से अवगत कराया, नारद मुनी भी वहीं उपस्थित थे और इस बात को संज्ञान में लेकर ये सारी बातें वे पितामह श्री ब्रहा्राजी को बताया तथा कहा कि असूरों ने देव और असूर संग्राम की योजना बना ली है और स्वर्गलोक पर आक्रमण किया है। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने अफसोस करते हुए कहा कि अर्ध्वासूर का वध उचित नहीं था और इसी कारण से देव और असूर संग्राम निष्चित है। इधर भगवान षिव ने देवराज इन्द्र को श्री हरि विष्णु के पास भेजा और वे भी श्री हरि विष्णु के समक्ष प्रस्तुत हो गए तथा उक्त बातों से अवगत कराया। इस बात को सून कर श्री हरि विष्णु अचंभित हो गए तथा वे तुरतं अपने शेषनाग सगं षिवलोक की ओर प्रस्थान कर गये। श्री हरि विष्णु ने भगवान षिव से उक्त बातों के बारे में जानकारी ली तथा भगवान षिव ने भी हँसते हुए कहा कि आप देव हैं और वे असरू ! अगर आप मंे क्षमता है तो उन्हें परास्त कर दें अन्यथा उन्हें स्वर्गलाके मंे प्रस्थान करने द।ें इस बात को सनू कर श्री हरि विष्णु मदं - मंद हँसते हुए बोले कि नृसिहंसूर को वरदान है कि वह किसी पषु से हीं मृत्यु को प्राप्त करेगा और उसे मृत्यु देने के लिए मेरा शेषनाग ही पर्याप्त होगा। तब भगवान षिव कहते हैं कि अन्य दो दैत्यों कृत्ययनसूर और लोचनसूर का क्या होगा जो मायावी हैं। तब श्री हरि विष्णु विचार करते हुए कहते हैं कि उनकी माया को हम नष्ट करेंगे और वे शेषनाग संग स्वयं नृसिंहसूर को रोकने के लिए प्रस्थान करते है। आकाषमार्ग से दैत्यों का व्यापक सेना को देखकर शेषनाग थोडा़ विचार मे ं फँस जाते है लेकिन श्री हरि विष्णु के कहने पर वे नृसिंहसूर के रथ के उपरी छोर पर सवार हो जाते हैं और अपने विषाल स्वरूप को प्रकट करते हुए शेषनाग नृसिंहसूर को वहीं निगल जाते हैं। इस दृष्य को देखकर कृत्ययनसूर और लोचनसूर आक्रोषित हो जाता है और व े दोनांे श्री हरि विष्णु को सामने पाकर संभलते हुए अपने तीरों से बौछार करते हैं जिसे संभालते हुए श्री हरि विष्णु ने अपने सुदर्षन के दस स्वरूप प्रकट करत े हैं और उनके उपर छोड देते हैं दोनो ने भी अपने फरसे और गदा का दस स्वरूप प्रकट करके श्री हरि विष्णु के उपर छोड़ दिया लेकिन श्री हरि विष्णु के आगे शेषनाग खड़े हो जाते है और इस प्रकार शेषनाग जख्मी होकर गिर पडत़े हैं और श्री हरि विष्णु सुरक्षित अवस्था में सभी दैत्यों का सामना करते हैं। दूसरी तरफ कृत्ययनसरू का वध श्री हरि विष्णु के सूदर्षन से हो जाता है और लोचनसूर वहाँ से युद्धभूमि को छोड़ कर भाग जाता है। देवराज इन्द्र के आदेष पर स्वर्गलोक में शेषनाग को लाया जाता है वही ं उनका उचित इलाज किया जाता है।
अशीष को एक कथा सूनाते हुए श्री हरि विष्णु ने कहा कि द्वापर युग की बात है एक उर्ल्वासूर नामक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहाजी का घारे तप किया और वरदान स्वरूप उसने ‘‘रात्रि पहर में स्वर्गलोक मे ं जब भी उसका आगमन हो तब उस समय उसके लिए नृत्य और संगीत का व्यवस्था हो तथा वापसी में वह जिस नारी को स्पर्ष करे उससे वह अपनी वर्सना की पूिर्त कर सक’े, प्राप्त किया। पितामह श्री ब्रहा्राजी तथास्तू कहकर अंर्त्यध्यान हो गए। उर्ल्वासूर नीत रात्रि के तिसरे पहर में स्वर्गलोक जाता था, देवराज इन्द्र भी उसके लिए नृत्य और संगीत का व्यवस्था रखते थे और वापसी में वह जिस नारी को चाहता स्पर्ष करके उससे अपनी वर्सना पूर्ति करता था। एक समय की बात है उर्ल्वासूर स्वर्गलोक से नृत्य और संगीत का आनंद लेकर वापसी में माता पार्वती को स्पर्ष कर देता है और अट्ठाहस कर हँसने लगता है, वहीं भगवान षिव अपनी तपस्या में लीन रहते हैं जो उर्ल्वासरू के अट्ठाहस भरी हँसी को सून कर भगं हो जाता है और वे अपना नेत्र खोल देते है। उर्ल्वासूर पितामह श्री ब्रहाजी के द्वारा प्राप्त वरदान को मौखिक रूप से दुहराता है लेकिन भगवान षिव पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है और वे माता पार्वती को आदेष देते है कि इस दुष्ट को अभी के अभी मृत्यु के सैय्या पर भेजा दिजिए, भगवान षिव का आदेष पाकर माता पार्वती अपना दुर्गा स्वरूप प्रकट करती हैं और अपने सुदर्षन से वहीं उसका अंत कर देती हैं। श्री हरि विष्णु ने अषीष को भगवान षिव की एक लीला को सुनाते हुए कहा कि एक समय की बात है माता पार्वती अपने ही सहेलियों के संग षिवलोक के पर्वतमालाओं पर भ्रमण करने गईं वहीं भगवान षिव अपने अराधक षिवसंगत के धरा पर भ्रमण करने गए। जब माता पार्वती पर्वत पर तीव्र वेग से चलती जा रही ं थी वही ं भगवान षिव भी अपने सखा संग धरा पर तीव्र वेग से भ्रमण कर रहे थे, भगवान षिव के सखा षिवसगंत उनकी चाल को देखकर दगं था आखिर भगवान षिव इतने तीव्र वेग से कैसे चलने लग?े और आखिर उन्होनंे इसका कारण भगवान षिव से पछू ही ं लिया। तब भगवान षिव ने कहा कि जब मेरी शक्ति स्वरूप पार्वती पर्वत की ऊचाई पर इतनी तीव्र वेग से भ्रमण कर सकती है तो मैं क्या समतल धरा पर भी इतना वेग से नहीं चल सकता हूँ।
श्री हरि विष्णु ने अषीष को एक कथा सुनाते हुए कहा कि एक समय की बात है एक सरमेरासूर नामक एक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी से अमरत्व का वरदान प्राप्त करना चाहता था तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा कि जब भी कोई योद्धा अथवा देवता तुम पर प्रहार करे तो तुम अपने षिष को हटाकर एक तरफ कर देना जिससे तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। इस वरदान को प्राप्त करके सरमेरासूर काफी खुष हुआ और बंद नेत्र से ऋषि-मुनियांे को तंग करने लगा। तब इन्द्र सहित सारे देवगण श्री हरि विष्णु के समक्ष त्राहिमाम् करते हुए चले आए। इस अवस्था को भाँप कर श्री हरि विष्णु स्वयं को सरमेरासूर के समक्ष प्रकट किया और उस पर अपने सुर्दषन से प्रहार किया, तभी सरमेरासूर ने अपने गर्दन को स्वेच्छा से अपने धड़ से अलग कर लिया जिससे श्री हरि विष्णु का सुदर्षन भी विफल रहा। श्री हरि विष्णु भी आष्चर्य करने लगे तथा अबकी बार सुर्दषन के प्रहार होते हीं सरमेरासूर ने जैसे हीं अपने षिष को धड़ से अलग किया, श्री हरि विष्णु ने उसके धड़ पर अपना षिष जोड़ दिया जिससे सरमेरासूर का वहीं अंत हो जाता है।
अपनी एक कथन को दुहराते हुए अषीष श्री हरि विष्णु से पुछता है कि आखिर पितामह श्री ब्रहा्राजी धरती पर दैत्य कि उत्पत्ती क्यों करते हैं, इस प्रष्न के जबाव में श्री हरि विष्णु ने कहा कि जब ब्रहा्राण्ड बनाया जा रहा था तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने भूलवष एक दैत्यिक ग्रह का निर्माण कर देते हैं जिसका नाम ‘‘पर्वतांक’’ (षुक्र) हैं और चुकि उसके तुलना मंे अन्य ग्रह जो हमारी अराधना करते है उनकी विषेषता ‘‘पर्वताकं ’’ से अधिक महत्वपूर्ण थी, पर्वतांक ग्रह को भी अपना अराधक चाहिए था और वह उसे अपनी इच्छा की पूर्ति करवाता। इसी बात को लेकर पितामह ने दैत्यों कि उत्पत्ति करना प्रारंभ किया और उसे वरदानित कर अन्य देवताओं द्वारा उनका वध भी करवाया।
अषीष अपनी एक बात को याद करते हुए श्री हरि विष्णु से पुछता है कि कभी आपने रक्षासूर नामक दैत्य को वरदानीत भी किया था तो आप हमें उन घटनाओं के बार में बताने की कृपा करें। तब श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि रक्षासुर धरती पर दैत्यों का प्रथम उत्पत्ती था। और जब वह शुक्राचार्य के सम्पर्क में आया तो उन्होंने रक्षासूर को हमारी तपस्या करने को कहा और लाचार होकर हमें भी उसे वरदानीत करने पहँूचना पड़ा। जब हमने रक्षासरू से वरदान माँगने को कहा तब पहले तो वह हमारे सामने नतमस्तक हो गया उसके बाद अपने नेत्र से हमारे नष्क्षिका पर गौर किया और हँसते हुए बोला कि अगर तुम ही ं विष्णु हो तो हम तुम्हंे तिस्कृत करते ं आरै वह अपने नेत्र से हम पर अग्नि की वर्षा किया। मैं स्वयं को सर्तक करते हुए उस पर अपना सुदर्षन छोड़ दिया और रक्षासूर का वही अंत हो जाता है। शायद शुक्राचार्य ने रक्षासूर को हमारे परमत्व अथवा पहचान नहीं बताया था।
एक कथा को सूनाते हुए श्री हरि विष्णु ने कहा कि एक समय की बात है कर्तच्नसूर नामक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप किया और वरदान स्वरूप कहा कि आप अपने हाथांे से जो जल देंगेे उसी से हमारी मृत्यु होगी। पितामह श्री ब्रहा्राजी भी तथास्तू कहकर अंर्त्यध्यान हो गए। कर्तच्नसूर का यह वरदान अमर होने के समान था क्यों कि पितामह श्री ब्रहा्राजी किसी भी दैत्य का वध नहीं करा सकते थे। इस बात को संज्ञान में लेकर कर्तच्नसूर ने स्वयं को अमर समझ लिया और हर किसी को अपने खड़ग और वार्तालाप से प्रताड़ित करने लगा। समय बीतता गया और इस बात का संज्ञान जब श्री हरि विष्णु को हुआ तब वे पितामह श्री ब्रहा्राजी से संपर्क किया और कहा कि र्कतच्नसूर जैसे दैत्यो ं का वध किस प्रकार किया जा सकता है? तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने हँसते हुए कहा कि हमारे हाथों से जल लेकर ही आप र्कतच्नसूर का अंत कर सकते हैं तब श्री हरि विष्णु हँसते हुए कहा कि ये वरदान देकर आपने उस दैत्य को अमर कर दिया है फिर भी आपन े उसके अंत के बारे मंे कुछ जरूर सांेचा होगा तब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा कि उस दैत्य के वरदान में हीं मृत्यु छिपी है और फिर एक अंजुरी जल पितामह श्री ब्रहा्राजी ने हँसते हुए अपने हाथ में ली और कहा कि ये जल वहीं जल है जिससे उस दैत्य का अंत हो सकता है लेकिन इस जल को आप कैसे ग्रहण करेंगे इस बात को सून कर श्री हरि विष्णु ने कहा कि जिस प्रकार के जल को अपने अंजुरी में रखा है उसी प्रकार के जल मैं भी अपने अंजुरी में रख सकता हूँ और इस प्रकार श्री हरि विष्णु ने अपने अंजुरी में जल प्रकट किया और उसे पी गए तथा उधर र्कतच्नसूर का अंत हो जाता है।
एक बात को संज्ञान में लेकर अषीष श्री हरि विष्णु से पुछ बैठता है कि अगर आप कलयुग को आने नहीं देना चाहते थे तब आप उसे क्यों आने दिया अर्थात आप उसे रोक सकते थे? इस प्रष्न के जबाव में श्री हरि विष्णु ने स्वयं हँसते हुए कहा कि कलयुग का भविष्यवाणी त्रेतायुग के अंत में ही हो चुका था जब एक दैत्य के मित्र श्रुतिवर ने अपनी हीं भार्या के साथ दैत्यों की भाँति कलयुग के मानव के रूप में संभोग किया था जबकि सत्युग, द्वापरयुग और त्रेतायुग मंे संभोग के स्थान पर सहवास किया जाता था और दामपत्य लोगों के मनमिलन के अनुसार पुत्र अथवा पुत्री की प्राप्ति होती थी। दुसरी तरफ अयोध्या के राजसिहं ासन सभ्ंाालने के बाद सीता जो मेरी ही अर्धाग्ंनी थी और जब मैंने उसे अपने पैर मसलन करने के लिए कहा तब उन्होनंे भी कलयुगी मानव की भाँति बदले में अपनी इच्छा प्रकट की थी और वे पुत्र प्राप्ति के बारे में कहा था। मैंने उन्हें समझाते हुए कहा कि मं ै ‘‘माया’’ से विपरित आरै अलग रहने वाला भला पुत्र मोह में कैसे फँस सकता हँू अगर आपको पुत्र की प्राप्ति ही ं करना है तो राजमहल से कहीं दूर निवास कर पुत्र को प्राप्त कर सकते हैं और सीता भी मेरी इस बात से सहमत थीं और मैं स्वयं सीता पर अयोध्यावासी की मुख से लाझंन लगवाया और उन्हें वन की ओर प्रस्थान कर दिया और सीता भी सहमती के साथ वन में चली गयी। मेरे समक्ष यह घटना भी कलयुग का ही द्योतक था जो मेरे हीं प्रांगण में घटित हुई थी तब मैं इस अवस्था में त्रेताकाल से कैसे षिकायत कर सकता था। आगे चलकर महर्षि वाल्मिकी के आश्रम में निवास पाने के बाद जब सीता अपने पुत्र ‘‘लव’’ को लेकर स्नान करने चली गयी तब महर्षि वाल्मिीकी के मन में सीता के पुत्र की विलुप्तता का ख्याल आया और वे अपने स्तर से एक बालक को प्रकट कर दिया जिसे ‘‘कुष’’ कहा जाता है। अब तुम हीं बताओं क्या बालक कुष की उत्पत्ति महर्षि वाल्मिकी पर लांझन नहीं लगाता है? तो यह घोर कलयुग का ही द्योतक था और शायद इसलिए हीं हमारे द्वारा लव-कुष मिलन के पश्चात् सीता स्वयं धरती की गर्भ में विलिन हो गयी।
आगे अषीष श्री हरि विष्णु से माता दुर्गा द्वारा किया गया महिषासुर वध का वह कथा सुनता है जो अभी तक प्रकाष में नहीं आया है जो इस प्रकार है:-
महिषासुर द्वारा पितामह श्री ब्रहा्राजी की तपस्या पूर्णरूप से ग्यारह सौ वर्ष किया गया था और इसके बदले पितामह श्री ब्रहा्राजी ने महिषासुर को ग्यारह वरदान देकर उसे धरती पर परम् श्रेष्ठ असूर बना दिया था, ग्यारह वरदानों में प्रथम वरदान था कि अगर वह किसी प्राणी अथवा जीव का स्वरूप प्राप्त करना चाहे तो वह कर सकता है, दुसरा वरदान यह था कि अगर वह चाहे तो किसी भी नर अथवा मादा का प्रतिक को क्षीण (खत्म) कर सकता है, तीसरा वरदान था कि वह किसी भी समय अथवा अवस्था में किसी भी प्रजाति नर, मादा अथवा पशु को अपने शक्तियों से मोहित अथवा मुर्छित कर सकता है, चतुर्थ वरदान यह था कि कभी भी अथवा किसी समय भी वह अपने इच्छित स्थान अथवा लोक में विलिन हो कर प्रस्तुत वातावरण में स्वयं को प्रस्तुत कर सकता है, पाँचवा वरदान यह था कि महिषासुर कभी भी देव, देवताओ, अप्सरा या गंधर्व के द्वारा अपनी लालसाओं अथवा अपनी इच्छाओं की पूिर्त करवा सकता ह,ै छठा वरदान यह था कि वह किसी भी दवे के मस्तक पर उपस्थित आत्मा (माता गंगा) पर विजय प्राप्त कर सकता है, सातवां वरदान यह था कि वह किसी भी देवी को अपने हृदय के समीप लाने में सफल हो सकता है, आंठवा वरदान यह था कि अगर त्रिदेवियों मंे कुसंगति पाया जाता है अथवा वह किसी भी दैत्य के प्रति अपनी लालसा रखती है तो तुम उसके वक्ष के साथ संभोग कर सकते हो, नौवा ं वरदान यह था कि महिषासुर अगर त्रिदेवांे में किसी भी देव के षिष को काट दे तो उनकी भार्या उसकी भार्या हो सकती है, दसवां वरदान यह था कि अगर महिषासुर किसी भी समय अपने आप को सुक्ष्म अथवा विकराल स्वरूप करके किसी भी देवी अथवा त्रिदेवी के समीप जाकर उसके साथ अप्रत्यक्ष रूप से छिपकर अपनी इच्छा की पुर्ति (स्वांग, स्पर्ष अथवा चुंबन) कर सकता है और ग्यारहवां एवं अंतिम वरदान के रूप में उसे एक मुकुट दिया जिसे पहनने के बाद वह असुरों के मध्य सभी त्रिदेव अथवा त्रिदेवियांे मंे श्रेष्ठ माना जाने लगा, पितामह श्री ब्रहा्रजी ने महिषासुर को सावधान करते हुए कहा कि हे महिषासुर! तुम पार्वती के बारे में तनीक न विचार करना क्यों कि वह एक परम सतीत्व का पालन करने वाली देवी है और उसे उसकी इच्छा के बिना प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से स्पर्ष करने पर तुम वहीं उसकी सतित्व की अग्नी से जलकर भष्म हो जाओगे। इतनी सारी वरदान प्राप्त करने के बाद महिषासुर स्वयं को अजेय मानने लगा और सम्पूर्ण धरती पर उसने अपना वर्चस्व का परचम लहराया, इतना हीं नहीं अधिकत्तर ऋषि-मुनि महिषासुर का पुजन भी करने लगे थे, धरती पर देवों अथवा त्रिदेवों का महत्व न के बराबर हो गया था, देवराज इन्द्र सहित श्री हरि विष्णु भी अनेकों बार महिषासुर से पराजित हो चुके थे, माता दुर्गा भी अपने पितामह श्री ब्रहा्राजी के प्रति क्रोधित थी, माता दुर्गा को पितामह श्री ब्रहा्राजी से इस बात की षिकायत थी कि आखिर उन्हांेने अपने वरदान मंे त्रिदेवियांे अथवा त्रिदेवांे का नाम का स्मरण शुद्र रूप क्यांे किया? और शायद माता दुर्गा इसी कारण से महिषासुर को जिवित छोड़ रखा था। अंततः महर्षि नारद के विनती पर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने अपनी गलती स्वीकार किया और आगे से असुरों के समक्ष ऐसी क्रिया अथवा वचन न बोलने का प्रतिज्ञा भी लिया, तब जाकर माता दुर्गा ने नव दिनों तक स्वयं को किसी तपस्वी की भाँति तपस्या में लीन होकर अपनी सभी शक्तियों को जागृत किया और भैव्य दुर्गा स्वरूप प्रकट कर सीधा स्वर्गलोक प्रस्थान कर गयी जहाँ महिषासुर नृत्य-संगीत और मदिरा पान में व्यस्त था। माता दुर्गा को स्वर्गलोक के सभा में प्रकट होते ही महिषासुर माता दुर्गा के साथ स्वांग रचने लगा और उन्हें महिषासुर के भार्या बनने के लिए प्रस्तावित किया लेकिन प्रतिउत्तर में माता दुर्गा ने महिषासुर के बाल को पकड़कर स्वर्गलोक से बाहर फेंक दिया जिससे महिषासुर के परम विजेता बनाने वाला मुकुट स्वर्गलोक मे हंीं गिर जाता है और तब स्वर्गलोक के बाहर आकाष मार्ग मंे माता दुर्गा और महिषासुर का महासंग्राम होता है जिसमें महिषासुर का अंत अथवा वध हो जाता है।
अशीष श्री हरि विष्णु से विनय पुर्वक आगे कि कथा सुनाने हेतु आग्रह करता है और फिर श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि कुषंनेत नामक एक दैत्य जो कि एक गंधर्व की भाँति दिखाई देता था उसने पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप किया और वरदान स्वरूप उसने उनसे कहा कि पितामह! मैं वक्षपान के समय मृत्यु को प्राप्त करना चाहता हँू वह भी परायी देवी का और मृत्यु देने वाला वह देवी नहीं बल्कि कोई अन्य देव हो, पितामह श्री ब्रहा्राजी ने वरदान देकर स्वयं को अर्न्तध्यान कर लिया और वह स्त्री से व्याकुल रहने वाला दैत्य स्वर्गलोक कि ओर प्रस्थान कर गया तथा छिपकर एक-एक कर सभी अप्सराओं से संभोग किया अंततः उसकी नजर इन्द्रदेव की भार्या पर पड़ गई, इन्द्राणी भी उसपर मोहित हो गयी थी और वह भी कुषनंेत के साथ शारीरिक संबंध स्थापित कर ली थी, देवराज इन्द्र को जब इसकी जानकारी मिली तब वह कुषंनेत पर अपने वज्र से घातक प्रहार किया लेकिन कुषंनेत का कुछ नहीं बिगड़ा और स्वर्गलोक से भाग खड़ा हुआ लेकिन इन्द्राणी उससे छिपकर मिलने जाती थी, देवराज इन्द्र भी अप्रत्यक्ष रूप से इन्द्राणी को अपने नेत्र में रखे थे और एक दिन कुषंनेत अपने महल में हीं इन्द्राणी के साथ शारीरिक रूप सें संबंध स्थापित करने में व्यस्त था तभी देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से कुषंनेत पर घातक प्रहार किया और वह वहीं मृत्यु को प्राप्त कर गया तथा इन्द्राणी को वे त्रिदेवों के मध्य प्रस्तुत किये तथा त्रिदेवों ने भी इन्द्राणी को दंड स्वरूप दो सौ वर्ष देवराज इन्द्र का तप करने का दण्ड दिया और कहा कि अगर देवराज इन्द्र प्रसन्न होते हैं तो आपका प्रवेष स्वर्गलोक में हो सकता है अन्यथा आप वहीं देवराज इन्द्र का तप में लीन रहेगंे।
अषीष को आगे कि कथा सुनाते हुए स्वयं श्री हरि विष्णु ने कहा कि एक समय की बात है कि सुभ्रासूर नामक एक असूर ने भगवान षिव की तपस्या की और वरदान स्वरूप गंगा जल की माँग कर बैठा, भगवान षिव भी सुभ्रासुर को गंगा जल पिलाकर उसकी त्रास को खत्म कर दिया, लेिकन वह नीत षिवलोक पहूँच कर भगवान षिव से गंगाजल की माँग करने लगा और भगवान षिव भी उसे नीत गंगाजल देने लगे। ऐसी अवस्था को देखकर भगवान षिव ने सुभ्रासूर से कहा कि ऐसा कोई उपाय नहीं है जिससे तुम्हारी नीत की त्रास भी समाप्त हो जाए और मेरी परष्ेाानी भी। तब सूभ्रासरू ने भगवान षिव से माता गंगा की माँग कर बैठा। सूभ्रासूर की इस बात को सुनकर भगवान षिव को बड़ा आष्चर्य हुआ और वे बोलें कि तुमने वरदान स्वरूप गंगाजल की माँग की थी न कि गंगा की इसलिए तुम्हंे गंगाजल हीं मिलेगा और वे सूभ्रासूर को गंगाजल से भरा हुआ एक कमंडल देते हुए कहा कि इस कमंडल से नीत जल पी लेना ये कभी खाली नहीं होगा। कमंडल लेकर सूभ्रासूर वापस चला गया और माता दुर्गा के तपस्या में लीन हो गया और परीक्षा स्वरूप अंत में नीत अपना षिष काट देता था और माता दुर्गा अपने शक्ति के प्रभाव से उसके षिष को जोड़ देती थी। एक समय की बात है, जब सुभ्रासूर ने अपने षिष को काटा तो वह सीधा षिवलोक में माता पार्वती के पैरों तले गीर पड़ा, गिरते हीं वह षिष चिल्ला उठा और बोला कि मैं तुम्हें दासी बनाने के लिए तप कर रहा हूँ न कि दास बनने के लिए तब माता पार्वती ने पहले तो उसके षिष को जोड़ दिया और बाद में दुर्गा स्वरूप प्रकट कर अपने सुदर्षन से सूभ्रासूर का अंत कर दिया।
अषीष श्री हरि विष्णु को आगे की कथा सुनाने की बात करता है तब श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि सुकन्यसूर नामक एक दैत्य संग उसकी स्त्री भी पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप किया और वरदान स्वरूप कहा कि जब वे दोनो साथ हो और उनका वध किया जाए तभी उन दोनों की मृत्यु हो, पितामह श्री ब्रहा्राजी ने ‘‘तथास्तु’’ कह कर अर्न्तध्यान हो गए। सुकन्यसूर और उसकी स्त्री सुल्चना अलग-अलग होकर धरती पर उत्पात मचाने लगे। यहाँ तक देवराज इन्द्र भी उनसे भय खाने लगे थे। तब देवराज इन्द्र की विनती पर श्री हरि विष्णु ने अपने मुख से उच्चारण किया कि अगर सुलोचना का पीछा किया जाय तो दोनों आपस में मिल जाऐंगे और वहीं दोनों का वध किया जा सकता है। लेकिन देवराज इन्द्र इसमें भी विफल थे और उन्हें हार का सामना करना पड़ता था। अंततः श्री हरि विष्णु ने अपने दो स्वरूपों को प्रकट किया और एक स्वरूप सुल्चना से युद्ध करने चला गया तथा दुसरा स्वरूप सुकन्यसूर से। घमासान युद्ध के बाद श्री हरि विष्णु के दोनों स्वरूपों ने अपना सूदर्षन उन दोनों असूरों के पिछे छोड़ दिया और वे दोनों भागते - भागते एक स्थान पर एकत्रित हो गए और उनका वहीं वध हो गया।
अषीष द्वारा किए गए एक प्रष्न कि जब आपने त्रेतायुग के रामावतार में वृक्ष के पीछे छिप कर बालि का वध किया तो यह हमें धर्म और मर्यादा के विपरीत प्रतीत होता है? श्री हरि विष्णु ने स्वयं इसके जबाव मंे कहा कि बालि के शरीर में एक मायावी राक्षस का निवास था और यह घटना उस समय की है जब लंका के राजा रावण और बालि के मध्य युद्ध हुआ था, रावण जानता था कि बालि को सूर्यदेव से वरदान प्राप्त है कि ‘‘जो भी बालि का सामना करेगा, उसकी आधी शक्ति बालि के शरीर में प्रवेष कर जाएगा, और सामने वाले योद्धा को बालि से पराजय स्वीकार करना होगा’’, उक्त बातों से परिचित रावण ने युद्ध भूमि में हीं छल से बालि के शरीर में एक मायावी दैत्य का प्रवेष कर देता है जिससे वह बालि के प्राप्त वरदान से मुक्त रहता है और बालि से युद्ध भी करता है और सूर्यदेव का वरदान का लाज रखते हुए रावण कुछ दिन तक बालि का बंदी भी रहता है। लेकिन रावण बालि के शरीर में दैत्य को छोड़ देता है। इससे पहले सुग्रीव और बालि दोनों की भ्रातृत्व की गाथा सुनने को मिलती थी लेकिन इस घटना के बाद दोनों में शत्रुता बढ़ने लगी और यह और दुःखद बात थी कि बालि, सुग्रीव के भार्या को भी अपने अधीन कर रखा था। जब मैं वनवास के दौरान किष्किंधा नरेष सुग्रीव से मिला तब उन्होंने अपनी व्यथा हमें बताया और उक्त बालि को मारने का योजना बनाया। इस वार्ता को गंभीरता पूर्वक लेते हुए मैंने हीं वृक्ष के पीछे छीप कर प्रहार करने की योजना बनाई ताकि सूर्यदेव द्वारा बालि को प्राप्त वरदान का लाज रह सके और योजनानुसार मैंने बालि का वध किया लकिन जख्मी होकर वह मुझसे एक ज्ञान की बाते किया जो इस प्रकार है कि ‘‘अगर एक परमात्मा एक भक्त के बातों में आकर किसी अन्य भक्त का वध करें तो यह परमात्मा के नियम और मर्यादा के विरूद्ध है’’, तब मैंने बालि के अंदर निवास कर रहे दैत्य को बाहर निकाला और उसका वहीं वध कर दिया तत्पष्चात बालि को स्वस्थ्य होते ही मैंने उन्हें पंपापुर का राजा घोषित किया और सुग्रीव को उनकी भार्या दिलवाया। उन्होने भी हमसे लंका गमन की बात की तब मैंने उनसे कहा कि यह युद्ध मेरा है और मैं ही लंकापति रावण का वध करूँगा। तब महाराज बालि ने नल, निल और अंगद को मेरे साथ लंका की ओर भेज दिया और इस प्रकार उन्होने हमारी सहायता की। दूसरी तरफ जब हनुमान संजीवनी बुटि का पहाड़ लेकर वापस आ रहे थे तब महाराज बालि ने हीं अपने एक तीर से उन्हें घायल कर दिया था और हनुमान मुर्छित होकर धरा पर गिर पड़े थे, जब हनुमान को होष आया तब मेरी विपरीत अवस्था और हुनमान को देखकर उन्होंने कहा कि जिस प्रकार आप हमारे तीर से घायल हुए थे उसी प्रकार हम आपको अपने एक तीर से हीं लंका पहूँचा देते है लेकिन हनुमान ने अपने योग्यता का भरोसा देते हुए वहाँ से प्रस्थान कर गए।
KAAL SAGAR "Ek Mahakavya" (English)
।। श्री हरि विष्णु द्वारा अषीष को कहे गए ज्ञान की कुछ बातें।।
ऽ गलती वो है जिसे सुधारा न जा सके,
खराबी वो है जिसे बनाया जा सके,
बीमारी वो है जिसे भगाया जा सके,
सादगी वो है जिसे अपनाया जा सके,
संबंध वो है जिसे निभाया जा सके,
जिंदगी वो है जिसे दुहराया जा सके।
ऽ जीवन के दो पहलू सुख और दुःख; दुःख का समय किए गए कर्म की परीक्षा का समय होता है अर्थात सुख के समय इंसान द्वारा किए गए कर्मों का योग हीं दुःख में काम आता है। अगर कोई इंसान अपने सुख के समय स्वयं को किसी अन्य व्यक्ति के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठ नहीं समझता अथवा स्वयं को भोग और विलासिता की जीवन में व्यस्त रखता है तो दुःख का समय वह सहन नही ंकर पाता है और सुख की खोज में वह मृत्यु को प्राप्त करता है।
ऽ इंसान अगर कुछ करने के लिए अवसर की तलाष करता है तो उसे ‘‘कुछ अच्छे’’ करने के लिए अवसर का तलाष करना चाहिए।
ऽ सत्य कड़वा ऐसे हीं नहीं होता, गलती करने वाले को हीं सत्य कड़वा लगता है।
ऽ कोई परमात्मा को नहीं मानता क्यों कि उन्हें नैतिकता का ज्ञान नहीं, अगर लोग नैतिकता की सीख ग्रहण करें तो उन्हें स्वतः परमात्मा प्रतीत होगा।
ऽ वैसे लोगों के निर्णय में दुर्बलता होती है जिनका निर्णय गलत होता है, सही निर्णय लेने वाले के निर्णय में दुर्बलता नहीं होती है।
ऽ अधिकतर लोग कहते है है कि जो वस्तू हमें दिखाई नहीं देती है उसे हम नहीं मानते हैं अर्थात जब हमें परमात्मा नहीं दिखाई देते तो उन्हें हम क्यों माने? इस संदर्भ में जब लोग अपने हीं शरीर में उपस्थित अंगांे को नहीं देख सकते और देखते भी हैं किसी विषेष परीस्थिति में चलचित्र अथवा संगणक पर देखते हैं और यह मानते भी है कि यह उनके शरीर के भीतर का अंग है दुसरी तरफ उसी चलचित्र अथवा संगणक पर परमात्मा का स्वरूप दिखाई देता है तो उनके उपस्थिति अथवा अस्तित्व को मानना चाहिए।
ऽ अगर कोई सहयोग करे तो सहयोग करने वाले को सामने वाले व्यक्ति पर अपना अधिकार नहीं समझना चाहिए अथवा उसे पराधिन नहीं करना चाहिए परन्तु वह व्यक्ति भी सहयोग करने वाले को अपना सहयोग देकर ऋण मुक्त हो सकता है अगर वह सामने वाले व्यक्ति को सहयोग करने का मौका दे।
ऽ कोई व्यक्ति जब अपनी हीं इच्छा की पूर्ति हेतु अपने ही ज्ञान की अवहेलना कर दे तो इसे हीं उस व्यक्ति की मुर्खता कहते हैं।
ऽ इंसान स्वयं अपना स्वामी है लेकिन वह सामने वाले के समक्ष चाकर सा प्रतीत होता है अगर वह अज्ञानी हो।
ऽ इंसान जब जन्म लेता है तो आगे चलकर वह अपने अक्ल और बुद्धि से नीति बनाता है और वह इसी नीति से संसार में आगे बढ़ता है तब उसे अक्ल और बुद्धि की जरूरत नहीं होती है। ऐसी अवस्था में जो व्यक्ति अक्ल और बुद्धि का उपयोग करता है सही मायने में वही इंसान है क्यों किसी इंसान की नीति उसके सामने वाले इंसान को नहीं पहचानती है इसके लिए अक्ल और बुद्धि का होना आवष्यक है।
ऽ अक्सर परमात्मा द्वारा सत्य और इमानदार लोगों की परीक्षा ली जाती है क्यों कि परमात्मा यह जानता है कि यही सत्य और इमानदार हमारे समीप आऐंगे और शायद यही सोंच कर परमात्मा ऐसा करता है। अगर परीक्षण के दौरान सत्य, धर्म और इमानदारी टूट कर बिखर जाती है अथवा अस्त्य, बेईमान और अधर्मी हो जाते हैं तो ऐसे लोगांे के उपर से परमात्मा की नजर हट जाती है। परमात्मा को पता होता है कि जो लोग अधर्मी, असत्य अथवा बेईमान है उनका नाष निष्चित है और शायद इसीलिए परमात्मा इनकी परीक्षा नहीं लेता है।
ऽ किसी प्रकार का ज्ञान लेना हानिकारक नहीं है, किसी भी व्यक्ति को ज्ञान देना हानिकारक नहीं है परन्तु किसी प्रकार के ज्ञान का दुरूप्योग उसी व्यक्ति के लिए हानिकारक होता है।
ऽ कर्मवीर और कर्म के अधिकारियों के लिए ‘‘आज्ञा’’ शब्द नहीं होता है।
ऽ एक विवेक इंसान की ‘‘कर्म और मर्म’’
दो विवेक विजेता का ‘‘कर्म और प्रहार’’
तीन विवेक काल का ‘‘ कल, आज और कल; अर्थात काल भविष्य के बारे में नहीं सोंचता है अगर ऐसा होता तो वह भी एक परमात्मा होता।
चार विवेक दैत्य का, राजषी जीवन प्राप्त करना, भोग करना, वासना की पूर्ति करना और युद्ध के समय सिर्फ प्रहार करना।
पाँच विवेक परमात्मा का; रचना करना, उत्पन्न करना, पालन करना, मृत्यु देना और विनाष करना।
ये कहा जाता है कि ‘‘समय’’ जो दिखाई नहीं देता है लेकिन इंसान हीं अपने बच्चों के लिए ‘‘समय’’ होता है अथवा इंसान का माता - पिता हीं इंसान का ‘‘समय’’ होता है। क्यों कि इंसान भी अपने बच्चों के प्रति काल के भाँति तीन हीं विवेक का उपयोग करता है; रचना करना, उत्पन्न करना, पालन करना। इंसान अपने बच्चों के लिए परमात्मा नहीं है क्यों कि वह उनके प्रति मृत्यु और विनाष की कल्पना भी नहीं करता है।
ऽ नियत और नियती समान हो तो ईष्वर आपके कर्म में सहयोग कर सफलता प्राप्त करवाता है चाहे आपकी किस्मत कितना भी खराब क्यों न हो।
ऽ कर्म का भोग और ईष्वर का योग; इंसान को योगी बना देता है।
ऽ जब किसी व्यक्ति का कर्म और चरित्र एक समान हो तो वहाँ पौरूषोत्व से परिचय होता है लेकिन जब दोनो भिन्न हो तो स्त्रीत्व को दर्षाता है।
ऽ धर्म की रक्षा हेतु किया गया अधर्म भी धर्म ही होता है।
ऽ जीवन के चार दिन हो सकते है लेकिन मृत्यु के लिए एक पल ही पर्याप्त होती है।
ऽ स्वयं की नजर में सही होना पर्याप्त नहीं है, ईष्वर की नजर में भी सही होना चाहिए; वैसे ही लोग दुःखी हैं जो ईष्वर की नजर में सही नहीं हैं।
ऽ जिस व्यक्ति को उसके कर्म के द्वारा अधिकार मिलते हैं, वैसे व्यक्ति नियम से बंधे होते हैं और नियमतः (नियम से उत्पन्न) लोग हीं किसी धन अथवा सम्पत्ति के स्वामी होते हैं।
ऽ किसी व्यक्ति को कोई अवसर या घटनाएँ हीं ज्ञान दे सकती है, उस व्यक्ति की धन अथवा सम्पत्ति नहीं।
ऽ ‘‘अति ज्ञान’’, ‘‘दुर्लभ विज्ञान’’ अर्थात जहाँ ज्ञान की बहुलता हो वहाँ कुछ न कुछ अनहोनी हो हीं जाता है।
ऽ अपने हृदय में छल रखने वाले हीं अपने अधिकार से वंचित हो जाते हैं; जिनके हृदय साफ अथवा निष्जल होता है वे अपना अधिकार लेने से पीछे नहीं हटते हैं।
ऽ संसार अर्थात समान सार; अर्थात जहाँ कि समान कथा हो वही संसार है। कहने का अर्थ यह है कि संसार में कोई व्यक्ति कम दुःखी है, कोई व्यक्ति ज्यादा; लेकिन दुःखी तो है, कोई व्यक्ति ज्यादा का इच्छा रखता है तो कोई व्यक्ति कम का; लेकिन इच्छित तो है। इस प्रकार जहाँ की समान कथा हो वहीं संसार है।
ऽ घमंड करने वाले पहले सामने वाले का विनाष करते हैं; तत्पष्चात वे स्वयं का विनाष करते हैं।
ऽ स्वयं के द्वारा किए गए कुकर्मों को स्वयं के मुख से व्याख्यित करने पर सुकर्म हो जाता है।
ऽ संसार में ‘‘क्षमा‘‘ शब्द नहीं होना चाहिए; ऐसा करने से बिगड़ी हुई ‘‘बात अथवा वस्तु’’ का पुनः निर्माण नहीं हो सकता है और समय का नाष अलग होता है।
ऽ बहकते वहीं लोग है जो लोग अज्ञानी होते है, ज्ञानी लोग बहकते नहीं बल्कि बहके हुए लोगों को रास्ते पर लाते हैं।
ऽ ईष्वरीय भूल विधान बन जाता है,
विधान का भूल संविधान होता है
और; संविधान की भूल मे ंहीं अज्ञानता का मान होता है।
ऽ हर किसी को अपना किस्मत देखने से पहले उसे अपना कर्म देखना चाहिए; क्यों कि कर्म से बढ़कर कोई विधाता नहीं होता है।
ऽ अगर लोगों को खैरात में अधिकार मिले तो अहंकार हो ही जाता है; वहीं अगर इंसान को उसके कर्म से अधिकार मिले तो वह अपने अधिकार को उपयोग उचित रूप से करता है और किसी भी व्यक्ति का अनिष्ठ नहीं करता है क्यों कि उसे भय होता है कि कहीं वह गलती कर बैठा तो उसके द्वावा किए गए कर्म नष्ट न हो जाए।
ऽ इंसान अपने भविष्य को अपने कर्म से काट अथवा सुधार सकता है; अगर भविष्य प्रबल हो तो इंसान को आने वाले समय के अनुसार ढलना होगा।
ऽ वास्तव में लालच ही पाप को बढ़ावा देता है; अगर संसार से लालच का अंत हो जाए तो पाप का अंत हो जाएगा।
ऽ किसी अन्य व्यक्ति के अस्तित्व को कम नहीं आंकना चाहिए; क्यों कि दुसरे पक्ष वाले जब अस्तित्व में आते हैं तो प्रथम पक्ष इस प्रकार गिरते है जैसे पैरों तले जमीन खिसक गई हो।
ऽ नेत्र वहीं होता है जो सामने वाले अथवा अन्य को देखे; वह नेत्र नहीं है जो दुसरे व्यक्ति को दिखाई दे।
ऽ जीवन में जो कठिनाई होती है उसका सामना करके सफल होने का अलग आनन्द होता है, वहीं असफलता हमें कुछ देने ही आती है; असफल प्राणी को परम ज्ञान की प्राप्ति होती है, अगर वह अपनी असफलता पर ध्यान दे तो।
ऽ धर्म; संबंध से आगे एवं महत्वपूर्ण होता है, तभी तो एक तरफ अधर्म का पालन अथवा जीत हेतु हिरण्यकष्यप ने अपने ही पुत्र प्रह्लाद को मारने का हर विफल प्रयास किया क्यों कि वह अधर्म को ही मानता था अथवा उसी को पूजता भी था; जहाँ ‘‘पूत्र’’ शब्द एक ‘‘संबंध’’ को दर्षाता है वहीं प्रह्लाद भी मेरे (श्री हरि विष्णु) अराधक थे तथा उन्होंने अपने धर्म की रक्षा हेतु अपने हीं पिता हिरण्यकष्यप को बार - बार समझाया अथवा उनका विरोध किया; जहाँ ‘‘पिता’’ शब्द एक ‘‘संबंध’’ है। क्या कोई बालक अपने बाल्यावस्था में हीं अपने पिता के विरूद्ध ज्ञान का खड़ग उठा सकता है लेकिन वह छोटा बालक भी जानता था कि ‘‘धर्म’’ से बढ़कर कोई संबंध नहीं होता है।
ऽ समय के प्रति इमानदार रहें; चाहे वह बीता हुआ समय हो अथवा आने वाला।
ऽ जिस व्यक्ति की सोंच अथवा कर्म में नियम (संसारिक नियम) और नीति (स्वयं की सोंच अथवा नियम) एक समान हो तो तो इंसान धर्म पथ अपनाता है; ऐसी स्थिति में नियति (होनी) सदैव उनके साथ होती है चाहे उसके द्वारा किए गए कर्म का परिणाम देर से और भविष्य में ही क्यों न मिले; ऐसे व्यक्ति अपने जीवन में कभी भी कमी महसूस नहीं करते हैं, चाहे वह यष, धन अथवा वैभव हो।
ऽ ‘‘नियत और नियति’’ में फर्क होता है; नियत का अर्थ किसी प्राणी की ‘‘इच्छा अथवा सोंच’’ और नियति का अर्थ ‘‘होनी अथवा परमात्मा का लेख’’; जिस दिन किसी प्राणी के नियत और नियति का मिलन होता है, समझो उसी दिन उसे परमात्मा से मिलन हो जाता है।
ऽ किसी पुरूष की पौरूषोत्व की पहचान एक स्त्री ही होती है; अगर कोई पुरूष किसी अन्य स्त्री का हनन करता है तो समझो उस पुरूष में पौरूषोत्व नहीं है, वहीं जब एक पुरूष किसी अन्य स्त्री की रक्षा करता है तो वह पुरूष पौरूषोत्वान होता है और उसी पौरूषोत्व का खड़ग बना कर उसी स्त्री का हनन करे तो उससे बड़ा दुरात्मा कोई नहीं।
ऽ श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि ‘‘प्रायष्चित’’; ‘‘पाप’’ को खा जाता है; लेकिन आज लोग अथवा युवा पाप करके प्रायष्चित में कुल पल के लिए गम में विलिन हो जाते हैं अथवा क्षमा मांगते हैं। वास्तव में प्रायष्चित का मतलब किसी व्यक्ति के प्रति पाप करके उसके अन्य बिगड़े हुए कार्यों को संभालना अथवा उसके अन्य कार्य को निष्पादित करना होता है।
ऽ जीवन में संघर्ष पाया हीं जाता है, मुर्ख हैं वे लोग जो संघर्ष करने से डरते हैं।
ऽ हर किसी के साथ पहचान ऐसे नहीं बनती है, उसके लिए; उसके साथ कुछ समय व्यतित करना होता है।
ऽ जीवन में कष्ट झेल कर हीं लोग इंसान बनते हैं, अगर जीवन में कष्ट न मिले तो ईष्वर भी पिषाच बनने की इच्छा रखते हैं।
ऽ समय से पहले बोलना व्यर्थ सिद्ध होता है;
समय आने पर बोलना लाभकारी सिद्ध होता है;
समय बीतने के पश्चात बोलने पर हानि होता है।
ऽ जो व्यक्ति अपने हीं ज्ञान में स्वयं को नहीं ढालता वह व्यक्ति किसी अन्य को ज्ञान देने का अधिकारी नहीं है।
ऽ ‘‘धन की उधार’’ के आगे ‘‘कर्म का उधार’’ बड़ा होता है; अगर कोई इंसान किसी अन्य इंसान को कर्म करके मदद करता है तो सामने वाले इंसान को चाहिए कि वह भी अपने कर्म से हीं उसकी मदद करे; चाहे वह कितना भी बड़ा कर्म क्यों न हो। क्यों कि वह इंसान मदद करते समय यह नहीं देखता है कि कर्म क्या करना है और कर देता है।
ऽ जीवन के कुछ पड़ाव प्राप्त कर लेने से इंसान चिंतामुक्त नहीं होता, वह चिंतामुक्त होता है अपने द्वारा किए गए, किसी प्राणी के प्रति अच्छे व्यवहार से।
ऽ लक्ष्य प्राप्ति हेतु सत्यबुद्धि, सत्य, और सदाचार की भावना सहायक होते हैं, तभी तो समक्ष का इंसान भी उसके कर्म में सहायक सिद्ध होते हैं।
ऽ समय की उपेक्षा अथवा समय का दोष देने वाले व्यक्ति को हीं कर्महीन कहा जाता है।
ऽ समय की उपब्धि हीं पर्याप्त नहीं होती, लक्ष्य प्राप्ति हेतु इंसान को कर्म करना होता है, अगर इंसान कर्महीन हो तो सम्पत्ति की बहुलता भी उसके लक्ष्य प्राप्ति में सहायक सिद्ध नहीं होते हैं।
ऽ एक भिक्षुक ढेरों सम्पत्ति प्राप्त करने के बाद स्वयं को संसार का मालिक समझता है और हर प्राणी को अपनी सम्पत्ति से तौलता है, इस प्रकार वह पुनः भिक्षुक हो जाता है।
ऽ ईष्वर पापीयों को भी सुधरने का मौका देते हैं, तभी तो मैंने (श्री हरि विष्णु) असूर राज हिरण्यकष्यप को भक्त प्रह्लाद जैसा भक्ति भाव रखने वाला पुत्र दिया ताकि हिरण्यकष्यप भक्त प्रह्लाद से प्रेरित होकर धर्म की षिक्षा ग्रहण करें और मेरे प्रति शत्रुता का भाव त्याग दे। लेकिन भक्त प्रह्लाद का हिरण्यकष्यप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा वरण वह प्रह्लाद को दण्डित करने लगा। तब मैंने नरसिंह अवतार धारण किया और हिरण्यकष्यप का वध कर दिया।
ऽ इंसान अगर झूठ न बोले तो उसकी अधिकत्तर शारीरिक पिड़ा नष्ट हो जाती है।
ऽ चातुर्य वह वस्तु है जो समान्य हो तो जीवन को सहेजता है; और अगर अधिक हो तो जीवन नष्ट कर देता है, क्यों कि अधिकता के कारण ही इंसान गलती करता है अथवा असत्य बोलता है और आगे चलकर वह इस कारण पापी भी बन जाता है।
ऽ जीवन का मतलब ये नहीं कि आप अपने खुषी देखें, जीवन का मतलब यह है कि आपने दुसरे को कितना खुष किए।
ऽ सबसे अच्छी बात यह है कि आप स्वयं को पहचानते हैं, अगर ऐसा नहीं है तो समझीए उक्त व्यक्ति का जन्म ही नहीं हुआ है।
ऽ ईष्वर न पाप करने वाले को रोकता है न पूण्य करने वाले को; वह दोनो को स्वतंत्र इस लिए रखता है कि दोनों कर्म करने के अधिकारी हैं। ईष्वर देखता है कि कौन, क्या करता है? तत्पष्चात पाप अथवा पापी का नाष होता है।
ऽ ईष्वर ने दो वस्तु हर किसी को दिया है; जीवन और मृत्यु, कर्म तो उसे स्वयं हीं करना होता है।
ऽ एक लक्ष्य और साफ नियत इंसान को सफल बना देती है।
ऽ जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते है, उसी प्रकार जीव के भी दो पहलू हैं; नर और मादा, समय के दो पहलू हैं; दिन और रात, समस्या के दो पहलू होते है; अतीत और वर्तमान। इन दो पहलूओं को साथ लेकर इंसान सोंचे अथवा विचार करे तो हर समस्या का समाधान संभव है। वैसे भी संसार में ऐसी कोई समस्या नहीं, जिसका कोई समाधान नहीं, बात अलग है कि कोई समस्या सुलझने मंे समय लेती है।
ऽ कोई व्यक्ति किसी कर्म को करके स्वयं को किसी अन्य व्यक्ति के प्रति अधीन पाता है तो कर्म करके ही किसी अन्य व्यक्ति से अधीनता करवाता है, तो ये सब कर्म का योग है जो स्वतंत्रता और अधीनता को परिभाषित करता है।
ऽ जिस प्रकार पश्चाताप, पाप को समाप्त कर देता है उसी प्रकार किसी व्यक्ति को उसके लक्ष्य के प्रति हठ धर्मिता अथवा अहम उस व्यक्ति के ज्ञान को समाप्त कर देता है।
ऽ जब किसी इंसान की आत्मा दुष्टता दिखाती है तो परमात्माओं को भी अपना स्वरूप दिखाना पड़ता है।
ऽ जिस प्रकार दिनों के समुह को सप्ताह, माह के समुह को वर्ष, वष के समुह को दषक और दषक के समुह को शताब्दि कहते है उसी प्रकार युगों के समुह को कालचक्र कहते हैं।
ऽ इस ब्रहा्रण्ड में तीन प्रकार का कालचक्र है, पहला स्वयं पितामह श्री ब्रहा्राजी हीं कालचक्र हैं जो युगों का पूर्णचक्रण करते हैं, दूसरा कालचक्र युगों का समुह है तथा तीसरा और अंतिम कालचक्र उत्तर-पूर्वी भारतवष के आकाषमार्ग में बना हवाओं का तीन लकीर है जिन पर कालयोग, सर्पयोग और महायोग नामक तीन देव ऋषियों का निवास होता है। यह तीन योग देवयुग में मुनियों द्वारा मानवों के मध्य दुःख का कारण बताया जाता है तथा सर्पयोग में श्री हरि विष्णु की पूजा की जाती है; महायोग में भगवान षिव की पूजा की जाती है तथा कालयोग में पितामह श्री ब्रहा्राजी की पूजा की जाती है।
ऽ सर्पयोग, कालयोग और महायोग का प्रकोप प्रत्येक दिवस में 6 घंटे का होता है अर्थात् यदि किसी मानव का जन्म प्रथम पहर के पहला और छठा घंटे के मध्य होता है तो वह कालयोग के प्रकोप में माना जाता है तत्पष्चात् महायोग का समय होता है उसके बाद सर्पयोग का प्रकोप माना जाता है।
ऽ अगर किसी मानव का जन्म सूर्योदय के पष्चात् सर्पयोग में होता है तो वह मानव भाग्यषाली सिद्ध होता है। अगर किसी मानव का जन्म सूर्योदय के पश्चात् कालयोग में जन्म होता है तो वह मानव ज्ञानी सिद्ध होता है तथा सूर्योदय के पश्चात् महायोग में जन्में मानव धनाभिलाषी बनके रह जाता है। उक्त सारे योग देवयुग में ही पाया जाता था।
एक कथा सूनाते हुए श्री हरि विष्णु ने अषीष से कहा कि एक समय की बात है, कुटुम्बासूर नामक एक असूर ने भगवान षिव की तपस्या की और भगवान षिव ने भी उसे अषिर्वाद दिया कि कुटूम्बासूर जहाँ भी जाएगा उसका वहाँ अच्छी अतिथ्य सत्कार होगा। वरदान प्राप्ति के बाद कुटुम्बासूर अधिकत्तर दैत्य राजाओं के द्वारा अतिथ्य सत्कार प्राप्त करता है और वह सत्कार प्राप्ति के लिए दैत्य गुरू शुक्राचार्य के समक्ष उपिस्थत होता है। दैत्य गुरू शुक्राचार्य अपनी तपस्या में लीन थे, कुटुम्बासूर काफी देर तक उनका तप समाप्त होने का इंतजार किया लेकिन व्यर्थ था अंततः वह शुक्राचार्य को पैर मार कर स्वयं की उपस्थिति का संकेत देता है। दैत्यगुरू शुक्राचार्य अत्यंत क्रोधित हो जाते हैं और कुटूम्बासूर को श्राप देते हैं कि आगे से वह जिस किसी से अतिथ्य सत्कार करवाना चाहेगा उसी के हाथों उसकी मृत्यु होगी।
कुटूम्बासूर आषाहीन होकर भगवान भालेनाथ से बोला कि आपका आर्षिवाद व्यर्थ है। वहीं महर्षि नारद उपस्थित थे तथा उन्होंने मेरी (श्री हरि विष्णु) दयालुता का भाव दिखाते हुए कहा कि मैं (श्री हरि विष्णु) उनकी अच्छी सत्कार करूँगा तत्पष्चात् उन्हें सत्कार की जरूरत ही नहीं होगी। कुटुम्बासूर हमारे (श्री हरि विष्णु) समक्ष उपस्थित हुआ तथा हमसे अतिथ्य सत्कार की बात करने लगा। हम (श्री हरि विष्णु) भी अचंभित थे तथा ये सांेच कर की निरर्थक संबंध का सत्कार करना ब्यर्थ है और मैंने (श्री हरि विष्णु) उसी अवस्था में शेषासन पर से हीं अपनी सुदर्षन को छोड़ दिया और कुटुम्बासूर का वहीं वध हो जाता है।
आगे कि कथा सूनाते हुए श्री हरि विष्णु ने अषीष से कहा कि एक समय की बात है, हिरण्यासूर नामक एक असूर पितामह श्री ब्रहा्राजी का तपस्या करता है और वरदान स्वरूप समस्त धरा को अग्नी से जलाने, समस्त धरा को जल से डुबोने तथा वायू के माध्यम से समस्त धरा पर तुफान खड़ा करने का वरदान प्राप्त करता है। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने हिरण्यासूर को सावधान करते हुए कहा कि इन तीनांे शक्ति; पवनदेव, वरूणदेव, और अग्नीदेव की है। अगर तुम उन तीनों में से किसी एक देव की स्त्री के कहने पर धरा पर उतरे तो तुम उसी क्षण जल कर भष्म हो जाओगे, तत्पष्चात् ब्रहा्राजी अदृष्य हो जाते हैं। हिरण्यासूर अपनी शक्ति के धमंड में आकर समस्त धरा को अग्नी के लपेटों में झोक देता है जिससे वहाँ उपस्थित सभी जीव, प्राणी, मानवजाति जलकर राख हो जाते हैं। उसके बाद उसने अग्नी को जल से बुझाकर समस्त धरा को जलमग्न कर देता है। वह आगे चलकर कुछ दिनो के पश्चात् वह वायु के चोट से धरा पर उपस्थित सभी जल को सागर में उढ़ेल देता है और इस प्रकार समस्त धरा सुनसान और विचित्र दिखने लगती है। इस दृष्य को देखकर वरूण देव की स्त्री क्रिचीदेवी हिरण्यासूर के समक्ष प्रकट होती है और हिरण्यासूर से कहती है कि आपके प्रभाव से समस्त धरा एक स्वर्ण पिण्ड की भाँति दिखाई दे रही है। क्रिचीदेवी के इस बात को सूनकर हिरण्यासूर को आष्चर्य होता है और वह धरा को देखने नीचे उतरता है तथा धरा पर पैर रखते हीं हिरण्यासूर जलकर वहीं राख हो जाता है।
इस प्रकार एक और कथा सूनाते हुए श्री हरि विष्णु ने अषीष कहा कि एक समय की बात है श्रेयासूर नामक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का तपस्या किया और पितामह ने उसे वरदान दिया कि तुम आकाषमार्ग में उपस्थित होकर जिस प्राणी, मानव, देवी अथवा त्रिदेव को स्थानान्तरित करना चाहो; कर सकते हो तथा उन्हें भी स्थानान्तरित होना पड़ेगा। उसके बाद पितामह श्री ब्रहा्राजी अदृष्य हो जाते हैं। उनके जाने के बाद श्रेयासूर आकाषमार्ग की ओर प्रस्थान कर जाता है और वहीं से धरती पर तप कर रहे कुछ मुनियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित कर देता है और वे मुनि लाचारीवष वहीं तपस्या करने लगे। निरन्तर वह इसी कार्य को सम्पादित करता था। एक समय की बात है श्रेयासूर ने भगवान भाले नाथ को भी उनके षिवलोक से स्थानान्तरन मंदराचल पर्वत पर कर देता है; भगवान भालेनाथ भी वहीं अपनी तपस्या में लीन रहते हैं। श्रेयासूर ने हमें (श्री हरि विष्णु) भी स्थानान्तरित कर जलसागर (प्रषान्त महासागर) से दैविक सागर (हिन्द महासागर) कर देता है। हमें (श्री हरि विष्णु) बहुत दुःख हुआ हमने (श्री हरि विष्णु) सोंचा कि अब मैं (श्री हरि विष्णु) अपनी बैकुण्ठ धाम की ओर कैसे जाऊँगा और मैं इस समस्या को माता सरस्वती से कहा तथा माता सरस्वती ने भी उक्त समस्या को माता पार्वती और भगवान षिव से कहा। सभी के विचारण मैंने (श्री हरि विष्णु) अपने शेषनाग को बैकुण्ठ लोक की ओर प्रस्थान करने को कह दिया और स्वयं लक्ष्मी संग वहीं खड़ा रहा। श्रेयासूर को यह दृष्य देखकर आष्चर्य हुआ मानों समस्त सृष्टि का संचालक वहीं है और उसका नियम हमारे (श्री हरि विष्णु) द्वारा तोड़ दिया गया, इस षिकायत को लेकर श्रेयासूर पितामह श्री ब्रहा्राजी के समक्ष उपस्थित हुआ और सारी बातों से अवगत कराया; पितामह श्री ब्रहा्राजी भी उत्तेजीत स्वर में कहा कि ऐसी अवस्था है तो तुम श्री हरि विष्णु का वध कर दो। इस बात को संज्ञान में रखते हुए श्रेयासूर शसस्त्र होकर हमारे समक्ष युद्ध करने हेतु उपस्थित हुआ और हमारे (श्री हरि विष्णु) और श्रेयासूर के मध्य घमासान युद्ध होता है और अंततः हमारे (श्री हरि विष्णु) द्वारा श्रेयासूर का वध कर दिया जाता है।
अषीष को एक कथा सुनाते हुए श्री हरि विष्णु ने कहा कि एक समय की बात है, दैव्यासूर नामक एक असूर ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप किया और पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उसे स्वर्गलोक में उपस्थित सभी देवों पर विजयी प्राप्त करने का वरदान दिया तथा यह भी कहा कि ये तभी संभव है जब तुम शक्ति स्वरूपा पार्वती का वध कर दो। इस वरदान को प्राप्त कर दैव्यासूर पुनः अपने राजमहल की ओर प्रस्थान करता है तथा अपने दैत्य सैनिकों के साथ स्वर्गलोक पर आक्रमण कर देता है जिससे देवराज इन्द्र पराजित होकर स्वर्गलोक का त्याग कर देते हैं और उन्हें वन में भटकना पड़ जाता है। उधर इन्द्रलोक के आसन पर विराजमान होकर दैव्यासूर नित्य मेरा (श्री हरि विष्णु) बैकुण्ठ लोक पर विजय प्राप्त करने की सोंचता था और अंततः जब मैं (श्री हरि विष्णु) बैकुण्ठ लोक में विश्रामावस्था में था तब दैव्यासूर ने अपने कुछ दैत्यों के साथ बैकुण्ठ लोक पर आक्रमण कर दिया, मै (श्री हरि विष्णु) भी युद्ध कि तैयारी के साथ बैकुण्ठ लोक से बाहर निकला और हम (श्री हरि विष्णु) दोनों के मध्य घमासान युद्ध हुआ जिसमें दैव्यासूर पराजित हो जाता है तथा वह षिवलोक की ओर भाग जाता है। जब दैव्यासूर षिवलोक पहूँचता है तब वह माता पार्वती को अपने सखियांे संग बात करते पाता है तब उसी क्षण उसे याद आता है कि पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा था कि वह जब शक्ति स्वरूपा पार्वती का वध कर देगा तभी वह देवों पर विजय प्राप्त कर सकता है। तब दैव्यासूर ने अपने खड़ग से दूर स्थित माता पार्वती पर प्रहार कर देता है तथा इस प्रहार को देखकर भगवान षिव, माता पार्वती को दूर बैठे ही सावधान होने को कहते हैं, तब तक वह खड़ग माता पार्वती के निकट आ जाता है जिसे देखकर कुमार कार्तिके ने उस खड़ग को थाम लिया और खड़ग को थामते ही वे मुर्छित हो जाते हैं। तब तक माता पार्वती सावधान हो जाती हैं और कुमार कार्तिके को संभालने के लिए दौड़ती है। इस क्षण को देखकर कर भगवान षिव भी व्याकुलता के साथ दौड़ जाते है, भगवान षिव ने माता पार्वती को दैत्यासूर का संहार करने को कहा तथा कार्तिके के समीप चले गए। माता पार्वती भी अपनी शक्ति स्वरूपा दुर्गा का स्वरूप प्रकट करती हैं और दैव्यासूर के साथ युद्ध करती है। यह युद्ध काफी समय तक चला था और अंततः माता दुर्गा के हाथों दैव्यासूर का वध हो जाता है।
आगे कि घटना बताते हुए श्री हरि विष्णु ने अषीष से कहा कि एक समय की बात है, देवी लक्ष्मी और मैं (श्री हरि विष्णु) शेषनाग के आसन पर विराजमान था, देवी लक्ष्मी हमारे पैर का मसलन कर रही थी; अचानक उनके मन में एक विचार आया और उन्होनें हमसे कहा कि; प्रभू! हमें भय का प्रर्याय अथवा डर का मतलब समझ में नहीं आता था अर्थात हम डरते नहीं हैं। तब मैंने देवी लक्ष्मी से कहा कि आप हमारी संगीनी है इसलिए आपको किसी प्रकार का कोई भय नहीं है यथा आपको डर नहीं लगता है। तब देवी लक्ष्मी अपने विचार आगे करते हुए कहती है कि आप और आपका शेषनाग सदैव निंद्रावस्था में होते हैं और मैं इस विरान सागर में अकेली बैठी रहती हूँ, तथा इस सागर में भाँति-भाँति प्रकार के जलचर भी होते हैं जिससे मैं कदापि भयभित भी नहीं होती हूँ। इस बात को सून कर श्री हरि विष्णु विचार में फँस गए तथा कुछ क्षण के बाद वे माता लक्ष्मी को भ्रमण पर चलने को कहा तथा अपने वाहन गरूड़ को याद किया तथा गरूड़ भी उपस्थित हो गए। श्री हरि विष्णु और माता लक्ष्मी पहाड़ों के मध्य रूक जाते है जहाँ श्री हरि विष्णु ने माता लक्ष्मी को कहा कि हम यहाँ आपको डर अथवा भय से परिचित करवाने आये हैं, तब माता लक्ष्मी ने इच्छुक होते हुए कहा कि; कहाँ है? कैसा होता है डर? तब श्री हरि विष्णु ने माता लक्ष्मी को अपने कुछ क्षण के लिए अपने नेत्र बन्द करने को कहा और माता लक्ष्मी भी ऐसा हीं किया और जब उन्होंने अपना नेत्र खोला तो देखा कि एक दैत्य जिसके ललाट पर एक चोंच तथा उसी चोंच के मध्य एक दैत्यिक नेत्र था तथा चेहरा समतल था। माता लक्ष्मी पहले तो सहम गई तथा गरूड़ को मदद करने के लिए कहा लेकिन वे स्वयं को भयभित कहकर वहाँ से उड़ गए। अब माता लक्ष्मी अकेली थी और वे चिखने-चिल्लाने लगी। उस दैत्य ने स्वयं को नेत्रचुग्गा कहकर माता लक्ष्मी के तरफ बढ़ने लगा। माता लक्ष्मी चित्कार करते हुए श्री हरि विष्णु को पुकारने लगी और कहने लगी कि; श्री हरि विष्णुऽऽऽ; आप कहाँऽऽ है? ये नेत्रचुग्गा हमंे मार देगा। माता लक्ष्मी की चिखने की आवाज षिवलोक तक पहूँच जाता है जहाँ माता पार्वती षिव अराधना में लीन थी तथा माता लक्ष्मी की पुकार सुन कर तत्काल उस स्थान पर पहूँची। दृष्य को देखकर माता पार्वती ने स्वयं दुर्गा स्वरूप धारण किया और नेत्रचुग्गा पर अपने सुदर्षन से प्रहार किया, लेकिन उसी पल नेत्रचुग्गा के स्थान पर स्वयं श्री हरि विष्णु खड़े हो गए तथा माता दुर्गा द्वारा छोड़ा गया सुदर्षन श्री हरि विष्णु की परिक्रमा करके वापस चला आया। माता दुर्गा द्वारा इस लीला का प्रयोजन पुछने पर श्री हरि विष्णु ने कहा कि देवी लक्ष्मी के मन में भय नहीं था तथा वे स्वयं डर से परिचित होने के लिए इच्छुक थी। अगर इनका परिचय डर से नहीं होता तो भविष्य में इनके कारण हमें काफी परेषानियों का समना करना पड़ता।
श्री हरि विष्णु अषीष को आगे कि कथा सुनाते हुए कहते हैं कि एक समय की बात है; क्षण्कासूर नामक एक असूरऋषि पितामह श्री ब्रहा्राजी का तपस्या करता है और पितामह श्री ब्रहा्राजी उसे वरदान देते हैं कि प्रातः और रात्रि के मध्य के समय में वह जो भी उच्चारित करेगा वह सत्य होगा और उसे कोई नहीं काट सकता है। इस प्रकार के वरदान प्राप्ति होने के बाद वह असूरो के मध्य दैत्यगुरू शुक्राचार्य के समान हो गया परन्तु वह असूरांे को आर्षिवाद ही देता था। उसने एक असूर बनकासूर को आर्षिवाद दिया कि वह जो भी कहेगा वह उसी का अनुषरण करेगा। बनकासूर यह आर्षिवाद लेकर सीधा कुछ दैत्यों के मध्य उपस्थित हुआ तथा अन्य दैत्यों से कहा की आप सब हमारे सहायक हैं और सभी दैत्य उसके साथ हो गए। उसके बाद वह बैकुण्ठ लोक चला जाता है। वहाँ जाकर वह शेषनाग से वार्तालाप किया और कहा कि यह समुद्री क्षेत्र हमंे दे दो, शेषनाग भी आसन लगाए हुए थे, उन्होंने बनकासूर से कुछ अपषब्द कर दिया जिससे दैत्यों के मध्य नाराजगी हो गई तथा वे शेषनाग पर अपने गदा से प्रहार करने लगे। उसी क्षण मेरी (श्री हरि विष्णु) का आगमन होता है और वे इस दृष्य को देखकर चिंतित हो गए और शेषनाग को बचाने हेतु उनकी ओर लपकें। दैत्यों ने मुझ (श्री हरि विष्णु) पर आक्रमण कर दिया तथा हमने (श्री हरि विष्णु) भी अपनी गदा से उनके प्रहार का जबाव दिया इसके बाद सभी दैत्य भाग गये लेकिन बनकासूर अडिग रहा और अंततः वह मेरी (श्री हरि विष्णु) सुदर्षन से उसका अंत हो जाता है। आगे क्षण्कासूर एक अन्य दैत्य मनकासूर को कहता है कि वह जब जागेगा तब उसके लिए एक नारी वक्षपान कराने हेतु उपस्थित रहेगी। मनकासूर काफी खुष हुआ और अपने निवास की ओर चला गया। वहाँ जाकर वह निष्ंिचत होकर विश्राम करने लगा और सो गया तथा जब जागा तब उसे प्राप्त आर्षिवाद के अनुसार उसे एक नारी की प्राप्ति हुई, उसके साथ नीत ऐसा होने लगा। अंत में वह स्वर्गलोक की ओर चला गया और वहाँ जाकर वही आस-पास अपना बसेरा डाल दिया और सोकर जागने के बाद उसे एक नारी की प्राप्ति होती है। उसके बाद नीत ऐसा नहीं होता है। ऐसा देखकर वह अप्सराओं के निवास स्थल की ओर चला जाता है लेकिन वहाँ उसकी कोई पूछ नहीं होती है और अंततः देवराज इन्द्र के समक्ष प्रस्तुत होता है। देवराज इन्द्र उसकी इच्छा को जान कर उसे एक अप्सरा उपहार देते हैं। लेकिन वह उसके लिए पर्याप्त नहीं था। तब मनकासूर अन्यों के स्त्रियों के साथ अपना संबंध बनाने की इच्छा करता है जिसको देवराज इन्द्र स्वीकार नहीं करते हैं और उसका वध कर देते हैं। आगे क्षण्कासूर एक असूर दन्तरासूर को आर्षिवाद दिया कि वह जब भी भ्रमण पर निकलेगा तब उसे रास्ते में आने वाले सूर-असूर उसका अभिवादन करेंगे। इस आर्षिवाद को प्राप्त कर दन्तरासूर काफी खुष हुआ और अपने राजमहल चला गया तथा वहाँ प्रस्थान करते समय उसके शत्रु ने भी उसका अभिवादन किया, जिससे वह खुष था। इस प्रकार के अभिवादन को देखते हुए वह सीधा षिवलोक की ओर प्रस्थान कर गया तथा भगवान षिव से भी अभिवादन प्राप्त किया। आगे चलकर वह देवराज इन्द्र से मिला लेकिन देवराज इन्द्र ने उसका अभिवादन नहीं किया। वह काफी आक्रोषित हुआ और वापस चला गया। वह गुस्से मे आकर क्षण्कासूर से षिकायत किया और उसके आर्षिवाद की अवहेलना की बात किया। ऐसा सुनकर क्षण्कासूर देवराज इन्द्र के समक्ष प्रस्तुत हुआ तथा अपना परिचय दिया तथा कहा कि उसे पितामह श्री ब्रहा्राजी से वरदान प्राप्त है, ऐसा सुनकर देवराज इन्द्र को बहुत हँसी आती है और दोनों वहीं आपस मंे लड़ने के लिए भिड़ जाते हैं और अंततः देवराज इन्द्र के द्वारा क्षण्कासूर का वध हो जाता है।
अशीष की कथा सुनाने की आग्रह को सूनकर श्री हरि विष्णु एक कथा सुनाते हुए कहते हैं कि एक समय की बात है दीनकासूर नामक दैत्य पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप करता है और पितामह श्री ब्रहा्राजी यह वरदान देते हैं कि दिन के सभी पहर में धरती पर उपस्थित मानव, दानव, देव, त्रिदेव से तुम एक बात स्वीकार करवा सकते हो; लेकिन जब तुम इस कार्य को सिद्ध करोगे तो तुम्हारा षिष आकाष की तरफ नहीं होना चाहिए अगर ऐसा होता है तो उसी क्षण तुम्हें इस वरदान से अवकाष प्राप्त हो जाएगा। उसके बाद दिनकासूर धरती पर उपस्थित सभी मानव और दानव से अपना एक कार्य सिद्ध करवाने लगा। इस बात की सिद्धि को लेकर वह बैकुण्ठ लेाक की ओर प्रस्थान करता है और माता लक्ष्मी से मिलता है तथा उन्हें बैकुण्ठ लोक से भी सून्दर महल में रहने हेतु कहता है। इस बात को लेकर माता लक्ष्मी ने कहा कि मैं तो पहले ही राजमहल में रहती हूँ; अगर आप यह प्रस्ताव माता पार्वती से हें तो शायद वह आपकी बात मान लें। इसके बाद दीनकासूर षिवलोक चला गया जहाँ भगवान षिव तपस्या में लीन रहते हैं और दीनकासूर माता पार्वती से मिलता है और उनसे पूनः महल में रहने की बात करता है, माता पार्वती इस बात के बारे में भगवान षिव से कहती हैं; भगवान षिव, दीनकासूर से मिलते हैं और उससे आग्रह करते हैं कि तुम हमसे अन्य बाते स्वीकार करवा लो लेकिन पार्वती से ऐसी बातें दूबारा न कहना। दीनकासूर मान जाता है और भगवान षिव से षिवलोक से अलग राजमहल की ओर चलने को कहता है; भगवान षिव उसकी बात मानते हुए राजमहल की ओर चले जाते हैं, उसके बाद दीनकासूर कहता है कि उक्त राजमहल को स्थानान्तरित कर दूसरी जगह स्थापित करें; भगवान षिव ऐसा हीं करते हैं। एक दिन दीनकासूर भगवान षिव को कहता है कि भगवान षिव का जो आसन हे वह पूर्व दिषा से पष्चिम दिषा की ओर कर ले; भगवान षिव ने भी ऐसा ही किया। अंततः दीनकासूर भगवान षिव से कहता है कि मेरी (श्री हरि विष्ण) का आसन जो कि पूर्वी सागर (जल सागर) में लगता है उसे दक्षिणी दिषा में उपस्थित समुद्र में कर दें। भगवान षिव चिंता ग्रसित हो जाते हैं तथा हमसे (श्री हरि विष्णु) उक्त बातों से अवगत करवाते हैं। मैं (श्री हरि विष्णु) विचारण दीनकासूर से मिलता हूँ और उससे कहा कि अगर तुम शेषनाग के आसन को उठाकर दक्षिण दिषा के समुद्री क्षेत्र में स्थापित कर दो तो मैं अपना आसन वहीं स्थानान्तरित कर दूँगा। दीनकासूर मान जाता है; और वह विषाल आकृति में आकर शेषनाग के आसन को उठाने लगता है, पहले तो शेषनाग का आसन उससे हिलता भी नहीं है और इस प्रकार आसन उठाने के क्रम में उसका षिष आकाष की ओर उठ जाता है और वह इस प्रकार के वरदान से अवकाष प्राप्त कर लेता है। एक समय की बात है माता पार्वती ने भगवान षिव से इच्छा की कि उन्हें अपने शरीर का मसलन करवाने हेतु एक नारी की आवष्यकता है। भगवान षिव जो कि दीनकासूर की बहुत बातें स्वीकार कर चुके थे, उन्होंने दीनकासूर को बुलवाया और एक नारी कि आवष्यकता दिखाया। नारी हेतु दीनकासूर स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर जाता है; वहाँ देवराज इन्द्र से मिलकर सम्मानपूर्वक एक नारी की माँग करता है, देवराज इन्द्र उसकी मांग को अस्वीकार कर उसे तिस्कृत कर देते हैं तथा अपनी इस तिरस्कार को देखते हुए दीनकासूर अपने खड़ग से देवराज इन्द्र पर प्रहार करना चाहता है जिसे देखकर सभी देवगणों मिलकर ने दीनकासूर का वहीं वध कर दिया।
श्री हरि विष्णु ने दैविक शक्तियों का रहस्य बताते हुए अषीष से कहा कि सिद्धियाँ मुख्यतः चार प्रकार की होती हैं:-
परम् सिद्धि:- इसका उपयोग वायू, जल, अग्नी, प्रकाष, अंधकार, नमी, धरा पर विद्युत आघात, विद्युत, किसी भी मानव का स्वरूप को बदलने अथवा सिद्ध करके प्राप्त करने के लिए की जाती है, तांत्रिक शक्ति भी परम् सिद्धि का एक अंग है। इस्लामिक तिलिस्मी शक्ति भी परम् सिद्धि का एक रूप है। ये शक्ति स्वरूप सिद्धिदात्रि माता के पास होती है। इसका वर्ण लाल होता है और इस सिद्धि को माता दुर्गा सैदव अपने ललाट पर रखती हैं। यदि परम् सिद्धि से किसी प्रकार की रूद्र की शक्ति सिद्ध की जाए तो वह शक्ति रूद्र की बजाय शुद्र की शक्ति हो जाती है और ऐसी शक्ति से सम्पन्न देव-त्रिदेव अपने ही परमत्व में नग्नता को प्रदर्षित करते हैं, अतएव परम् सिद्धि की शक्ति; किसी प्रकार की शक्ति सिद्धि के लिए उपर्युक्त नहीं मानी जाती है।
शैल सिद्धि:- शैल सिद्धि का मुख्य कार्य किसी भी प्रकार का धातू जैसे सोना, चाँदी लौह अस्यक, पहाड़, पठार, विभिन्न प्रकार का दैविक सस्त्र को तैयार करने अथवा सिद्ध करने के लिए किया जाता है। पारस मणि भी एक प्रकार से शैल सिद्धि का ही रूप है जो पितामह श्री ब्रहा्राजी के आदेषानुसार किसी भी धातू को सिर्फ स्वर्ण ही सिद्ध करती है। ये शक्ति स्वरूप माता शैलपुत्री के पास होती है। इसका वर्ण श्वेत होता है।
रूद्र सिद्धि:- इसका प्रयोग किसी भी धातू अथवा पदार्थ को शक्ति स्वरूप देने में किया जाता है अथवा शक्ति सिद्धि के लिए किया जाता है। यह शक्ति माता पार्वती और भगवान षिव के पास ही उपलब्ध है। इसका वर्ण पीला होता है और भगवान षिव अपने ललाट पर चंदन के स्थान पर रूद्र की सिद्धि ही रखते हैं।
वैष्णवी सिद्धि:- इस सिद्धि का प्रयोग अक्सर दैत्यों के मध्य हाहाकार मचाने के लिए प्रर्याप्त होता है, इस सिद्धि का दुरूपयोग नहीं किया जा सकता है। अगर इसका उपयोग गलत सिद्ध होता है तो इसका विपरित परिणाम इस सिद्धि के द्वारा अन्य पर प्रहार करने वाले पर पड़ता है। यह शक्ति माता वैष्णवी और हमारे (श्री हरि विष्णु) पास होती है तथा इसका वर्ण गहरा नीला होता है।
श्री हरि विष्णु ने एक कथा अषीष को सुनाते हुए कहते है कि एक समय की बात है कि दैष्यासूर नामक एक असूर ने पितामह् श्री ब्रहा्राजी का घोर तपस्या की और पितामह श्री ब्रहा्राजी से वरदान माँगा कि हमारी मृत्यु दस भुजाओं वाली दुर्गा से न हो और हमें मृत्यु देने वाली कोई अन्य दस भुजाओं वाली नारी हीं हो, इसके अलावे अन्य कोई देव अथवा त्रिदेव हमारी मृत्यु का कारण न बन सके। पितामह् श्री ब्रहाजी ने तथास्तु कह कर वरदानित किया और उस दैष्यासुर को एक शस्त्र (तीर) देते हुए कहा कि अगर तुमपर दस भुजाओं वाली दुर्गा किसी प्रकार से प्राण हानि करने हेतु प्रहार करती है तो तुम इस शस्त्र से अपनी सुरक्षा कर सकते हों, उसके बाद पितामह श्री ब्रहा्राजी अर्न्त्यध्यान हो गए। दैष्यासूर वरदान प्राप्ति के बाद समस्त लोक में अपना अधिपत्य सिद्ध कर लेता है स्वर्गलोक सहित जल, वायु, पृथ्वी सभी जगह दैत्यासूर के परमत्व का मान सम्मान होने लगता है। देवराज इन्द्र सहित सभी देव वन-वन भटकने लगते हैं, देवों की इस दुदर्षा को देखकर महर्षि नारद इस विषय पर भगवान षिव सहित अन्य त्रिदेवों से वार्तालाप करते हैं, माता पार्वती देवों से स्वयं को भूल जाने की बात करती है फिर भी भगवान षिव के आदेष को पाकर शक्ति स्वरूपा माता दुर्गा दैष्यासूर का वध करने चली जाती हैं, भीषण युध के बाद दैष्यासूर के हाथ में पितामह श्री ब्रहा्राजी द्वारा वरदान स्वरूप दिए गए शस्त्र को देख कर शक्ति स्वरूपा माँ दुर्गा को भागना पड़ता है और अन्ततः सभी देवों के चेहरे पर एक प्रष्न चिन्ह् बन जाता है। काफी विचार करने के बाद माता सरस्वती, माता पार्वती से वैष्णवी दुर्गा का स्वरूप प्राप्त करने को कहती है इसके कार्य सिद्धि के लिए यह भी सुझाव देती है कि आप श्री हरि विष्णु के शक्ति से आर्षिवाद प्राप्ति हेतु तपस्या करे और श्री हरि विष्णु से आर्षिवाद लेकर वैष्णवी होने का वरदान प्राप्त करें। माता पार्वती ने ऐसा हीं किया, इस दुर्बल अवस्था को देखकर श्री हरि विष्णु के आँखों में अश्रू आ गए, फिर भी भगवान षिव ने इसे विधि का विधान कहते हुए माता पार्वती को वरदानीत करने को कहा। श्री हरि विष्णु माता पार्वती के समक्ष प्रकट हो जाते है और माता पार्वती भी श्री हरि विष्णु के चरण स्पर्ष करते हुए कहती है कि आप हमें वैष्णवी दुर्गा बनने का वरदान दें ताकि मैं दुष्ट दैष्यासूर का वध कर सकूँ, श्री हरि विष्णु ने अपने शक्ति का वैष्णवी सिद्धि माता पार्वती के लालट पर रख देते हैं और श्री हरि विष्णु कहते हैं कि आप वैष्णवी सिद्ध हुई तत्पष्चात् माता पार्वती; दुर्गास्वरूप प्रकट कर जिसें सभी देव माता वैष्णवी दुर्गा के नाम से उच्चारण कर जय-जयकार लगाते हैं। माता वैष्णवी दुर्गा और दैष्यासूर में महासंग्राम होता है, युध के दौरान वैष्णवी सिद्धि; श्री हरि विष्णु का दुर्गास्वरूप दिखाती है, दैष्यासूर, माता दुर्गा के इस स्वरूप को देखकर भ्रम में पड़ जाता है और पितामह श्री ब्रहा्राजी द्वारा प्राप्त वरदानित शस्त्र से माता वैष्णवी दुर्गा पर प्रहार करता है जिसे वे विफल कर देती हैं और माता वैष्णवी दुर्गा, श्री हरि विष्णु की भाँति अपने सुदर्षन से दैष्यासूर का वध कर देती हैं। इस विजय पर पितामह् श्री ब्रहा्राजी सहित सभी देव माता वैष्णवी दुर्गा का जयकारा लगाते हैं।
अषीष को एक कथा सुनाते हुए श्री हरि विष्णु ने कहा कि एक समय की बात है हरक्षासूर नामक एक दैत्य पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप करता है और अमर होने का वरदान माँगता है; पितामह श्री ब्रहा्राजी द्वारा ये कहने पर कि आज तक संसार में कोई मानव अथवा असूर अमर नहीं हो सका है और यह कहना अनिष्चित है तब हरक्षासूर ने वरदान स्वरूप श्री हरि विष्णु की भार्या माता लक्ष्मी के हाथों मरने की बात करता है जो कि उसके लिए अमरता से कम नहीं था। पितामह श्री ब्रहा्राजी तथास्तू कहकर अर्त्यध्यान हो गए तथा हरक्षासूर का आतंक शीर्ष पर चला जाता है हर तरफ हरक्षासूर का भय ब्याप्त था। देवराज इन्द्र सहित स्वर्गलोक के अन्य देवता भी हरक्षासूर के अत्याचार से पिड़ित होकर त्रिलोक का चक्कर लगाते थकते नहीं थे, सभी त्रिदेवों के मस्तिष्क पर हरक्षासूर कि मृत्यु एक प्रष्नचिन्ह् था। भगवान षिव सहित श्री हरि विष्णु भी चिंतित थे कि आखिर माता लक्ष्मी जिन्हें शस्त्र का एक ज्ञान नहीं; हरक्षासूर का वध कैसे करेंगीं। तब महर्षि नारद ब्रहा्रलोक में प्रस्तुत होकर माता सरस्वती के समक्ष श्री हरि विष्णु और भगवान षिव समस्याओं के बारे में बताया और कहा कि हरक्षासूर इन देवों के लिए चिंता का विषय बन चुका है उनका कहना है कि आखिर माता लक्ष्मी हरक्षासूर का वध कैसे करेंगी। तब माता सरस्वती ने हँसते हुए कहा कि, हे नारद! अगर श्री हरि विष्णु अपने एक शस्त्र स्त्री स्वरूप को माता लक्ष्मी में विराजमान कर दें तो माता लक्ष्मी का एक नया स्वरूप प्रकट होगा जिन्हें भविष्य में विष्लक्षणा माता के नाम से जाना जाएगा जिनके हाथों में माता लक्ष्मी के प्रतिक धन का कलष और कमलीनि अवष्य होगा और माता लक्ष्मी का यह स्वरूप हरक्षासूर का वध करने के लिए पर्याप्त होगा। माता सरस्वती द्वारा उच्चारित उक्त संवाद को वे श्री हरि विष्णु और भगवान षिव के समक्ष प्रस्तुत किया तथा माता लक्ष्मी के विष्लक्षणा माता स्वरूप को महर्षि नारद ने अपने मुख से कह सुनाया। तब माता पार्वती के उच्चारण पर माता लक्ष्मी ने जल सागर के तल में हीं श्री हरि विष्णु की तपस्या किया और श्री हरि विष्णु ने खुष होकर उन्हें विष्लक्षणा माता का स्वरूप दिया। माता विष्लक्षणा, श्री हरि विष्णु का चरण स्पर्ष करती है तत्पष्चात् वे षिवलोक पहूँच कर भगवान षिव से आर्षिवाद लेतीं है और भगवान षिव भी आर्षिवाद स्वरूप एक त्रिषुल देते हैं तथा उच्चारित करते हैं कि इसी त्रिषुल से उस दुष्ट हरक्षासूर का वध करना। माता विष्लक्षणा वहाँ पहूँचती हैं जहाँ हरक्षासूर अपने भय से ऋषियों पर अत्याचार कर रहा होता है, हरक्षासूर माता लक्ष्मी के इस स्वरूप को देख कर भयभीत हो जाता है उनसे युध करने की ठान लेता है, माता विष्लक्षणा भी अपने स्थान पर अडिग रहती हैं तथा हरक्षासूर के हर प्रहार का उचित जबाव देती हैं अन्त में वे भगवान षिव द्वारा प्राप्त त्रिषुल से हरक्षासूर का वध कर देती हैं।
अशीष ने श्री हरि विष्णु से पुछा कि पितामह श्री ब्रहा्राजी अक्सर असूरों का साथ क्यों देते है? इस प्रष्न के जबाव मंे श्री हरि विष्णु ने कहा कि एक समय की बात है पितामह श्री ब्रहा्राजी ने आयुष्मान भव कहा और एक असूर प्रकट हुआ जिसको उन्होंने आदेष देते हुए कहा कि तुम जब भी अपना नेत्र खोलोगों तब एक दैत्य प्रकट होगा लेकिन वह प्रकट दैत्य तुम्हारा अनुषरण नहीं करेगें बल्कि अपने कार्य हित मंे तुम्हीं से कर्म करवायेंगे। इस आदेष को प्राप्त कर वह असुर वहाँ से चला गया। एक समय की बात है जब पितामह श्री ब्रहा्राजी ने अपने हीं ब्रहा्रलोक को ध्यान से देख रहे थे तभी वह दैत्य ने आकर अपना नेत्र खोला तथा वहाँ एक दैत्य प्रकट हुआ। प्रकट दैत्य ने अपने उत्पति का कारण पुछा तो असूर ने कहा कि तुम्हें पितामह से वरदान प्राप्त करने के लिए प्रकट किया गया है। इस बात को सुन कर पितामह श्री ब्रहा्राजी आष्चर्य में पड़ गए और मौखिक रूप से कहा कि तुम असूर हो और मैं एक परमात्मा; हम तुम्हे वरदान नहीं दे सकते हैं। इस बात को सुनकर असूर ने अपने नेत्र से प्रकट हुए दैत्य से कहा कि ‘‘तुम पितामह से कहों कि जब आप एक असूर प्रकट कर सकते हैं तो आप भी एक असूर हीं हुए’’ इस बात को संज्ञान में लेते हुए पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उस दैत्य को वरदानीत कर दिया और स्वयं को असूर समझने लगे लेकिन श्री हरि विष्णु से मिलने गए और अपनी व्यथा सुनाई; इस बात पर श्री हरि विष्णु ने भगवान षिव से सहयोग लिया और पितामह श्री ब्रहा्राजी को पुनः परमात्मा सदृष्य बनाया लेकिन उस असूर के कारण वे पूनः असूर हीं सिद्ध होते थे तब श्री हरि विष्णु ने उस असूर को हीं अपने सुदर्षन से काट दिया। इस दृष्य को देखकर पितामह श्री ब्रहा्राजी द्रवित हो उठे लेकिन उस असूर के मृत्यु के कारण वे असूरों को परमात्मा स्वरूप में वरदानीत भी करने लगे। के उपरान्त पितामह श्री ब्रहा्राजी ने स्वयं को परमात्मा स्वरूप मंे होते हुए स्वयं को असूर हीं सिद्ध किया।
श्री हरि विष्णु ने अषीष को एक कथा सुनाते हुए कहा कि एक समय की बात है निष्चरासूर नामक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप किया औ पितामह श्री ब्रहा्राजी ने वरदान देते हुए कहा कि जिस दिन षिव और पार्वती दोनों साथ में अपने नेत्र से अश्रु प्रवाहित करेंगे उस दिन तुम्हारा उदय होगा और जिस दिन गंगा स्वयं को श्री हरि विष्णु के उदर से प्रकट होगी उसी दिन तुम्हारा सूर्यास्त होगा अथवा एक साधारण देव भी तुम्हारी मृत्यु का कारण बन सकते हैं। ये कहकर पितामह श्री ब्रहा्राजी चले गए। एक समय की बात है षिवलोक में अनन्त काल से षिवगणों का आगमन रूका हुआ था, कारण स्वयं भगवान षिव सभी लोगों से किसी कारण वष नाराज थे, चुकि सभी लोगों ने भी उन्हे मनाया भी लेकिन वे नहीं मानें। अंततः भगवान षिव के समक्ष षिवगणों का आगमन रूक जाता है। माता पार्वती की सखीयों ने भी अपना आगमन त्याग देती हैं। इस अवस्था को देखकर माता पार्वती सहित षिवलोक के षिवसखा में व्याकुलता व्याप्त हो जाती है और उस क्षण को देखकर भगवान षिव और माता पार्वती के नेत्र में अश्रु की धार बहने लगते हैं। तत्पष्चात निष्चासूर के मन में भाँति-भाँति प्रकार से लाभुक होने की भावना जागता है और इस दौरान निष्चासूर अपने लोक में सभी को अपने अधिकार में लेते हुए अन्नत काल तक दैत्यराज के रूप में असूरो पर राज करता है। अंततः उसके राजमहल में शुक्राचार्य का आगमन होता है और शुक्राचार्य उसे स्वर्ग का सिंहासन तथा समस्त संसार में ऋषियों से अपना तप करवाने के लिए प्रेरित किया। निष्चासूर भी शुक्राचार्य के कहे अनुसार समस्त संसार के ऋषियों पर अत्याचार कर अपना अराधक बनाया और जो नहीं बने उसका संहार करवा दिया और अंततः वह स्वर्ग पर भी चढ़ाई कर दिया। देवराज इन्द्र सहित सभी देवगण को स्वर्गलोक का त्याग करना पड़ा और वे विवष होकर वन में भटकने लगे। इधर नीत षिवलोक के वातावरण में सन्नाटा को देखकर भगवान षिव और माता पार्वती के नेत्र से अश्रु की धार बहते थे जिस कारण से देवगण सहित देवराज इन्द्र भी चिंतीत थे और अपनी समस्या नहीं कहते थें। भगवान षिव के इस हालत को देखकर माता गंगा बिना बताये स्वयं को षिवजटा से मुक्त करते हुए श्री हरि विष्णु के उदर में निवास कर जाती है। माता गंगा द्वारा श्री हरि विष्णु के उदर में प्रवेष करते हीं स्वयं श्री हरि विष्णु स्वयं को जागृत कर देते हैं और गंगा माता के आने का करण पूछते हैं माता गंगा भी षिवलोक का वातावरण सहित भगवान षिव और माता पार्वती के बारे मंे बताती है जिसे सुन कर श्री हरि विष्णु गंगा माता को अपने उदर में धारित कर भगवान षिव के समक्ष षिवलेाक मंे प्रकट होते हैं और षिवलोक में ऐसी वातावरण होने का कारण पूछते हैं। तब माता पार्वती अपने नेत्र से अश्रु को पोछते हुए कहती है कि हमसे गंगा का पालन-पोषण सहा नहीं जाता, क्यों कि जब हम आपस में एकान्त में क्रीडा करते हैं तो वह हमें बाधा पहूँचाती है और इस बातों से नाराज होकर भगवान षिव और मैं (माता पार्वती) स्वयं षिवलोक मंे सन्नाटा का कोप डाल दिया है। इस बात को सुन कर श्री हरि विष्णु दुःखी हुए और अपने उदर में धारित गंगा को अपने उदर से प्रकट किया तथा उन्होंने भगवान षिव, माता पार्वती संग स्वयं को भी परिक्षित किया और उच्चारित किया कि हम लोगों में से जिस किसी के नेत्र में अश्रु होगा वहीं गंगा को धारित करेगा। श्री हरि विष्णु के इस कथन को सुन कर सभी सहमत हो गए तथा जब माता पार्वती के नेत्र में देखा गया तो उनके नेत्र में एक चमक थी। जब भगवान षिव ने श्री हरि विष्णु के नेत्र में देखा तो श्री हरि विष्णु के नेत्र मंे अश्रु पाया जाता है इस बात के जबाव में श्री हरि विष्णु ने इसे माता गंगा का प्रभाव बताया तथा श्री हरि विष्णु स्वयं जब भगवान षिव के नेत्र में झांका तो उनके नेत्र में भी अश्रु पाया तथा वे अपने नेत्र में अश्रु होने का कोई कारण नहीं बताया और इस प्रकार माता गंगा को पुनः षिवजटा में ही स्थान मिलता है। इस प्रकार माता गंगा श्री हरि विष्णु के उदर से निकल कर प्रकट होती है और उधर देवराज इन्द्र और निष्चासूर के मध्य भयंकर युद्ध होता है और इस युद्ध में निष्चासूर देवराज इन्द्र के हाथों मारा जाता है।
श्री हरि विष्णु अषीष को एक कथा सुनाते हुए कहा कि एक बार त्रिदेवांे में भयंकर विडम्बना का प्रभाव था यानि त्रिदेव स्वयं में ही एक दूसरे को दोषी बना रहे थे और पितामह श्री ब्रहा्राजी कहे जा रहे थे कि यदि आप दोनों के स्थान पर एक अन्य देव होते तो क्या विपरित होता? इस बात को सूनकर श्री हरि विष्णु ने तात्यर्प्य पुछते हुए एक देव लाने का पिमाह श्री ब्रहा्राजी से संदेह किया और इस बात के जबाव में पितामह श्री ब्रहा्राजी ने क्रोध करते हुए कहा कि षिव के जगह अन्य देव होते तो शायद पार्वती को युद्ध क्षेत्र में न जाना पड़ता। इस बात को सुनते हीं भगवान षिव क्रोधाग्नी मंे प्रवेष कर जाते हैं और पितामह श्री ब्रहा्राजी से कहा कि अगर आपके दृष्टि में मैं निष्प्राण हूँ तो आप हमें जल समाधि लेने का आदेष दें। भगवान षिव के इस बात को सुनकर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा, हमें इस संदर्भ में कुछ नहीं कहना परन्तु इतना जरूर कहूँगा कि अन्य दैत्यों कि भाँति आप में भी दैत्यिक गुण है। अपनी समानता दैत्यों से सुनकर भगवान षिव ने अपने त्रिनेत्र से अग्नी प्रकट किया और उसी अग्नी को एक देव स्वरूप् दिया और उच्चारण किया कि आप हमारे समक्ष दैत्य हैं परन्तु दैविक आचरण दिखाएँ। इस बात को सुनकर उस देव ने पितामह श्री ब्रहा्राजी को नमन किया और दैत्यिक भावना में ही कहा कि आप हीं मेरे सर्वस्व है और मैं आप हीं का अराधक भी हूँ। तत्पष्चात् पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उसे आषिर्वाद देते हुए कहा कि आज से तुम अष्चरासूर के नाम से जाने जाओगे और पाताल लोक में निवास करांे। अष्चरासूर पाताल लोक चला जाता है जहा उसका मिलन नम्ब्रासूर से होती है। उधर पितामह श्री ब्रहा्राजी उच्चारण करते हुए भगवान षिव से कहते हैं कि जिस प्रकार आपने देव कहकर एक दैत्य प्रकट किया है, उसका वध भी आप हीं करेंगे और सभी त्रिदेव अपने- अपने स्थान पर चले जाते हैं। उधर नम्ब्रासूर से प्रभावित होकर अष्चरासुर पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप करता है। उसके तपस्या से सफल होने के पश्चात् पितामह श्री ब्रहा्राजी वरदान देते है और कहते हैं कि इस समस्त चराचर मंे तुम्हारा अधिकार होगा और एक ‘‘महापास्त्र’’ देते हुए कहा कि तुम दस भुजाओं वाले देव अथवा देवी का सर्वनाष कर सकते हो, लेकिन इस ‘‘महापास्त्र’’ का प्रयोग एक हीं बार कर सकते हो, तत्पष्चात पितामह श्री ब्रहा्राजी चले जाते हैं। वरदान प्राप्त करने के बाद अष्चरासूर समस्त धरती के सभी मानव, ऋषि, स्वर्गलोक पर अधिकार कर लेता है, देवराज इन्द्र और सभी देवगणों को दुःखी देखकर श्री हरि विष्णु अष्चरासूर से युद्ध करने जाते है लेकिन उसके हाथ में ‘‘महापास्त्र’’ को देखकर वापस लौट जाते हैं और स्वयं को विफल कहते हैं। चुँकि पितामह श्री ब्रहा्राजी के कथनानुसार ‘‘अष्चरासुर का वध भगवान षिव हीं करेंगे’’, भगवान षिव भी स्वयं को दस भुजाआंे में प्रकट कर अपने बसहा बैल पर सवार होकर युद्ध भूमि में चले जाते हैं। दस भुजाओं ववाले भगवान षिव को देखकर अष्चरासूर संभल जाता है और भयंकर युद्ध के बाद वह ‘‘महापास्त्र’’ का प्रयोग भगवान षिव पर करता है। जिससे भगवान षिव वायु मंे विलिन हो जाते हैं और अष्चरासूर की जीत होती है। भगवान षिव के इस दषा को देखकर माता पार्वती भी स्वयं को अग्नी में सति कर लेती हैं। इधर अष्चरासूर का अत्याचार तथैव चरम पर पहूँच जाता है। चुँकि भगवान षिव और माता पार्वती शक्ति स्वरूप मंे वायु मंे भ्रमण करते रहते हैं तथा पितामह श्री ब्रहा्राजी के आदेष पर वृष्चा ऋषि का जन्म होता है। पितामह श्री ब्रहा्राजी के उच्चारणानुसार महर्षि नारद भगवान षिव के खोज में निकल जाते है, जहाँ उनका जन्म होता है लेकिन भगवान षिव उन्हें कहीं नजर नहीं आते हैं। इधर माता पार्वती का जन्म पर्वत राज हिमालय के वंषज महाराज सत्यश्रेष्ठ और महारानी श्रुष्तृ के घर होता है और महाराज सत्यश्रेष्ठ ने अपने हीं नाम पर पुनः उनका नाम सत्ययी रखा।
उधर भगवान षिव का नाम स्वयं ऋषि वृष्चा ने कैलाषपति रखा। कैलाषपति बचपन से हीं बड़ बुद्धिमान और चतुर थे और शायद इसलिए उन्हें ऋषि वृष्चा ने अपने षिष्यों मंे श्रेष्ठ रखा। इधर माता पार्वती भी सत्ययी स्वरूप में अपने बाल अवस्था में हीं थी और उनकी षिक्षा - दीक्षा के लिए वृष्चा ऋषि को हीं नियुक्त किया गया, जो परम्परिक ढंग से चलता रहा। भगवान कैलाषपति के बढ़ते उम्र के साथ उनका त्रिनेत्र भी बढ़ता है जो वृष्चा ऋषि और उनकी माता कनिका के लिए चिंतनीय था। महर्षि नारद भगवान कैलाषपति को उनके त्रिनेत्र से पहचान जाते हैं और वे वृष्चा ऋषि और कनिका को अवगत कराते हैं कि वे भगवान षिव के अवतार हैं जो उनके त्रिनेत्र से पता चलता है, इनके त्रिनेत्र को को समस्या का स्वरूप न दें। उधर पितामह श्री ब्रहा्राजी महर्षि नारद से कहते हैं कि पर्वतराज हिमालय के वंषज महाराज सत्यश्रेष्ठ और महारानी श्रृष्तृ के राजमहल में शक्ति स्वरूपा पार्वती का अवतार हुआ है जिनका नया नाम पुनः ‘‘सत्ययी’’ रखा गया है। इधर अष्चरासुर के दैत्यों ने काफी उत्पात मचा रखा था और कैलाषपति के किषोरावस्था में पहूँचते हीं उनका सामना अष्चरासूर के दैत्यों से होता है जिन्हें कैलाषपति अपने त्रिनेत्र सें ही जलाकर भष्म कर देते हैं।
एक समय की बात है वृष्चा ऋषि संग कैलाषपति का आगमन महाराज सत्यश्रेष्ठ के राजमहल में होता है जहाँ राजकुमारी सत्ययी षिक्षा पाने के लिए स्वयं को स्थापित किए रहती हैं और षिक्षा प्राप्ति के दौरान कैलाषपति के वचनों से प्रभावित हो जाती हैं तथा नित्य कैलाषपति के आगमन का इंतजार करती हैं जो सदैव अपने पिता वृष्चा ऋषि संग ही आते हैं। इस प्रकार समय बीतता है और वृष्चा ऋषि के अस्वस्थ्य होने के कारण कैलाषपति अकेले हीं राजकुमारी सत्ययी को अंतिम संदेष देने जाते हैं कि उनकी षिक्षा पूर्ण हो चुकी है, लेकिन राजकुमारी सत्ययी और कैलाषपति की शक्तियाँ एक-दूसरे को पहचान जाती है और प्रभावित भी करती हैं तथा इस प्रकार राजकुमारी सत्ययी, कैलाषपति के समक्ष उद्यान भ्रमण का प्रस्ताव रखती हैं और भ्रमण करते हुए कैलाषपति के समक्ष एक कथन कहती है कि ‘‘षब्द हीं सब होते है, शब्दों को कैसे व्याख्यित करें?’’, राजकुमारी सत्ययी के इस वाक्य को सुनकर कैलाषपति भी अपने हीं शब्दों में कहते हैं कि ‘‘षब्दों का क्या है? ये तो उच्चारण मात्र हैं, आप तो ऐसे कह रहीं हैं जैसे ये कोई कथन नहीं, एक प्रहार हो। राजकुमारी सत्ययी ने कैलाषपति के बातों को गंभीरता से लेते हुए कहा कि ‘‘मैं स्वयं को प्रमाणित करती हूँ कि मैं आपके कथनानुसार कर्म करूँगी’’। राजकुमारी सत्ययी की इस वार्ता को सुनकर कैलाषपति ने अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं एक ऋषि का पुत्र आपके समक्ष मेरी कोई पहचान नहीं है, अच्छा होगा आप अपने पिताश्री के कथनानुसार चलें। राजकुमारी सत्ययी वहाँ से दुःखी होकर चली जाती है, महर्षि नारद इस दृष्य को देखकर चिंतित हो जाते हैं और पुनः उक्त बातों से पितामह श्री ब्रहा्राजी से अवगत करवाते हैं तथा इस समस्या के समाधान हेतु वे श्री हरि विष्णु का चयन करते हैं। श्री हरि विष्णु भी अपना सुझाव देते हुए बोले कि भगवान षिव को षिवलोक में लाकर हीं माता सत्ययी का आगमन संभव है तथा इस कार्य हेतु वे ऋषि के स्वरूप में ज्ञान परिक्षण हेतु कैलाषपति के समक्ष उपस्थित होते हैं तथा भगवान षिव के सभी शक्तियों का अव्ह्ान करते हैं। देखते हीं देखते कैलाषपति सषस्त्र दस भुजाआंे में प्रकट हो जाते हैं तथा उन्हंे पिछली बातें भी याद आ जाती है। तब श्री हरि विष्णु भी स्वयं को चर्तुभूजी रूप में प्रस्तुत करते हैं तथा भगवान षिव को षिवलोक चलने के लिए आग्रह करते हैं। भगवान षिव भी अपने पिता वृष्चा ऋषि और माता कनिका से विदा लेते हैं तथा षिवलोक की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। उधर अष्चरासूर का आतंक चरम सीमा पर रहता है, देवराज इन्द्र समेत सारे देवता वन मंे भटकते रहते हैं। पितामह श्री ब्रहा्राजी और श्री हरि विष्णु, भगवान षिव से माता सत्ययी को लाने की बात करते हैं, इस बात पर भगवान षिव कहते हैं कि अष्चरासूर के वध के बाद हीं सत्ययी का आगमन होगा। उसके बाद भगवान षिव सशस्त्र दस भुजाओं में अपने बसहा बैल पर षिवगण सहित आकाषमार्ग में अष्चरासुर के साथ भयंकर युद्ध करते हैं, अष्चरासूर को सषस्त्र ‘‘महापास्त्र’’ की कमी महसूस होती है और अंततः भगवान षिव अपने अमोघ शस्त्र से अष्चरासूर का वध कर देते हैं। उसके बाद पितामह श्री ब्रहा्राजी और स्वयं श्री हरि विष्णु, भगवान षिव के संबंधित माता सत्ययी का संबंध लाने जाते हैं और अतीत की बातों को समझते हुए महाराज सत्यश्रेष्ठ और महारानी श्रुष्तृ को खुषी होती है और पुनः भगवान षिव और माता सत्ययी का विवाह सम्पन्न हो जाता है।
श्री हरि विष्णु आगे कि एक कथा सुनाते हुए अषीष से कहते हैं कि एक समय की बात है भ्रष्णासूर नामक एक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप किया और और पितामह श्री ब्रहा्राजी ने वरदान देते हुए कहा कि जिस आवष्यकती की पूर्ति हेतु समस्त चराचर नीत कर्म करते हैं अर्थात तुम्हें इसके लिए कर्म करने की आवष्यकता नहीं होगी और इस दौरान तुम्हें देव अथवा त्रिदेव भी बाधित नहीं करेंगे। तूम समस्त संसार का सुख अपनी इच्छानुसार प्राप्त कर सकोगे परन्तु संसार के समस्त जीवों पर तुम्हारा अधिकार नहीं होगा अर्थात तुम संसार के समस्त जीवों से भयमुक्त नहीं हो। भ्रष्णासूर इस वरदान को प्राप्त कर अट्ठ्ाहस करते हुए पितामह श्री ब्रहा्राजी से कहा कि जब देव अथवा त्रिदेव भी हमारे सुख सूविधा को बाधित नही ंकर सकते हैं तब हमें जीवों से क्या भय होगा और तब भ्रष्णासूर पहले स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान करता है तथा देवराज इन्द्र की भाँति स्वर्ग मे ंहीं अपना एक शाखा देवों के समान दैत्यों के लिए तैयार करता है जहाँ देव के स्थान पर दैत्य पदस्थापित होते है और देवगुरू वृहस्पति के स्थान पर दैत्यगुरू शुक्राचार्य होते हैं और ये शाखा समस्त संसार में उपस्थित समस्त असूरों के लिए होता है। दैत्यगुरू शुक्राचार्य के कथनानुसार भ्रष्णासूर पाताललोक में उपस्थित समस्त असूरों को धरती पर आने के लिए कहता है तथा धरती पर कुछ दैत्यों को लाया जा चुका होता है जिससे देवराज इन्द्र सहित सभी देव और देवगुरू वृहस्पति स्वयं को असहज महसूस करते हैं। इधर भ्रष्णासूर असूरों का आगमन जारी रखता है। देवराज इन्द्र के अनुरोध पर देवगुरू वृहस्पति, दैत्यगुरू शुक्राचार्य से मिलते हैं और उनकी क्रियाओं पर असंतोष व्यक्त करते हैं। इस बात को सुन कर दैत्यगुरू शुक्राचार्य दोहराते हुए कहते हैं कि पितामह श्री ब्रहा्राजी ने दैत्यराज भ्रष्णासूर को वरदान दिया है कि उनकी आवष्यकतों कि पूर्ति में देव अथवा त्रिदेव भी बाधित नही ंकर सकते हैं और यह जो किया जा रहा है यह भी दैत्यराज भ्रष्णासूर की एक आवष्यकता हीं है। दैत्यगुरू शुक्राचार्य की बातों को सुन कर देवगुरू वृहस्पति अपना लज्जित होकर वापस चले आते हैं। विवष होकर देवराज इन्द्र भगवान षिव के समक्ष जाते हैं और उपरोक्त बातों को दूहराते हैं। देवराज इन्द्र की बातों को सून कर भगवान षिव भी दैत्यगुरू शुक्राचार्य के द्वारा कहे गए बातों को स्वीकार करते हैं तथा भगवान षिव आगे कहते हैं कि पितामह श्री ब्रहा्राजी के इस वरदान से आगे कोई असूर उनका तपस्या नहीं करेगा। उचित यही होगा कि आप अपनी शाखा में तथा उन्हें उनकी शाखा में रहने दें। देवराज इन्द्र को भगवान षिव से निराष प्राप्त होता है और वे पूनः स्वर्गलोक वापस लौट जाते हैं। अंततः समस्त देवगण सहित देवराज इन्द्र श्री हरि विष्णु के समक्ष उपस्थित होते है लेकिन श्री हरि विष्णु के न होने पर उनकी वंदना करते है और तब श्री हरि विष्णु प्रकट होते है, देवगण सहित देवराज इन्द्र अपनी विपदा को व्याख्यित करते हैं। श्री हरि विष्णु ने कहा कि भ्रष्णासूर का अंत पितामह श्री ब्रहा्राजी के वरदान अनुसार एक जीव ही कर सकता है और इस कार्य में आपका सहयोग शेषनाग हीं कर सकते हैं। देवराज इन्द्र श्री हरि विष्णु की बातों को सुनकर उनका नमन करते है तथा नागलोक की ओर प्रस्थान करते हैं, जहाँ शेषनाग अपने महल में हीं उपस्थित होते हैं। देवराज इन्द्र की बातों को सुनकर शेषनाग उनकी हर संभव मदद करने को तैयार हो जाते हैं तथा शेषनाग के संचालन मंे देवराज इन्द्र और भ्रष्णासूर के मध्य युद्ध होता है जिसमें देवराज इन्द्र विफल होते हैं तथा भागने लगते हैं लेकिन समय पर शेषनाग कि उपस्थिति के कारण वे भ्रष्णासूर के समक्ष युद्ध के लिए आते हैं। शेषनाग को देखते हीं भ्रष्णासूर उनपर प्रहार करता है जिससे क्रोधित होकर शेषनाग अपना भयावह नागस्वरूप प्रकट करते है और भ्रष्णासूर को निगल जाते है और इस प्रकार भ्रष्णासूर का अंत हो जाता है।
अशीष को एक देवयुगीन कथा सुनाते हुए श्री हरि विष्णु ने कहा कि एक समय की बात है मै स्वयं शेषनाग पर अत्यंत क्रोधित हुआ और मैं उस दौरान शेषनाग पर अपना सुदर्षन भी उठा देते हैं लेकिन देवी लक्ष्मी द्वारा क्रोध का त्याग करने की बात कहने पर हमारे क्रोध के रूप मंे एक दैत्य प्रकट हुआ, जिसे मैंने विष्श्रारसूर कह कर संबोधित किया और कहा कि आप पितामह श्री ब्रहा्राजी से अर्षिवाद प्राप्त करंे। विष्श्रारसूर ने पितामह श्री ब्रहा्राजी की तपस्या किया और पितामह ने उसे वरदान दिया कि जिस क्षण तुम किसी की समर्थता को खण्डित करोगे उसी क्षण उसका राजभोग का अंत हो जाएगा। तथा जिस क्षण तुम किसी नारी का मोह भंग करोगे उसी क्षण तुम्हे त्रिलोक प्राप्त होगा और जिस क्षण तुम किसी दासिनी समान नारी का लासा करोगे वहीं नारी तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगी। विष्श्रारसूर को वरदानित कर पितामह श्री ब्रहा्राजी चले जाते हैं और विष्श्रारसूर सुझ बुझ कर अपने राजमहल मे ंहीं राजभोग करना आरंभ कर देता है। वह अपनी भार्या को अपने समान हीं समझता था तथा उससे प्रेम भी बहुत करता था। अगर उसकी भार्या दिन को रात और रात को दिन कहती थी तो वह भी वैसा हीं करता था। एक समय की बात है विष्श्रारसूर के राजमहल में दैत्यगुरू शुक्राचार्य का आगमन होता है और वे विष्श्रारसूर के भार्या प्रेम को देखकर अचंभित होते है तथा विचारण ही उच्चारण करते हैं कि विष्श्रारसूर जिस प्रकार तुम अपनी भार्या प्रेम में लिप्त हो एक दिन ऐसा आएगा कि समस्त असूरवंष नारी प्रेम में फँसकर पाताल लोक का भी अधिकार खो देंगे। इतना कहकर दैत्यगुरू शुक्राचार्य अपने आश्रम में लौट जाते हैं। विष्श्रारसूर, दैत्यगुरू शुक्राचार्य के बातों से प्रभावित होता है और वह पुनः दैत्यगुरू शुक्राचार्य से मिलने उनके आश्रम चला जाता है। विष्श्रारसूर को अपने आश्रम में देखकर दैत्यगुरू शुक्राचार्य को बहुत खुषी होती है और वे विष्श्रारसूर को कठोर शब्दों में समझाते हुए कहते है कि जिस प्रकार तुम अपनी भार्या प्रेम से संबंध बनाए रखे हो अगर मैं तुम्हारी तरह होता तो शायद आज तूम और असूर जाति नहीं होते। दैत्युगुरू शुक्राचार्य की बातों को सुनकर विष्श्रारसूर हाथ जोड़ते हुए क्षमा मांगता है और आगे के कार्य सिद्धि हेतु आदेष मांगता है। शुक्राचार्य विष्श्रारसूर के मनोस्थिति को देखते हुए गंभीरता पूर्वक बोलते हैं कि जिस प्रकार तुम्हें पितामह श्री ब्रहा्राजी से वरदान प्राप्त हुआ है तुम्हे समस्त त्रिलोक का स्वामी होना चाहिए, लेकिन तुम अपनी भार्या संग राजमहल तक ही सिमित हो। विष्श्रारसूर शुक्राचार्य की बातों से प्रभावित होता है और पूनः अपने राजमहल लौट जाता है तथा दिनों - दिन अपनी भार्या से अलग हो जाता है, यहाँ तक कि वह अपनी भार्या को एक तुच्छ दासी के तरह सम्मान देने लगता है। विष्श्रारसूर अपने बल पर ही असूर लोक पर अधिकार कर लेता है तथा इस प्रकार वह समस्त असूरों के बल पर स्वर्ग लोक सहित त्रिलोक पर भी अच्छादित अर्थात छा जाता है। देवराज इन्द्र सहित समस्त देवगण वन में भटकने पर मजबूर हो जाते हैं तो वहीं श्री हरि विष्णु को भी माता लक्ष्मी संग नागलोक में विस्थापित होना पड़ जाता है। भगवान सहित माता सत्ययी भी विष्श्रारसूर के बंधक बन जाते हैं। विष्श्रारसूर भी भवगवान षिव को स्वर्गलोक में ही चाकर समान रखता है वहीं माता सत्ययी भी दासिनी बनकर रह जाती है। समस्त त्रिलोक में विष्श्रारसूर का अधिकार हो जाता है वहीं शुक्राचार्य का आश्रम भी षिवलोक हो जाता है। एक समय की बात है चुकि विष्श्रारसूर की दासिनी मात सत्ययी ही थी और उस विष्मय परिस्थिति में माता सत्ययी विष्श्रारसूर की शयन कक्ष की सफाई कर रही थी, उधर भगवान षिव भी विष्श्रारसूर के लिए भोजन तैयार करते थे। शयन कक्ष मंे विष्श्रारसूर का आगमन होता है जहाँ माता सत्ययी व्यस्त रूप में कक्ष के दीवार को सजा रही थी, विष्श्रारसूर की नेत्र माता सत्ययी के व्यस्त अवस्था पर पड़ता है और वह वासना विभूत हो जाता है तथा माता सत्ययी को अपनी ओर खिंचता है माता सत्ययी चिखते हुए उसे धक्का देती हैं और अपना शक्ति स्वरूप दिखाती हैं जिसे देखकर विष्श्रारसूर डर जाता है और भागने लगता है। माता शक्ति स्वरूपा उसका पीछा करते हुए स्वर्गलोक के बाहर तक आती हैं और अपने त्रिनेत्र की अग्नी से विष्श्रारसूर को जलाकर राख कर देती हैं तथा इस प्रकार विष्श्रारसूर का अंत हो जाता है।
श्री हरि विष्णु ने अषीष को एक कथा सुनाते हुए कहा कि एक समय की बात है निष्काचनसूर ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप किया तथा पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उसे वरदान देते हुए कहा कि जिस समय पर्वक्षेत पर्वत से सूर्य का उदय होगा उसी क्षण एक देव के हाथों तुम्हारी मृत्यु होगी। वरदान प्राप्ति के बाद निष्काचनसूर यह भूल बैठा कि उसकी कभी मृत्यू भी होगी क्यों कि सूर्य का उदय स्वर्गलोक की ओर से होता था और पर्वक्षेत पर्वत दक्षिण-पूर्व की ओर पड़ता था। निष्काचनसूर अन्य दैत्यों कि भाँति मानव जाति, ऋषियों, देव सहित देवराज इन्द्र को भी प्रताड़ित किया। धरती के गर्भ में उपस्थित नागलोक को भी अपने अधिकार मे ंकर लिया। सभी नाग प्रजाती भी त्रस्त थे, कुछ समय के लिए शेषनाग को भी बैकुण्ठ लोक में निवास करना पड़ा। अपनी शक्ति के बल पर निष्काचनसूर ने षिवलोक में उपस्थित एक पर्वत श्रृंखला पर्वतांक जहाँ माता सत्ययी भगवान षिव संग अक्सर मनोरंजन करने हेतु भ्रमण करती थी उसे भी विस्थापित करके श्री हरि विष्णु के विश्राम स्थल पर स्थानान्तरित कर दिया। निष्काचनसूर के इस विवेक को देखकर श्री हरि विष्णु ने उससे कहा कि जिस प्रकार आपने पर्वत श्रृंखला पर्वतांक को विस्थापित किया है उसी प्रकार पर्वक्षेत पर्वत को विस्थापित करके स्वर्गलोक के स्थान पर लें आए और स्वर्गलोक को दक्षिण दिषा मे ंहीं स्थापित कर दें इससे आप असूरों को स्वर्ग भ्रमण करने मंे कठिनाई न हो। श्री हरि विष्णु के कथनानूसार भ्रम में पड़कर निष्काचनसूर ने स्वर्गलोक को दक्षिण दिषा में विस्थापित कर देता है तथा स्वर्गलोक के स्थान पर पर्वक्षेत पर्वत को। इस प्रकार विस्थापन के उपरान्त पर्वक्षेत पर्वत से ही सूर्य का उदय होता है। सूर्योदय होते हीं श्री हरि विष्णु के इषारे पर देवराज इन्द्र के हाथों निष्काचनसूर का वध हो जाता है।
अशीष को एक कथा सूनाते हुए श्री हरि विष्णु ने कहा कि एक समय की बात है विष्यासूर नामक एक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप किया और पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उसे वरदान देते हुए कहा कि जिस समय तुम्हारी मृत्यू होगी वह समय सूर्य तथा चन्द्र एक दूसरे के समानान्तरण होंगे तथा उसी क्षण आकाष में जब पिष्चा धुम (तारा) विवस्थापित होकर अन्यत्र चला जाएगा तब तुम्हारी मृत्यु होगी और इस प्रकार विष्यासूर स्वयं को अमर हीं समझता है। पितामह श्री ब्रहा्राजी के जाने के बाद विष्यासूर स्वयं को त्रिलोक का स्वामी बताता है और इस हेतु भगवान षिव और श्री हरि विष्णु के समक्ष अपनी बातों को रखता है। षिवलोक में श्री हरि विष्णु संग भगवान षिव अचंभित थे तथा उच्चारणार्थ एक ही बात दूहरा रहे थे कि आप हमारे षिवलोक में निवास कर सकते है लेकिन श्री हरि विष्णु इस बात को स्वीकार नही ंकर रहे थे कि विष्यासूर उनके संग बैकुण्ठ लोक में रहे। विष्यासूर एक पैनी नेत्र से भगवान षिव को देखता है और उनके लाचारी को देखते हुए दोनों देवों के समक्ष एक संदेष रखता है और कहता है कि मेरा आगमन किसी भी समय और किसी भी लोक में हो सकता है तथा आप सभी हमारे सत्कार हेतु तैयार रहंेगे। अपने सत्कार हेतु अगर हम आपकी भार्या की भी कामना करते हैं तो आपको स्वीकार करना होगा। इतना कहकर विष्यासूर पूनः अपने लोक में चला जाता है। विष्यासूर के वाता को सून कर भगवान षिव संग श्री हरि विष्णु परेषान थे तथा पितामह श्री ब्रहा्राजी को दोष देते हुए कहे जा रहे थे कि इस प्रकार दैत्यों को वरदानित कर हमारी किस परिस्थिति से वे अवगत होना चाहते हैं। इधर देवी लक्ष्मी, माता सत्ययी और माता सरस्वती भी परेषान थी। पितामह श्री ब्रहा्राजी, महर्षि नारद से कहलवाया कि सूर्य-चन्द्र को समानान्तर होने में काफी समय लगेगा तब कि विष्यासूर के सत्कार में कोई कमी न रखें, तथा देवियों को लांझन से बचाने हेतु स्वयं को नारी का स्वरूप दें तथा उसके संग प्रेम - प्रलाप करें। पितामह श्री ब्रहा्राजी की बातों को जान कर श्री हरि विष्णु समझ गए कि अब उन्हें नारी स्वरूप में ही रहना होगा तथा देवी लक्ष्मी संग माता सत्ययी को शेषनाग के लोक में भेज दिया। महर्षि नारद की भाँति, विष्यासूर भी षिवलोक और बैकुण्ठ लोक के चक्कर काटने लगा तथा सत्कार में कोई कमी न हो इसके लिए भगवान षिव अपने हीं लोक में चाकरी करने लगे। श्री हरि विष्णु नारी स्वरूप को अपना कर वे स्वयं का स्वरूप भूल चुके थे। अंततः सूर्य तथा चन्द्र को समानान्तर होते हीं माता गंगा के द्वारा पिष्चा धुम (तारा) को विस्थापित कर दिया जाता है इस अवस्था में धरती पर घोर अंधकार हो जाता है, जिससे पिष्चा तारा पूर्णरूपेण विस्थापित होते दिखाई देती है। इस अवस्था का लाभ उठाते हुए भगवान षिव अपने ही त्रिनेत्र से विष्यासूर को जलाकर भष्म कर देते हैं। पितामह श्री ब्रहा्राजी द्वारा पूछे जाने पर कि पिष्चा धुम (तारा) किसके द्वारा विस्थापित किया गया तब माता गंगा मायुस होते हुए कहती है कि हमें इन देवों की हालत नहीं देखा जाता था इस कारण पिष्चा धुम (तारा) को समय देखकर हमने ही अपने दिव्य शक्ति से विस्थापित किया था।
श्री हरि विष्णु अषीष को एक कथा सूनाते हुए कहते हैं कि निषाचनसूर नामक एक असूर ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप किया, पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उसे वरदान देते हुए कहा कि तुम्हारा नाम निषाचनसूर है अर्था तुम रात्रि पहर में मानव, देव, असूर हर किसी पर अपना विजय पताका लहरा सकते हो, परन्तु कोई विनती पूर्वक तुम्हारा दास होना स्वीकार करे तो तुम उसका प्राण हानि मत करना तथा दिन में तुम त्रिदेव पर भी विजय प्राप्त कर सकते हो लेकिन अर्ध पहर अथवा दोपहर के बाद तुम्हारी शक्ति घट जाएगी। इस अवस्था को याद रखना तथा अपना आयु बढ़ाना। उक्त बातों को सूनकर निषाचनसूर पितामह श्री ब्रहाजी को परम नमन करके अपने लोक की ओर लौट गया। इधर पितामह श्री ब्रहा्राजी भी चले आए। निषाचरसूर रात्रि पहर में ही कुछ दैत्यों को साथ लेकर पाताल लोक से धरती कि ओर गमन करने लगा तथा रास्ते में हाने वाले विरोधी दैत्यों पर विजय प्राप्त करते हुए धरत पर उपस्थित ऋषियों को त्रस्त किया, कुछ ऋषि निषाचनसूर की दासत्व को स्वीकार कर उसकी अराधना करने लगे तो कुछ को निषाचनसूर ने वध कर दिया और इस प्रकार निषाचनसूर का आगमन स्वर्गलोक तक हो जाता है। देवराज इन्द्र रात्रि पहर मे ंहीं निषाचनसूर का सामना करने निकल जाते हैं तथा युद्ध के उपरान्त ही देवराज इन्द्र निषाचनसूर से हार स्वीकार कर लेते हैं तथा स्वर्गलोक का त्याग कर देते हैं। स्वर्गलोक पर निषाचनसूर का अधिकार हो जाता है, निषासनसूर नित्य रात्रि पहर में धरती पर भ्रमण करता है तथा भ्रमण के दौरान एक बार षिवलोक पर भी अपना नेत्र डालता है। उस समय माता सत्ययी, भगवान षिव के साथ समस्त संसार का भ्रमण कर रही थी। तभी निषाचनसूर ने उनदोनों को सावधान करते हुए कहा कि समस्त धरती पर मेरा अधिकार है और बिना मेरे आदेष के तुमलोग संसार का नेत्र भ्रमण नही ंकर सकती हो, निषाचनसूर के इस वार्ता को सूनकर माता सत्ययी पहले तो क्रोधित हो जाती है, उसके बाद वे भगवान षिव से कहती है कि किस दुष्ट ने हमें संसारिक नेत्र भ्रमण करने के लिए हमें आदेष देने का दुःस्साहस किया। माता सत्ययी के उक्त बातों को सुनकर भगवान षिव अपने निवास स्थल से बाहर आते हैं तो पाया कि निषाचनसूर षिवलोक पर ही भ्रमण कर रहा है। भगवान षिव को देखकर निषाचनसूर अट्ठाह्स करने लगा और कहा कि हमारे आदेष के बगैर तुम अपने निवास से बाहर कैसे आए? इस वार्ता को सूनकर भगवान षिव पुनः अपने निवास कि ओर प्रस्थान कर गए और माता सत्ययी से कहा कि ये निषाचनसूर हमें युद्ध के लिए प्रेरित कर रहा है और तुम निषाचनसूर को जीवन का अवसर दे रही हो। माता सत्ययी पुनः चिल्लायी, दुष्ट अपने इस दुःस्साहस का अर्थ समझ सकते हो, माता सत्ययी के इस वाता को सुनकर निषाचनसूर शस्त्र प्रयोग कर षिवगणों का प्राण हानि करता है। निषाचनसूर के इस कुकृत को देखकर माता सत्ययी अपना कालरात्रि स्वरूप प्रकट करती है जिसकी शक्ति अंधेरे में भी दुगुनी होती है और अपने खड़ग से षिवलोक में ही निषाचनसूर का वध कर देतीं है और इस प्रकार निषाचनसूर का भी अंत हो जाता है।
श्री हरि विष्णु अषीष को एक कथा सुनाते हुए कहते हैं कि एक समय की बात है भष्णासूर ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप किया तथा पितामह श्री ब्रहा्राजी ने भष्णासूर को वरदान देते हुए कहा कि इस समस्त सृष्टि में तुम जैसा कोई असूर नहीं है। तुम जब चाहे तब पाताललोक से धरातल लोक पर आवागमन कर सकते हो। तत्पष्चात उन्होंने आगे कहा कि पाताललोक के समस्त असूर तथा धरती लोक के समस्त मानवों पर स्वयं का प्रभूत्व स्थापित करते हुए स्वर्गलोक संग त्रिदेव पर भी अजेय रहोगे। परन्तु किसी भी रंक प्राणी पर अपना प्रभुत्व लाना चाहोगे तो वही तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा। इतना कहकर पितामह श्री ब्रहा्राजी चले जाते हैं। भष्णासूर भी खुषीपूर्वक पाताललोक चला जाता है। वहाँ पहूँच कर समस्त दैत्यों को अपना परिचय देता है तथा उच्चारित करता है कि आपलोग किसी प्रकार के भ्रम में न रहें, मैं धरालोक, स्वर्गलोक, त्रिलोक और इस पाताललोक का भी स्वामी हूँ। इतना कहकर वह समस्त लोकों का विजेता बनने हेतु समस्त दैत्यों सहिम मानवता को नुकसान करते हुए धरती पर अपना अधिकार कर लेता है जिसमे समस्त धरा के ऋषि-मुनि भी थी। तत्पष्चात वह स्वर्गलोक सहित त्रिलोक पर भी अधिकार कर लेता है। भगवान षिव सहित सभी षिवगण भष्णासूर के दासत्व को स्वीकार कर लेते हैं। माता सत्ययी अपने सखियों संग षिवलोक का त्याग कर देती है और धरालोक से बाहर रसातल में अपना निवास बनाती है वही श्री हरि विष्णु भी भष्णासूर से युद्ध करते हुए अपना पराजय स्वीकार करते हैं। यहाँ तक की श्री हरि विष्णु को बैकुण्ठ लाक का भी त्याग करना पड़ता है तथा वे एक रंक की भाँति धरा पर ही विचरण करते हैं। समस्त लोकों पर भष्णासूर का प्रकोप था, सभी त्रस्त थे। देवराज इन्द्र सहित समस्त देव वन-वन भटकते हुए रसातल की ओर चले जाते हैं जहा माता सत्ययी शक्ति स्वरूप में बैठी अपनी शक्तियों से संसार भ्रमण कर रहीं थी वहीं उनकी सखियाँ माता सत्ययी की सेवा में तत्पर थी। रसातल में पहूँचकर देवराज इन्द्र जब माता सत्ययी को शक्ति स्वरूप में देखते है तो उन्हें खुषी होती है तथा वे माता दुर्गा के धरा लोक में उपस्थित कष्ट से परिचित करवाते हैं, इस पर माता हँसते हुए कहती हैं कि भष्णासूर का अंत कोई रंक ही कर सकता हैं इसलिए आप धर पर उपस्थित किसी रंक की खोज करें जो देव भी हो और भष्णासूर का अंत कर सके। इधर श्री हरि विष्णु एक रंक की भाँति मुनिवेष में धरा पर हीं अपने शेषनाग और माता लक्ष्मी संग एक आश्रम में निवास कर रहे थे। एक समय की बात है भष्णासूर, भगवान षिव संग जो कि भष्णासूर के दास थे, धरती भ्रमण करने निकलें। रास्ते में श्री हरि विष्णु का आश्रम आता है जिसे देखकर भष्णासूर भ्रम में पड़ जाता है और कहता है कि समस्त ऋषियों के आश्रम की भाँति ये आश्रम अलग क्यों है? इसकी अलौकिकता तो स्वर्गलोक तथा बैकुण्ठ लोक को भी विफल कर देती है। भष्णासूर के इस वार्ता को सुनकर भगवान षिव ने सलाह देते हुए कहा कि हमें इस आश्रम के स्वामी से मिलना चाहिए। प्रतिउत्तर में भष्णासूर क्रोधित होते हुए कहा कि शायद यहा के ऋषि हमारे प्रभूत्व मंे नहीं है, पहले हम उसे दण्डित करते हुए उसे अपने प्रभूत्व में लाएंगे तत्पष्चात आश्रम पर अधिकार करते हुए इस आश्रम के स्वामी को यहाँ से खदेड़ देंगे। भष्णासूर संग भगवान षिव आकाष मार्ग से धरा पर आश्रम के समीप उतरते हैं जहाँ श्री हरि विष्णु मुनिवेष में ही ध्यान लगाए बैठे थे। भष्णासूर के क्रोधात्मक आवाज को सून कर श्री हरि विष्णु का ध्यान टूट जाता है। इसके प्रतिरोध में श्री हरि विष्णु भी भष्णासूर को सावधान होने के लिए कहते हैं। श्री हरि विष्णु के इस वार्ता को सुनकर भष्णासूर प्रथम प्रहार करता है, प्रतिउत्तर में श्री हरि विष्णु ने अपने धनुष-तीर से ही उसके प्रहार को नष्ट कर देते हैं और इस प्रकार आश्रम मे ंहीं दोनों के मध्य भयंकर युद्ध होता है, एक तरफ शेषनाग घायल हो कर मुर्छित हो जाते हैं तो दुसरी तरफ भष्णासूर के सैकड़ो दैत्य मारे जाते हैं। अंततः श्री हरि विष्णु के द्वारा ब्रहा्रास्त्र प्रयोग से भष्णासूर का वध हो जाता है और पुनः सभी अपने त्रिलोक में स्थापित हो जाते हैं।
एक समय की बात है पितामह श्री ब्रहा्राजी ने रूक्ष्रासूर को वरदान देते हुए कहा कि सूर्यास्त के समय अगर तुमने किसी मानव अथवा देव को मृत्यु प्रदान की तो उसी देव अथवा मानव के कारण तुम्हारी मृत्यु होगी। रूक्ष्रासूर इस वरदान को प्राप्त कर अपने राजमहल की ओर पाताल लोक में चला जाता है। वहाँ उसका मिलन एक दैत्य जिसका नाम रूद्रासूर था। उसे रूक्ष्रासूर ने स्वयं को पितामह श्री ब्रहा्राजी के द्वारा वरदानित होने की बात कहीं और यह भी कहा कि एक समय में गलती होने के कारण मेरी मृत्यु होगी अथवा मंै स्वयं अमर हूँ। रूक्ष्रासूर की बातों को सूनकर रूद्रासूर बहुत खुष हुआ और ठहाका लगाते हुए कहा कि अगर तुम अमर हो तो मैं तुम्हे त्रिलोक में विजय प्राप्त करने का भाँति भाँति प्रकार के तरीके बताउँगा और तुम एक दिन विष्णु और इन्द्र की भाँति एक दिन देव बन जाओगे और इस प्रकार दोनों ने मिलकर धरती सहित स्वर्गलोक में भी आतंक मचाया और स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया। देवराज इन्द्र दुखी होकर पितामह श्री ब्रहा्राजी से रूक्ष्रासूर की षिकायत की तो पितामह श्री ब्रहा्राजी ने देवराज इन्द्र को समझाते हुए कहा कि जो सबल है वही स्वर्गलोक पर राज करेगा निर्बलों के लिए स्वर्गलोक स्थापित नहीं किया गया है। पितामह श्री ब्रहा्राजी के उक्त वार्ता को सुनकर देवराज इन्द्र काफी दुःखी हुए और पुनः वे भगवान षिव के समक्ष उपस्थित हुए। देवराज इन्द्र की व्यथा को सुनकर भगवान षिव द्रवित हो उठे और उन्हे अष्वासन दिया कि जल्द ही आप देवगणों को रूक्ष्रासूर के अत्याचार से मुक्ति मिलेगी। भगवान षिव द्वारा प्राप्त आष्वासन के उपरान्त देवराज इन्द्र श्री हरि विष्णु के समक्ष उपस्थित हुए और उक्त बातों को बताया तो श्री हरि विष्णु ने कहा कि अगर आप किसी एक देव प्राणी हानि करेंगे तो आप सभी देवगणों को रूक्ष्रासूर से मुक्ति मिल सकती है। इस बात को सुनकर देवराज इन्द्र सहित देवगुरू वृहस्पति भी आष्चर्यचकित हो गए और आपस में ही वार्ता करने लगे कि आखिर श्री हरि विष्णु ने ऐसा क्यों कहा और हम में से कौन अपना प्राण हानि करवायेगा। काफी विचार करने के बाद देवराज इन्द्र संग सभी देव ने एक उच्चारण में कहा कि हम सभी अपना प्राण हानि करवाने के लिए तैयार है लेकिन रूक्ष्रासूर के अत्याचार में नहीं जीवीत रह सकते हैं। देवों के इस बात को सुनकर श्री हरि विष्णु ने कहा कि ‘‘ठीक है तो आप में से कोई एक देव हमारे साथ नियत स्थान पर प्रकट हो और मैं जैसा कहूँ वैसा ही करें’’ श्री हरि विष्णु के इस वार्ता को सुनकर वरूणदेव ने हँसते हुए कहा कि श्री हरि विष्णु मैं आपके द्वारा बताये गए उक्त स्थान पर चलने को तैयार हूँ तत्पष्चात वरूणदेव श्री हरि विष्णु के संग नियत स्थान पर प्रकट हो गए जहाँ रूक्ष्रासूर स्वयं योगा कर रहा था, उस दृष्य को देखकर श्री हरि विष्णु ने वरूण देव को कहा कि आप उसके कार्य शैली पर चटुकारिता करें और वहाँ से गमन करने का प्रयास करें। श्री हरि विष्णु के उक्त बातों को सुनकर वरूणदेव ने ऐसा हीं किया। क्रोधित होकर रूक्ष्रासूर ने वरूण देव का कुछ दूरी तक पिछा किया और अपने खड़ग के प्रहार से वरूण देव को मृत्युलोक पहूँचा देता है। इस दृष्य को देख कर श्री हरि विष्णु मुनि वेष में आकर रूक्ष्रासूर से षिकायत करते हुए कहा कि, ऐसा क्या दोष था इस देव को जो तुमने इसे मृत्यु दे दी? इस सवाल को सुनते हीं रूक्ष्रासूर ने हँसते हुए कहा कि इसकी मृत्यु के दोष की गणना करने के चक्कर मंे कहीं तुम्हारी मृत्यु न हो जाए। ऐसी बातों को सूनकर श्री हरि ने अपना स्वरूप प्रकट किया और अपने सुदर्षन से रूक्ष्रासूर का वहीं अंत कर दिया।
एक समय की बात है कृप्रारीचसूर नामक एक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप किया और पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उसे वरदान देते हुए कहा कि तुम्हारा नेत्र अगर किसी अनाधिकृत आसन अथवा पद पर गया तो उसी आसन अथवा पद का स्वामी तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा। इस प्रकार के वरदान को प्राप्त कर कृप्रारीचसूर बहुत उमंगित हुआ और वे शुक्राचार्य के समक्ष विचार करने हेतु प्रकट हुआ और पितामह श्री ब्रहा्राजी द्वारा प्राप्त वरदान के बारे में बताया। शुक्राचार्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी के वरदान मंे दोष बताते हुए कहा कि ‘‘ऐसा वरदान प्राप्त करके आपने कोई महानता सिद्ध नहीं किया है, उक्त वरदान के कारण आप अपने नियत स्थान पाताल लोक में हीं निवास करेंगे, आपकी अमरता तो सिद्ध होती है लेकिन साधारण जीवों की भाँति लम्बी आयु अथवा अमरता प्राप्त करने का क्या फल जब हम देवों की भाँति जीवन का उल्लास प्राप्त न कर सके। शुक्राचार्य के उक्त बातों को सुन कर कृप्रारीचसूर ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का पुनः तप करना आरम्भ किया और पितामह श्री ब्रहा्राजी के प्रकट होने के उपरान्त उसने दुःखी शब्दों में हाथ जोड़ते हुए कहा कि ‘‘हे पितामह! हमें आप ऐसा वरदान दे कि मैं समस्त लोक अथवा त्रिलोक, स्वर्गलोक, धरती लोक और पाताल लोक का भी स्वामी बन सकूँ। पितामह श्री ब्रहा्राजी कृप्रारीचसूर के बातों को सुनकर मंद -मंद मुस्कुराए तथा हँसते हुए कहा कि इससे पहले हमने जो वरदान दिया था उसका भी तो यही अर्थ था। बात को न समझते हुए कृप्रारीचसूर ने कहा कि अगर ऐसा है तो आप पुनः मुझे वही वरदान दें और ऐसा करके पितामह श्री ब्रहा्राजी पुनः चले जाते है। कृप्रारीचसूर ने शुक्राचार्य से हँसते हुए कहा कि पितामह श्री ब्रहा्राजी हमंे त्रिलोक स्वामी, स्वर्गलोक स्वामी, धरा लोक स्वामी, और तो और पाताल लोक स्वामी होने के वरदान दिया है अगर मैं उसके स्वामी का आसन अथवा पद का लोभ न रखु तो। इस प्रकार तो उन्होंने हमें समस्त लोकों का स्वामी ही बनाया है। कृप्रारीचसूर के उक्त बातांे को सुनकर शुक्राचार्य ने विचार करते हुए कहा कि तनीक सोंचों अगर आप किसी देव की पद अथवा आसन की बात न करते हुए उसे परास्त करते हैं तो यह गलती ही होगी क्यों कि बिना किसी आसन अथवा पद की चित्रण करते हुए आप या कोई और उक्त देववीर पर आक्रमण कर ही नहीं सकता है। अगर आप आसन और पद का चित्रण करते हैं तो उसी आसन का स्वामी के हाथों आपकी मृत्यु घ्येय है तो ऐसी अवस्था में आपने वरदान कहाँ प्राप्त किया है? शुक्राचार्य के उक्त बातों को सुनकर कृप्रारीचसूर ने पुनः पितामह श्री ब्रहा्राजी का अव्ह्ान किया और वरदान के उक्त दोष को निवारित करने को कहा। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने हँसते हुए वरदान के अर्थ को समझाया और कहा कि ‘‘हे कृप्रारीचसूर! हमने तुम्हें वरदान दिया था कि किसी भी देववीर अथवा देव के आसन और पद की चिंतन करोगे तो वही देव अथवा देववीर तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा जिसका तात्पर्य यह है कि अगर तुम किसी देव अथवा देववीर के पद अथवा आसन का चिंतन किए बगैर उस देव अथवा देववीर को परास्त करते हो तो उक्त आसन अथवा पद का स्वामी तुम हीं होगे, लेकिन अगर तुम उक्त पद अथवा आसन के स्वामी को म्त्यु नहीं दे सके तो वहीं आसन अथवा पद के स्वामी तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा। अब तुम जाओ और पद अथवा आसन का चिंतन किए बगैर त्रिलोक का स्वामी बनो, हमारा यही तुम्हें वरदान है और इतना कहकर पितामह श्री ब्रहा्राजी वहाँ से चले जाते हैं। उक्त बातों को सून कर कृप्रारीचसूर पुनः शुक्राचार्य के पास जाता है और पद अथवा आसन के चिंतन किए बगैर किसी को भी पराजीत कर उसके पद अथवा आसन का स्वामी बनने का अधिकार रूपी वरदान प्राप्त करने की बात कहता है। जिससे शुक्राचार्य बहुत खुष होते है और उसे भाँति भाँति प्रकार से श्री हरि विष्णु और देवराज इन्द्र के विरूद्ध भड़काते है और कृप्रारीचसूर भी उनकी बातों में आकर स्वर्गलोक सहित बैकुण्ठ लोक और षिवलोक में भगवान षिव को भी अपने अधिनता मंे ले आता है। इस प्रकार समस्त लोक में कृप्रारीचसूर का अधिपत्य होता है। सभी देव अपने लोक से हठ कर खोह और कंदराओं में छिप जाते हैं। श्री हरि विष्णु को भी पुनः शेषनाग के लोक में ही अपना आश्रय बनाना पड़ता है। इसी प्रकार समय बीतता जाता है, एक समय की बात है पितामह श्री ब्रहा्राजी का आगमन षिवलोक में भगवान षिव के समक्ष होता है और भगवान षिव भी अपनी अधिनता का निर्वाह करते हुए शयन कक्ष मंे कृप्रारीचसूर की सेवा में तत्पर रहते हैं। इस अवस्था को देखकर पितामह श्री ब्रहाजी ने हँसते हुए कहा कि अगर इस प्रकार देव दैत्यों का सम्मान करें तो भविष्य में कभी भी देवों का हनन अथवा प्रताड़ित नहीं होना पडेगा। पितामह श्री ब्रहा्राजी के द्वार कहीं गई उक्त बातों को सुनकर श्री हरि विष्णु प्रकट होते हुए बोलते हैं कि अगर ऐसा ही है तो हम देवों को कहीं और विस्थापित पर हमारे पद आसन पर दैत्यों को हीं क्यों न स्थापित करते हैं अपितु वरदान देकर इस प्रकार हमें दंडित क्यों करते है। श्री हरि विष्णु की इस वार्ता को सुनकर पितामह श्री ब्रहा्राजी हँसते हुए कहते है कि ये दण्ड नहीं है श्री हरि, यह तो एक क्षण है जो आपको और अन्य देवों को दर्षाता है कि ये दैत्य भी अपका स्वामी बनने के योग्य है। पितामह श्री ब्रहा्राजी के उक्त वार्ता को सुनकर श्री हरि विष्णु रोष प्रकट करते हुए कहते हैं कि अगर यह एक क्षण है तो इसी क्षण मुझे अपने कमंडल के जल से जलाकर भष्म कर दे क्यों कि दैत्यों का सबसे बड़ा शत्रु तो मैं हीं हूँ। श्री हरि विष्णु के उक्त कथन को सुनकर पितामह श्री ब्रहा्रजी हँसते हुए कहते हैं कि हर समस्या का समाधान मृत्यु नहीं होता है, और समस्या से निपटने वाले हीं परम होते हैं। अच्छा यही होगा कि आप अपने मृत्यु का चिंतन करने के बजाय कृप्रारीचसूर के मृत्यु का चिंतन करें और किसी प्रकार छल - बल उसे मृत्यू दें। इतना कहकर पितामह श्री ब्रहा्राजी चले जाते हैं। लेकिन पितामह श्री ब्रहा्राजी के उक्त कथन श्री हरि विष्णु को चुभ जाता है और वे कृप्रारीचसूर के मृत्यु प्रदान करने हेतु भाँति भाँति प्रकार के उपयो मंे समाहित हो जाते हैं।
एक समय की बात है श्री हरि विष्णु भारतवर्ष के दक्षिणी छोर पर एक राजमहल प्रकट करते हैं और वे वहीं आवासित हो जाते हैं लेकिन कृप्रारीचसूर को उक्त महल से काफी आकर्षण होता है और वह महल के स्वामी को तत्परता से वहाँ से जाने को कहता है। श्री हरि विष्णु ने उच्चारण करते हुए कहा कि अगर आपको यह महल ही पसंद है तो कहें, मैं आपको इससे भी सुंदर और भैभवषाली महल आपके लिए तैयार करवाता हूँ। कृप्रारीचसूर ने हँसते हुए कहा कि अगर ऐसा है तो उक्त महल में स्वयं को रखते हुए मेरे लिए नियत समय पर एक महल का निर्माण करो। श्री हरि विष्णु ने हँसते कृप्रारीचसूर के आज्ञा को स्वीकार किया और महल निर्माण में लग जाते हैं लेकिन महल निर्माण मंे काफी विलम्ब होता है जिससे कृप्रारीचसूर काफी नाराज होता है और एक महल के कारण कृप्रारीचसूर श्री हरि विष्णु को प्रताड़ित करता है जिससे नाराज होकर श्री हरि विष्णु अपने सुदर्षन से कृप्रारिचसूर का वध कर देते हैं और इस प्रकार कृप्रारीचसूर का भी वध हो जाता है।
एक समय की बात है पितामह श्री ब्रहा्राजी ने मृगासूर को वरदान देते हुए कहा कि तुम्हारी मृत्यु का कारण एक मृग होगा। इस वरदान को प्राप्त कर मृगासूर अपने आवास की ओर चला जाता है तथा उक्त बातों को अपने गुरू से कहता है, उसके गुरू दैत्यगुरू शुक्राचार्य के षिष्य थे तथा उन्हें अपने षिष्य द्वारा पितामह श्री ब्रहा्राजी से वरदान प्राप्ति पर स्वयं को गौरान्वित महसूस किया तथा अतीषीघ्र वे अपने गुरू शुक्राचार्य के समक्ष चले गये तथा अपने षिष्य को वरदानित होने की बात कहीं। उक्त बातों को सुन कर शुक्राचार्य ने ठहाका लगाते हुए कहा कि उक्त वरदान को प्राप्त कर तम्हारे षिष्य ने कोई निषाना नहीं लगाया है। अरे, विष्णु तो उसे एक मृग स्वरूप मंे आकर ही मृत्यु दे देगा। जाओं, अपने षिष्य से पुनः पितामह का तप करवाओं और उससे कोई ढंग का वरदान प्राप्त करने को कहो। इस वार्ता को सुनकर मृगासूर के गुरू ने वापस आते हीं मृगासूर से कहा कि तुम पुनः पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप करांे और कोई ढंग का वरदान प्राप्त करों, इस प्रकार के वरदान से तुम्हें कोई आयु प्राप्त नहीं हुई है। अपने गुरू की बात को सुनकर मृगासूर ने हँसते हुए कहा कि हे गुरूदेव! अगर हम दैत्यों को एक मृग से भय हो तो हम दैत्यों का अस्तीत्व हीं नहीं है। मुझे और तप नहीं करना मैं इसी वरदान से खुष हूँ। मृगासूर की बात को सुन कर उसके गुरू नें क्रोधित होते हुए उसे अपने आश्रम से निकाल दिया और कहा कि आज से कभी मेरे आश्रम आने की चेष्टा न करना, तुने मेरी आज्ञा का अवहेलना किया है इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि तुम्हारी मृत्यु का कारण एक साधारण मृग ही हो। मृगासूर कुंठित होते हुए वहाँ से चला जाता है। वरदान प्राप्ति के बाद मृगासूर अन्य दैत्यों की भाँति कार्य को संपादित करता है। देव - त्रिदेव सभी उससे त्रस्त हो जाते है। सभी को अपने अपने आवास के लिए भूमि भी कम पड़ जाती है। सभी धरा के भितरी क्षेत्र में निवास करते हैं। सभी जानते हैं कि उसकी मृत्यु का कारण एक साधारण मृग होगा और साधारण मृग भला ऐसे दैत्य का वध कैसे करेगी। देवराज इन्द्र सहित श्री हरि विष्णु भी विचार में फँसे थे। अन्ततः श्री हरि विष्णु को विचार आया कि क्यांे न किसी साधारण मृग के उदर में बैठ कर मृगासूर का अत किया जाय और उन्होंने ऐसा ही किया। एक समय की बात है मृगासूर आखेट कर रहा था आखेट के दौरान एक सुनहरी मृग का षिकार करना आरंभ करता है, इधर श्री हरि विष्णु की नजर मृगासूर के कार्यषैली पर हीं थी, वे उसी स्वर्णमृग के उदर में विराजमान हो जाते हैं। और जैसे हीं मृगासूर उस मृग पर अपना निषाना लगाता है वह मृग स्वयं को बचाते हुए मृगासूर की तरफ हीं भागने लगता है। मृग की ऐसी तिव्रता को देखकर मृगासूर आष्चर्य मंे पड़ जाता है और वह स्वयं की सुरक्षा हेतु भागना आरंभ कर देता है। इधर श्री हरि विष्णु मृग के खुर मंे अपने गदा को प्रभावित कर देते हैं जिससे खुर के चोट से हीं मृगासूर का अंत हो जाता है।
श्री हरि विष्णु ने अषीष को एक कथा सुनाते हुए कहा कि एक समय की बात है षिष्णासूर नामक एक असूर पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप करता है और पितामह श्री ब्रहा्राजी भी वरदान देते हुए षिष्णासूर से कहते हैं कि जिस अवधि में तुम तीनों अवस्थाओं (अपने पग पर, विश्राम अवस्था और शयन अवस्था) में से किसी एक अवस्था में रहोगे तब तुम्हारी मृत्यु धारित नहीं है लेकिन जब तुम निन्द्रा अवस्था मंे रहोगे तब तुम्हारी मृत्यु की संभावना प्रबल है। इतना कहकर पितामह श्री ब्रहा्राजी चले जाते हैं उसके बाद षिष्णासूर समस्त धरा पर एक आतंक का पर्याय बन जाता है। ऋषि - मुनि सहित मानव अथवा देव यहाँ तक की स्वर्गलोक में देवराज इन्द्र भी उससे अछुते नहीं रहते हैं। देवराज इन्द्र संग सभी देव वन में भटकने लगते हैं। षिष्णासूर को निन्द्रा अवस्था में कब पाया जाए सभी के मन में यही एक सवाल रहता था जबकि षिष्णासूर अपने निम्न स्वरूप में एक पुष्प की कोखली में पड़ा रहता था और अवसर देखकर ही देवों अथवा ऋषियों पर आतंक करता था। एक समय की बात है पितामह श्री ब्रहा्राजी और महर्षि नारद एक निष्चित अवस्था में भ्रमण करते हुए एक ही बात को दुहरा रहे थे कि किसी के महातम मंे कमी दिखे तो उसे महात्मा नहीं कहा जा सकता है। इस बात को सुनकर महर्षि नारद ने पितामह श्री ब्रहा्राजी से कहा कि अगर ऐसा है तो आप में भी किसी प्रकार का महातम नहीं हैं। पितामह श्री ब्रहा्राजी को आष्चर्य हुआ और उन्होंने ऐसे उत्तर को सुनकर पुनः महर्षि नारद से कहा कि अगर हमारे अंदर किसी प्रकार का दोष है तो आप हमंे कहें अथवा हमारे अंदर महातम शुन्य कैसे है। पितामह श्री ब्रहा्राजी के इस बात को सुन कर महर्षि नारद ने कहा कि आप ने हीं षिष्णासूर जैसे दैत्य को निन्द्रा अवस्था में मृत्यु का वरदान देकर उसे अमर कर दिया है भला कोई शूरवीर भला निन्द्रा अवस्था में किसी के उपर प्रहार कैसे कर सकता है। महर्षि नारद के इस वार्ता को सुन कर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने हँसते हुए कहा कि अगर कोई शयन कक्ष में निन्द्रावस्था में हो तो क्या उसकी मृत्यु निष्चित नहीं है अथवा नहीं होगी। ये कैसी सांेच है आप लोगों की? इस बात को सुनकर महर्षि नारद स्वयं को एक पहली में उलझा हुआ महसूस करते हैं और वहाँ से वापस त्रिलोक में भगवान षिवजी के पास चले आते हैं और पितामह श्री ब्रहा्राजी के द्वारा कहीं गयी बातों को दुहराते हैं। भगवान षिव भी उक्त बातों को सुनकर उलझन मंे पड़ जाते हैं तथा श्री हरि विष्णु को याद करते हैं। षिवलोक में श्री हरि विष्णु का आगमन होता है तथा वे उक्त बातों पर विचार करते हुए महर्षि नारद से कहते हैं कि भला निन्द्रा अवस्था में किसी को मृत्यु देना कौन सी विरता है? अगर पितामह ने ऐसा कहा है तो यह एक मिथ्या है अगर ऐसा है तो आप हीं उसका वध कर दें। इस बात को सुन कर माता सत्ययी ने महर्षि नारद को एक त्रिषुल देते हुए कहा कि महर्षि अब आप ही देवों का सहायक है, आप तो एक महर्षि है, आप अगर निन्द्रावस्था मंे किसी का वध करे तो आपके पराक्रम पर कोई लांझन नहीं आएगा और वैसे भी षिष्णासूर पनकी के पुष्प के कोखला में शयन करता है आप उसे एक किट समझ कर वध कर दें ताकि हम देवों का उद्धार हो जाए। माता सत्ययी की इस बात को सुन कर महर्षि नारद थोड़ा ब्याकूल होते हुए कहें कि एक महर्षि भला किसी प्राणी का प्राण हरण कैसे कर सकता है? तब श्री हरि विष्णु ने प्रतिउत्तर में कहा कि जब एक दैत्य अपने पराक्रम का उदाहरण किसी ऋषि-मुनि को दिखाए तो क्या एक महर्षि उसका वध नहीं कर सकता है? श्री हरि विष्णु के बातों को सूनकर महर्षि नारद को थोड़ा क्रोध आता है और वे माता सत्ययी के हाथ से त्रिषुल लेकर सीधा पनकी पुष्प के उसी कोखला के पास पहूँचते है जहा षिष्णासूर निन्द्रावस्था में रहता है। महर्षि नारद ने त्रिषुल के एक ही प्रहार से षिष्णासूर का उदर चीर देते है और त्रिषुल मंे षिष्णासूर के सुक्ष्म शरीर को लटकाए षिवलोक चले आते है जिसे देखकर सभी देव अथवा त्रिदेव महर्षि नारद की जय-जयकार लगाते हैं।
श्री हरि विष्णु अषीष को एक कथा सुनाते हुए कहा कि कंषनसूर और चंतनसूर नामक दो भाई थे, दोनो एक दूसरे से चिढ़ते थे। कंषनसूर जो कि एक असूर जाति का था परन्तु उसके भीतर देवत्व भरा हुआ था वहीं चंतनसूर पूर्णरूप से असूर ही था और वह देवों का विरोध करते हुए कदापि नहीं थकता था। चंतनसूर ने पितामह श्री ब्रहा्रजी का घोर तप किया और पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उसे वरदान देते हुए कहा कि जिस दिन तुम दोनों भाई आपस में मिलाप कर लोगे उसी दिन तुम्हारी मृत्यु होगी। पितामह श्री ब्रहा्राजी की उक्त वरदान को सुनकर चंतनसूर दुःखी हो गया और पितामह श्री ब्रहा्राजी से विनती पूर्वक कहा कि हे पितामह! ये कैसा वरदान आपने हमें दिया अगर मैं किसी कारण वष अपनी माता से मिलने जाता हूँ तो कंषनसूर से मेरी मिलाप होती है और अगर ऐसा होता है तो तत्काल हमारी मृत्यु हो जाएगी? चंतनसूर कि उक्त बातों को सुनकर पितामह ब्रहा्राजी ने कहा कि वत्स। हमने कोई साधारण मिलाप नहीं कहा है जिस दिन तुम दोनों भाई एक साथ एक थाल में भोजन करोगे, एक साथ शयन करोगे तब मिलाप का अर्थ होगा। इस बात को सुनकर चंतनसूर ने कहा कि किसी विपरीत परिस्थिति में हमें एक साथ भोजन करना पड़ा अथवा एक साथ शयन करना पड़ा तो क्या हमारी मृत्यु हो जाएगी। इस बात को सुनकर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा कि, ठीक है मैं तुम्हे वरदान देता हूँ कि जिस दिन तुम उदर को नीचे करके शयन करोगे उसी क्षण तुम्हारी मृत्यु होगी। चंतनसूर पितामह श्री ब्रहा्राजी के उक्त वरदान को सुनकर चिंता में पड़ जाता है तथा पुनः दुहराता है कि आप तो हमारे निन्द्रा में ही परेषानी दे रहे हैं अथवा मैं निष्चिंत होकर शयन भी नहीं कर सकता हूँ। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने थोड़ा विचार करते हुए कहा कि अगर तुम्हे तुम्हारे उच्चारण के अनुसार वरदान दिया जाए तो कैसा होगा? बस तुम्हे अमरता नहीं मिलेगी। पितामह श्री ब्रहा्राजी के उक्त बातों को सुनकर चंतनसूर बहुत खुष होता है और विनती करता है कि हे पितामह! हमारी मृत्यु, कंषनसूर के मृत्यु उपरान्त हो। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उक्त वरदान देकर पुनः चले गये। इधर चंतनसूर थोड़ा विनम्र परिस्थिति में आकर अपनी माता से कहा कि हे माते! कंशनसूर पर तनिक ध्यान देना, उसे कहीं इधर-उधर भटकने मत देना और शेष मैं स्वयं निपट लूँगा। चंतनसूर के इस दुर्बल भाषा को सुनकर उसकी माता ने आष्चर्य करते हुए कहा कि आज तुम कंषनसूर के प्रति इतनी उदारता क्यांे दिखा रहे हो आज हीं मैंने उसे दैत्यों के सभा में भेज दिया है। अपनी माता के उक्त बातों को सूनकर चंतनसूर तनिक परेषान हुआ और उसके बाद वह कंषनसूर से मिलकर बात करता है और कहता है कि आप से तुम हमारे प्राणप्रिय हो और आज हीं से मैं तुम्हे सुरक्षा दुँगा। चंतनसूर के उक्त बातों को सूनकर कंषनसूर को बड़ा अजीब सा लगा और एक प्रष्नात्मक ढंग से पुछा कि ‘‘आज, तुम हमारी सुरक्षा की बात क्यों कर रहे हो, इससे पहले तो तुम ही मुझे देवों से मिलने से रोकते थे। कंषनसूर के इस बात को सून कर चंतनसूर आपत्ति भरे शब्दों में कहा कि आज भी मैं तुम्हें देवांे से मिलने से रोकुँगा, लेकिन मैं तुम्हारी सुरक्षा भी करूँगा। इस बात को सुनकर कंषनसूर ने तनिक भी देर नहीं किया और अपना एक खड़ग से अपने ही हथेली पर प्रहार करते हुए कहा कि जिस दिन मैं तुमसे अपना हस्त मिलाप करूँगा उसी दिन अपना हस्त को बलि की भाँति तुम्हे प्रदान करूँगा और आज मैं यही कर रहा हूँ और कंषनसूर के द्वारा खड़ग से अपने ही हथेली पर प्रहार करते हीं चंतनसूर के हथेली कट जाते हैं। जिसे देखकर कंषनसूर को आष्चर्य हुआ और वह बैर की भावना में आकर स्वयं पर ही खड़ग से प्रहार करता है जिससे चंतनसूर भी घायल हो जाता है और अंततः कंषनसूर अपने उदर पर ही एक भरपूर प्रहार करता है जिससे कंषनसूर की वहीं मृत्यु हो जाती है और उधर चंतनसूर भी लूढक जाता है।
अशीष को एक कथा सूनाते हुए श्री हरि विष्णु ने कहा कि एक समय की बात है कि पितामह श्री ब्रहा्राजी ने एक आसूरी शक्ति तृष्णासूर को वरदान देते हुए कहा कि जिस समय तुम चाहोगे उसी समय तुम्हारी मृत्यु होगी अर्थात इसका अर्थ ये नहीं है कि तुम अमर हो। इतना कह कर पितामह श्री ब्रहा्राजी चले गये। तृष्णासूर पितामह श्री ब्रह्रााजी से प्राप्त उक्त वरदान से बहुत खुष होता है और समस्त धरा पर विनाष लीला शुरू कर देता है, मानव, ऋषि-मुनि संग देव और देवराज इन्द्र भी त्रस्त हो जाते है। वे बार बार- कभी षिवलोक तो कभी बेैकुण्ठ लोक भ्रमण करते है और हर तरफ से एक ही उत्तर मिलता है कि तृष्णासूर को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त है अर्थात वह अपनी इच्छा से हीं मरेगा। समस्म गगन, समस्त जल, और समस्त धरा असूरमय हो जाता है। यहाँ तक कि षिवलोक पर भी असूर ही षिवगण बना दिया जाते हैं। माता सत्ययी भी स्वयं को असूरो के मध्य अवस्थित पाकर स्वयं पर तरस खाती थी। श्री हरि विष्णु के शेषासन पर माता लक्ष्मी की जगह एक दैत्या विराजमान होती थी और वही भी अपने परमत्व को निहारते हुए स्वयं को स्वामी कहती थी और श्री हरि विष्णु के जगह महाराज जटायु उस दैत्य के पैर दबाते थे। समस्त दिषाओं मंे उत्पात मचा हुआ था। महर्षि नारद जो कि एक उच्चारण मात्र रह गये थे उन्हें भी देव लोक को छोड़ना पड़ा था और असूर लोक में ही एक जगह से दूसरे जगह संदेष पहूँचाते थे। ऐसी परिस्थिति को देखते हुए पितामह श्री ब्रहा्रजी ने हँसते हुए श्री हरि विष्णु से कहा (जो कहीं वन में ही माता लक्ष्मी संग विचरण कर रहे थे) कि अगर आप में किसी प्रकार का परमत्व है तो आप तृष्णासूर का अंत कर दें और अपनी परमत्व की पराकाष्ठा पुनः दिखाई। पितामह श्री ब्रहा्राजी के उक्त बातांे को सुनकर श्री हरि विष्णु मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा कि जिस दिन आप पितामह श्री ब्रहा्राजी किसी मानवों की भाँति इसी धरा पर भ्रमण करते नजर आऐंगे उसी दिन मैं तृष्णासूर का वध इसी सुदर्षन से करूँगा और परमत्व? तो परमत्वविहीन तो आप है जो ऐसे -ऐसे दैत्यों को वरदानित कर सभी देवों के जीवन में उत्पात मचा रखे है, श्री हरि विष्णु की बातों को सून कर पितामह श्री ब्रहा्राजी वापस चले जाते है। एक समय की बात है तृष्णासूर पितामह श्री ब्रहा्राजी की खोज मंे भटकते हुए षिवलोक के आस-पास ही भ्रमण करता है और पितामह श्री ब्रहा्राजी भी उसकी आवाज को सुनकर उसकी ओर ही भ्रमण करते हैं, जब तृष्णासूर पितामह श्री ब्रहा्राजी से मिला तो उसका बस एक ही उच्चारण था कि हमंे आप अपना ब्रहा्रलोक का दर्षन करवाये, क्यों कि हमने अपने जीवन में बहुत कुछ देखा और पाया है बस यही एक लालसा शेष रह गया। तृष्णासूर के इस बात को सुनकर पितामह श्री ब्रहा्राजी बहुत खुष हुए और तृष्णासूर को अपने ब्रहा्रलोक की ओर ले गए जहाँ माता सरस्वती शयन कक्ष में विश्राम कर रही थी। पितामह श्री ब्रहा्राजी के लोक में एक सुन्दर नारी को देखकर तृष्णासूर को नहीं रहा गया और पुनः वह पितामह श्री ब्रहा्राजी से कहा कि, हे पितामह! अगर आप इस नारी का दायित्व हमें सौंप दे तो मैं स्वयं को सम्पन्न समझुँगा और पुनः इस लोक की ओर प्रस्थान नहीं करूँगा, तृष्णासूर के उक्त बातों को सुनकर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने क्रोधपूर्वक तृष्णासूर को श्राप देते हुए कहा कि जिस दिन तुम्हें मृत्यु की एक झलक दिखाई देगी उसी दिन तुम्हारी मृत्यु होगी। तृष्णासूर पितामह श्री ब्रहा्राजी के उक्त बातों को सुन कर मौन हो गया और पुनः श्री हरि विष्ण के स्वरूप में आ गया। पितामह श्री ब्रहा्राजी अचंभित थे और उसी क्रोध के मुद्रा में पूछा कि तुम तृष्णासूर देवों की भाँति अपना परमत्व दिखा रहे हो, जाओं मैं तुम्हे श्राप देता हूँ कि यही देव स्वरूप तुम्हारे मृत्यु का कारण बनेगा। पितामह श्री ब्रहा्राजी के उक्त बातों को सुनकर श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि पितामह! यहाँ मैं स्वयं उपस्थित हुँ और आपने तो तृष्णासूर को दो-दो श्राप दे रखा है अब आप ही बताएँ उसे किस श्राप से मृत्यु होगी। श्री हरि विष्णु के इस लीला को देखकर पितामह श्री ब्रहा्राजी दुःखी हो गये और कहा कि, हे श्री हरि विष्णु! आप में परमत्व है आप ही इस संसार के पालनहार है चुकि अभी मैं आपके परमत्व के आगे अनुज सिद्ध हुआ हूँ तो आप स्वयं तृष्णासूर का वध करें। पितामह श्री ब्रहा्राजी के उच्चारण को स्वीकार कर वे पुनः दैत्यझुंड के मध्य भ्रमण कर रहे तृष्णासूर को युद्ध के लिए प्रेरित करते हैंे और एक घमासान युद्ध के बाद श्री हरि विष्णु अपने सुदर्षन से तृष्णासूर का वध कर देते हैं।
अषीष को श्री हरि विष्णु एक कथा सुनाते हुए कहा कि एक समय की बात है पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कष्वासूर को वदान देते हुए कहा कि जिस समय तुम अपने अस्तीत्व के बारे में विचार करोगे तथा उसी क्षण कोई तुम्हें बाधा देगा तो उससे जो अवस्था उत्पन्न होगी और उसी क्षण अगर कोई तुम्हें बिना रूके किसी के प्रति ठेस पहूँचाए और उस ठेस के कारण अगर तुमने अपने परमत्व का उपयोग किये बगैर उसे पराजित किया तो तुम्हारी यही तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगी। पितामह श्री ब्रहा्राजी द्वारा प्राप्त उक्त वरदान से खुष होकर कष्वासूर पुन अपने लोक की ओर प्रस्थान कर गया। अपने लोक में पहूँचकर कष्वासूर अपने ही उदर में उपस्थित अतीत की बातों में खो जाता है कि किस प्रकार उसे प्रताड़ित कर उसे उसके पिता के द्वारा उसकी बातों को खण्डित कर उसे पितामह श्री ब्रहा्राजी का तपस्या करने को कहा गया और जब आज उसके पास पितामह श्री ब्रहा्राजी का वरदान है तो उसके पिता किसी और लोक में प्रस्थान कर गये है अर्थात अपनी मृत्यु को प्राप्त कर चुके है। अतीत से बाहर आने के बाद उसने अपने एक सखा कृतष्चासूर से मिलाप किया और पितामह श्री ब्रहा्राजी द्वारा प्राप्त वरदान की बातों को बताया। कृतष्चासूर भी काफी खुष होते हुए कहा कि अब तो तुम्हें त्रिलोक, स्वर्गलोक और धरा पर कोई भी पराजित नहीं कर सकता है। खुषी का अट्ठाहस लगाते हुए कष्वासूर अपने सखा कृतष्चासूर से गले मिलता है और पुनः कृतष्चासूर के कहे अनुसार सम्र्पूण धरातल, त्रिलोक और स्वर्गलोक पर अधिकार कर लेता है। समस्त जगत के स्वामी पितामह श्री ब्रहा्राजी भी कहीं और प्रस्थान कर जाते हैं कारण यह था कि कष्वासूर यह नहीं चाहता था कि इस ब्रहा्राण्ड में देव अथवा त्रिदेव अथवा असूरदेव नाम का कोई जीव निवास करे। यही कारण था कि पितामह श्री ब्रहा्राजी को भी अपने लोक को छोड़ कर कहीं और निवास करना पड़ा। समय बीतता जा रहा था, चुकि समस्त धरा, वायु और जल पर कष्वासूर का एकाधिकार हो गया था। धरा पर से ऋषियों का तो चिन्ह् ही नहीं रहा था। सभी की हालत बद से बद्दतर हो गयी। एक समय की बात है कष्वासूर ने एकांतचित होकर किसी कारणवष अपने विवेक पर जोर डाला जिससे उसे पता चला कि अभी तक उसने कुछ प्राप्त नहीं किया है उसे तो असूर देव (पितामह श्री ब्रहा्रजी) की भाँति अन्य असूरो का वरदानित करना है तभी उसका परम मित्र कृतष्चासूर का आगमन होता है और वह अचानक ही वर्तमान में पहूँच जाता है। इस विघ्नता को देखकर कष्वासूर बहुत क्रोधित होता है और अपने परमत्व में आकर अपने ही राजमहल के एक सेनापति से कहता है कि इसे अभी तुरन्त फँासी पर चढ़ा दो और कृतष्चासूर के मृत्यु के बाद पुनः कष्वासूर की मृत्यु हो जाती है और इस प्रकार असूरो से व्याप्त समस्त संसार एक धूँध की भाँति असूर विहिन हो जाता है और सभी अपने अपने लोक मंे पुनः स्थापित हो जाते हैं।
अषीष को श्री हरि विष्णु ने एक कथा सुनाते हुए का कि एक समय की बात है किष्चासूर नामक एक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप किया और पितामह श्री ब्रहा्राजी ने भी वरदान देते हुए कहा कि अगर तुम किसी भी प्राणि, देव, त्रिदेव और धरा पर उपस्थित किसी भी प्राणी का हनन अथवा प्रताड़ित करते हो तो तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी वहीं तुम किसी प्रकार से उनका प्राण हानि करते हो अथवा उसे मृत्यु देते हो तो उसी क्षण किसी अन्य देव और त्रिदेवो में से किए एक देव हाथों तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। इस वरदान को सुन कर किष्चासूर ने पितामह श्री ब्रहा्राजी से कहा कि मैं असूर जाति भला किसी प्राणी को इस प्रकार कैसे प्रताड़ित करूँगा ताकि उसकी मृत्यु न हो। हमें किसी और प्रकार से वरदानित करें। किष्चासूर के इस बात को सूनकर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा कि अगर तुम्हें इसी प्रकार से वरदानित करें तो क्या गलत है? पितामह श्री ब्रहा्राजी के उक्त बातों को सूनकर किष्चासूर तनिक नहीं घबराया और उसी वरदान को प्राप्त कर अपने लोक की ओर प्रस्थान कर गया। चुकि किष्चासूर पितामह श्री ब्रहा्राजी के द्वारा प्राप्त वरदान को भली भाँति समझता था और उन्हीं के वरदान अनुसार वह प्राणियों को प्रताड़ित करता था तथा उसे किसी अन्य असूर के हाथों प्राण हानि करवाता था। किष्चासूर के इस कृत को देखकर श्री हरि विष्णु लज्जित होते हुए कहा कि जिस प्रकार किष्चासूर अपने वरदान का उपयोग कर रहा है हमें नहीं लगता कि इस प्रकार धरा लोक अथवा त्रिलोक कोई भी जीवित रह पायेगा। श्री हरि विष्णु के इस बात को सुन कर माता लक्ष्मी हँसते हुए बोलीं कि प्रभु! जब आप ही इस प्रकार से स्वयं को प्रताड़ित समझते हैं तो जीवन की इच्छा किसे होगी? उसके बाद श्री हरि विष्णु उक्त बातों को लेकर भगवान षिव की ओर प्रस्थान करते हैं और उक्त बातों को दुहराते हैं। ऐसी बातों को सुनकर भगवान षिव थोड़ा द्रवित होते है और कहते है कि अगर आप चाहें अथवा आप सक्षम हैं तो किष्चासूर को किसी प्रकार मृत्यु प्राप्त करवायें। इस बात को सुनकर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने दोनों देवों को सावधान करते हुए कहा कि अगर किष्चासूर के परमत्व में दोष नहीं है और आप सब उसका वध करना चाहें तो याद रखे एक देवासूर संग्राम होगा जिसमंे सारा ब्रहा्राण्ड देव विहिन हो जाएगा और समस्त संसार में असूर ही होंगे। पितामह श्री ब्रहा्राजी के इस उच्चारण से श्री हरि विष्णु ने पितामह श्री ब्रहा्राजी से क्षमा माँगा और कहा कि हे पितामह! जिस प्रकार किष्चासूर सभी देव अथवा ऋषियों को प्रताड़ित कर उसे मृत्यु दे रहा है उससे क्या लगता है कि समस्त संसार मंे देव उपस्थित रहेंगे? पितामह श्री ब्रहा्राजी श्री हरि विष्णु के उक्त बातों को ध्यान से सुनते है और पुनः ‘‘यथास्तु’’ कहकर वापस चले जाते हैं। भगवान षिव इस यथास्तु का अर्थ समझ नहीं पाते हैं और पुनः श्री हरि विष्णु से प्रष्न करते हैं कि आखिर पितामह ने ‘‘यथास्तु’’ क्यों कहा। इस बात के जबाव में श्री हरि विष्णु ने हँसते हुए कहा कि पितमाह ने हमें ‘‘यथास्तु’’ कहकर ये अधिकार दिया है कि आप जिस विधान से चाहे किष्चासूर का वध कर सकते हैं। तत्पष्चात भगवान षिव अपने त्रिषुल संग किष्चासुर के समक्ष प्रकट होते हैं और कुछ क्षण उठा पटक होने के बाद भगवान षिव अपने त्रिषुल से किष्चासूर का वध कर देते हैं।
अषीष को श्री हरि विष्णु ने एक कथा सुनाते हुए कहा कि एक समय की बात है देवत्रसूर ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप किया और पितामह श्री ब्रहा्राजी ने भी उसे वरदान देते हुए कहा कि अगर तुम किसी के परमत्व को ठोकर मारते हो अथवा किसी भी देव, मानव, ऋषि अथवा गंधर्व पर किसी प्रकार का मिथ्या निरादर करते हो तो वैसी स्थिति में तुम्हारी मृत्यु होगी। पितामह श्री ब्रहा्राजी के उक्त कथन को सुनकर देवत्रसूर बहुत प्रसन्न होता है और पितामह श्री ब्रहा्राजी भी उसे वरदानित कर चले जाते हैं। देवत्रसूर बहुत ही कठोर असूर था वह देव और ऋषियों में कोई अन्तर नहीं समझता था और दोनों को एक ही प्रकार तुला में लाकर उन लोगों का प्राण हानि करता था, इस प्रकार समस्त संसार के अधिकतर गंधर्व मारे जाते हैं और अप्सराओं का हनन होता है। समय बीतता जाता है स्वयं श्री हरि विष्णु भी स्वयं का निरादर करवाने के लिए भाँति प्रकार के स्वरूप को अपनाया लेकिन सब व्यर्थ था। एक समय की बात है श्री हरि विष्णु ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का स्वरूप अपनाया और देवत्रसूर के समक्ष उपस्थित होकर उससे एक ही बात कही, जिस प्रकार आप देवत्र और असूर है ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि आप में देवत्र भी है; आप तो आसूरी शक्तियों से परिपूर्ण हैं। पितामह श्री ब्रहा्राजी के स्वरूप वाले श्री हरि विष्णु से देवत्रसूर ने विनम्रता से कहा कि हमारा नाम देवत्र है अर्थात देव; न अत्र न तत्र, सूर अर्थात न सूर और न ऋषि; शेष शब्द असूर है तो मैं सिफ और सिर्फ असूरराज ही हूँ। इस प्रकार के उत्तर सुनकर श्री हरि विष्णु वापस अपने लोक की ओर प्रस्थान कर जाते हैं और पुनः भगवान षिव से सम्पर्क करके कहते है कि देवत्रसूर ने तो असूर होने का प्रमाण दिया है और जिस प्रकार एक असूर किसी अन्य देव को अपने उपर प्रभावित नही होने देते है उसी प्रकार उसने मुझे अर्थात पितामह श्री ब्रहा्राजी को भी प्रभावित नहीं होने दिया है। श्री हरि विष्णु के उक्त बातों को सुनकर भगवान षिव ने कहा कि अगर आप में क्षमता है तो अपने नेत्र प्रहार से स्वयं विचार करें कि इस दुर्बल स्थिति में हमें कुछ उच्चारण करने का अधिकार भी है या नहीं। भगवान षिव के इस प्रकार के दुर्बल भावना से प्रेरित होकर श्री हरि विष्णु ने अपने हीं नेत्र से स्वयं पर प्रहार किया जिससे एक स्वरूप की उत्पत्ति होती है जिसे पौढ़ावस्था कहा जाता है। श्री हरि विष्णु उसी अवस्था में स्वयं को खड़ा किया और देवत्रसूर के समक्ष उपस्थित हो गये। देवत्रसूर उस पौढ़ावस्था वाले मानव के देखकर कर पहले तो अट्ठाहस लगा कर हँसा और फिर उच्चारण किया कि इस मृत मानव को हमारे महल तक आने के लिए किसने प्रेरित किया। इस बात को सुनकर सभी आष्चर्य करने लगे। लेकि उक्त प्राणी ने अपनी दुर्बल स्थिति से अवगत कराते हुए कहा कि हे असूरराज! हमने ने सुना है कि आप बड़े ही र्निदयालु है और आपके समक्ष हर किसी की मृत्य आने में देर नही करती है। सोंचा मैं भी स्वयं को आपके दरबार में ही मुक्त कर लूँ। पौढ अवस्था वाले मानव की उक्त कथन को सुनकर देवत्रसूर से रहा नहीं गया और इस प्रकार अपने पैर से प्रहार किया कि श्री हरि विष्णु ने कल्पना भी नहीं की होगी और वे दुरस्थ मुख्य दरबान के पैरों पर गिर पड़े। अपनी इस अवस्था से स्वयं को संभालते हुए श्री हरि विष्णु ने स्वयं का स्वरूप दिखाया और वहीं देवत्रसूर को अपने सुदर्षन से मृत्यु दे दिया और इस प्रकार देवत्रसूर का भी अंत हो जाता है।
श्री हरि विष्णु अषीष को एक कथा सुनाते हुए कहा कि एक समय की बात है षिंचासूर नामक एक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप किया और पितामह श्री ब्रहा्राजी ने भी उसे वरदान देते हुए कहा कि समय और अवतार तुम्हारे मृत्यु का कारण बनेगा अर्थात तुम उस समय को मत लाना जब तुम निषस्त्र हो और किसी त्रिदेव का सामना हो, तुम इन दो चीजो से बचकर रहना तभी तुम्हारा जीवन संभव है। इतना कहकर पितामह श्री ब्रहा्राजी चले गये। षिंचासूर वरदान प्राप्त कर पुनः पितामह से आग्रह किया कि ये कैसा वरदान दिया हैं पितामह! परमत्व में होने के कारण त्रिदेव तो बहुत आसानी से हमारी मृत्यु का कारण बन सकते हैं। पितामह श्री ब्रहा्राजी ने षिंचासूर के बातों को सुनकर हँसते हुए बोले कि अगर तुम सषक्त त्रिदेव से सामना करोगे तो हीं वे तुम्हारा कुछ प्राण हानि करेंगे और अगर तुम्हारी सामना निषक्त स्वरूप में त्रिदेव से होती है तो त्रिदेव निषक्तों पर प्रहार नहीं करते हैं और तुम दीर्घायु होगे। उक्त वरदान को समझ कर षिंचासूर पुनः अपने लोक कि ओर प्रस्थान कर गया और अपने परमत्व के बल पर मानव, ऋषि, देव और सभी प्रकार के लोको पर अपना अधिकार कर लिया सभी लोकों में असूर ही मौजूद थे और ये सारे कार्य वह निषक्त रह कर ही किया। देवों की इस दुर्बलता को देखकर श्री हरि विष्णु समझ गए कि इस प्रकार समस्त लोक, समस्त धरा पर असूरों का राज स्थापित हो जाएगा। हमंे कुछ और भी सोंचना पड़ेगा। इस समस्या को लेकर श्री हरि विष्णु भगवन षिव के पास चले गये जहाँ माता सत्ययी भी असूरो संग उपस्थित थी। लेकिन श्री हरि विष्णु का आगमन देखकर वे असूरों से कुछ अलग हो गयी तथा श्री हरि विष्णु से एकांत में वार्ता करते हुए कहती है कि भगवान षिव तो बहुत लाभूक हो रहे है, वे असूरो से निरन्तर अपनी सेवा करवाते है सिर्फ ये कहकर कि षिंचासूर के परमत्व को कोई कुछ नहीं हानि करेगा बस वह इस लोक में निषस्त्र ही आया करें और इस प्रकार मैं षिंचासूर का वध भी नहीं कर पा रहीं हूँ। माता सत्ययी के इस वार्ता को सुनकर श्री हरि विष्णु ने कुछ विचारते हुए कहा कि अगर आप षिंचासूर के परमत्व में दोष लाना चाहती है तो आप स्वयं को मौन रखे और भगवान षिव को अपने परमत्व में आने कि प्रतीक्षा करें। श्री हरि विष्णु के बातों को माता सत्ययी समझ गई और उस समय से मौन धारण कर लिया। वे भगवान षिव के समक्ष भी कुछ वार्तालाप नहीं करती थी। एक समय की बात है भगवान षिव ने माता सत्ययी से कहा कि आज आपने हमंे भाँग का घोल नहीं पिलाया और इस बात का जबाव माता सत्ययी ने इषारे में हीं कहा ‘‘गलती हो गई’’ माता सत्ययी के इस अवस्था को देखकर भगवान षिव चिंतित हो गए और उन्हंे इस अवस्था में लाने वाले का नाम पूछा लेकिन माता सत्ययी इस बात का भी जबाव मौन धारण करके हीं दिया और मिथ्या अश्रु की धार बहाने लगी तब भगवान षिव ने झट से अपना त्रिषुल उठाया और षिवलोक में उपस्थित सभी असूरों का नाष कर दिया। इधर षिंचासूर षिवलोक पर असूरो की हालत को देखकर क्रोधित हो जाता है और शस्त्र षिवलोक पर आगमन करता है। षिंचासूर के इस परमत्व को देखकर श्री हरि विष्णु खुष होते है वहीं माता सत्ययी भी षिंचासूर के साथ युद्ध करने के लिए तैयार थी। शक्ति स्वरूप माता दुर्गा और षिंचासूर के मध्य भयंकर युद्ध होता है और अंत में माता दुर्गा के त्रिषुल के प्रहार से षिंचासूर का वध हो जाता है और सभी देवों में खुषी की लहर दौड़ जाती है।
एक समय की बात है शुभंगासूर नामक एक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का तप किया और पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उसे वरदान स्वरूप कहा कि जिस समय सूर्य अस्त के बाद उभय बेला में उपस्थित होकर तुम किसी का प्राण हानि करोगे तो तुम्हारी मृत्यु निष्चित है। उक्त वरदान को प्राप्त करके शुभंगासूर स्वयं को अमर समझने लगा ओर विषयगत बेला को छोड़कर सभी समय में समस्त असूरों के संग स्वर्गलोक, षिवलोक, बैकुण्ठ लोक तक पर अपना अधिकार कर लिया। कहा जाता है कि एक समय श्री हरि विष्णु अपने शेषासन पर विराजमान थ तो एक युद्ध करके शुभंगासूर, श्री हरि विष्णु को जलसागर से प्रस्थान करने के लिए मजबूर कर दिया था। षिवलोक की भी वही हालत थी, माता सत्ययी सूर्यास्त के पश्चात उभय बेला में ही भ्रमण करती थी और उसी दौरान षिवलोक, समस्त षिवगणों से रिक्त रहता था, चुकि सभी अपने-अपने भ्रमण क्षेत्र मंे चले जाते थे। सिर्फ भगवान षिव ही एक थे जो अपने तपस्या मंे लीन रहते थे। उसी समय शुभंगासूर का आगमन होता है लेकिन भगवान षिव उसका कुछ नहीं करते हैं बल्कि षिवलोक का अनुषासन शुभंगासूर को प्रदान कर देते हैं और कहते हैं कि हमारा षिवलोक अब आपहीं के अनुसार चलेगा। माता सत्ययी के वापस आने पर षिवगण सहित षिवलोक में सभी लोग आष्चर्य कर रहे थे, सभी जगह दैत्यों का निवास ही नजर आ रहा था। भगवान षिव से माता सत्ययी द्वारा पूछे जाने पर भगवान षिव एक ही उत्तर देते थे ‘‘संध्या पहर में उभय बेला में’’। इस बात का अर्थ माता सत्ययी ने सभी षिवगणों से पूछा मानों यह एक पहेली हो लेकिन किसी ने उत्तर नहीं दिया बल्कि सभी उलझ कर रह गए। उक्त प्रष्न को लकर माता सत्ययी, माता सरस्वती के समक्ष उपस्थित होती हैं। माता सरस्वती, माता सत्ययी को सारे वृतांत से अवगत करवाती हैं और कहती है कि पितामह श्री ब्रहा्राजी के कथनानूसार शुभंगासूर का अंत सूर्यास्त के उपरान्त उभय बेला में ही संभव है लेकिन शुभंगासूर उभय बेला में स्वयं को नारियों के मध्य स्वांगीत रखता है। इस वार्तालाप को सूनकर माता सत्ययी भी आष्चर्य मंे पड़ जाती है, क्योंकि किसी असूर के साथ स्वांग रचना उनके सतित्व को हानि पहूँचाना था। इस बात को ध्यान में रखकर माता सत्ययी अपने एक स्वरूप कालकृत का अह्वान करती है और उसे शुभंगासूर के साथ स्वांग रचने के लिए प्रस्थान करने को कहती हैं तथा स्वयं को कालकृत माता के उदर में स्थापित कर देती हैं। समय के साथ कालकृत माता अपने दैत्यिक स्वरूप मंे शुभंगासूर के राजमहल में उपस्थित होती हैं तथा राजमहल के अन्य दैत्य नारियांे से मिलन करके शुभंगासूर के शयन कक्ष तक पहूँच जाती हैं तथा उचित समय पर शुभंगासूर का आगमन होता है और दैत्य नारियों संग स्वांग रचने मंे लिप्त हो जाता है। माता कालकृत शुभंगासूर के बाल सहलाने का कार्य करती है लेकिन शुभंगासूर को ऐसा प्रतीत होता हे कि मानो उसके बाल को खिंचा जा रहा है। ऐसी प्रतिक्रिया को देखकर शुभंगासूर क्रोधित हो जाता है और माता कालकृत पर क्रोधपूर्वक प्रहार करता है। इसके प्रतिउत्तर में माता कालकृत शुभंगासूर का विरोध करती है इधर उचित संध्या पहर का उभय बेला देखकर माता सत्ययी; कालकृत माता के उदर से दुर्गा स्वरूप मंे प्रकट होती है और अपने सुदर्षन से शुभंतरासूर का अंत कर देती हैं।
एक समय की बात है, शुभंसासूर नामक एक दैत्य ने पितामह श्री ब्रहा्राजी का घोर तप किया और पितामह श्री ब्रहा्राजी ने उसे वरदान देते हुए कहा कि जिस समय सूर्य की किरणे धरा पर आएँगे उसके उभय बेला में तुम्हारी मृत्यु निष्चित है। इस प्रकार शुभंषासूर भी प्रातः काल के उभय बेला को छोड़कर अन्य समय में त्रिदेव, देव से युद्ध करके समस्त लोकों पर अधिकार कर लेता है। सारे देव, त्रिदेव लोक विहिन हो जाते हैं, श्री हरि विष्णु माता लक्ष्मी संग शेषनाग के लोक में विस्थापित हो जाते हैं। वही भगवान षिव भी अनन्त काल तक स्वयं को षिवलोक से विलिन रखते हैं। देवराज इन्द्र सहित अन्य देव भी वन में भटकने पर विवष हो जाते हैं माता सत्ययी भी माता सरस्वती संग उनके आवास पर चली जाती हैं। सभी के चेहरे पर एक ही प्रष्न था कि प्रातःकाल के उभय बेला में कौन युद्ध करेगा। क्या विपक्षी स्वयं को इस प्रकार तत्परता दिखाएगा। इधर शुभंषासूर भी प्रातः काल के उभय बेला में स्वयं को शयन कक्ष मंे ही रखता था। इस प्रकार काफी समय व्यतीत हो जाता है। समस्त जगत में असूरों का हाहाकार रहता है। धरती ऋषि-मुनि विहिन हो जाती है। श्री हरि विष्णु धरा के इस अवस्था को देखकर विचलित हो जाते हैं और पितामह श्री ब्रहा्राजी से मिलकर एक ही व्याख्यान करते हैं कि अगर शुभंषासूर प्रातःकाल के उभय बेला में स्वयं को युद्ध के लिए तत्पर करता है तो अभी से मैं स्वयं को षिवलोक में और भोलेनाथ को बैकुण्ठ लोक का स्वामी समझुँगा।
श्री हरि विष्णु के इस वार्ता को सुनकर पितामह श्री ब्रहा्राजी ने कहा कि अगर ऐसा है तो मैं भी सूर्य को विपरित दिषा से परिक्रमा करने को कहूँगा और श्री हरि विष्णु ऐसा ही करते हैं। पितामह श्री ब्रहा्राी भी सूर्य की परिक्रमा को विपरित कर देते हैं और इस प्रकार संध्या बेला; प्रातः बेला हो जाता है और प्रातः बेला; संध्या बेला हो जाता है। शुभंषासूर को इस बात को तनिक पता नहीं चलता है और वह संध्या बेला रूपी प्रातः काल के उभय बेला में ही भ्रमण करने निकल जाता है। इस प्रकार शुभंषासूर का सामना श्री हरि विष्णु से होता है और एक भिषण युद्ध के बाद श्री हरि विष्णु शुभंषासूर का वध कर देते हैं।
तब अशीष कहता है कि इस कलयुग के समाप्ति के बाद कौन सा युग आएगा। तब स्वयं ब्रहा्राजी कहते है कि कलयुग समाप्त हो चुका है। चुँकि श्री हरि विष्णु जगत के पालनहार है इसलिए वे इस जगत में उपस्थित समस्त जीवों की मृत्यु की जिम्मेवारी नहीं लेंगे, इसलिए यह युग भविष्य में महायुग में बदल जाएगा जिसे श्री हरि विष्णु का युग भी कह सकते हैं। इस युग में सारे युगों का गुण-धर्म होगा जो बीत चुका है और महायुग का अंत हीं देवयुग की शुरूआत होगी।